वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 5
From जैनकोष
सममूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण ꠰
सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ꠰꠰5꠰꠰
(13) अंतरंग बहिरंग परिग्रह का लगाव रखने वाले मुनिवेषों की पापमोहितबुद्धिता―जो निर्ग्रंथ दिगंबर भेष धारण करके परिग्रह का संग करे या परिग्रह की वांछा मन में रखे और और इन बातों के लिए परिग्रह चाहे, उन परिग्रहों का निरंतर ध्यान रखे, परिग्रह के लिए आर्तध्यान किया करे तो वह पापबुद्धि वाला जीव है ꠰ मुनिपना वास्तव में है या नहीं, इस बात का तो लोग अनुमान करते हैं, यदि कुछ धर्म की रुचि है तो वह अपने आपको खोटी क्रियावों में न लगायेगा ꠰ शुद्ध क्रियावों से प्रवृत्ति करेगा, गंभीर रहेगा, तत्त्वचिंतन, तत्त्वमनन में अपना समय बितायेगा, कोई बाहरी संबंध न रखेगा, अपने-अपने चित्त की बात सब जानते हैं और किसी के बाहरी अधिक बात बन जाये तो लोग अनुमान भी करते हैं, सर्व विषयों में अतीव बाधक है तो नामवरी की चाह करना ꠰ मोक्षमार्ग में सबसे अधिक बाधक है नामवरी की चाह करना ꠰ किसने कितने दिन पहले दीक्षा ली, किसने कितने घंटे बाद दीक्षा ली, उसका बड़ा हिसाब चित्त में रखे रहना यह किस बीज पर आधारित है? पर्यायबुद्धि पर । वहाँ इसका जिक्र तो है चरणानुयोग में कि नवदीक्षित पुराने दीक्षित को पहले नमस्कार करें और वह भी उस मुनि को प्रतिनमस्कार करें, ऐसा कुछ व्यवहार है, मगर उसका गणित चित्त में धरे ही रहना यह कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है । कभी कोई मुनि पुराना भी है उसने भी पहले नमस्कार कर लिया तो कोई ऐब हो गया क्या? मगर चित्त में बसा ही रहना कि मैं इतना पुराना हूँ, ये इतने नये हैं, ऐसी बातें विचारने की फुरसत ज्ञानी संतों को नहीं होती ꠰ भले ही उस अनुरूप व्यवहार बन जाये, मगर चित्त में समाये रखना यह एक पर्यायबुद्धि का ही द्योतक है । कुछ बड़ा ऊँचा आसन न मिला तो उठकर चल दिया, पहले से ही देख लिया कि सभी के बराबर हमें बैठाते हैं क्या? यदि बराबर बैठने को व्यवस्था देखी तो चल दिए । यह सब कितनी एक मन की दुर्भावना है । वहां मुनिपना नहीं रह सकता । भले ही ऐसा व्यवहार होना चाहिए या कोई करे, पर मुनि तो अपने में केवल आत्मस्वरूप का ही नाता रखते हैं, आत्मा के ही ध्यान की धर्मप्रमुखता देते हैं । बाह्य की बातों का गणित बनाये रखना, उसका ही हिसाब जोड़ते रहना, इसके लिए अवकाश नहीं है आत्महितार्थी को । ज्ञानी साधु के निकट केवल आत्मतत्त्व का ध्यान है । सो जो मुनि निर्ग्रंथ लिंग धारण कर परिग्रह का संग्रह करते हैं अथवा परिग्रह के संग में, कीर्ति में वांछा ममत्व करते हैं, संग बढ़ाने का परिग्रह का ही यत्न करते हैं, उस ही में जो निरंतर आर्तध्यान रखते हैं सो वे पाप में मोहित बुद्धि वाले हैं ।
(14) परमार्थधर्म से युक्त श्रमण की ही मोक्षपात्रता―श्रमण का बहुत उत्कृष्ट भाव होता है तब ही वह परमेष्ठियों में गिना गया है । शरीरसाधना की अपेक्षा मन की साधना का महत्त्व ज्यादा है ꠰ शरीरकृत कोई दोष हो जाये तो उसका तो सामान्य प्रायश्चित्त से शोधन हो जाता है, पर मन में कोई दुर्वासना जग जाये तो उसका बड़े कठिन प्रायश्चित्त से शोधन होता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि शरीर से कुछ किया जावे मन से न सोचे पाप की बात तो निभेगी । अरे जो जानबूझकर शरीर से पापक्रियायें कर रहा है उसका मन साफ है कहाँ ? खोटा मन है, तब ही स्वच्छंद चेष्टायें कर रहा । तो वास्तव में मुनिलिंग वह है जो धर्म के साथ चल रहा है, और उसे छोड़कर बाहरी चेष्टावों में लगकर जो अपनी बुद्धि को पाप से विमोहित करता है वह श्रमण नहीं है । वह तो एक साधारण प्राणी तिर्यंचसा है । अपने में कला क्या चाहिए कि निरंतर ज्ञान में सहज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि रहे, धर्मसाधना के लिए कला यह चाहिए । तो इस लिंगपाहुड ग्रंथ में मुनिभेष संबंधी वार्ताओं का वर्णन है कि किस प्रकार इसमें दोष रहते हैं और किस प्रकार इनमें गुणविकास होता है ।