वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 4
From जैनकोष
णच्चदि गायदि तावं वायु वाएदि लिंगरूवेण ।
सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ꠰꠰4꠰।
(10) पापमुग्ध मुनिभेषी पुरुषों की नृत्यक्रिया से पशुवत् अज्ञानता की सिद्धि―जो मुनिभेष को धारण करके खोटे आचरण करता है, मुनियोग्य जो बात न होनी चाहिए उसे करता है । तो समझिये कि वह पापबुद्धि वाला जीव तिर्यंच है, श्रमण नहीं है । एक तो मुनि के लायक योग्य बात को न निभा सकना और एक मुनि के विपरीत अयोग्य क्रियायें करना, इन दो भावों में बहुत अंतर है । मुनियोग्य क्रियायें कोई न कर सके उसका तो चलो कायोत्सर्ग से, प्रायश्चित्त से विधान बना लिया, पर मुनिभेष के विपरीत अयोग्य क्रियायें करके उसका प्रायश्चित्त नहीं होता । वह अनाचार है ꠰ तो जो साधु मानों नृत्य करता है, नृत्य करने के मायने कहीं ऐसा ही नचने लगना अर्थ न लेना, उनमें होगा कोई ऐसा भी मूढ़ जो कदाचित् नचने भी लगता, पर बैठे ही बैठे हाथ, पैर, सिर आदि मटकाना, ताली बजाना, गर्दन हिलाना आदि ऐसी कोई चेष्टा करे तो यह भी नृत्य है, वह उसका नाच है । तो जो श्रमण नृत्य करता है वह पापबुद्धि से मोहित है । उदात्त चित्त वाला उदार मुनि ज्ञानानुभव से जिसका उपयोग तृप्त हुआ है उस मुनि से ऐसा नृत्य और गायन, ये बातें नहीं बन पातीं, भजन बोलते तो उसमें भी कुछ राग है ही । एक तो साधारण रूप से कोई भजन बोले और एक उसमें राग रंग जमाकर बड़ा आलाप करके उसे गाये, ऐसा चाहे साधु हो, चाहे साध्वी हो, तो ऐसे इस प्रकार के हाव-भाव सहित गायन में उसकी बुद्धि विपरीतता को लिए हुए है । जो ऐसे गायन करता है वह पापमोहित बुद्धि है । और वह श्रमण नहीं, किंतु तिर्यंच है ।
(11) तिर्यंचगति के चौपायों को पशु कहने का कारण―जैसे किसी को कह देते कि यह तो पशु है । तो पशु का अर्थ वैसे बुरा नहीं है शब्द की दृष्टि से, मगर पशु शब्द की रूढ़ि हो गई है अज्ञानी जानवरों के लिए, इसलिए पशु शब्द बुरी नजर से देखा जाता । पशु का वास्तविक अर्थ है―पश्यति इति पशु:, जो देखे उसको पशु कहते हैं । तो देखने वाला तो आत्मा है, इसलिए सभी आत्माओं का नाम पशु हुआ । रूढ़ि में पशु शब्द एक गाली जैसा बन जाने से सुनने में अटपट लगता है, पर शब्द का जो अर्थ बसा है सो चाहे ऐसा कहो कि महात्मा जी चाहे ऐसा कहो कि पशु या पशुपति महाराज, याने केवल देखने वाले । रागद्वेष की वृत्ति जिनके चित्त में नहीं है, केवल देखते ही रहते हैं, उनका नाम पशु है । सो पशु का अर्थ तो जीव है, मगर पशु की रूढ़ि गाय, भैंस, घोड़ा आदिक में क्यों हो गई? उसका यह स्थूल कारण है कि ये गाय, बैल, भैंस आदि केवल
देखते रहते हैं, कर कुछ नहीं सकते । बँधे हैं, प्यास लगी हैं तो देखते रहें । उद्यम क्या करें? कोई उन्हें मारे पीटे तो बस वे देखते ही रहें । उसका कोई उपाय नहीं बना पाते । कोई कसाई हत्यागृह में ले जाकर उसे बाँधकर मानो उसकी हत्या कर रहा है तो वे बेचारे देखते ही रहते हैं, करें क्या? तो ऐसा देखते रहना पाया गया सो पशु शब्द का व्यवहार चला ढोरों के लिए । यहाँ उन ढोरों के ही समान बात बतलाने के लिए तिर्यंच शब्द दिया है, पशु शब्द भी नहीं दिया, क्योंकि तिर्यंच शब्द के अर्थ से कोई गुंजाइश नहीं कि अच्छा अर्थ लगा सकें । तिर्यंच शब्द बना है―जो टेढ़ी चाल चले सो तिर्यंच । तिर: अंचति इति तिर्यक्: । छल वाले, माया वाले अथवा जिनकी गति ही टेढ़ी है, गमन करेंगे तो उनकी गति मनुष्यों की तरह सुंदर एक ढाल की न बन पायगी ꠰ न जाने कहां किस तरह उनके पैर उठ रहे हैं, किस तरह उनका पेट भी यहाँ वहाँ हिल रहा है । उनकी गति में सुंदरता नहीं दिखती, सो टेढ़ी उनकी गति है, टेढ़ा उनका परिणाम है, मायाचारी होना उनमें प्राकृतिक है, इसलिए वे तिर्यंच कहलाते हैं । अपने गुणों का तिरस्कार करके खोटे परिणमन से चलना, इसका नाम है तिर्यंचपना ।
(12) नृत्यगायनादि में अनुरागी मुनिभेषी की पापमोहितबुद्धिता―जो मुनि नृत्य करता है, सिर मटकाता, हाथ-पैर मटकाता, बोलते हुए में भी खूब हाथ पैर मटकते अथवा किसी समय कुछ नृत्य जैसा दृश्य भी दिखता, तो ये सब मुनि के लिए अयोग्य बातें हैं । पब्लिक को भले ही पसंद आये उनका वह नृत्य गायन, उनकी ये शारीरिक चेष्टायें, पर पसंद आ जाने से मुनि के लिए वह कोई बढ़िया बात तो न कहलायेगी । बल्कि वह तो मुनि के लिए एक कलंक वाली बात है ꠰ गाने में भी कोई सीधा साधारण लय तो होता ही है । पर उसकी बहुत अच्छे ढंग से खूब राग आलाप-आलाप कर गाना, और गा-गाकर अपना दिल बहलाना, ये सब क्रियायें मुनि के लिए अयोग्य हैं । अत: जो साधु नृत्य करता अथवा गाता है तब तक समझिये कि पाप में उसकी बुद्धि मोहित हुई है । सो वह मानो तिर्यंच जैसी क्रियायें करता है, मुनि तो एक आदर्श आत्मा है, भक्त लोग संसार और विषय बाधाओं से पीड़ित होकर शांति पाने के लिए उनकी छाया में आते हैं तो लोगों को उनके ही दर्शन से मिलेगी जो स्वयं सहज आनंद को पाये हुए हैं । तो ऐसी तो है मुनिमुद्रा की बात और चले कोई उल्टा तो वह तिर्यंचयोनि वाला है, मुनि नहीं है । ऐसे ही बाजे बजाना, सितार, बंशी, हारमोनियम, वायलन आदि किसी भी बाजे पर हाथ धरना उसे बजाना, कोई गृहस्थ पहले सीखा हो और वह कारण पाकर मुनि बन गया व उसका चित्त उदार न बनें और उन गायन, बाजों पर ही वह मोहित होता फिरे तो समझो कि उसने कोई कल्याण की बात नहीं की ꠰ यों समझो कि वह तो श्रमण ही नहीं है, बल्कि यों कहो कि वह तिर्यंचयोनि वाला है ꠰ उसका मुनि होना उसके लिए कोई कार्यकारी नहीं है ꠰