वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 2
From जैनकोष
धम्मेण होइ लिंग ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती ।
जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो ।।2।।
(4) धर्मभाव के द्वारा ही जिनलिंग की यथार्थता―इस गाथा में मूल बात कही जा रही है श्रमणों की वृत्ति के विषय में कि धर्म से लिंग सिद्ध होता है, पर लिंग मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती । धर्म के मायने मोह रागद्वेषरहित उपयोग रहे वह कहलाता है धर्म । ऐसी अंत: साधना बनती है तो वह मुनिभेष जिनलिंग कहलाता है और यदि यह साधना नहीं बनती, इस साधना का जहाँ प्रयास ही नहीं है, लक्ष्य ही न हो तो उसे कहते हैं केवल एक नग्न होना । मानो कोई पुरुष खेल-खेल में या पगलाने में या किसी गरीबों में नग्न होकर यत्र तत्र फिरे और धन बिल्कुल नहीं है उसके पास, कुछ लिए है ही नहीं, तो क्या उसे कोई कह देगा कि यह जिनलिंग है, मुनिलिंग है अथवा यों पुरुषों को छोड़ो, पशु-पक्षी तो सभी नग्न रहते हैं । तो केवल नग्नता मात्र से साधुलिंग नहीं होता, किंतु रागद्वेष का अभाव हो, समता का परिणाम हो, परिपूर्ण आत्मविकास का ध्यान हो और विकास के आधारभूत सहज आत्मस्वरूप का ज्ञान हो, ऐसी वृत्ति के साथ जो मुनिभेष है वह लिंग है मोक्ष का । वह है श्रमणलिंग, पर धर्म से हीन रहे कोई, विरागता, सम्यग्ज्ञान, इनका कुछ वास्ता न हो तो उससे कहीं बाह्य भेष द्वारा धर्म की प्राप्ति नहीं होती ।
(5) आत्मसिद्धि का साधन आत्मसाधुता―यहां यह अंतस्तत्त्व जानना है कि मोक्ष वह कहलाता है कि जहाँ केवल आत्मा ही आत्मा रह गया, और केवल आत्मा ही रहने के कारण ज्ञान का परिपूर्ण विकास हो गया और उसके साथ ही अनंत निराकुलता सहज परम आह्लाद अलौकिक आनंद जग गया, ऐसी स्थिति कहलाती है मोक्ष, परमात्मस्वरूप । तो ऐसी स्थिति पाने का साधन है ज्ञान में केवल ज्ञानस्वरूप को निरखना और उसरूप भावना करके स्वमग्नता बना लेवे, यही है वास्तविक साधन जिसके द्वार से मुक्ति की प्राप्ति होती है । मुक्ति मायने छुटकारा । किससे छुटकारा चाहते हैं? स्थूलरूप से विचार करेंगे तो कहेंगे शरीर से छुटकारा चाहते । किस शरीर से छुटकारा कि इस शरीर से निकलने के बाद फिर मुझे कोई दूसरा शरीर न मिले । तो शरीर से छुटकारा चाहते हैं याने शरीर न मिले, ऐसा चाहते हैं तो जो शरीर मिलने का कारण है वह कारण न बनाये । शरीर मिलने का कारण है परद्रव्यों का लगाव रखना । विषयों के लिए, मौज के लिए, मन बहलावा के लिए बाह्यपदार्थों का जो लगाव है वह शरीर मिलते रहने का साधन है । इस शरीर में आत्मबुद्धि है, यह ही मैं हूँ । शरीर में ही ऐसा निर्णय रखते हैं वह है अन्य शरीरों के मिलने का कारण । तो यह कारण न रहना चाहिए । तो स्थिति क्या होगी कि यह ज्ञान अपने में ज्ञानमात्ररूप अनुभव बनायगा । तो मोक्ष का साधन यह है ।
(6) अलौकिक साधना वालों की अलौकिक वृत्ति―अब आत्मानुरूप ज्ञान वाला साधन जो कोई महापुरुष करेगा उसका शरीर तो नहीं टिकेगा । शरीर का साधनभूत जो कार्य है वह भी तो करना पड़ेगा । मोक्ष का साधनभूत जो कार्य है उसका भी तो साधन बनाना होगा । तो यह सब आंतरिक और व्यावहारिक समस्याओं का जो समाधान है, बस यही है मुनि लिंग । तो ऐसे भीतरी भावसहित समता वीतरागता की वृत्ति सहित जो मुनिलिंग है सो वास्तव में मुनिलिंग है और धर्म से रहित जो लिंग है सो समझिये कि जैसे जीव से रहित जो शरीर है, पुतला है, वह निःसार है, ऐसे ही भाव से रहित जो जिनलिंग है वह निःसार है । चाहे मुनि हो, चाहे श्रावक हो, जो भी भेदविज्ञानी मुक्ति के पंथ में लगा हुआ है उसका स्पष्ट निर्णय है कि ज्ञान के शुद्ध होने का नाम मोक्ष है । रागद्वेषादिक रहित होने का नाम मोक्ष है, तो रागद्वेषरहित अविकार सहज अमोघ दर्शनज्ञानस्वरूप की साधना में ही मोक्षमार्ग का साधन है । निश्चित बाह्य साधन ज्ञानभाव के अलावा और कोई नहीं है, इसलिए सभी की यह दृष्टि होना चाहिए कि जब कभी भी, अपने आपको समस्त परद्रव्यों में निराला ज्ञानस्वरूपमात्र अपने को लखता रहे । जितने भी बाहरी समागम हैं ये एक रत्ती भी साथ न जायेंगे । जितने भी बाहरी समागम हैं उनके लगाव में केवल कष्ट ही है, मोक्षमार्ग या आनंद नहीं है । जब कुछ ही दिनों बाद सब कुछ छोड़कर जाना ही पड़ेगा तो वह अभी से ही क्यों ऐसा नहीं देखा जा रहा कि इन सब पदार्थों का स्वरूपास्तित्व मुझ में कतई नहीं है, उससे मेरा तनिक भी संबंध नहीं है । ऐसा निरखें और इस ही तरह की भावना से अपने आपमें गुप्त होने का प्रयास करें । ऐसी साधना बनती है साधु संतों के, सो इस भावनासहित जो उनका लिंग है वह कहलाता है वास्तव में साधुलिंग, ऐसा जानकर इस भावधर्म की आराधना बनावें । मैं ज्ञानमात्र हूं । कितने भी कष्ट हों, कितना भी उपयोग बाहर फिरता रहता हो, फिर भी यदि यह दर्शन हुआ है, श्रद्धान हुआ है, खुद को रुच गया है कि आत्मा अपने आप में मिले, इस ज्ञान में सिर्फ ज्ञानस्वरूप ही समाया हुआ हो तो हमको परमात्मस्वरूप दिख सकता है, मिल सकता है अन्यथा नहीं । इस ही साधना में हमको वास्तविक शरण मिलता है, अन्य प्रकार से कुछ भी पदार्थ मेरे को शरण नहीं । (7) भाव की सम्हाल से जिनलिंग में रहकर धर्म की संप्राप्ति―जब एक धर्मभाव के साथ रहने से मुनिलिंग कहलाता है और मुनिलिंग बिना मुक्ति नहीं होती है तो उस धर्म को पहिचानते हुए धर्म के साथ रहन से वह मुनिलिंग भावलिंग कहलाता है । भाव के निकट होने में याने सहज ज्ञानस्वरूप का निर्णय व आराधन हो तो उसके भावलिंग होता है । जैसे किसी स्वादिष्ट वस्तु का नाम लिया तो उसका परिचय कैसे जल्दी हो जाता है लोगों को । कोई एक व्यंजन का नाम लिया तो सुनने वाले उसके बारे में सब समझ जाते हैं और बड़ा स्पष्ट रहता है । यह कहा गया, यह है वह चीज । यह सब स्पष्ट क्यों है कि उसका स्वाद लिया है, अनुभव किया है, खाया है और उस समय जो उसमें सुख माना है इसका अनुभव भी किया है । सो नाम सुनते ही वह सारी बात ज्ञान में बैठ जाती है । ऐसे ही आत्मस्वरूप की कथनी, आत्मस्वरूप की वार्ता, सहज आत्मस्वरूप का लक्ष्य, जो कुछ भी कहा जाता है तो सुनने वाले समझ जाये, उसे अनुभव में उतार लें, यह सुनने वाले आत्मा की ही महिमा है, शब्द की महिमा नहीं या उन सूत्रों की महिमा नहीं । ये भले ही निमित्त बन गए, आश्रयभूत हो गए, मगर होते उसी को ही जिसने इस सहज अंतस्तत्त्व का परिचय किया है, इसके बारे में कुछ भी वर्णन चले उसे वह पूरा स्पष्ट होता चला जाता है । क्या है वह भावधर्म जिसके साथ होने से वे श्रमण गुण कहलाते हैं । मूल में बात यह है कि अपना जो अविकार सहज ज्ञानस्वभाव है तन्मात्र ही अपने को मानना, अनुभव करना, इसके प्रसाद से जो अंत: धुन बनेगी उस धुन में स्वयं ऐसी बात बनेगी कि जो चरणानुयोग में मुनिलिंग के लिए बात कही गई है तो ऐसे इस श्रमणलिंग का इस ग्रंथ में वर्णन चलेगा ।