वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 38
From जैनकोष
णवि जाणइ कज्जमकज्जं सेयमसेयं य पुण्णपावं हि।
तच्चमतच्चं धम्ममधम्मं सो सम्मउम्मुक्को।।38।।
कार्य अकार्य से अपरिचित पुरुष की सम्यक्तवोन्मुक्तता―जो पुरुष कार्य अकार्य को नहीं जानता वह सम्यक्त्व से रीता है। क्या जगत में करना योग्य है, क्या योग्य नहीं है, इस तथ्य को जिसने जान लिया वह पुरुष ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है। क्या है करने योग्य? एक अपने आत्मा के यथार्थ सहज अविकार स्वरूप की आराधना, यह है करने योग्य, और बाकी काम क्या करने योग्य नहीं। क्या आप दुकान पर न जाना चाहेंगे। क्या घर में जाकर आप भोजन व्यवस्था न बनायेंगे? क्या वह करना योग्य नहीं हैं? हाँ-हाँ वे सारी बात करना जरा भी योग्य नहीं है मगर परिस्थितिवश करनी पड़ती हैं। ऐसी दृष्टि होती है ज्ञानी जीव की और ऐसा हो नहीं सकता कि रहेंगे तो ऐसी परिस्थिति में कि जहाँ भोजन धनार्जन करना आवश्यक है और वहाँ इसे करें नहीं तो उसका गुजारा न चलेगा, मगर बताओ तो सही कि आत्मा का गुजारा करना है या शरीर का? जगत में जितनी ये बातें हैं धनार्जन भोजन परिजन आदि, ये सब अपने जीवन के गुजारे के लिए हैं, इससे आत्मा का गुजारा नहीं होता। यह देह सदा रहने को तो नहीं है ऐसा जानता है ज्ञानी, मगर अपनी आयु माफिक यह मनुष्यदेह बनी रहे तो इसमें आराधना करके अपने आत्मा का लाभ लिया जा सकता है इसलिए जीवन की आवश्यकता है अन्यथा ऐसे ही अचानक ही मरण कर गए और दुर्गति के पात्र बने तो वहाँ फिर क्या कर सकेंगे? सो यह सब इस शरीर को रखने के लिए उपाय है, और शरीर को रखना तब तक आवश्यक है जब तक अपना मन, वचन, काय धर्म की ओर लग रहा है। यदि शरीर जवाब दे-दे कि अब यह अपनी सुध नहीं रख पाता या मन, वचन, काय धर्म के अनुकूल नहीं चल सकता तो उसको ऐसे समय में तो समाधिमरण बताया गया है। जैसे कोई नौकर अपने काम का नहीं रहता तो उसका तो मालिक परित्याग कर देता है, पर जब तक किसी सेवक से मालिक का कोई कार्य चलता है तब तक वह उस सेवक की भी सेवा करता है। इसी तरह यह शरीर सेवक है, इस सेवक की सेवा कब तक के लिए है। जब तक कि इस मालिक आत्मा को धर्म में मदद मिलें, ज्ञान में मदद मिले और जब यह शरीर जवाब दे-दे कि अब कुछ भी नहीं हो सकता है तो विवेकी पुरुष इस शरीर को भी जवाब दे देते हैं। तो एक ध्येय होना चाहिए अपने जीवन का कि हमें तो केवल सांसारिक सुख भोगने के लिए ही जीना नहीं है, किंतु अपने इस आनंद धाम ज्ञानसूर्य अंतस्तत्त्व का परिचय पाकर इस ही के निकट अपने उपयोग को लगाये रहना है। एक दृष्टि तो बने, उद्देश्य तो बने कि हमें यह करना चाहिए, इसके अलावा अन्य कोई उद्देश्य बताओ। कौन सा उद्देश्य बढ़िया है? बाहर में सभी पदार्थ मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, उनके लगाव में केवल आकुलता का ही प्रसाद मिलेगा, अन्य कुछ आशा न रखें और अपना भगवान आत्मा जिसकी सारी सृष्टियाँ अपने आप में से चलती हैं उस भगवान आत्मा का जो परिचय पाले और इस स्वरूप में अपने को रमा ले उसका संसार संकट टल जायगा। भगवान को तो पूजते हैं जैसे भी पूजते हैं रूढ़ि से, आदत से, और यह मन में नहीं आया कि भगवान की जो स्थिति है वह लोकोत्तम है और मेरे को भी ऐसी ही स्थिति मिले, बस यह ही मात्र सार है। बाकी जो और अटपट बातें की जा रही हैं, वे सब मेरे लिए अनर्थ हैं। इस बात का श्रद्धान न हो तो उसने भगवान को पूजा क्या? भगवान को उसने जाना ही नहीं। इससे भाई अपने को जानेंगे तो भगवान को जान सकेंगे और अपने आत्मा के ज्ञान के शून्य रहेंगे तो भगवान का कुछ परिचय न मिलेगा। तो अपने आपका महत्त्व जो आँके और उस स्वभाव के अनुसार चले वह पाता है सुख और जो बाहर के अकार्यों में ही अपने चित्त को रमाये, वह तो सम्यक्त्व से रहित है। यह संसार सम्यक्त्वहीन जीवों का घर है, सो यहाँ सर्व आकुलतायें है। यह ही तो मोह मदिरा है जिससे कि यह अज्ञानी जीव कार्य और अकार्य का विवेक नहीं कर सकता। सेव्य असेव्य के तथ्य से अपरिचित पुरुषों की सम्यक्त्वरिक्तता―यह सेवनीय है, यह सेवनीय नहीं है इसका भी जिसे विवेक नहीं वह भी सन्मार्ग रहित है। मेरे को सेवने योग्य क्या? निर्मल परिणाम कुछ दुर्भाव बनाकर यदि कोई लौकिक संपदा भी प्राप्त होती हो तो भी उस दुर्भाव का फल खोंटा ही मिलेगा। और जो आज कुल मिला है वह दुर्भाव से नहीं मिला है किंतु पूर्वकृत पुण्य का प्रसाद जो प्राप्त हुआ है, और आज जो दुर्भाव किया जा रहा है इसका फल क्या मिलेगा? तो अपना निर्मल परिणाम होना, आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान, आत्म आचरण, ये तो सेवनीय तत्त्व हैं और अज्ञान भ्रम, स्वरूप का अपरिचय, पाप का करना, ये सारे परिणाम सेवनीय नहीं हैं। जिसे सेव्य असेव्य का विवेक है वह तो सन्मार्ग में है और जिसे सेव्य असेव्य का विवेक नहीं वह तो सम्यक्त्व से भी रहित है। पुण्य पाप के तथ्य से अपरिचित पुरुषों की सम्यक्तवोन्मुक्तता―पुण्य पाप इनकी भी यथार्थ समझ होनी चाहिये। पाप खोंटे भाव का नाम है, दूसरों का बुरा विचारना, दूसरों का अनर्थ करना, किसी के धार्मिक कार्य में बाधा डालना, ये सब पाप के कार्य हैं। जब जीव के कषाय उमड़ता है तो वह अपना अहित कुछ नहीं देखता। जैसे कोई-कोई ऐसा प्रचंड क्रोधी होता है कि इतने तक को भी तैयार रहता कि चाहे मैं मर जाऊँ, पर यह बरबाद हो जाय। तो जो भी ऐसी दुर्भावनायें हैं वे सब पाप के भाव हैं और देवभक्ति, शास्त्रभक्ति, गुरुभक्ति, साधर्मी जनों में वात्सल्य, परिग्रह से उपेक्षा, अपने आप के गुणों में प्रीति सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की उन्मुखता, ये सब पवित्र भाव हैं। पाप को छोड़कर पुण्य में आना और पुण्य नाम पवित्रता का है इसलिए पुण्य धर्म को भी कह सकते हैं, क्योंकि वह भी पवित्र भाव है मगर रूढ़िवश पुण्य कहा जाता है शुभकर्मों को, तो यह जानकर कि पुण्य कर्म शुभकर्म है और उसके उदय में संसार में ही तो रहना होता है उससे पुण्य से भी उपेक्षा करना, शुद्ध अविकार आत्मतत्त्व में रमना, पर तरीका यह है कि पहले पापों से छूटकर पुण्य भाव में आना और फिर पुण्य भाव छुटकर धर्मभाव में आना। इस प्रकार पुण्य पाप दोनों से निवृत्त होकर धर्म भाव में जो आता है वह जीव मोक्ष के सुख को प्राप्त करता है। लेकिन जो पुण्य पाप का स्वरूप ही नहीं जानते वे पुरुष सम्यक्त्व से रहित हैं। तत्त्व अतत्त्व एवं धर्म अधर्म के तथ्य से अपरिचित पुरुषों की सम्यक्त्वोन्मुक्तता―तत्त्व और अतत्त्व ये ज्ञान से हीन पुरुष भी सम्यक्त्व से रहित है। क्या तथ्य है, क्या झूठ है, क्या धर्म है, क्या अधर्म है, इस बात का जिसे परिचय नहीं, स्वच्छंद मन है, मन ने जो हुक्म दिया सो करना और उस मन के हुक्म के कारण जो आलसी हुआ, धर्म मे प्रमादी हुआ, स्वच्छंद हुआ, अटपट क्रियायें करने वाला हुआ, ऐसा पुरुष अपने शील से रहित हैं और उसके सम्यक्त्व भी नहीं है, जिस जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तो सब बातें सही रूप में आ जाया करती हैं। सम्यक्त्व क्या? अपने सही सहज अपने आप होने वाले अपने स्वभाव को मान लेना कि यह मैं हूँ। अन्य कुछ मैं नहीं, अन्य कुछ मेरा नहीं। यह सारा समागम मान मायामयी अनेक पदार्थों का संयोग रूप है, इससे मुझे कल्याण की आशा नहीं है। मैं अपने आप में ही नित्य अंतः प्रकाशमान इस चित्स्वरूप को निरखूँ। इसमें ही रहकर आनंदमग्न होऊँ, यह ही मान कल्याण का उपाय है।