वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 39
From जैनकोष
णवि जाणइ जोग्गमजोग्गं णिच्चमणिच्चं हेय मुवादेयं।
सच्चमसच्चं भव्वमभव्वं सो सम्मउम्मुक्को।।39।।
योग्य अयोग्य के अजानकार के सम्यक्त्वोन्मुक्तता―क्या योग्य है और क्या अयोग्य है इस विषय में जो नहीं परखता है वह सम्यक्त्व से उन्मुक्त है याने सम्यक्त्व नहीं है या सम्यक्त्व छूट गया है। कितने ही लोग बड़ी भावुकता के साथ उसमें चलते हैं और कुछ काल बाद उनका आचार बहुत हीन हो जाता है। योग्य क्या अयोग्य क्या? भक्ष्य अभक्ष्य का विवेक नहीं, ऐसी भी स्थिति हो जाती है। जो लोग अनुमान करते हैं कि अब यह श्रद्धा से भी दूर हो गया, तो योग्य और अयोग्य को जो नहीं जानता उसमें यह बात सुविदित होती है कि वह सम्यक्त्व से उन्मुक्त है, योग्य क्या अयोग्य क्या? मन से क्या विचारना योग्य है, क्या विचारना अयोग्य है। बाह्य पदार्थों पर ऐसी दृष्टि लगे कि ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाय। और अपने आप की सुध की तो कथा ही नहीं, ऐसी मन की वृत्ति जगे तो वहाँ सम्यक्त्व की गंध न रही। जो योग्य अयोग्य को नहीं जानता उसके सम्यक्त्व नहीं है, ऐसा ही ज्ञात होता है। वचन से क्या कहना चाहिए, क्या न कहना चाहिए, इसका जिसे विवेक नहीं उसको कैसे सन्मार्ग पर कहा जाय? तभी तो अधिक बोलने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। अनावश्यक यथा तथा बोलने की प्रवृत्ति ठीक नहीं, क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति में भी अनेक बातें अयोग्य बोलने में आती हैं और इस तरह की जब वृत्ति बनती है तो उसके भीतर में भी आत्मबल नहीं रहता। क्या कहना योग्य है क्या अयोग्य है इसका जिसे विवेक नहीं वह पुरुष सम्यक्त्व से उन्मुक्त है। लौकिक और अलौकिक वृत्ति वालों में कुछ फर्क तो होगा ही। लौकिक रुचि वाले लोग तो लौकिक वृत्ति में ही फँसे रहेंगे और जिनकी अलौकिक वृत्ति है उनको सन्मार्ग का अवसर होता है। तो क्या कहना योग्य है क्या योग्य नहीं है इसे जो परख सकता वह ही सम्यक्त्व से उन्मुक्त होता है। इसी प्रकार शरीर से क्या करना योग्य है क्या करना योग्य नहीं है, इस बात को जो नहीं जानता वह भी अज्ञान में है। जब अंतः कोई मोह और कषाय का वेग होता है तो उस समय वह जीव योग्य अयोग्य सब को भूल जाता है। ऐसा पुरुष प्रथम तो अपने को ही बरबाद कर रहा। आत्मघात और ऐसा आत्मघात करने वाले पुरुष के संपर्क में अनेक जीव भी कष्ट पाते हैं। तो मन, वचन, काय का योग्य प्रवर्तन करना, अयोग्य न करना, इतना तो इस जीवन में रहे, उससे फिर आगे प्रगति बनेगी। नित्य अनित्य अजानकार के सम्यक्त्वोन्मुक्तता―इसी तरह जो नित्य अनित्य का विवेक नहीं करता, नित्य का अनित्य की तरह व्यवहार करता और अनित्य का नित्य की तरह व्यवहार करता, इस तरह का परिचय रखने वाले अज्ञानी पुरुष कहाँ रहते हैं? जीव मर गया, मैं मर जाऊँगा, इस तरह की शंकायें रखना एक अनित्य पदार्थ को नित्य मान लिया, विवेक न रहा। ये समस्त समागम, बाहरी प्रसंग सब अनित्य हैं, कुटुंब परिजन का संग अनित्य है उस पर ऐसी दृष्टि रहे कि यह तो सदा मेरा ही है, इससे मैं कभी जुदा हो ही न सकूँगा, मोहियों के दूसरों के कुटुंब के परिवियोग पर तो श्रद्धा रहती कि इस तरह से लोग गुजरते हैं पर अपने बारे में कभी ऐसी श्रद्धा नहीं बन पाती, वैसा ख्याल ही नहीं बन पाता। जिस तरह से किसी अन्य पुरुष के मरने पर उसको लोग श्मशान में ले जाया करते हैं एक ठठरी सी बनाकर, उस तरह से अपने आप के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता? एक समय वह आने का है कि जब यह शरीर कांतिहीन होकर, मृतक होकर इसे लोग ठठरी पर रखेंगे और यों कंधे पर ले जायेंगे सों चलेंगे। अपने आप के बारे में इस तरह का ख्याल नहीं जगता। तो नित्य अनित्य का जिसे कुछ विवेक नहीं वह पुरुष कैसे सम्यग्दृष्टि कहा जाय? सिद्धांत और दर्शन के अनुसार जो पदार्थ को नित्य ही मानते हैं उन्होंने वस्तु के उस सत्त्व का परिचय भुला दिया है। जो शाश्वत है, सदा रहेंगे यह उनके ध्यान में नहीं हैं और जो लोग नित्यपने का एकांत करते हैं उनकी कल्पना में ही नहीं आता कि पदार्थ क्या होता है। है वह ब्रह्म अपरिणामी। उसमें कुछ वृत्ति ही नहीं जगती। कोई अवस्था ही नहीं बनती, उसका कोई उपयोग ही नहीं है और है सब जगह, पर शाश्वत है। बात तो बोल जाते हैं बहुत मगर उपयोग में जंचता ही नहीं कि क्या है। जैसे हौवा एक ऐसा शब्द है कि बच्चे को माँ डराने लगती अगर वह रोये, कि बेटे रोओ मत, हौवा आ जायगा, पर हौवा कोई पक्षी है, कि पशु है कि क्या है। ये कुछ भी नहीं है? चीज कुछ है नहीं और बैठा है चित्त में हौआ, ऐसे ही जो अपरिणामवाद का एकांत है सो केवल एक शब्द परंपरा से बोलते आये और इसमें बड़ी एक शृंगार वाली बात सी बनती है बोलने में। परंपरा चली पर खुद को कोई भी विश्वास नहीं बैठता कि यह चीज क्या है। जो भी पदार्थ है वह द्रव्य पर्यायात्मक है। बनना, बना रहना, और बिगड़ना ये तीन बातें प्रत्येक पदार्थ में हुआ करती हैं। इस बात को मना कौन कर सकता? चाहे कोई किसी रूप में माने-बनना यह है विष्णु का रूप, बना रहना यह है ब्रह्मा का रूप और बिगड़ना यह है महेश का रूप। यों देवताओं के रूप में कोई कल्पना करे चाहे उत्पाद व्यय ध्रौव्य के रूप में कहो, जो तथ्य है, जो प्रयोग में आता है उसका निषेध कहाँ किया जा सकता? तो इस अनेकांत को कोई न माने तो वह खा पी भी नहीं सकता, उठ बैठ भी नहीं सकता, दूकान धंधा भी नहीं कर सकता, कुछ बात ही नहीं बन सकती। सो उस अनेकांत के प्रसाद से गुजारा तो कर रहे हैं, पर नाम से चिढ़ हो जाती है, अरे अनेकांत तो किसी और का है, ऐसा कहने लगते। तो जैसे वहाँ जिस अनेकांत के बल पर जी रहे हैं, खा पी रहे, गुजारा चल रहा उसको जब दर्शन का प्रकरण आता तो मानते नहीं। तो नित्य अनित्य का जहाँ विवेक नहीं वहाँ सम्यक्त्व का अनुमान कैसे बनाया जा सकता? हेय उपादेय के अजानकार के सम्यक्त्वोन्मुक्तता―हेय उपादेय का जिसको बोध नहीं, उसे चित्त में नहीं उतारते वह पुरुष भी सम्यक्त्व से रिक्त है। हेय तो हेय ही है यह तो ध्यान में आना चाहिए। यह पदार्थ उपादेय है यह तो समझ में रहना ही चाहिए। मगर उस हेय उपादेय जानने को हेय उपादेय जानने में हेय बताया गया। उपादेय है एक अविकार स्थिति। दृष्टि में हेय उपादेय, दृष्टि में उपादेय है, इसी प्रकार निज शाश्वत स्वभाव और हेय हैं सर्व प्रकार के विकार भाव, पुण्यभाव, पापभाव, शुभराग, अशुभ राग, सभी प्रकार के विकार ये हेय है, इन सबसे मुक्त हो जावे तो उसका पावन स्वरूप रहता है। सदा के लिए शांत रहता है, पर परिस्थितिवश जब वह करने चलता है तो किस तरह गुजारा बन पाता है सो वहाँ समझ में आता है। अशुभोपयोग तो अत्यंत हेय है, शुभोपयोग हेय है, शुद्धोपयोग अत्यंत उपादेय है। इन शब्दों में अमृतचंद्र ने बताया है, इसलिए हेय और उपादेय इनमें क्या फर्क समझा जा सकता? फर्क तो है ही। जिसके साथ अत्यंत नहीं लगा उसका अर्थ है कि किसी परिस्थिति में वह उपादेय होता है। अशुभोपयोग में रमने वाले को शुभोपयोग उपादेय बनता है और शुभोपयोग कुछ होने पर अशुभोपयोग के कुछ दूर होने पर शुद्धोपयोग में ही रम जाय कोई तो प्रथम तो वह शुभ रहा ही नहीं, वस्तुतः वह मिथ्या अभिप्राय हो गया, उसने विकार को स्वीकार कर लिया और जितना कुछ है तो वह अटका ही तो रहा। और शुभोपयोग से हटकर आगे बढ़ा और एक निर्मल वीतराग भाव में आया। हाँ उनकी यह गप्प है जो अशुभोपयोग से तो हट पाते नहीं और शुभोपयोग हेय है ऐसा कहकर मौज पूर्वक शुभोपयोग से हट ही जाते हैं। उनका कर्तव्य वह सब गप्प रूप है। हेय क्या है, उपादेय क्या है, श्रद्धान में किस तरह हेय उपादेय है, करतूत में किस तरह हेय उपादेय है। इन सब बातों का जिनके विवेक नहीं उनके सम्यक्त्व है ऐसा कैसे अनुमान हो पायगा? वस्तु का जैसा यथार्थ स्वरूप है उस ही तरह कोई जाने तो वह सत्य ज्ञान है। हो कुछ और जाने कुछ तो वह असत्य ज्ञान कहलाता है। सत्य क्या? यह भी अभिप्रायवश अनेक प्रकार का रूप रख लेता है। जब अष्टान्हिका के दिनों में अरहदास सेठ के घर चैत्यालय में ही 8 दिन रात धार्मिक समारोह पर्व चल रहा था उन्हीं दिनों में राजा नगर के निरीक्षण के लिए रात्रि को ही चल उठा। निरीक्षण विशेषतया इस कारण हुआ कि उस राजा का उन दिनों यह आदेश था कि होली फाग के दिन करीब हैं, इन दिनों नगर के सभी लोगों को नगर छोड़कर वनक्रीड़ा करके, वन विहार करके हर्ष मनाना चाहिए। सेठ अरहदास ने राजा से इस बात की छूट ले रखी थी। वह अपने घर अष्टान्हिका पर्व मना रहा था। इन्हीं दिनों जब राजा नगर का निरीक्षण करने के लिए रात्रि को निकला तो कुछ चर्चा सुनकर अरहदास सेठ के मकान के पीछे खड़ा होकर सुनने लगा। वह चर्चा उस राजा से संबंधित थी। सेठ अरहदास में और उसकी 8 सेठानियों में वह धर्म चर्चा चल रही थी। सेठ ने जब कोई कथा कहा तो सभी सेठानियां कहे―बिल्कुल सच, और जब कोई सेठानी कथा कहे तो सभी कहें बिल्कुल सच, पर जो सब से छोटी सेठानी थी वह बार-बार यही कहे बिल्कुल झूठ। राजा छोटी सेठानी की बात सुनकर बड़े आश्चर्य में था कि देखो सभी की बात ठीक है पर छोटी सेठानी कहती है बिल्कुल झूठ। खैर विचार किया कि सबेरा होने पर उस छोटी सेठानी को राज दरबार में बुलवाकर सारी जानकारी करेंगे। आखिर सबेरा होते ही राजा ने उस छोटी सेठानी को पालकी में बैठाकर राजदरबार में बुलवाया जैसा कि कायदा है और पूछा कि तुम सच बताओ रात्रि में तुम्हारे घर जो धर्मचर्चा हो रही थी उसमें सभी लोग तो कहते थे बिल्कुल सच, पर तुम कह रही थी बिल्कुल झूठ, सो कैसे? तो उस छोटी सेठानी ने मुख से कोई उत्तर न दिया किंतु सारे आभूषण उतार कर केवल एक ही वस्त्र पहने हुए वन (जंगल) की ओर चल पड़ी और उस समय मानो उसकी मुद्रा ही उपदेश देती गई कि सच तो यह है। तो जो लोग केवल बातें करते हैं, क्रियाशून्य हैं, क्या उनकी वह बात सच है? नहीं, वह सच नहीं। तो सत्यता का भी कोई आशय हुआ करता है, पर जो बात जैसी है वैसी जानना सो सत्य का परिचय है। हित और अहित से हित भी सत्य असत्य का है। सत्य का अभिप्राय है प्राणियों का भला होना और इसी बात पर यह उपदेश किया गया है कि ऐसा सत्य भी न बोलना चाहिए जिससे दूसरा जीव मर जाय, विपत्ति को प्राप्त हो। तो जो सत्य और असत्य का विवेक नहीं कर सकता वह पुरुष सम्यक्त्व से उन्मुक्त है। भव्य व अभव्य के अजानकार के सम्यक्त्वोन्मुक्तता―इसी प्रकार भव्य और अभव्य का विवेक जिसके नहीं वह भी सम्यक्त्व से उन्मुक्त है। लोग तो जिस चाहे बात को अनहोनी कह देते हैं, दूसरों के लिए होनी और अपने लिए अनहोनी। जैसे कोई आकस्मिक उपद्रव हुआ, कोई इष्ट गुजर गया तो वह कहता कि अनहोनी हुई। अरे जो भवितव्य में है सो हुआ। जो जिस योग मे, जिसके जिस विधान से जब जो होना था हुआ, अनहोनी क्या? आज यह जीव मनुष्य पर्याय में है सो आज धन से बड़ी ममता, परिजनों से बड़ा मोह। जरा-जरा सी बातों में कुछ बुरा लगता, कुछ अनसुना होता, कुछ सुहा जाता, ये कितनी ही तरह की बातें होती हैं। अरे कदाचित इस मनुष्य भव में आप न होते, कोई कीड़ा मकोड़ा की पर्याय में होते, कहीं भी होते तो फिर आप के लिए यहाँ का कुछ भी कुछ था क्या? जो होता है वह ठीक चल रहा है। तो यह जीव न होने योग्य को होनी और होने योग्य को अनहोनी मान रहा है। एक बात और भी ध्यान में दें कि यह जीव बड़ी-बड़ी कल्पनायें करता बाहरी पदार्थों के बारे में। मैं इसको यों सुखी कर दूँगा, मैं इसको इतना ऊँचा बना दूँगा, मैं इस पदार्थ को भी परिणमा दूँगा। भला बताओ जीव कर सकता है क्या ऐसा? जो रूप रस गंध स्पर्श से रहित अमूर्त द्रव्य है वह इन बाह्य पदार्थों में क्या कुछ कर सकता है? नहीं कर सकता, पर मानता है कि मैं करता हूँ तो उसने अभव्य को भव्य ही तो बनाया। योग्य को होने योग्य ही तो बनाया और जो बात हो सकती है अज्ञानदशा से हटकर अपने आप के स्वरूप को निरखें और सारा ममत्त्व का बोझ फेंककर अपने को आनंदमय अनुभव करें, यह बात क्या हो नहीं सकती? भव्य है, होने योग्य है, जो जिस जाति में हो सकता है वह वहाँ ही तो होता है। पुद̖गल में परिणमन जीव जैसा नहीं हो सकता। जीव में परिणमन पुद̖गल जैसा नहीं हो सकता मगर मोही जन मानते हैं कि मैं इन समस्त बाह्य पदार्थों का परिणमन कर दूँगा, और अपने आप के धर्म, गुणविकास, सम्यक्त्व, अपने आप में रमकर संतुष्ट होना आदि जो बातें संभव हो सकती हैं उनसे अरुचि है, विरक्ति है, और ऐसा भाव लिए हुए हैं कि यह तो बस त्यागियों के हुआ करता है। हम लोगों की कहाँ ये दृष्टियाँ हैं। अरे जो चेतना में हो सकता है वह उस चेतना में ही संभव है। जो अजीव में हो सकता वह उस अजीव में ही संभव है। तो ऐसे भव्य अभव्य का जिनको परिचय नहीं वे जीव सम्यक्त्व से उन्मुक्त हैं।