वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 12
From जैनकोष
कंदप्पाइय बट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं ।
मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।12।।
(28) मायाचारी, कुकृत्यानुरागी मुनिभेषी की पशुसमता―जो पुरुष जिनमुद्रा धारण कर कंदर्प आदि कार्यों में लगता है खोटे वचन, खोटा मन, खोटी कायचेष्टा, खोटी और ध्यान आदि इस प्रकार कंदर्प आदिक कार्यों में लगता है तो वह पुरुष तिर्यंचयोनि वाला है, पशु है, श्रमण नहीं है, क्योंकि पशु भी कंदर्पादिक कार्यों में लगते हैं । पशु-पक्षी जैसा मनचाहा खोटे काम में चेष्टा करता है तो यही किया मुनिभेषी ने तो वह श्रमण नहीं है, किंतु तिर्यंचयोनि वाला है, पशु है । भोजन आदिक में जो रस की गृद्धि करता है वह भी तिर्यंच है, श्रमण नहीं है । पर्याय में आत्मबुद्धि होने पर इंद्रिय के विषयों में प्रीति होती है और ऐसे सम्मोहपूर्वक उन उपभोगों को भोगता है तो यही बात जो मुनिभेषी श्रमण करे तो ऐसा आसक्त मुनि मुनि नहीं है, किंतु तिर्यंचयोनि वाला याने पशु है । कोई मायाचार करे, मायाचारी होती है इष्टविषयों का लाभ न होने पर । तो जब विषयों में प्रीति है, कषायों में प्रीति है, यश की वांछा है तो वहां कपट का प्रसंग आता है । तो ऐसा मायाचारी का जिसका जीवन है वह श्रमणाभाषी मुनिभेषी श्रमण नहीं है, वह तो मात्र पशु है । यह सब प्रकरण चल रहा है―मुनिधर्म की सब प्रवृत्तियाँ मोक्षपाहुड में बनाकर कि कैसी प्रवृत्ति मुनि को न करनी चाहिए, यह कोई आलोचना या निंदा की बात नहीं है । कुंदकुंदाचार्य ग्रंथकर्ता हैं और मुनि जनों को संबोध रहे हैं कि ऐसी-ऐसी खोटी भावनायें न आनी चाहिए, क्योंकि कर्म जो बँधते हैं सो वे कहीं बाहरी बातें देखकर कि ये गृहस्थ हैं, इनके बँधे और ये मुनि बन गए सो इनके न बँधे, ऐसी बात नहीं है । अगर खोटे भाव मुनिभेषी के हैं तो वहाँ कर्मबंध होगा और गृहस्थ के वे खोटे भाव नहीं हैं तो उसके कर्मबंध कम होता है । तो जब भाव खोटे हुए उसे मुनिभेषी के तो वह कर्मों से घिरा ही है । तो ऐसा मुनिभेष धारण करके मायाचारी या लिंग कोई खोटी वासना न होनी चाहिए । गृहस्थधर्म छोड़कर मुनि बन गए । अब फिर भी आहार विषय लोलुपता करने लग जाये तो गृहस्थावस्था में अनेक प्रकार के रसीले भोजन मिलते ही थे, उनका त्याग करने का यहाँ फल क्या मिला ? क्योंकि गृहस्थपन का त्याग किया? जो आत्मभावना को नहीं पहिचानता, आत्मस्वभाव की दृष्टि से होने वाला जो अलौकिक आनंद है उसको जो नहीं पहिचानता वह विषयसुख की ओर ही तो दौड़ेगा, वहाँ ही चाह रहेगी ।
(29) रसासक्त, मुनिवेषी की कुभावनाओं का दुष्परिणाम―जो भोजन का लंपटी है सो समझिये सभी इंद्रिय का लंपटी है । भले ही किसी इंद्रिय की दुर्वासना सामने न आये, किंतु जो रसीले भोजन करने का इच्छुक रहता है समझिये कि उस मुनि के मुनिभेषी के संस्कार में वह सब विषयों की वृत्ति बनी हुई रहती है । तो भोजन के रस की वांछा जो नहीं छोड़ सकता वह सभी पापों की भावना वाला बन जाता है । जैसे एक प्रकरण में बताया गया है कि कोई जुवा खेलने वाला पुरुष था तो उसने कोई ऐसा दूसरा कार्य किया जैसे शराब पीना या मांस खाना या वेश्या परस्त्री आदिक सेवन करना, तो उससे जब किसी ने पूछा कि भाई ये सब बातें तुम में कैसे आयीं? तो उसने बताया कि एक जुवा का व्यसन आ जाने से मुझमें ये सब बातें आयीं । जुवा खेलने वालों के पास मुफ्त ही धन आता सो उसका उपयोग बुरे काम में होता । तो ऐसे ही समझिये कि एक रसनाइंद्रिय का लंपटी होना एक ऐसी कठिन बाधा है कि जो रस का लोलुपी होगा तो समझिये कि उसके संस्कार में सभी दृष्टियों का व्यापार बसा हुआ है । और फिर यह स्पष्ट बात है कि आत्मस्वभाव का स्वाद उसे रुचा ही नहीं है इसलिये आत्मा की सुध छोड़-छोड़कर वह इन बाहरी प्रवृत्तियों में लगता है । सो जो मुनिभेषी अपनी इस जिनमुद्रा का उपहास करता है वह नरकगति का ही पात्र होता है । उसने जैनशासन की अप्रभावना की । जो जिनभेष धारण करके खोटी प्रवृत्ति में लगता है उसके कितने अनर्थ हो जाते हैं, खुद का भी पतन होता और जो धर्मात्मा जन धर्म के मार्ग में लगना चाहते थे वे ऐसे मुनिभेषियों की कुवृत्ति देखकर धर्म की श्रद्धा से हट जाते हैं । तो ऐसे पुरुष ने तो जैनशासन का मूलत: खंडन करके उपहास किया । इस कारण पहले जब यह बात चित्त में समा जाये कि मेरा सहज आत्मस्वरूप ही परम आनंदमय है । मैं इस कारणसमयसार का ही आश्रय रखूंगा । ऐसी जिसकी दृढ़ प्रतीति हो गई है वह पुरुष ही विषयों से दूर रहता है और विषयों से दूर रहने वाले अपने आत्मा की ओर अधिक झुका करता है, पर जिसको आत्मा ही का परिचय नहीं वह तो इन्हीं लौकिक कार्यों में जुटेगा और इनके जुटाव से ऐसे पाप का बंध होता कि वह भव-भव में क्लेश पायगा । इस कारण मुनिभेष, धारण कर अनुचित कार्य न करना चाहिए ।