वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 21
From जैनकोष
पुंच्छलिघरि जो भुंजइ णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं ।
पावदि वालसहावं भावविणट्ठो ण सो सवणो ।।21।।
(43) कुशीलस्त्रियों के घर आहारादि प्रवृत्ति करने वाले मुनिवेशियों की स्पष्ट भ्रष्टता―जो पुरुष व्यभिचारिणी स्त्री के साथ उसके घर में नित्य भोजन करता है, उसकी प्रशंसा करता है और उसके द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करता है सो वह साधु अज्ञानी व्यामोह में आ गया है । मुनिजनों का रहना तो अधिकतर मुनियों के बीच होना चाहिए । और फिर कभी कुछ समय गृहस्थों का भी संग समागम हो तो सद्गृहस्थ जो सुशील महिलावर्ग है, व्रती जन हैं उनके साथ ही थोड़ा धर्मचर्चासंबंधित संभाषण होना चाहिए, पर जो साधु जानता हो कि यह स्त्री आचरण से हीन है, फिर भी उससे संबंध आदिक रखे, नित्य उसके घर भोजन करे, उसकी प्रशंसा करे, तो ऐसा मुनिभेषी साधु बालकस्वभाव को प्राप्त है, अज्ञानी है, भावों से वह नष्ट है, वह पुरुष भ्रमण नहीं कहला सकता और जिसका कुशील महिला जनों से व्यवहार का संबंध हो जान-बूझकर भी तो समझना चाहिए कि वह मुनिभेषी भी कुशील पाप का अधिकारी है । फिर जो भावों से नष्ट हो गया, मुनिपने का भाव न रहा तो वह मुनि काहे का है ? अब यह ग्रंथ जिसमें साधुभेषी की क्रियावों का वर्णन है वह पूर्ण होने को है, उसकी यह शिक्षात्मक अंतिम गाथा कहते हैं ।