वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 11
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्ते तवसंजमणियमणिच्चकम्ममि ।
पीडयदि य वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ।꠰11।।
(26) योग्य नित्यकर्म में व आत्मस्वरूप के आलंबन में अनुत्साह रखने वाले एवं विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले मुनिवेषियों का अधःपतन―कोई मुनिभेषी अपने कर्तव्यों में प्रमाद करता है, उनकी अत्यंत उपेक्षा करता है और गृहस्थों की नाई स्वच्छंदता बनाता है तो वह भी नरकगति को प्राप्त होता है सम्यग्दर्शन का प्रकाश पाना और ऐसी ही प्रवृत्तियों का करना यह मुनियों का कर्तव्य है, लेकिन जो इनमें ही प्रमाद कर रहा वह उस समय में भी दुःखी होता है और आगे भी नरकगति जन्म पाकर दुःखी होता है । सम्यग्ज्ञान में प्रमाद क्या है स्वाध्याय न करना, जो भी विद्या पड़े उसमें प्रगति का उपाय न करना, उस दशा में एक मौजपूर्वक रहना यह है सम्यग्ज्ञान की उपेक्षा । तो मुनिभेषी सम्यग्ज्ञान के प्रति कर्तव्यहीन है वह भी नरकगति का पात्र होता है । चारित्र कहलाता है ज्ञान ज्ञानरूप बना रहना, ज्ञाता द्रष्टा रहना, जैसा सहज स्वरूप है उस रूप में अपना अनुभव करना, ऐसा यह चारित्र का स्वरूप हैं । ये रत्नत्रय के भाव इस जीव के स्वभावत: भाव होते हैं इस भाव में न रहे तो धर्मपालन ही क्या कहलाता ? इस चारित्र में प्रमाद करने वाला मुनिभेषी नरकगति का पात्र होता है । तपश्चरण कर्मनिर्जरा का साधन है, किंतु कोई मुनिभेषी यथार्थ तपश्चरण से विमुख रहे और खोटे तपश्चरण में अपना उपयोग लगाये तो वह पुरुष भी नरक का वास प्राप्त करता है । संयम कहते हैं अपने उपयोग को स्वरूप में ही नियंत्रित कर लेने को । ऐसा संयम मुनियों का एक प्राकृतिक कार्य है । यदि आत्मा अपने स्वरूप की ओर उपयोग का संयम न करे और स्वच्छंद होकर बाहर ही बाहर उपयोग को रमाये तो यह मुनिपद के लिए कलंक है । तो जो यों संयमादिक नित्य कार्यों में दुःखी होता है, नित्य कर्तव्यों में सावधान नहीं है वह पुरुष भी नरकगति को प्राप्त करता है । नियम भी अनेक प्रकार के होते हैं । कोई घंटे भर का ही नियम ले, कोई वर्षों का नियम ले, कोई आजीवन का नियम ले, उन नियमों के प्रसंग में आलस्य आना, उसे न निभा पाना, उन नियमों को ढोंग समझना, ऐसे कार्य में जो रहता है वह मुनिभेषी नरकवास को प्राप्त होता है ।
(27) अज्ञानी मुनिवेषी का आत्मज्ञ न होने से परतत्त्वों में रमण होने का फल दुर्गमन―यह आत्मा की आंतरिक क्रिया का जिक्र चल रहा है । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, निश्चयरूप और व्यवहाररूप । निश्चय में न टिक सके तो उसका व्यवहाररूप आचरण ही तो बनता है, तो उस व्यवहाररूप में आत्मस्वरूप के विरुद्ध चेष्टायें न बनाये तो यह है साधक की रक्षा, और जो स्वच्छंदतया उल्टे कृत्यों में लग जाता है वह नरकवास को ही प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शन में व्यवहारसम्यग्दर्शन तो देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा, 7 तत्त्वों का परिज्ञान, 7 तत्त्वों की श्रद्धा यह सब व्यवहारसम्यक्त्व है । और निश्चयसम्यक्त्व में आत्मा को अपने सहज आत्मस्वरूप का परिचय हो जाता है और उसमें ही ध्यान रहता है । व्यवहारसम्यग्ज्ञान―स्वाध्याय करना, चर्चा करना, गुरुमुख से पढ़ना आदिक यह सब व्यवहार सम्यग्ज्ञान है । और निश्चयसम्यग्ज्ञान क्या आत्मा का जो उपाधिरहित स्वरूपास्तित्व के कारण जो स्वरूप है उस स्वरूप को अनुभवना, उसकी जानकारी होना यह है निश्चयसम्यग्ज्ञान ।
व्यवहारचारित्र―व्रत नियम आदिक क्रियायें होना, महाव्रत पालन, समितिपालन, यह सब व्यवहारचारित्र है और निश्चयचारित्र क्या? आत्मा में रागद्वेष न होना, और सबका मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहना, यह है निश्चयचारित्र । तो ज्ञानी पुरुष इस रत्नत्रयभाव में प्रमाद नहीं करते । जो प्रमाद करते हैं वे नरकवास को प्राप्त होते हैं, उनके तप संयम नियम भी रुचि के कार्य हैं । ये सब कार्य किसलिए किए जाते कि मन स्वच्छंद हो सकता है सो कहीं यत्र तत्र न घूमे और ऐसी अवस्था में स्वयं के स्वरूप का परिचय मिलता है । स्वरूपपरिचय होने पर उसके तप, संयम नियम सब यथावत् होने लगते हैं । और एक शरीर में ही आत्मबुद्धि करके कि मैं साधु हूँ मुझे ऐसा चलना चाहिए, इस निर्णय में तो मिथ्यात्व बसा हुआ है, क्योंकि उसने अपने को मुनिपर्याय वाला मान लिया । तो सम्यग्ज्ञानसहित जो क्रिया होती है वह इसके लिए फलदायक होती है ꠰ जो इस क्रिया को नहीं करता, प्रमाद करता है ऐसा पुरुष नरकवास को प्राप्त होता है । बात यह है कि जिनमुद्रा धारण कर जो काम करने चाहिए थे, उनका तो निरादर रहता है, उनमें प्रमाद रहता । है और जो कार्य न करने चाहिये, उनकी ओर वृत्ति होती है, तो यह नरकवास का ही एक द्वार है ।