वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 22
From जैनकोष
जो मुणिभुत्तविसेसं भुँजइ सो भुँजए जिणुवदिट्ठं।
संसार-सार-सोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं।।22।।
सुपात्रदान करके भोजन करने वाले श्रावकों का शुभभमतव्य―सुपात्रदान के प्रकरण में आचार्य देव कह रहे हैं कि जो गृहस्थ मुनि के द्वारा भोजन कर लिए जाने पर जो शेष है उसका खाता है वह संसार के सारभूत सौख्यों को भोगता है और क्रम से मोक्ष के उत्तम सुखों को प्राप्त करता है ऐसा जिनेंद्र देव ने कहा है। यहाँ मुनि के भोजन कर लेने पर शेष रह गए ऐसा जब अर्थ कहा तो उसका भाव यह लेना कि वह शेष थोड़ी नहीं है किंतु वह समस्त घर का भोजन है। लेकिन मुनि भोजन कर जाय उसके बाद आहार करे तो उसको कहते हैं कि शेष भोजन किया। अथवा जब विशेषतया अर्थ लिया जाय कि मुनि भोजन कर जाय इस विशेषता के साथ जो गृहस्थ भोजन करता है वह संसार कि मुनि भोजन कर जाय इस विशेषता के साथ जो गृहस्थ भोजन करता है वह संसार के उत्तम सुखों को पाता है। संसार में सार भूत सुख क्या है? सारभूत तो नहीं है कुछ भी लेकिन लौकिक जन उन्हें सारभूत मानते हैं तो जिन को लौकिक जन सारभूत सुख मानते हों वे प्राप्त होते हैं सुपात्रदान से, और जब तक भवशेष है तब तक के संसार के सार सुख पाते हैं और यथासंभव शीघ्र ही निर्वाण के उत्तम सुख को पाते हैं। निर्वाण का जो सुख है सो वह सुख नहीं, किंतु आनंद है। सुख और आनंद में अंतर है। सुख तो विकृत होता है और आनंद स्वाभाविक होता है। सुख का अर्थ है सु मायने सुहावना और ख मायने इंद्रिय, जो इंद्रिय को सुहावना लगे उसे सुख कहते हैं और आनंद कहते हैं आत्मा में चारों ओर से समृद्ध होने को। भव समंतातनंदनं आनंदः। सर्व ओर से आत्मा में समृद्धि हो। तो आनंद है स्वाभाविक परिणति और सुख है वैभाविक परिणाम, पर ग्रंथों में प्रभु के आनंद को भी सुख शब्द से कहा है उसका प्रयोजन यह है कि लौकिक जनों को समझाया है और लौकिक जन सुख से ज्यादह परिचित हैं तो उनकी ही भाषा में समझाने से ज्यादह अच्छा रहता है, इसलिये उस सुख को भी आनंद को भी, सुख शब्द से कह दिया जाता है। तो यह ज्ञानी जीव सुपात्रदान के प्रताप से जब तक संसार में है तब तक ठीक रहेगा और निर्वाण प्राप्त हो गया तो सदा के लिए सहज शाश्वत परिपूर्ण आनंदमय है।