वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 22
From जैनकोष
इय लिंगपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहिं देसियं धम्मं ।
पालेइ कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तमं ठाणं ꠰꠰22।।
(44) ज्ञानध्यानपूर्वक लिंगपाहुड का अध्ययन कर यथार्थ धर्म पालन करने वाले श्रमणों को उत्तम शिवपद का लाभ―जो पुरुष ज्ञानी गणधर आदिक महान् मुनीश्वरों के द्वारा उपदेशे गए इस लिंगपाहुड ग्रंथ को जानता है और इस मुनिधर्म का बड़े यत्न से पालन करता है वह साधु उत्तम स्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है । मुनि की मुद्रा पाना बहुत दुर्लभ है, अनंत भव अब तक खोये, किसी भव में मुनि मुद्रा ली हो तो वह भी अज्ञान के कोटे में ही गई । जो आत्मज्ञानसहित, आत्मा की धुन सहित मुनिमुद्रा को धारण करता है वह है मोक्ष का अधिकारी, सो हे मुनिजनों इस लिंगपाहुड शास्त्र को पढ़कर, सुनकर जिन दोषों की चर्चा की है उनको अपने आप में घटित करना कि ये दोष मुझमें हैं या नहीं, और उन दोषों को दूर करना । यह भव्य मुनिमुद्रा बड़ी मुश्किल से प्राप्त होती है, उसको पाकर खोटे कारण मिलाकर उस मुनिमुद्रा को बिगाड़ देना यह बहुत बड़ा अपराध है । जैसे चिंतामणिरत्न कोई पाये और उसका कौड़ी के मूल्य में व्यवहार करे तो जैसे वह एक बड़ी गल्ती है, ऐसे ही आचार्यों का उपदेश पाये, मुनिमुद्रा धारण करे और वहाँ अपराध पर अपराध बनते चले जायें तो वह साधु अविवेकी है । इस साधुपद को प्राप्त कर इसका तो बड़े यत्न से पालन करना चाहिए । जितना भी बिगाड़ होता है वह कुसंग से होता है रागद्वेष की वृत्ति जिसके जगती है तो किसी खोटे विषय का प्रसंग पाकर जगती है, इसलिए कुसंगति न करना, अपने से महान किसी साधु पर, निर्यापकपने की दृष्टि रखना, उनकी आज्ञा में रहना, उनका विनय करना, जो सत्संग में रहेगा उसके परिणाम सम्हले हुए रहेंगे और जो खोटा संग करे मुनिभेषी, तो उसके अभिप्राय में खोटी बातें ही आयेंगी । सो हे भव्यजनो, मुनिधर्म पाया है तो उसका यत्नपूर्वक पालन करो, कभी कोई परीषह उपसर्ग आये तो झट अमूर्त ज्ञानमात्र शरीर से भी निराला ऐसा अपने आप में अंत:प्रकाशमान परमात्मस्वरूप को देखिये ।
(45) लिंगपाहुड ग्रंथ से प्राप्त शिक्षा के प्रयोग का अनुरोध―यह लिंगपाहुड ग्रंथ यहाँ पूर्ण हो रहा है सो इस संबंध में अपने लिए यह शिक्षा लेना कि आजकल का काल है पंचमकाल । और इस पंचमकाल में कोई जिनमुद्रा धारण कर ले और किसी उपसर्ग आदिक के समय वह व्रत पर अटल न रहे, गृहस्थों की भांति यद्वा तद̖वा प्रवृत्ति करने लगे तो उसने तो मुनिमुद्रा बिगाड़ी और बहुत पाप का बंध किया । इस ग्रंथ में मुनिमुद्रा की आलोचना के प्रसंग में यह जानना कि विशेषतया उन साधुवों को कहा है जो वस्त्रधारी हैं, अनेक बार खाते हैं और उनको धर्म नाम देते हैं उन साधुवों के ये दोष विशेषकर घटित होते हैं और उनके साथ ही जो वस्त्ररहित साधु हैं, बाह्य आभ्यंतर परिग्रहों का त्याग जिन्होंने किया है वे भी अपने में इस दोष को देखें कि मेरे मन की, वचन की, काय की प्रवृत्ति किन्ही विषयकषायों में तो नहीं बढ़ रही है, बढ़ रही हो तो उस पर खेद करते हुए उस साधना से दूर हो जायें और अपने आप में अपने ही स्वरूप का चिंतवन करें । जो नित्य प्रवृत्तियाँ बतायीं सो यह न समझना कि केवल साधुवों के लिए ही कहा । कोई खोटी प्रवृत्तियां गृहस्थों में हों, श्रावकों में हों तो वे उनके लिए भी अनर्थकारी होती हैं । अंतर इतना है कि परमेष्ठीपद पाकर थोड़ा भी आवरण खोटा हो तो जैसे सफेद वस्त्र पर धब्बा छोटासा भी लगा हो तो भी वह दूषित है, बुरा लगता है, उचित नहीं है तो ऐसे ही मुनिमुद्रा धारण कर रंच भी दोष लाये तो वह उसके योग्य बात नहीं है । गृहस्थ जन तो आरंभ परिग्रह नहीं त्याग सकते, तो ऐसी अवस्था में भी जिनेंद्र की पूजा, गुरुजनों की भक्ति समय पर स्वाध्याय तत्त्वचर्चा ये क्रियायें चलती हैं तो वह गृहस्थ उतने बिगाड़ में नहीं है जैसे कि जरा से लगाव में मुनि का बिगाड़ हो जाता । जो ज्ञानी पुरुष है, घर में रह रहा तो उपेक्षापूर्वक रहता है, लगाव करके नहीं रहता । उसके चित्त में यह बात भली-भाँति बैठती है कि सारा समागम मुझसे निराला है, छूट जाना है, और यह देह भी, यह पर्याय भी सदा नहीं रहती । तो नामवरी किसकी, और उस बाहरी लगाव का फल कौन भोगेगा? इस कारण ज्ञानी साधु बाहरी बातों से विरक्त रहकर मुनिमुद्रा के अनुरूप आचरण करता हुआ अपने ज्ञानस्वरूप की निरंतर भावना करता है । इस प्रकार यह मुनियों की खोटी प्रवृत्तियों का निरूपण करने वाला यह लिंगपाहुड नाम का ग्रंथ संपूर्ण होता है ।
।। लिंगपाहुड प्रवचन समाप्त ।।
* मुनिभक्ति *
ऐसे मुनिराज बसो मेरे मन में, जिनके राग न द्वेष स्तवन में । टेक ।
धन कण कंचन लाभ विषयसुख, वंदन गृह जीवन में ꠰
रंच न राग करे मुनि जैसे-गेही जीरण तृण में ।।1।।
निंदन बध बंधन अलाभ भय, रोग वियोग मरण में ।
रंच विषाद नहीं जिन मुनि के, वसत मसान गुफन में ꠰।2।।
भूख प्यास सर्दी आदिक जो, होय उपद्रव तन में ।
ब्रह्मविलासानंद मगन है, रंच न खेद हो मन में ।।3।।
करुणासिंधु दीन जनबंधु, तारण तरण भुवन में ।
जयवंतो जिय जासु कृपा कर, निवसत मुक्तिसदन में ।꠰4।।
मारमदनमदमर्दन मुनिवर, जीतत विधिरिपु छिन में ।
आवो विराजो शीघ्र ‘‘मनोहर’’ के नैननि पंथन में ।।5।।
* मेरे मन सहज स्वरूप समायो *
सहज अनंत ज्ञान दर्शन सुख, शक्ति स्वरूप सुहायो ।।टेक।।
निज निधि विसर पसर विषयन में, व्यर्थ जगत भरमायो ।
परमैश्वर्य समृद्ध स्वयं अब, आपहि आप लखायो ।।1।। मेरे 0
जास आस शिव पास हेतु है, जो ऋषियों न ध्यायो ।
सरल निरापद ज्ञाता द्रष्टा, केवल निज पद भायो ꠰।2।। मेरे 0
अलख निरंजन सहज ज्ञानघन, सहजानंद बसायो ।
कमी यहाँ कुछ रंच नहीं अब, पूर्ण सदा शिव पायो ।।3।। मेरे ॰