वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 3
From जैनकोष
मदिसुदणाणबलेण दु सच्छंदं वोल्लइ जिणुत्तमिदि।
जो सो होइ कदिट्ठी ण होइ जिणमग्गलग्गरवो।।3।।
ज्ञानगारववश स्वच्छंद बोलकर जिनोक्त की घोषणा करने वाले की कुदृष्टिता―जो मनुष्य अपने मतिज्ञान श्रुतज्ञान के बल से स्वच्छंद होकर बोलता है और यह घोषित करता है कि वह जिनेंद्र देव का कहा हुआ वचन है वह पुरुष कुदृष्टि है ऐसी कभी शुरूवात तो करते हैं जैन कुल में उत्पन्न होकर उस जैन शासन की बात पर पीछे इस शासन को ही बिल्कुल छोड़ देते हैं और अन्य-अन्य किस रूप में अपने को उपस्थित करते हैं। वे सत्य के पुजारी हैं या अपने में बहुत ऐसे व्याख्यान के बल पर लोगों को आश्चर्य चकित करके अपने को कैसा भगवान का रूप प्रकट कर देते हैं। और इस प्रकार फिर उस वाणी में जो लेखन करें उस में स्वच्छंद विचार लिखे वह कुदृष्टि है। ऐसे पुरुष सत्पथ से एकदम अलग हो जाते हैं शुरूवात तो करते हैं जैन से और हो होकर जैसे ही प्रतिष्ठा मिली, कुछ मिला और फिर उनकी लेखनी चलती है भगवान महावीर वाणी के नाम से या और-और प्रकार, तो कितने ही लोगों को भ्रांत किया जाता है। संभोग से समाधि इतने विपरीत अर्थ तक चले जाते हैं और युक्तियाँ भी देते हैं और फिर भी यह पोषण किया जाय कि ये जिनेंद्र देव के वचन हैं जो कह रहा हूँ, और-और प्रकार की बातें भी उनके वचनों में आयी लेकिन वे खप नहीं सकती। जो अनेकांत शासन से, स्याद्वादशासन से अर्थात् आर्ष परंपरा में आयी हुई बात से बहुत अलग होकर बोलने लगे उनके वे वचन खप नहीं सकते और ज्ञानीजन विवेकी जन उसमें छाँट कर लेते कि ये वचन परंपरागत हैं, ये वचन परंपरागत नहीं हैं। प्रभुवचनों में विकार से हटने की व स्वभाव में लगने की शिक्षा―सीधी सी बात जिस उपदेश से विकारों से हटने की प्रेरणा मिले, स्वभाव में लीन होने की उमंग जगे वह उपदेश प्रभु वचन परंपरा से आया हुआ समझिये। जिन वचनों में स्वच्छंदता मिले, विषय भोगों में प्रेरणा मिले वे वचन जिनोक्त वचन नहीं है। तो ऐसे वचन कह क्यों दिए जाते हैं? तो अपनी ही प्रतिष्ठा का लोभ होता तब ऐसे वचन कहे जाते। तो ऐसे किसी मति ज्ञान श्रुतज्ञान के बल से पायी है विद्वत्ता, पाया है पांडित्य तो उसके कारण स्वच्छंद होकर जो बोले और बताये कि यह जिनेंद्र देव द्वारा उपदिष्ट है तो कहते हैं कि वह मार्ग में नहीं है। मार्ग से बहिर्भूत हैं। प्रस्तावना का उद्देश्य श्रोतावों को विपर्यायरहित आख्यान होने का आश्वासन―यह बात इस प्रस्तावना में क्यों कही जा रही है कि यहाँ श्रावक धर्म और मुनि धर्म के कहने की प्रतिज्ञा की, संकल्प किया उससे पहले यह इसलिए कहा जा रहा कि यह विश्वास बने श्रोताओं को और पाठकों को कि जो कुछ ग्रंथ में कहा जा रहा है वह प्रामाणिक है। वह स्वच्छंदता से नहीं बनाया गया है और उसका आचरण करें, प्रयोग करें तो हित होगा, ऐसा विश्वास पाने के लिए यह प्रस्तावना कही जा रही है, जितने विपरीत कथन हुए हैं उनका आधार है स्वरूप, भेदाभेद और कारण इन तीनों के विपरीत विषय का आख्यान, इसे कहते हैं स्वरूप विपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और कारणविपर्याय अथवा दूरी प्रकार देखो वस्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत् है, पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से असत् है जैसा कि समय सार के परिशिष्ट अधिकार में बताया बस इस की भूल से समस्त अन्य मतों का निर्माण हुआ, खींच करेंगे कोई न कोई बोलेंगे पर खोज कर लेना इसमें ही कोई भूल हुई है। सत्ताद्वैत हुआ, ब्रह्माद्वैत हुआ, ज्ञानाद्वैत हुआ, क्षणिक वाद-अपरिणामवाद, इनमें द्रव्य क्षेत्र काल भाव में से कोई भूल है और इसके जो ड्खीक कर ले उसके फिर कोई भूल नहीं। अनेकांतोपदेश में सीमित कल्पनावश एकांत ग्रहण में अद्वैतग्रहण का एक चित्रण―एक चित्रण खींचो―किसी वन में कोई आचार्य उपदेश कर रहे थे और मुनिजन, संन्यासी जन सब उसे सुन रहे थे, व्याख्यान हुआ, उसमें स्याद्वाद अनेकांत से वर्णन चला तो आखिर जब निष्कर्ष पर पहुँचता है कोई वर्णन शुरू करके तो वह वर्णन इस ढंग का होता है कि जहाँ कुछ ख्याल न रहे विकल्प न रहे और शून्य तत्त्व जैसा भासें क्योंकि व्याख्यानों का उद्देश्य आखिर स्वतत्त्व में मग्न होने का है। आत्मा नित्य है अनित्य है खूब समझमें आ रहा आत्मा अखंड है, बहुत गुण भेद से समझ में आत्मा में ये गुणभेद किये गये हैं वह तो जो है सो ही है, अखंड है, वर्णन करते गए। आखिर जो वर्णन में आया अंत में उसको सुन के कुछ लोगों ने यह ग्रहण किया―ओह ध्यान में आया कि शून्य ही तत्त्व है, याने कुछ ख्याल में न रहा, कुछ ग्रहण में न रहा, ऐसी स्थिति का विवेचन सुना, कुछ बाह्य तत्त्व ग्रहण में न रहा तो ध्यान में आया ओह शून्य ही तत्त्व है। कुछ लोगों ने विचार किया कि कुछ समझ में तो आया कुछ प्रतिभास तो रहा शून्य कैसे कहा जाय? तो सोचा कि प्रतिभास ही तत्त्व है उसका द्वैत अन्य कुछ नहीं। किसी ने सोचा कि प्रतिभास निराश्रय तो नहीं किसी में तो जगा तो उनका मंतव्य बना कि ब्रह्माद्वैत ही तत्त्व है। अनेकांतोपदेश में बुद्धिभ्रमवश एकांतग्रहण में विभिन्न द्वैतवाद के ग्रहण का चित्रण―कल्पना में कुछ सीमा तक तो अद्वैत चला, पर यह सोचा कि दिख तो रहे हैं क्रोध राग द्वेष मोहादिक और बात वही शुद्ध तत्त्व के चिंतन में हैं तो ध्यान जमा कि वह है तो दो―पुरुष और प्रकृति मगर खेल प्रकृति का है। पुरुष तो अपरिणामी है। ऐसा स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत् और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से असत् इसकी ही भूल में मतमतांतरों का निर्माण हुआ है। तो जो चलते-चलते कुछ भेद और समझ में आया तो पर्याय नजर में आयी क्षणिक है वही किसी का तत्त्व बन गया तो एक बन गया क्षणिक वाद परिशिष्ट अधिकार में 14 विकल्प किए गए अभी 8 विकल्पों की बात कही थी यहाँ 3 जोड़े और हैं-एक अनेक, नित्य अनित्य और तत् अतत्। इन 14 जोड़ों की भूल में ही ऐसा निरखा गया, मतमतांतर निरखे गए, समयसार का यह परिशिष्ट अधिकार बड़े महत्त्व का है। इसको कहा गया चूलिका। जो बात नहीं कही गई उस को कहना और जो बात कही गई हो उसे भी दुहराना यह चूलिका है। तो और भेद डाल कर चले तो कहा किसी ने कि हमको तो यह नजर आता कि द्रव्य अलग पदार्थ है, गुण अलग पदार्थ है, कर्म जिसे अपनी पर्याय कहते वह अलग पदार्थ हैं। सामान्य पृथक है, विशेष पृथक् है। एक समवाय भी है। 6 तो हैं भावात्मक पदार्थ और एक होता है अभाव पदार्थ। 7 पदार्थ हैं। देखो 7 बातें कही जायें तो उनमें कितनी बात आयी? सिर्फ एक बात। सिर्फ द्रव्य आया। 7 नहीं सिर्फ एक ही द्रव्य है, जिसकी तिर्यक् विशेषता है गुण, ऊर्ध्व विशेषता है पर्याय तथा साधारणता है सामान्य और असाधारणता है विशेष और समवाय की जरूरत नहीं। सब कुछ तन्मय है। और अभाव होता है पर के सद्भाव रूप तो कई पदार्थ नहीं रहते, सिर्फ एक द्रव्य को ही कहा, मगर भेद का एकांत करके 7 पदार्थों को मानो तो ऐसी कुछ भूलों में, 14 भंगों की भूलों में मतमतांतरों का निर्माण हुआ। चौदह भंगों की भूल से हुए विपरीत कथन का आशय लेकर अयथार्थ वचन बोलने में कुदृष्टिता का परिचय―दृष्टि वस्तु स्वरूप को देखने वाले जितने अन्य दर्शन हैं एकांत दर्शन वे इन 14 की गड़बड़ी से संबंधित हैं। जो दार्शनिक लोग हैं वे भले प्रकार इसकी खोज कर सकते। सो स्याद्वाद नीति को छोड़ कर यह विडंबना बनती और स्याद्वाद शासन को लेकर जो वचन बोला जाय तो उस की विडंबना नहीं बनती है। आप प्रभु की जो दिव्य ध्वनि खिरी उसे गणधर देव ने झेला और उसको आचार्यों ने परंपरा से चलाया और उस परंपरा में सत्य विशुद्ध ही वचन कहा जायगा, ऐसा आश्वासन देने के लिए इस प्रस्तावना में कहा जा रहा है कि जो यथार्थ वचन बोलता है वह सद्दृष्टि है और जब ज्ञान पाया, मतिज्ञान का बल, श्रुत ज्ञान का बल, पांडित्य पाया और इस अभिमान में आकार स्वच्छंद वचन व्यवहार किया वह सुदृष्टि नहीं है। स्याद्वाद शासन से निर्णीत तत्त्व का यथार्थ वचन बोलने से सुदृष्टिता का परिचय―स्याद्वाद जैन शासन की प्रमुख विशेषता है जिसको अन्य कोई न पा सके। वस्तु की परीक्षा अपेक्षा से होती, पर निर्णयात्मक होती, इसकी मुद्रा है, स्याद्अस्तिएव। कोई-कोई लोग कह बैठते कि स्याद्वाद संशय वाद है मगर एव के प्रयोग से यह बताया आचार्यों ने कि यह निर्णयात्मक है। ‘ही’ और ‘भी’ में लोग समझते हैं कि ‘ही’ एकांत है और ‘भी’ अनेकांत है, पर आचार्यों ने भी को नहीं अपनाया। किसी भी ग्रंथ में देखो सप्तभंगी स्याद्वाद में ‘अपि’ शब्द नहीं आया, ‘एव’ शब्द आया, निश्चयात्मक आया, संदेहरूप नहीं, फिर यह भंग बना क्यों? तो अपेक्षा साथ में लगी है और स्याद्वाद ग्रंथों में क्या, सब शब्दों में स्याद्वाद भरा है, जिना बोल चाल है, जितने लोग हैं, जो भी कहते हैं वचनों में स्याद्वाद पड़ा है क्योंकि प्रत्येक शब्द अन्ययोग व्यवच्छेदी होता है। आपने कहा कि मैं मंदिर जाऊँगा। अर्थ निकल आया कि मैं और दूसरी जगह न जाऊँगा। आपने कहा चौकी तो अर्थ निकल आया कि चौकी के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। प्रत्येक शब्द अपने विधि अर्थ के साथ निषेध अर्थ को लिए हुए है, तो जिन आगम अगर स्याद्वाद के द्वारा आख्यात है तो उसमें आश्चर्य क्या? ऐसे स्याद्वाद शासन के अनुसार जो वचन बोलता है सो सम्यग्दृष्टि है और जो अयथार्थ बोलता है वह कुदृष्टि है, ऐसा कहकर आगे अब रयणसार संबंधी विषय को कहा जा रहा है।