वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 8
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्ते उवहाणे जइ ण लिंगरूवेण ।
अट्ठं झायदि झाणं अणंतसंसारिओ होदि ।।8।।
(20) सम्यक्त्वधारण से विमुख मुनिभेषी पुरुष का अनंतसंसारभ्रमण―मुनियों को क्या करना चाहिए इस विषय में मोक्षपाहुड आदिक ग्रंथों में भले प्रकार वर्णन किया । अब इसमें दोष की मुख्यता से वर्णन किया जा रहा है कि मुनिपद में रहकर कौन से दोष ऐसे अनर्थकारी हैं कि वह सामान्य अवस्था में पाप करता तो उतना भयंकर न था जितना कि अब मुनिपद में आकर पाप करने से एक भयंकरपना उत्पन्न हुआ है । यदि कोई मुनि जिनमुद्रा धारण कर दर्शन, ज्ञान और चारित्र से अपना अवधान नहीं करता अर्थात् उनका धारण नहीं करता और आर्तध्यान किया करता है तो वह जीव भी अनंतसंसारी है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इनको अपना उपकरण जाने, उपधान जाने, समस्त सर्वस्व जाने, मुक्ति का एक मात्र साधन जाने तो वह योग्य क्रियावों में रहता है, पर जिसे अपने स्वरूप का पता ही नहीं, पर्यायबुद्धि जैसी गृहस्थावस्था में थी, जैसी अनंत भवों में थी वैसी पर्यायबुद्धि अब भी चलती रहे तो ऐसा पुरुष दर्शन, ज्ञान, चारित्र से च्युत रहता है, उसको श्रद्धान नहीं है । जिस ओर श्रद्धा होती है चित्त उसी ओर ही धुन रखने लगता है । श्रद्धा का अर्थ है आत्महितरूप से उस तत्त्व को मानने लगना अपना जो सहज ज्ञानस्वरूप है उसे जिसने देखा ही नहीं, समझा ही नहीं, ऐसे पुरुष का मुनि होने पर कोई भी कारण सही नहीं है, वह तो अपने मौज अथवा धर्म के नाम पर कल्पना के अनुसार प्रवृत्ति करता है । सम्यग्दर्शन में मुख्य बात है अपने सहज ज्ञानस्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव, विश्वास बनना, इस बात का सब कोई अपने आपमें परीक्षण कर सकता है कि मैं अपने आपको किसरूप मानता रहता हूं? क्या अमूर्त ज्ञानमात्र अपने को मान रहा हूँ या जो पर्याय पायी, जो स्थिति पायी, इस स्थितिरूप अपने को मानता रहता हूं? अपनी आलोचना तो कीजिए । तो कुछ भी दृष्टि ऐसी बनती है कि अपने सहज चैतन्यस्वरूप को यह मैं हूँ, ऐसी बुद्धि बने तब तो वह प्रगतिमार्ग पर है अन्यथा वह अवनति पर है, सम्यग्दर्शन की भावना इस पर्यायमोहित बुद्धि वाले इन मुनियों को नहीं प्राप्त होती है ।
(21) सम्यग्ज्ञान से व सम्यक्चारित्र से विमुख मुनिभेषी का अनंतसंसारभ्रमण―सम्यग्ज्ञान, सर्व पदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र अपनी सत्ता रख रहे हैं, किसी भी पदार्थ का अन्य कोई पदार्थ कुछ संबंधी नहीं है, स्वरूपास्तित्व ही जुदा-जुदा है, सो जगत के सभी पदार्थों का स्वरूपास्तित्व जुदा है, मुझसे अन्य का क्या संबंध? यों भिन्न-भिन्न स्वरूपास्तित्व में सब पदार्थों का ज्ञान बनने लगाना यह है सम्यग्ज्ञान । इसका भी परीक्षण कर सकते हैं कि मैं जिनकी जानकारी के बीच रहता हूँ उनके प्रति मेरा किस प्रकार का ज्ञान बना करता है । यदि स्वतंत्र स्वरूपास्तित्व ज्ञान में चलता है तो वह सम्यग्ज्ञान है । इस पापबुद्धि वाले पुरुष ने इस सम्यग्ज्ञान को धारण नहीं किया और इसी कारण पर्यायमोहित होकर अन्य-अन्य प्रकार की चेष्टायें करता रहता है । सम्यक्चारित्र क्या है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप है उस स्वरूप में ही उपयोग का रम जाना, यह है सम्यक्चारित्र । सम्यक्चारित्र वह उत्कृष्ट वैभव है कि जिसके प्राप्त होने पर यह जीव मोक्षमार्ग प्राप्त करता है, सदा के लिए सर्वसंकटों से मुक्त हो जाता है । ऐसे चारित्र को भी पर्यायबुद्धि वाला पुरुष ग्रहण नहीं कर पाता । सो पुरुषमुनिपद में आकर संसार शरीर से वैराग्य होने का जो काम था वह तो करे नहीं और उल्टा दर्शन, ज्ञान, चारित्र की विराधना करे, जो परिग्रह छोड़ा था उस परिग्रह की भावना बनाये, आर्तध्यान किया करे तो वह अनंत संसारी क्यों न होगा? तो जिसके सम्यग्दर्शन आदिक का परिणाम तो हुआ नहीं और कुछ कारण पाकर, कुछ अपनी सुविधा निरखकर कुछ धर्म में भावुकता के कारण जिनमुद्रा को धारण कर लिया तो उसकी क्या दशा होगी? वह तो संसार में ही भ्रमण करेगा । भावशुद्धि हुए बिना जिनलिंग का धारण करना लिंग धारण नहीं है, किंतु उस लिंगमुद्रा का उपहास है । जो मुद्रा का उपहास करता है वह अनंत संसारी होता है ।