वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 20
From जैनकोष
सत्तंगरज्ज-णव-णिहि-भंडार-छडंग बल-चउद्दह रयणं।
छण्णवदि सहर-सेत्थि-विहवं जाणउ सुपत्तदाणफलं।।20।।
चक्री के वैभव में सप्तांगराज्य के राजामंत्री मित्र अंगों के समागम का साधन सुपात्रदान―श्रावक के मुख्य कर्तव्य दो बताए गए थे―(1) पूजा और (2) दान। ये दो ही हैं ऐसा न जानना। ध्यान, अध्ययन, भावना, मनन ये सब उसके साथ हैं लेकिन वह गृहस्थदशा में है, धंधा उसे करना पड़ता है ऐसी स्थिति में अगर वह पूजा और दान की बात न रखे तो स्वयं के परिणाम सम्हले हुए नहीं रह सकते। तो इनमें से एक पात्रदान की बात चल रही है। सुपात्र को दान देने का ही फल है यह जो संसार में जितना सुख का समागम दिख रहा है। इस गाथा को कह रहे हैं कि चक्रवर्ती को जो वैभव मिलता है वह सुपात्रदान का फल है। क्या होता है चक्री का वैभव? सप्तांग राज्य। राज्य में 7 अंग हुआ करते हैं, अथवा इन 7 का जो समूह हैं सो ही राज्य है। वे 7 अंग क्या-क्या हैं? राजा, मंत्री, मित्र, कोष, देश, किला और सेना। अब इनमें से यदि कोई भी कम हो तो राज्य नहीं चलता। राजा ही न हो तो फिर राज्य क्या? राजा तो होता ही है, और फिर राजा का उचित मंत्री न हो तो फिर राज्य व्यवस्था नहीं चलती, कार्य भी नहीं चलता। एक नहीं दसों मंत्री रखने होते हैं, अलग-अलग विभाग के सलाह देने वाले मुख्यमंत्री होते। तो उससे अपने प्रमुख कार्य को जिम्मे करना मंत्री, बिना भी राज्य नहीं चलता। और मित्र हों। मित्र वही कहलाता है जो बिना स्वार्थ के निष्कपट हितचिंतन करता रहता हो। तो कोई सलाह लेना या अपने मन की बात कहना ये सभी बातें मित्र में हुआ करती है। चक्री के वैभव में सप्तांग राज्य के अंग कोष देश किला सेना के लाभ का साधन सुपात्रदान―राज्य का चौथा अंग कोष (खजाना) है। खजाना बिना राज्य क्या? अनेक व्यवस्थायें हैं। कर्मचारियों का खर्च है, सेना का खर्च है, अनेक बातें हैं। तो खजाना तो होता ही है। चाहे उस खजाने का खुद का उपयोग राजा स्वयं करे। ऐसे बहुत से राजा हुए हैं एक बार किसी संन्यासी का आमंत्रण राजा ने किया। तो संन्यासी तो सोचता था कि राजा के घर आहार होगा तो वहाँ तो बड़ी-बड़ी ऊँची चीजें भोजन में बनेंगी, पर जब वहाँ पहुँचा तो क्या देखा कि बस वही रोटी और भाजी। तो संन्यासी यह दृश्य देखकर बड़े आश्चर्य में पड़ गया। वहाँ राजा ने संन्यासी के मन की बात समझ लिया और स्वयं ही कह बैठा―महाराज हमारे घर तो हरदम ऐसा ही भोजन बनता है। हमने अपने लिए जो कुछ थोड़ी सी भूमि रख लिया है बस उससे जो मिल जाता उसी से अपना गुजारा चलाते। तो संन्यासी बोला―राजन् आपके पास तो बहुत बड़ा खजाना है। जितना चाहे खर्च कर सकते तो राजा बोला―महाराज वह खजाना जनता का है―जनता के खर्च के लिए है, मेरा उसमें कुछ नहीं कोई-कोई राजा ऐसे भी हुए। एक राजा की बात तो सुना है कि उसकी रानी टोपी बनाया करती थी। उनको बेचकर जो आय होती उसी से राजा अपना खर्च चलाया करता था। तो चाहे राजा कोष में से अपने लिए कुछ खर्च न करे मगर कोष बिना राज्य नहीं चलता। तो कोष भी राज्य का एक अंग है। उसी प्रकार देश ग्रामों का समूह, मायने जनता। वह भी राज्य का एक अंग है। इसके अतिरिक्त किला जहाँ सुरक्षित रह सके। पहले जमाने में किले बनते थे बड़े ऊँचे बड़े पुष्ट। अब आज के समय में वे किले काम के नहीं रहे, क्योंकि हवाई जहाज चलने लगे। हवाई जहाज से कोई हमला कर सकता। तो उसका भी उपाय सोचा गया, रड़ार बनाये गए, जहाँ से हवाई जहाजों को गिराने के लिए तोप लगाये जा सकें। तो उसे ही किला समझिये। जिस समय जिस ढंग का आक्रमण संभव है उसका विरोध करने वाला जो उपाय है वह ही किला कहलाता है। तो किले के बिना भी राज्य की स्थिति नहीं रह सकती और 7वां अंग है सेना। सेना के बिना भी राज्य की स्थिति नहीं। तो ऐसा सप्तांग वाला राज्य जिसे मिलता है समझिये पूर्व जन्म में कोई सुपात्रदान किया था उसका यह फल है। चक्री के वैभव में नव निधि की काल व महाकाल निधि के समागम का साधन सुपात्रदान―भरत चक्रवर्ती के या जो भी चक्रवर्ती होता है उसको नवनिधि, चौदह रत्न, सप्तांग वाली सेना एवं 96 हजार रानियों के वैभव का फल प्राप्त होता है तो ऐसा वैभव कोई यहाँ कमाकर प्राप्त करता है क्या? वह तो उस पुण्य का उदय है और ऐसी चीज प्राप्त होती है। तो नवनिधि चक्री का वैभव जिसमें (1) प्रथम निधि है काल। काल नामक निधि के द्वारा छहों ऋतुओं में प्राप्त हो सकने वाली वस्तुयें मिल जाती हैं उसका नाम काल निधि है। किसी भी समय किसी भी ऋतु में जो चीज मिल सकती है काल निधि के द्वारा सभी ऋतुओं वाली चीजें चक्रवर्ती को प्राप्त होता है। (2) दूसरी निधि है महाकाल निधि। याने अनेक प्रकार के भोजन को देने वाली निधि। अब इन निधियों के बारे में कोई ऐसा सोच सकता है कि ऐसी क्या निधियाँ होती होंगी और कैसा ही फल भोजन प्रदान करती होगी। तो भले ही आज हम आपकी बुद्धि के बाहर है किंतु पुण्य की महिमा बड़ी विचित्र होती है। कौन कल्पना कर सकता है कि कहीं कोई एक महापुरुष पैदा हो और स्वर्गों में या भवनवासी व्यंतरों के घरों में ज्योतिषियों के यहाँ घंटानाद आदिक हो। लो बिना खबर के तत्काल ही ये सब बातें हो जाती, यह सब पुण्य का ही तो प्रताप है। पुण्य प्रकृति साता प्रकृति का परिचय दिया है धवला में कि इसके दो काम हैं―एक तो इंद्रिय के द्वारा साता का अनुभव होना और दूसरे इष्ट वस्तुओं का समागम हो जाना। जैसे आश्चर्य तो इसी बात पर हो सकता है--जो छोटा वाला रेडियो बनाया गया है तो वहाँ कुछ तार ही तो कसे गए, या और कुछ ही तो किया गया। अब आकाश मंडल में तो सभी रेडियो स्टेशन के गाने भरे हुए हैं। उन गानों में से दिल्ली का ही पकड़ना, या पंजाब का ही पकड़ना यह भेद कैसे बना? तो कई बातें ऐसी हैं कि जिनका हम ठीक समाधान नहीं कर पाते। तो ऐसे ही समझिये कि पुण्य का अतिशय ऐसा है कि ये सभी बातें होती हैं। बहुत गरीब पुरुष तो इन लखपति करोड़पति लोगों को देखकर ही आश्चर्य करने लगते हैं कि ऐसा इनमें क्या जादू है तो इतना-इतना धन कमा लेते हैं। तो चक्रवर्ती के पुण्य की बड़ी महिमा है। उनको महाकाल नामक निधि प्राप्त होती है जो इष्ट भोजन प्रदान करती है। चक्री के वैभव में नवनिधि की पांडु निधि माणवक निधि शंखनिधि पद्मनिधि नैसर्पनिधि पिंगलनिधि व रत्ननिधि के लाभ का साधन सुपात्रदान―(3) तीसरी निधि है पांडुनिधि। जिसका कार्य है कि जो आवश्यक है, इष्ट है वह अन्न प्रदान करना, (4) चौथी निधि है मानक निधि, जिस निधि से अनेक प्रकार के शस्त्र मिलते हैं। उन शस्त्रों को देने वाली निधि है मानकनिधि। (5) 5वीं निधि है शंख निधि। इसका काम है नाना प्रकार के वाद्य प्रदान करना। वाद्य कितने प्रकार के होते हैं? सो आज कल ही देख लो करीब 1॰॰-15॰ प्रकार के वाद्य मिलेंगे और फिर जब इंद्र अपने समारोह से तीर्थंकर भगवान का उत्सव मनाता है तो वहाँ तो करोड़ों की संख्या बताया है। तो नाना प्रकार के वाद्य प्रदान करना इस शंख निधि का कार्य है। (6) छठी निधि है पद्म निधि। इसका कार्य है योग्य आवश्यक वस्त्रों का प्रदान करना। (7) सातवीं निधि हैं नैसर्प निधि। इस निधि का काम है मंदिर महल आदि प्रदान करना। देवों में ऐसा चातुर्य होता कि वे कहो मिनटों में ही कुछ से कुछ बनाकर खड़ा कर दें। यहाँ भी वो देखने में आता कि बहुत से कारीगर किसी काम को करने में बहुत समय लगाते और चतुर कारीगर उसी काम को बहुत ही जल्दी कर देते, फिर देवों की तो बात लगाते और चतुर कारीगर उसी काम को बहुत ही जल्दी कर देते, फिर देवों की तो बात क्या कही जाय, उनमें तो ऐसी कला होती कि बस यहाँ वहाँ से कुछ चीजें उठाया और तुरंत जो चाहे चीज बनाकर खड़ा कर दिया। जैसे भगवान का समवशरण आकाश में बनता है तो उसके संबंध में कुछ लोगों की धारणा हैं कि वे विक्रिया से आकाश में समवशरण की रचना कर देते, पर कुछ ऐसी बात भी विश्वास योग्य है कि देवों में स्वयं ऐसी सामर्थ्य है कि पत्थरों से मणियों से जहाँ जो पड़े ठीक जल्दी
सही बनाकर खड़ा कर देते हैं, तो इसी प्रकार इन निधियों के भी तो देव रक्षक हैं, और निधि क्या हैं? तो यह 7वीं निधि हैं नैसर्प निधि, जिसका काम है इष्ट मंदिर महल आदि का निर्माण करा देना। (8) आठवीं निधि हैं पिंगलनिधि। जिसे जो आवश्यक आभूषण हैं उनकी प्राप्ति करा देना इस पिंगल निधि का काम है। 9 वीं निधि है रत्न निधि। यह निधि रत्नों को प्रदान करने वाली है। ऐसी नव निधि की प्राप्ति यह सब सुपात्रदान का फल हैं।
सुपात्रदान का फल चक्रवर्ती की सेना का लाभ―चक्रवर्ती की जो सेना होती है उसमें हाथियों की सेना, घोड़ों की सेना, रथ की सेना, पैदल सेना, ऐसी अनेक प्रकार की सेनायें होती हैं उनका जिसे लाभ होता है समझो कि वह सुपात्रदान का फल है। भाव का फल है। कोई पुरुष ऐसा सोचे कि भाव बनावें, अनुमोदना करें तो दान देने वाला तो बहुत कुछ खर्च करके, परिश्रम करके पुण्य लूटेगा और उतना ही पुण्य अनुमोदना से लूट लेंगे, सो ऐसा सुगम नहीं है। अनुमोदना उनके लिए बतायी गई है कि जो कर ही नहीं सकते जैसे अंधे लंगड़े, लूले अपाहिज आदि, या ये पशु पक्षी दान कहाँ कर सकते, यदि ये अनुमोदना करें तो इनकी बात सही है, मगर उनकी अनुमोदना की बात सही नहीं जो खुद कर सकते हैं, कर सकने में सब प्रकार से समर्थ हैं फिर भी करते नहीं। मान लो कोई साधु आहार कर रहा और एक ड्यूटी देने माफिक एक दो मिनट के लिए उसके पास पहुंच गए और मन में कह लिया कि बस ठीक है, हो रहा आहार, तो इतने मात्र से वह पुण्य प्राप्त नहीं होता। असमर्थ की अनुमोदना में अवश्य शक्ति है कि विविध पुण्यार्जन करे, पर जो कर सकता है। समर्थ है वह यदि सोचे कि सारा काम तो अनुमोदना से होता है तो करने की जरूरत क्या है। तो यों नहीं होता। अनुमोदना का फल तो अवश्य है, पर नेवला, बंदर, सिंह, आदिक इन सबने बड़ा फल भी पाया मगर समर्थ होकर और ऐसा भाव प्रारंभ से ही बनाये कि जब अनुमोदना करने मात्र से उसका फल प्राप्त होता है तो हम तो अनुमोदना का ही फल लूटेंगे, तो उनकी यह अनुमोदना सही नहीं है। तो जितना जो कुछ वैभव मिलता है वह सब सुपात्र दान का फल है। जैसे कि इस गाथा में बताया जा रहा है। चक्री के चौदह रत्नों में पवनंजय अश्व, विजयगिरि हस्ती, भद्रमुख गृहपति व कामवृष्टि रत्न के लाभ का साधन सुपात्रदान―चक्रवर्ती के 14 रत्न होते हैं। उनमें पहला रत्न है (1) पवनंजय अश्व। यह कोई एक विशिष्ट जाति का अश्व (घोड़ा) होता है जो कि वायु पर भी विजय प्राप्त करे। रत्न किसे कहते हैं? जो जिस जाति में श्रेष्ठ हो वह उस जाति का रत्न कहलाता है। कहीं जाति का यह अर्थ नहीं कि पत्थर जैसी चीज। जैसे कहा स्त्री रत्न तो बताओ वह स्त्री पत्थर बन गई क्या? अरे रत्न का अर्थ पत्थर वाले रत्न से नहीं किंतु जो श्रेष्ठ है उसका नाम है रत्न। जैसे कहा गया सिंहासन। भगवान को सिंहासन पर विराजमान करो, तो लोग इसका क्या अर्थ समझते हैं कि ऐसा चाँदी सोना पीतल आदि धातुवों का आसन कि जिस में दोनों और सिंह का मुख रहे या सीधा सिंह होवे, जिस पर भगवान को बैठाया जाय। उन्होंने सिंहासन का अर्थ लगाया सिंह का आसन, पर उसका यह अर्थ नहीं हैं। सिंह के मायने यहाँ जानवर नहीं किंतु सिंह का अर्थ है श्रेष्ठ जो उत्तम हो, श्रेष्ठ हो उसे सिंह कहते हैं। अब चूँकि सिंह जिस का नाम रखा गया है, पंचानन याने जिसके 5 मुख होते। मुख 5 नहीं होते किंतु उसके चारों पैरों के जो नख होते वे भी उसके लिए मुख जैसा काम करते, और एक मुख होता ही है। सिंह अपना आक्रमण इन पाँचों हथियारों से करता है (चारों पैरों से और एक मुख से) इस कारण उसका नाम पंचानन रखा है। तो पंचानन को जो सिंह कहने लगे तो चूँकि जो बलवान हो, जिसका बड़ा भय हो, जिसको लोग श्रेष्ठ समझते हैं तो श्रेष्ठ अर्थ वाला सिंह शब्द वहाँ प्रयुक्त होने लगा। तो सिंहासन का अर्थ है श्रेष्ठ। आसन शृंगार वाला आसन नहीं कि जिसमें सिंह की फोटो बनाना आवश्यक है, तो ऐसे ये 14 रत्न बतलाये जा रहे हैं जिनमें मुख्य-मुख्य पुरुष या जीन आते हैं। (2) दूसरा रत्न है विजयगिरि हस्ती। बहुत कुशल, समझदार, युद्धादिक में कुशल, आज्ञा मानने वाला, प्रिय ऐसा एक विजयगिरि नाम का हस्ती यह है 14 रत्नों में दूसरा रत्न। जैसे किसी के घर कोई बिल्ली या कुतिया पली हो और वह अपने मालिक की एक-एक बात माने। वह सब आशय अपने मालिक का समझे, जहाँ बैठने को कहे वहाँ बैठे, जहाँ जाने को कहे वहाँ चला जाय, जो करने को कहे सो करने लगे, यदि ऐसी बात देखने को मिलती है तो उसके लिए वह एक रत्न जैसा लगने लगता है। तो श्रेष्ठ रत्न, जो प्रिय हो और बड़े काम में आये ।तो ऐसा एक विजयगिरि नाम का हस्ती यह दूसरा रत्न हैं। (3) तीसरे रत्न का नाम है भद्र मुख गृहपति। गृहपति याने घर का सारा काम जिसके जिम्मे हो, जैसे किसी के घर कोई कुशल मुनीम रहता हो जो कि घर का भी काम करता हो, जो घर वालों को आवश्यक वस्तुयें चाहिये उनका भी इंतजाम तथा सही व्यवस्था रखता हो तो ऐसा एक बहुत ही श्रेष्ठ भद्रमुख गृहपति नाम का रत्न होता है। यह 14 रत्नों में तीसरा रत्न है। (4) चौथा रत्न है काम वृष्टि ---------------------- चक्री के चौदह रत्नों में अयोद सेनापति, सुभद्रा रानी व बुद्धिसमुद्र पुरोहित के लाभ का साधन सुपात्रदान―(5) पांचवां रत्न है अयोद्ध सेनापति, ऐसा सेनापति कि जिस पर कोई विजय न प्राप्त कर सके। जैसे भरत चक्रवर्ती के समय में उनका सेनापति जयकुमार हुआ, और भरत चक्रवर्ती का कोई कार्य था जिसमें चक्रवर्ती का लड़का स्वयंवर में गया हुआ था। उस स्वयंवर में उस चक्रवर्ती के लड़के से कोई गल्ती हो गई। वह लड़का जयकुमार सेनापति के आधीन बना रहा पर वहाँ उसने यही कहा कि चूँकि तुम चक्रवर्ती के पुत्र हो इसलिए क्षम्य हो। याने उस चक्रवर्ती की इतनी श्रेष्ठता होती है। तो एक रत्न होता है अयोद्धसेनापति। (6) छठा रत्न है सुभद्रापत्नी, जो कि चक्रवर्ती की पट्टरानी होती है। जिसमें इतनी विशिष्टता होती कि वह यदि रत्नों का चौक पूरना चाहे तो यों ही हाथों से रत्नों को मलकर चौक पूर दे, उसका चूरा बनाने के लिए उसे सिलबट्टों की जरूरत नहीं। उस चक्रवर्ती की पट्टरानी को गर्भ में बालक आने का दुःख नहीं भोगना पड़ता। (7) सातवाँ रत्न है बुद्धि समुद्र पुरोहित नाम का रत्न। पुरोहित किसे कहते हैं? एक ऐसा पवित्र पुरुष होता जो कि धार्मिक कार्यों में उसका साथ दे और उसके द्वारा बताये गए मार्ग की बात चक्रवर्ती करता है। चक्री के शेष 7 अजीव रत्नों के लाभ का साधन सुपात्रदान―चक्रवर्ती के 7 रत्न तो सजीव होते हैं और 7 रत्न अजीव होते हैं। जैसे छत्र, तलवार, दंड, चक्र, काकिणी रत्न, चिंतामणि और चर्मरत्न। जब युद्ध को जा रहे और बड़ी तेजी से पानी बरस रहा तो वहाँ चर्मरत्न ऐसा छा जाता कि सेना के ऊपर पानी की एक बूँद भी नहीं पड़ने पाती। ऐसे 14 प्रकार के रत्नों की प्राप्ति होना यह सुपात्रदान का फल हैं। और चक्रवर्ती के 96 हजार रानियाँ होती हैं। तो इतना बड़ा वैभव यह सुपात्रदान का फल है। ऐसा कुंदकुंदाचार्य जो बात सही है वह बतला रहे हैं। उससे कहीं यह नहीं समझना कि इस आशा से धर्म किया जाय, किंतु जिन भावों से जो फल मिलता है वह फल यहाँ बताया गया है।