वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 2
From जैनकोष
पुव्वं जिणेहिं भणियं जहट्ठियं गणहरेहिं वित्थरिंयं।
पुव्वाइरियक्कमजं तं वोल्लइ जो हुसद्दिट्ठी।।2।।
जिनोपदिष्ट का गणधर देव द्वारा ग्रंथ―इस ग्रंथ में जो उपदेश होगा वह उपदेश मूल में जिनेंद्र देव के द्वारा दिव्य ध्वनि में उपदिष्ट है और उसको उस ही प्रकार से गणधर देव ने द्वादशांग रूप में विस्तृत किया है। ऐसी ही परंपरा से चला आया जो उपदेश है सो ही ग्रहण करने योग्य है ना। उसी के बारे में कह रहे हैं कि ऐसे जो वचन बोले सो सम्यग्दृष्टि। सम्यग्दृष्टि का लक्षण नहीं कह रहे किंतु सम्यदृष्टि ऐसा बोलता है तो पहले जिनेंद्रदेव ने वहाँ बतलाया, वे ओंठ मुख कुछ नहीं चलाते और उन सर्वज्ञ की दिव्य ध्वनि चलती है ऐसा वचन योग और भव्य जीवों का पुण्य योग है कि, दिव्य ध्वनि होती है और भव्य जीवों को सुनने को मिलती है। जैसे कहते हैं―‘निरअक्षरमय महिमा अनूप’, उस दिव्य ध्वनि में अक्षर नहीं और निरक्षर मय का दूसरा अर्थ है समस्त अक्षरमय है, तो जहाँ सारे अक्षर भरे हों उसकी कैसी आवाज कोई अक्षर नहीं ऐसी आवाज किस प्रकार है वह उसको सुनकर गणधर देव उसका विस्तार करते हैं। वहाँ तो अक्षरात्मक नहीं, पर सुनने वाले के कर्ण में आकर उनकी योग्यता से सुनने वालों के क्षयोपशम के अनुसार वे अक्षर रूप परिणमते हैं। एक ऐसा ही अतिशय है कि वहाँ कुछ ज्ञान का एक संस्कार जगता है, सुनने वालों की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए ग्रहण विशेष हो जाता है तो दिव्य ध्वनि में जो बात कही गई उसी का ही विस्तार गणधर देव ने किया। स्याद्वाद का प्रतीक गणेशमूर्ति―गणधर मायने गणेश, गण के ईश, गणधर कहो, गणेश कहो, गणपति कहो एक ही बात है। किसी समय गणेश की ऐसी मूर्ति बनने लगी कि चूहा तो सवारी पर है और उस पर हाथी के सूंड का मुख है, ऐसा कोई बैठा है, ऐसी मूर्ति तो आप लोगों ने शायद देखी ही होगी। वह मानो कभी एक अलंकार के रूप में था। किसका? जिनवाणी का, क्या अलंकार था? दुनिया को उस मुद्रा ने यह दिखाया कि निश्चयनय तो अभेद करता है और व्यवहारनय भेद करता है सो अभेद ऐसा है कि जैसे मनुष्य के धड़ में हाथी की सूंड ऐसा अभेद बन गया कि वह एक शरीर कहलाता, और भेद ऐसा करता जैसे चूहा करता, किसी कागज वाले के घर में चूहा घुस जाय तो वह कागजों के इतने बारीक टुकड़े कर देता है कुतर-कुतर कर कि जितने बारीक आप कतरनी या चाकू या अन्य किसी औजार से नहीं कर सकते। तो चूहा है एक व्यवहार का अलंकार और उस धड़ में जो सूंड अभेद है वह मानो निश्चय का अलंकार है। कभी कोई अलंकार रूप में ऐसी मुद्रा बनी होगी बहुत से देवी देवताओं के रूप इस तरह प्रचलित हुए हैं कि जब कभी मूल में मुद्रा बनायी गई तो कोई वहाँ तत्त्व का चित्रण था पर बाद में लोग उस बात को तो भूल गए और देवी देवता का एक रूप ले लिया। सम्यग्दृष्टि के यथागम वचन वक्तृत्व―जैसा किसी आगम में आर्ष में कहा आया उस ही प्रकार से जो बोले सो सम्यग्दृष्टि। सम्यग्दृष्टि पुरुष अन्यथा प्ररूपण नहीं करता और उसी की परंपरा चली आयी। कभी कदाचित किन्हीं लोगों ने अपने विषय स्वार्थवश या अन्य किसी कारण अपनी ख्याति आदि के वश उसमें कुछ मिलाया हो तो वह मिलावट बहुत दिन नहीं चलती, क्योंकि जिज्ञासु जन उसकी खोज करते हैं, युक्ति पूर्वक निर्णय करते हैं और वह चीज बहुत दिन नहीं टिक पाती, यही कारण है कि आप्त वाणी अपने निर्मल प्रवाह से चली आ रही है। वाणी के अनुसार वचन जो बोले सो सम्यग्दृष्टि है याने सम्यग्दृष्टि आर्ष वचन बोलता है। आगम के सर्व वचनों में सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा―वचनों को तो छाँटा जाता है जो युक्ति और अनुभव पर उतरता है मगर कितने ही वचन ऐसे हैं कि जिनमें युक्ति काम नहीं देती फिर भी सम्यग्दृष्टि को वे सब वचन मान्य होते हैं। जैसे 7 तत्त्व 9 पदार्थ का वर्णन, वस्तु के स्वरूप का वर्णन, सामान्य विशेषात्मक का वर्णन यह सब युक्ति से, अनुभव से सिद्ध हो जाता है और इसका ज्ञाता फहर यह जानता है कि लो जो आगम में लिखा सो मेरे ठीक समझ में आया और कभी यों भी निरख ता कि जो मैंने समझा देखा वह आगम में लिखा मिल गया सो समझ में आया तो जो युक्ति गम्य है, अनुभव गोचर है वह बात आगम में हैं और यहाँ एक मिलन हो गया तो वह इससे इतना प्रमुदित होता है कि उसको आगम के सब वचनों में श्रद्धा जगती है। जो वीतराग है, निर्दोष है, सर्वज्ञ है अथवा उस वाणी की परंपरा में चलने वाले जो ऋषिजन हैं, निर्ग्रंथजन हैं वे असत्य क्यों बोलेंगे? असत्य का वहाँ कुछ काम नहीं। असत्य बोलेगा वह जिसको कुछ स्वार्थ है। जैसे बहुत पहले से अहिंसा धर्म चला आ रहा और बड़े-बड़े लोग उसके पंडा जन उसके प्रतिष्ठापक रहे और उनमें से जिस किसी को इच्छा हुई खोटे भक्षण की, मांस मदिरा भक्षणपान की, तो वहाँ एक ऐसी समस्या आयी कि कैसे मांस मदिरा का प्रयोग किया जाय? लोग हमें पूज्य मानते हैं। बड़ा समझते हैं, अगर यों खाने पीने लगे तो लोगों की दृष्टि में हम गिर जायेंगे, सो एक युक्ति आधार बनाया कि उसको धार्मिक रूप दे दिया, यज्ञ का रूप दे दिया, बकरी, बकरा, भेड़ घोड़ा आदि को अग्नि में होमना, मंत्र पढ़ना और लोगों में इस प्रकार की श्रद्धा पैदा कराना कि इसमें धर्म है, यह काम चल उठा। उसमें यह बात बसी रही कि पका पकाया माँस प्रसाद के रूप में मिलता रहेगा, यों विषयों का पोषण भी चलता रहेगा और लोगों में पूज्यता भी बनी रहेगी, यों भीतर में कोई स्वार्थ साधना हो तो अन्यथा प्ररूपण चलता है, दर जो विषयों की आशा से रहित है, निर्ग्रंथ है, निरारंभ हैं, जो आत्म साधना में ही रत हैं उनको जीवों पर करुणा जगी और ज्ञान की बात लिखी तो उसमें असत्य की गुंजाइश नहीं है। एक विशेषता आचार्यों में यह पायी गई कि बड़ा प्रखर पांडित्य पाकर भी अपनी पंडिताई उन्होंने पचा जी याने अपना पांडित्य मग्न कर दिया जिनवाणी की भक्ति में अपना तत्त्वज्ञान, निबंध लेखन रचना ऐसी आर्ष परंपरा के अनुसार की कि सब उसमें अंतर्गत हुआ। कभी किसी आचार्य ने यह भावना नहीं की कि मेरा कथन कुछ अलग जचे, लोगों को कुछ आश्चर्यजनक लगे, उन्होंने अपना नाम अपना पांडित्य, अपना गौरव सब कुछ जिनवाणी की भक्ति में धो दिया। उनके वचनों में कोई वचन असत्य नहीं हो सका। उस वचन को सम्यग्दृष्टि ज्ञानी बोलता है। यह अभी गृहस्थधर्म और मुनि धर्म जो कहा जायगा उसकी प्रस्तावना में यह सब वर्णन चल रहा है।