वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 3
From जैनकोष
जो पाएमोहिदमदी लिंगं धेत्तूण जिणवरिदाणं ।
उवहसइ लिंगिभावं लिंगं णासेदि लिंगीणं ।।3।।
(8) पापमोहितबुद्धि वाले साधुवों का जिनलिंग की ओट में स्वपरविषयक अन्याय―पाप से मुग्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा कोई मुनिभेषी जिनेंद्रदेव का लिंग ग्रहण करके अर्थात् मुनिमुद्रा धारण करके जो मुनिभेष का उपहास कराता है सो वह समस्त मुनिवरों के प्रति लोगों की श्रद्धा हटाता है । कुछ मुनिवरों को देखकर मन में भाव उठा, कुछ ऐसी वासना बनी कि इसमें बड़ा सुख है और बड़ी सुख सुविधा है, किसी भाव से मुनिभेष तो धारण कर लिया, पर बुद्धि पाप में डूबी है । पाप क्या है? विषय और कषाय, पंचेंद्रिय के विषय, उनमें मन लगा रहना यह पाप है । पंच इंद्रिय के विषयों में बुद्धि लग रही उसी से संबंध है इस बात का कि बड़ी शौक शान की वस्तुवों को रखना । अच्छी कलम है, अच्छी घड़ी है, अच्छी टेबल है, अच्छा तख्त है, बड़ी ठसक के साथ रहते, शरीर को भी बार-बार हाथ से झाड़-फाड़कर देखते, ये सारी बातें स्पर्शनइंद्रिय के विषय में अथवा मन में विषय नामवरी में आसक्त जनों के होती हैं । मुनि को तो सर्व वस्तुवों से उपेक्षाभाव रहना चाहिए । यह आत्मदृष्टि ही मुख्य होनी चाहिए । पर आत्मा में आनंद बसा हुआ है ऐसी जिनकी श्रद्धा नहीं और आत्मीय आनंद के इच्छुक नहीं, उनके बाह्य विषयों से प्रीति और धुन हुआ करती है । भोजन रसीला, स्वादिष्ट मनपसंद मिले, उसमें रुचि होना, यदि इष्ट मनपसंद न मिले तो उसमें दो बात सुनाना ये सारी पाप क्रियायें हैं । मुनि को तो वैसे ही आत्मध्यान ज्ञान के कारण समय ही नहीं अधिक कि जो अटपट विचार बनाये, चर्या बनाये । ज्ञान ध्यान में रत रहता है मुनि । बहुत अधिक क्षुधा होने पर वह भिक्षाचर्या के लिये मुश्किल से समय निकालते हैं, मानो उस समय विवेक मुनि का हाथ पकड़कर कहता है कि उठो, भिक्षाचर्या करो, इसके बिना भी गुजारा न चलेगा याने साधु का अंतरंग भाव तो नहीं होता आहार के लिये, पर परिस्थिति व विवेक यह सब काम करता है, सो मुनि को तो वैसे ही समय नहीं है अधिक जो कि वे कुछ शौक में, कुछ मौज में अपना समय गुजारें । उनको विषयों से कैसे प्रीति होगी? ऐसे ही घ्राणइंद्रिय, चक्षुइंद्रिय इनके विषय की प्रीति होना पाप है । सुगंधित पुष्पों का पास में ढेर लगना चाहिए । दर्शनार्थी लोग आये तो पुष्प चढ़ायें उससे कमरा बड़ा महक जायेगा । सुगंध में प्रीति रखना, सुंदर रूप को निहारने का मन में भाव रखना, ये सब पाप की बातें हैं ꠰ इन पाप क्रियावों में जिनकी बुद्धि मोहित हुई है, ऐसे मुनिजन इस मुनिमुद्रा का उपहास कराते हैं और सब मुनियों की ओर से भक्त जनों का विश्वास हटा देते हैं । लोग कहाँ जानते कि ये अज्ञानी मुनि हैं, भेष मात्र रख लिया, इसलिए इनकी क्रिया से कोई निर्णय नहीं बनता कि मुनिधर्म ऐसा ही हुआ करता है, लोग तो उसे सत्य समझ रहे और उनकी होती हों पापक्रियायें, तो लोग श्रद्धाहीन हो जायेंगे कि जब धर्म के धुरंधर मुनिगण भी ऐसी अटपट वृत्ति रखते हैं तो धर्म की बात सब बेकार है । उस मुनिभेषी ने कितने ही लोगों का नुक्सान किया ।
(9) जिनमुद्रा की प्रेयरूपता व श्रेयरूपता―बालकवत् अविकार रहना, विषय और मन के विषयों की कोई प्रीति न होना, एक ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप में ही यह मैं हूँ इस प्रकार की भावना दृढ़ करना, इन सबका परिचायक है यह मुनिभेष । जिसके संबंध में एक स्तुतिकार ने वर्णन किया कि इन मुनियों के पास कोई शस्त्र नहीं, जबकि अनेक संन्यासियों के पास त्रिशूल, बर्छी, धनुष, बाण आदि एक धर्म का अंग घोषित करके हथियार रहता है, तो मालूम होता है कि उनको किसी का डर है, तब ही हथियार का वे लगाव रखते हैं, परंतु वास्तविक साधु पुरुषों को किसी से डर नहीं रहता, फिर हथियार रखने की आवश्यकता ही क्या? मुनिराज के चित्त में कोई विकार नहीं है । जैसे साल 6 माह का बालक नग्न रहता है । उसके चित्त में कोई विकार नहीं समाता है, उस नग्नता में संकोच भी उसे नहीं है, उसकी तरह रहने की मुद्रा है यह मुनिभेष । नग्न दिगंबर मुनिराज की दृष्टि अपने आपके स्वरूप की ओर रहती है । ऐसी तो यह मुद्रा प्रशंसनीय है और उसको ग्रहण करके कोई पापबुद्धि वाला श्रमण, मुनि उस भेष का उपहास कराता है, खोटी क्रियावों में, अटपट बातों में समय गुजारता है तो उसने समस्त मुनियों की इस मुद्रा का विनाश किया है