वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 19
From जैनकोष
मादु-णिदु-पुत्त-मित्तं कलत्त-धणधण्ण-वत्थु-वाहणं-विहवं।
संसारसारसोक्खं सव्वं जाणउ सुपत्तदाणफलं।।19।।
मनुष्य भवलाभ पाकर धर्मप्रसाद करने पर दुर्भवों की सुगमता―संसार में जो-जो भी समागम सुख के साधन माने जाते हैं वे सुख के साधन मिलते हैं वह सुपात्रदान का फल है। संसार को देखो कितनी तरह के जीव नहर आते हैं। तिर्यंच-पंचेंद्रिय में कुत्ता, बिल्ली, चूहा, गधा, सूअर आदि ये सब अपने गाँव में दिखते ही हैं। और फिर चार इंद्रिय में देखो मक्खी, मच्छर आदिक, तीन इंद्रिक में चींटा चींटी आदिक दो इंद्रिय की तो बरसात में जमीन पर बहुतायत होती है और एकेंद्रिय जीवों की तो सब जगह भरमार ही है। कितने ही तरह के जीव संसार में जो दिख रहे हैं वह सब क्या है? खोटे भावों का ही तो फल है। मनुष्यों की कितनी संख्या है, संसार के अन्य जीवों की तुलना करके देख लो, मनुष्य होना कितने विशेष पुण्य का फल है। इसको लोग महानता और आदर नहीं देते चित्त में और यों ही अपना जीवन व्यर्थ खो देते हैं। उन्हें अपने आत्मा पर दया नहीं उमड़ी है इसलिए धर्म के मार्ग से उपेक्षा रखा करते हैं। किंतु यह मनुष्य भव बारबार मिलने का नहीं है। मिल गया किसी विशेष पुण्य के प्रताप से, पर करतूत ठीक नहीं है तो यह आशा नहीं की जा सकती कि यह अगले भव में फिर मनुष्य होगा। संसार में जो एकेंद्रिय दो इंद्रिय आदिक इतने जीव नजर आ रहे हैं इनमें ही किसी गति में पहुँच जायगा। पाया है यह मनुष्य जन्म तो केवल इतना ही उद्देश्य बनाकर रहना कि हमारे परिवार के लोग सुखी रहें, धन वैभव का खूब अर्जन करते रहें, इतना सा उद्देश्य रखने से कुछ लाभ न होगा। मरना तो सबको पड़ता है। धर्म भाव में रुचि जगे, मुझे तो आगे भी इस भगवान ब्रह्म की दृष्टि बनी रहे, वह उपाय बनाना है। लौकिक सुखसाधनों के लाभ का कारण सुपात्रदान―इस गाथा में बतला रहे हैं कि लौकिक हिसाब से जो सुख माना जाता है वह सुख भी पात्रदान का ही फल है। क्या-क्या सुख मानते हैं लोग? अच्छे माता, पिता, पुत्रादिक मिल जायें। देखिये माता पिता के सामने बच्चे निर्भार रहते हैं तो वह उन बच्चों का भाग्य है जो एक योग्य माता पिता मिले। माता पिता अपने पुत्रों को योग्य देखना चाहते जो धर्म में चित्त लगाते हों, आज्ञा मानते हों। यदि ऐसे पुत्र मिल जायें तो वह भी उन माता पिता के द्वारा दिये गए पात्रदान का फल है। योग्य स्त्री मिले जो स्वयं विवेकी हो, धर्म से जिसे अनुराग हो, जिस की संगति से यह पुरुष भी धर्म का अनुरागी बन जाय। मैना सुंदरी आदिक के कितने ही ऐसे दृष्टांत हैं कि जिनके संग से जिनका पति भी बड़ा योग्य हो गया। ऐसी धर्मानुरागी स्त्री मिले, धन धान्य होवे। खाने की भी रोज-रोज चिंता करनी पड़े, ऐसी गरीबी एक धर्मसाधनों में बाधक बनती है। तो योग्य उचित धन धान्य का समागम हो। मकान, वाहन और वैभव आदिक जो कुछ भी संसार के सारभूत सुख हैं, जिसे लोकव्यवहारीजन सुख मानते हैं, ऐसी वस्तुओं का भी लाभ जो कुछ है वह सब सुपात्रदान का फल है। तो त्यागभाव किया, बाह्य वस्तुओं से उपेक्षा की। उससे जो कुछ पुण्य अर्जित हुआ उसका यह आज फल है। शुद्धोपयोग का लक्ष्य रखते हुए शुभोपयोग के कर्तव्य की गृहस्थ दशा―जितने भी संकट टलते हैं, सीता, द्रौपदी, मैनासुंदरी, श्रीपाल आदिक जिन-जिनके भी संकट टले वह सब उनके पूर्वकृत पुण्य का प्रताप था। इससे अपने भाव अशुभ में न जायें, शुभ में रहें और शुद्ध की भी झलक रहे, इस तरह के परिणाम चलते रहें और यों जीवन व्यतीत होवे तो उसका यह मनुष्यजन्म सफल होता है। सफलता उसका नाम है कि इस वक्त भी शांति है और अगले भव में भी उसे शांति प्राप्त होगी। मनुष्यों में एक कमी यह रहती है कि वे यह सोचते हैं कि इस समय तो सुख भोग लें। आगे का क्या पता हम रहते कि नहीं मगर जो वस्तु है वह सदा रहती है, उसका कभी नाश नहीं होता। आत्मा है तो आगे भी रहेगी। तो आगे वह कैसा रहे इसके लिए भी कुछ ध्यान करना चाहिए। इसी को कहते हैं आत्मदया। आत्मदया इसमें हैं कि हम अशुभोपयोग में जरा भी न जायें, शुभोपयोग में रहें और शुद्धोपयोग का पौरुष करें।