वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 21
From जैनकोष
सुकुल-सुरुव-सुलक्खण-सुमइ-सुसिक्खा-सुसील-चारित्तं।
सुहलेस्सं सुहणामं सुहसादं सुपत्तदाणफलं।।21।।
सुपात्रदान का फल सुवस्तुलाभ―रयणसार ग्रंथ में श्रावकों के चरित्र का वर्णन हैं। श्रावकों के 6 कर्तव्य बताया है। (1) देवपूजा (2) गुरुपास्ति (3) स्वाध्याय (4) संयम (5) तप और (6) दान। इन 6 आवश्यक कर्तव्यों का संबंध रत्नत्रय से हो तो ये व्यवहार धर्म कहलायेंगे। अगर रत्नत्रय से संबंध नहीं है तो धार्मिक कर्तव्य नहीं कहला सकते। तो इससे जिन उपदेश और दान याने पहला कर्तव्य और छठा कर्तव्य इनका संबंध सम्यग्दर्शन से हैं। श्रद्धा हुए बिना न तो कोई पूजा कर सकता और न दान कर सकता। दान में भी सामर्थ्य और असामर्थ्य का प्रश्न मुख्य नहीं होता। कोई विशेष धनी हो और श्रद्धा नहीं है तो वह दान नहीं कर सकता, श्रद्धा नहीं तो पूजा नहीं कर सकता और गुरुपास्ति संयम और तप इनका संबंध है चारित्र से। चारित्र में रुचि न हो, चारित्र में अनुराग नहीं, स्वयं के चारित्र की भावना नहीं तो न कोई गुरु सेवा कर सकता न संयम और तप का आदर कर सकता। और स्वाध्याय का संबंध हैं ज्ञान से। तो इस प्रकरण में पात्रदान का ही शुरु से प्रकरण चल रहा है। यह पात्रदान अपनी श्रद्धा को पुष्ट करता है और एक संस्कार बनाता है। तो इस गाथा में कह रहे हैं कि जगत में जो कुछ भी उत्तम वस्त्र प्राप्त होते हैं वह सब सुपात्रदान का फल है। सुपात्रदान का फल सुकुल लाभ―उत्तम कुल मिला, अपने आप को ही समझ लें किस कुल में उत्पन्न हुए। उत्तम कुल वह कहलाता है जहाँ अहिंसा की प्रवृत्ति हो, त्याग की प्रवृत्ति हो और गुणवंतों के प्रति आदर की परंपरा हो। जिस कुल में ये बात पायी जायें वह उत्तम कुल है। सो ये बातें पायी ही जा रही हैं। उत्तम कुल पाये बिना साधु भी नहीं बन पाते। मुनि दीक्षा भी वही लेता है जो उत्तम कुल में उत्पन्न हो। तो अहिंसा का वातावरण है, श्रद्धा से अहिंसा है, करने में भी शक्ति माफिक अहिंसा है, तो यह उत्तम कुल है। उत्तम कुल की प्राप्ति होना सुपात्रदान का फल है। जगत में अनंत जीव दुर्गति दशा में मिल रहे हैं। एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, अनंतानंत जीव उनकी दुर्गति उनकी दुर्भावना से है। कभी मनुष्य भव प्राप्त हुआ और उसमें पात्रदान की भावना रहे और पात्रदान कर सके तो उसका जीवन मोक्ष मार्ग की परंपरा में भी सफल है और स्वयं का भविष्य अच्छा बलता है इसलिए सफल है। उत्तम कुल की प्राप्ति सुपात्रदान का फल है। सुपात्रदान का फल सुरूप लाभ―उत्तम रूप मिलना, यद्यपि रूप से कोई संबंध नहीं पाल सकता मगर ये पुण्य के चिन्ह हैं। जैसे कोई ज्योतिषी किसी का हाथ देखता है, सामुद्रिक शास्त्र का जाननहार हाथ देखकर उसका भविष्य और भूत बताता है। तुम ऐसे थे, तुम्हारा ऐसा होगा तो क्या वहाँ कुछ हाथ में अक्षर लिखे हैं? कैसे बता देता है? तो उसका आधार यह है कि उत्तम चिन्ह मिले तो अपने आप सामान्यतया जान गया कि यह पुण्यवान जीव है’ जिसके हाथ में टेढ़ी मेढ़ी रेखायें हों, कुछ सकल सूरत से भी सुभग न हो तो उसको अनुमान हो जाता है कि इसके कोई पाप का फल है। तो इस साधारण अनुमान के आधार पर रेखाओं को देखकर लोग बताया करते हैं। तो यह ही बात रूप की है। यद्यपि कोई अविनाभाव नहीं है फिर भी पुण्य का फल है कि उत्तम रूप मिलता, उत्तम शरीर मिलता, तो यह सुपात्रदान का फल है। कैसे एक दृष्टि से देखें तो उत्तम रूप का मिलना विपत्ति का कारण है। देखो फूलों में जो साधारण फूल हैं वे तो खूब खिलते रहते हैं, उन्हें कोई तोड़ता नहीं हैं, उन्हें कोई छेड़ता नहीं है और गुलाब का फूल, चंपा, जुही का फूल, ऐसे जो सुहावने लगने वाले हैं, आफत तो उन पर आती है। उन्हीं कुछ फूलों को लोग तोड़ा करते हैं और जो नीले पीले, टेढ़े-मेढ़े, असुहावने से फूल होते, जिनके प्रति कोई आकर्षण नहीं होता, उन्हें कोई नहीं तोड़ता। तो आखिर इसमें कुछ पुण्य पाप की बात तो है। जो अच्छे फूल हैं कुछ तो उनकी अपेक्षा कुछ प्रकृति ठीक हुई ही मगर उसका परिणाम क्या निकला? विपति। तो भले ही उसका परिणाम विपत्ति है, लेकिन यह नियम नहीं है कि कोई पुण्यवान रूपवान उनके मुख ऊंचे, पुण्य विशेष, भावना ऊंची, बिना उपदेश पाये भी जीवन में बड़ा काम कर लेता है, पर उत्तम रूप का मिलना चूँकि यह पुण्य प्रकृति का फल है उसका साधन है सुपात्रदान। सुपात्रदान का फल सुलक्षण लाभ―उत्तम लक्षण भी विशिष्ट पुण्यफल है। कोई भी लक्षण मिले, शरीर के लक्षण मिलें। लक्षण में मुख्य है गुण की बात। जिस में कोई बोलने वगैरह की कला नहीं और उसमें दोष बहुत दिखते हैं, पद-पद पर वह गुस्सा करे, दूसरों से ईर्ष्या रखे तो लोग कहते हैं ना कि इसके लक्षण अच्छे नहीं हैं। तो उत्तम लक्षणों का मिलना यह भी एक पुण्य का फल है, वह सब सुपात्रदान काफल है। पुण्य और धर्म यद्यपि ये अलग-अलग तत्त्व हैं। पुण्य तो शुभ भाव है और धर्म वीतराग भाव है किंतु ग्रंथों में जो शुभ भाव का उपदेश किया जाता है पूजा, दान, व्रत, नियम, आदि का, उसका कारण यह है कि जिसको भी शुद्धता मिली सो शुभोपयोग के बाद मिली अशुभोपयोग के बाद नहीं मिली। जो अशुभोपयोग में लगा रहता है वह तो शुद्धोपयोग की आशा ही न रखे। जो शुभोपयोग में चल रहा है विशुद्धभाव, मँद कषाय, गुणीजनों के प्रति अनुराग ऐसा जो शुभ भाव में लग रहा उसका यह आशा है कि यह शुद्ध भाव प्राप्त कर लेगा। तो गृहस्थों के लिए यह प्रकरण लिखा हुआ है अतएव उनके उचित कार्यों को बतला रहे हैं। उत्तम लक्षण का मिलना सुपात्रदान का फल है। सुपात्रदान का फल सुमति लाभ―लोक में उत्तम बुद्धि होने से खुद को भी शांति रहती है। और उसके प्रसंग में अन्य लोग भी शांति पाते हैं और बुद्धि तो आत्मा का निजी गुण है। उसे कर्मों के उदय के कारण निरोहित होना पड़ रहा है। जैसे सूर्य का प्रताप प्रकाश भी रुक जाता है इसी तरह जीव का स्वरूप तो ज्ञान ही है, दूसरा अन्य कुछ स्वरूप नहीं है, किंतु पहले जो कर्म बँधे थे उनका उदय है, उस काल में यहाँ उसका प्रतिबिंब पड़ रहा है इतने पर भी हानि कुछ नहीं है। चाहे महल गिर गया, सारा नुकसान हो गया, शरीर में भी व्याधि हो रही, और भी खोटे प्रसंग मिले, जो चाहे हो, जैसा चाहे हो, उससे भी जीव को हानि नहीं है, किंतु जीव जब अज्ञान अवस्था में रहता है और अपने आप में पर वस्तुविषयक कल्पनायें करता है तो उससे उसको पीड़ा होती है। जिस जीव को भी दुःख होता है सो दूसरे जीव के कारण नहीं होता। दूसरा पुरुष कैसा ही चल रहा हो, कैसा ही बर्त रहा हो, उससे क्लेश नहीं है, किंतु जो खुद में कल्पनायें कर डालता है उनसे क्लेश होता है। जैसे कभी सारे देश की संपत्ति अधिकार से बाह्य कर दी जाय, सरकारी घोषित कर दी जाय तो वहाँ लोगों में प्रारंभ में तो अनेक प्रकार की कल्पनायें चलेंगी जिनसे दुःख होगा, पर बाद में तो वे सब कल्पनायें मिट जायेगी और सुखी नजर आयेंगे, तो ऐसे ही कैसी भी हालत आये, पर वस्तु विषय अनेक प्रकार की कल्पनायें न बनायें कि इससे मेरा अहित हो गया, इस पर वस्तु से मेरा बड़ा भला था तो उसे कोई कष्ट न होगा। जितने भी कष्ट हैं वे सब स्वाधीन हैं। पराधीन नहीं है कष्ट। कोई दूसरा कष्ट देता है सो बात नहीं, किंतु खुद ही कल्पनायें करके कष्ट पाते हैं। उपादान की ओर से देखें तो वह कष्ट भी स्वाधीन है। ज्ञान जगे और भिन्न-भिन्न पदार्थों का सत्त्व दृष्टि में रहे उसे आकुलता नहीं जग सकती। तो ऐसी बुद्धि का होना जिसमें वस्तु के सही स्वरूप का ज्ञान रहे यह सुपात्रदान का फल है। सुपात्रदान करने वालों को सुशिक्षा का योग होता है―उत्तम शिक्षा क्या? जिस में हित हो, अहित न हो शिक्षा मिलना, अपने को शल्य न जगे, अपने ध्यान में बाधा न आये, सदाचार से रहना, विनय पूर्वक बोलना ऐसी सुशिक्षा से बहुत सी विपत्तियाँ दूर होती हैं। प्रथम तो ठीक सही वचन बोलना यह बहुत उत्तम गुण है मनुष्यों का अपने सही बोलने के कारण यह मनुष्य अपने को खुश रख सकता है, और विपरीत बोलकर मतलब क्या? भले ही किसी ने गल्ती की हो तब भी उससे बुरा बोलने से क्या लाभ है? और गल्ती भी कोई उसकी नहीं करता, उसकी भावना है, जैसे हम अपने लिए सुख चाहते हैं वैसे ही वह भी सुख चाहता है। जैसे हम अपने सुख के लिए अनेक प्रोग्राम और भावना बनाते हैं, वैसे ही वह भी बनाता है। उसने उसके कष्ट के लिए कुछ नहीं किया। उसने तो अपनी सुख शांति के लिए किया। तो उसका जाननहार रहता है यह। इस प्रकार के परिणमन में है, उसका उस में कुछ अनर्थ नहीं है। कोई पाप का उदय हो तो वह नहीं और कोई कुछ भी निमित पड़ जाय, उसका अनर्थ हो जायगा। तो ऐसी शिक्षा धारण करें कि जिससे यह लोक भी सही रहे और परलोक भी, ऐसी शिक्षा मिलना पात्रदान का फल है। मनुष्य अनेक होते हैं। कोई बड़ा ऊंचा समझदार ओहदेदार निकल जाता है, कोई साधारण काम में ही रहकर जिंदगी बिताता है। क्या ऐसी कला और शिक्षा की योग्यता उन दोनों में न थी? थी मगर शिक्षा का समागम न रहा, साधन न रहा। बुद्धि कुंठित रह गयी। तो किसी को शिक्षा का योग जुड़ जाय, उत्तम शिक्षा मिले तो वहाँ भी एक बड़े पुण्य का फल है’ सो ही यहाँ बतला रहे हैं कि उत्तम शिक्षा का लाभ सुपात्रदान का फल है। सुपात्रदान का फल सुशीलत्व व चारित्र का लाभ―इसी प्रकार कह रहे हैं अब सुशील। शील मायने आत्म स्वभाव की दृष्टि बनी रहना और शील का व्यावहारिक अर्थ है अपनी प्रकृति न बिगड़ना और ब्रह्मचर्य पूर्वक रहना पर आत्मतत्त्व की दृष्टि रहे, अपने में सरलता का भाव जगे, दूसरों पर क्षमा भाव लाये, अपने में गर्व न आने दे, किसी के प्रति कपट का व्यवहार न रखे, यह सब शील कहलाता है। शील मायने केवल एक ब्रह्मचर्य ही नहीं, वह भी है और चूँकि वह एक कठिन व्रत है इसलिए शील की रुढ़ि ब्रह्मचर्य में ही हो गई। मगर सही स्वभाव में रहना, अविकार आत्मस्वरूप की दृष्टि रखना, क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषायें मंद हो जायें, इनको पकड़ कर न रहें, यह सब शील कहलाता है। उत्तम व्यवहार, उत्तम आचरण और ऐसी सुशीलता प्राप्त होना यह सुपात्रदान का फल है। इसी प्रकार चारित्र। चारित्र जीव को सुख शांति का एक बड़ा साधन है। वह विधि पूर्वक हो, ढंग से हो तो वह शांति का फल देता है, और जहाँ विधि से बाह्य है तो भले ही वह बाह्य चारित्र पालता है मगर शांति अंदर में नहीं प्राप्त होती। कभी-कभी लोग कहते हैं जब कि कोई अगर उपवास करे, शोध से रहे, शोध के सारे काम करे और उनको करते हुए में पद-पद पर गुस्सा आता रहे, क्या कहते कि देखो वह बहुत-बहुत शोध करने वाला अपवित्र हो गया। चाहे शरीर को अभी तुरंत धोया हो, शुद्ध कपड़े पहन लिया हो, बड़ी शोध की क्रियायें कर रहा हो और चित्त में गुस्सा आये, मोह आये तो बताओ वह आत्मा पवित्र है कि अपवित्र? वह तो अपवित्र ही रहा। पवित्रता का एक साधन अवश्य है ऐसा शोध से रहना, उससे कई गुण आते हैं जिससे कि उसके व्रत, नियम, शील ये सभी अच्छे पलते हैं। अगर आत्मशांति में आये, मोक्ष मार्ग में चले तो वह पवित्रता है और जहाँ विकार भाव में उस आत्मा को प्रीति जगी तो जो कर्मबंध होता है वे पौद्गलिक कर्म यह नहीं देखते कि इसने अभी नहाया धोया है और बिल्कुल शुद्ध कपड़े पहना है, यहाँ न बँधें। वहाँ ऐसा कुछ नहीं है। शरीर का शोध नहीं देखते हैं ये पुद̖गल कर्म। वहाँ तो ऐसा ही योग है कि जहाँ जीव के मोह अज्ञान, कषाय दुर्भावना हुई कि पौद̖गलिक कर्म बँध जाते हैं।। तो कषायें न जगना और अविकार आत्मस्वरूप में रमना यह है चारित्र। तो ऐसे चारित्र का लाभ सुपात्रदान का फल है। सुपात्रदान का फल शुभलेश्या का लाभ―सुपात्रदान के प्रताप से शुभलेश्या का लाभ होता है। शुभलेश्या पीत पद्य शुक्ल ये तीन शुभलेश्यायें कहलाती हैं। कृष्ण नील कापोत ये तीन अशुभ लेश्यायें हैं। जिन में संक्लेश बसा है वे अशुभ हैं और जिनमें विशुद्धि बनी है वे शुभ हैं। कृष्णलेश्या का ऐसा खोटा परिणाम होता कि वह भव-भव में बैर को नहीं छोड़ता। जैसे किसी साँप को अगर आप से लाठी लग गई और वह बच गया तो वह इस ताक में रहता है कि कब मुझे अपना बदला चुकाने का मौका मिले। बहुत दूर तक भी उस साँप को छोड़ा जाय तो भी वह इसी धुन में रहता है कि मैं कब उसके सताने वाला बदला लूँ, ऐसा खोटा भाव कृष्णलेश्या में रहता है। मैं इसका विनाश करूँ, मैं इसको कब बिगाड़ दूँ, यों भव-भव में बैर चलता है नील लेश्या में कुछ उससे कम खराबी तो है मगर खराबी गई नहीं। वह लोभ में बढ़ा, विषयों की प्रीति में बढ़ा। और कापोत, लेश्या उससे कम खराब, मगर यह भी अशुभ है। यह प्रशंसा में बढ़ा आत्मप्रशंसा सुनकर राजी हुआ, और अनेक खोटी बातें आयी। पीत लेश्या में तो कुछ धर्म की ओर दृष्टि होती है पद्म लेश्या में और विशेष, शुक्ललेश्या में और अधिक। शुक्ललेश्या वाले में राग विरोध नहीं चलता, पक्षपात नहीं चलता, ऐसी जो तीन शुभ लेश्यायें हैं वे इस जीव को एक सुख साता के कारण हैं। उन लेश्याओं का लाभ भी सुपात्रदान का फल है। लेश्यावों के लिए आगम में दृष्टांत बताया है कि छ मुसाफिर किसी गाँव के लिए चले। वे सब भूखे थे। उन्हें रास्ते में एक पेड़ दिखा, मान लो वह आम का ही पेड़ था। उसमें बहुत से पके-पके आम लदे हुए थे। उस पेड़ को देखकर उन सब के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के भाव उठे। एक के मन में आया कि मैं इस पेड़ को जड़ से काटकर गिरा दूँ और फिर मनमाने फल खाऊँ। दूसरे के मन में आया कि मैं इस पेड़ की एक शाखा काटकर गिरा दूँ फिर मनमाने फल खाऊँ तीसरे मन में आया कि मैं इस पेड़ की एक उप शाखा को काटकर गिरा लूँ फिर मनमाने फल खाऊँ चौथे के मन में यह भाव आया कि मैं इस पेड़ की एक टहनी तोड़ लूँ और उसमें लगे हुए पके-पके आम छककर खाऊँ 5वे के मन में आया कि मैं इस पेड़ में पके-पके आम तोड़कर खाऊं और छठे के मन में यह भाव आया कि देखो नीचे कितने ही पके-पके आम पड़े हैं, मैं इन्हें बीनकर खूब छककर खाऊँ। अब आप यहाँ भावों की बात देखिये उन छहों के मन में छह प्रकार के भाव हुए। सबसे अधिक कठोर भाव जड़ से काटने वाले के हुए, उससे कम कठोर भाव शाखा काटने के फिर उससे कम उपशाखा काटने वाले के, उससे कम टहनी काटने वाले के। फिर उससे कम गुच्छा तोड़ने वाले के और सबसे कम कठोर भाव उसके रहे जो नीचे पड़े हुए फल खाने का भाव करता है। ऐसा यह छह लेश्याओं का दृष्टांत कहा। पीत पद्म और शुक्ल लेश्या वाले में धर्म बुद्धि रहती है। तो ऐसी लेश्याओं का प्राप्त होना यह सुपात्रदान का फल है। सुपात्रदान का फल शुभनाम एवं शुभसात का लाभ―शुभनाम कर्म बँधे कि भविष्य में भी अच्छा भव मिले, अच्छा शरीर मिले या अब जो शुभ नाम मिला है उत्तम शरीर। कोई शरीर ऐसा होता है कि जो निरंतर रोगी ही रहता है। कोई शरीर खाने पीते रहते हैं। कोई शरीर ऐसे भी होते हैं कि जिन्हें लोग देखना भी पसंद नहीं करते, बहुत से लोगों की सकल सूरत पर तो पुण्य वाणी झलकती है। तो इस शुभनाम की प्राप्ति भी सुपात्रदान का फल है। इसी प्रकार साता सुख आराम संतोष सत्संग आदि कितने ही सुख साता के जो समागम हैं वे भी लोक में बड़ी श्रेष्ठ चीजें हैं। और सबसे अधिक श्रेष्ठता है साता परिणाम की। तो ऐसा साता परिणाम लाभ साता वेदनीय के उदय में अंतराय के क्षयोपशम से प्राप्त होता है। तो ऐसा शुभ साता का लाभ उन्हें प्राप्त होता है जो भक्ति से, धर्म बुद्धि से, कुछ भी उस के एवज में लोक में कीर्ति न चाहकर जो उत्तम पात्र को दान देते हैं उसका फल है कि उसे ऐसे सुख साता के समागम प्राप्त होते हैं। इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि श्रावकों का मुख्य कर्तव्य है पात्रदान, और पात्रदान का फल है यह, इस फल की आशा से ज्ञानी पुरुष पात्रदान नहीं करता वह तो धर्मबुद्धि से ही करता है। मगर पात्रदान के परिणाम से जो बात गुजरती है उसका आचार्य देव वर्णन कर रहे हैं। तो ये सब योग्य समागम मिलना पात्रदान का फल है।