वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 40
From जैनकोष
लेइयजणसंगादो होइ मइमुहर कुडिलदुब्भावो।
लेइयसंगं तम्हा जोइवि तिविहेण मुंचाहो।।40।।
लौकिकसंसर्ग की हेयता का कारणसहित समीक्षण―लौकिक पुरुषों का संग करने से यह जीव मुखरमती हो जाता है। मति इसकी मुखर हो जाती है। अनुचित कार्यों में बुद्धि लगे, उचित कार्यों में बुद्धि न लगे, ऐसी उसकी वृत्ति बन जाती है। लौकिक जनों के मायने अज्ञानी मिथ्यादृष्टि, मोही, जो कि हेय उपादेय का ज्ञान नहीं रखते, ऐसे पुरुषों का बहुत-बहुत संग रहे तो वहाँ बुद्धि मुखर (मंद) हो जाती है। इस ज्ञान दर्पण में जिसका आकार बहुत काल बना रहता है और बन रहा है एक उमंग लेकर तो उस पर वैसा ही प्रभाव होगा। लौकिकजनों के संग में दोष दृष्टि अधिक रहा करती है, गुणदृष्टि नहीं हो पाती, क्योंकि प्रायः गुणियों का अभाव है जिनके संग में यह जीव रह रहा है तो उस पर छाया प्रतिफलन दोष का ही तो चलेगा। तो जो पुरुष लौकिक पुरुषों की संगति करते हैं उनकी बुद्धि मुखर हो जाती है। जिसे कहते हैं मोटी हो जाना, वहाँ कुछ विवेक नहीं रहता, ऐसी स्थिति हो जाती है। इस कारण कर्तव्य यह है कि अपना अधिकाधिक समय ज्ञानी गुणी व्रती जिज्ञासु हो जाती है। जिसे कहते हैं मोटी हो जाना, वहाँ कुछ विवेक नहीं रहता, ऐसी स्थिति हो जाती है। इस कारण कर्तव्य यह है कि अपना अधिकाधिक समय ज्ञानी गुण व्रती जिज्ञासु मुमुक्ष, संसार, शरीर भोगों से विरक्त पुरुषों की संगति में बिताना चाहिए। और यह बात उसके ही संभव है जिसको आत्महित की अभिलाषा है। और जो अपनी बुद्धि में यह बात भरे हुए हो कि मैं तो खुब जाननहार हूँ, ज्ञाता हूँ, समझदार हूँ, विवेकी हूँ। मुझ सरीखी बुद्धि तो कहीं अन्य जगह होती नहीं है। ये तो सब बातें कुछ अटपट सी हो रही हैं। भीतर में तो मैं ही बुद्धिमान हूँ इस तरह की बात चित्त में आये उनको सत्संग की बात चित्त में नहीं आ सकती, और न सत्संग करने का जो मूल भाव है विनय, वह विनय भी चित्त में नहीं आता। लौकिक संग से इस जीव का अनर्थ ही होता है, अतएव लौकिक संग से विमुख होकर कुछ अलौकिक पुरुषों की संगति का उद्यम करना चाहिए।