वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 9
From जैनकोष
जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्ज जीवघादं च ।
वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ।।9।।
(22) विवाहकृषिकर्मवाणिज्यजीवघात के विधायक की नरकगमनपात्रता―जो मुनिमुद्रा धारण करके ऐसे खोटे काम करता है वह पापी पुरुष नरक का पात्र होता है । उसे ज्ञानमार्ग तो मिला नहीं कि वह रम सके । तो अब वह जिन गृहस्थी के बीच अपनी सुविधा बनाये हुए है, उनके घर गृहस्थी के प्रसंगो में भी भाग लेता है, एक दूसरे के विवाह का जोग जाड़ करता है, जैसे किसी गृहस्थ में ऐसी आदत होती कि वह जिनसे कुछ प्रयोजन नहीं उनके संबंध को भी बनाता है तो ऐसी आदत वाला कोई पुरुष मुनि हो जाये और ज्ञानमार्ग उसे मिले नहीं तो ऐसी प्रकृति हो जाती है सर्वसाधारण जनों के प्रति कि वह उन गृहस्थी के कार्यों में भी भाग लेता है । और उनका व्यापार, खेती, रोजिगार आदि के अनेक उपाय जुड़ता है, उनको तरकीब बताता है, उसमें भी उसका चित्त लगा रहता है । तो ऐसा पुरुष जो कृषि कर्म के विषय में जोग तुड़ाता रहता है, कुछ उसे जानकारी है, वह मानों किसान ही था और कारण पाकर मुनिभेष धारण कर लिया तो वह उस विषय का अपना संस्कार कितना संगत रखता है और खेती के प्रसंगों की घटना का उपदेश करता रहता है, तो ऐसा पुरुष नरकगति का पात्र है । ऐसे ही व्यापार, जीवघात के विषय में भी वह भाग लेता है इस जिनमुद्रा में रहकर, तो वह जीव नरकगति का पात्र होता है ꠰
(23) भावशुद्धि के विरुद्ध उन्मार्ग पर चलने वाले मुनिवेषी की नरकपात्रता―सर्व कथन का तात्पर्य यह है कि भावशुद्धि के बिना, अपने आपके स्वरूप का परिचय पाये बिना, कुछ अपने जीवन का उत्कृष्ट उद्देश्य बनाये बिना जो कुछ भी विषयों के प्रति प्रवृत्ति चलती है और उस ही में वह अपने को सुखी मानता है तो जैसे संसार के और जीव हैं वैसा ही वह मुनिभेष धारण करने वाला पुरुष है, उसको संसार से छुटकारा पाने का मार्ग नहीं मिल पाता । मुनि किसलिए हुआ जाता कि सर्व बाह्य परिग्रहों से निःशल्य होकर अपने आत्मस्वरूप में ही उसका ध्यान बनाये रहे, यह है मुनियों का कर्तव्य । पर वह गृहस्थी के कृत्यों के बीच भाग लेने लगे तो ऐसा मुनिभेष में रहकर खोटे कृत्य करने वाला पुरुष नरक में गमन करता है । नरक और स्वर्ग के विषय में कुछ लोगों की ऐसी धारणा हो जाती है कि कहां है नरक, कहां है स्वर्ग, और यहीं इस लोक में इतने कठिन दुःख हैं कि वही नरक का रूप है व ऐसा उसको सुख प्राप्त है कि वही स्वर्ग का रूप है । तो यह नरक और स्वर्ग आंखों न दिखने के कारण इसके प्रति विश्वास नहीं है, लेकिन जो जिनेंद्रवाणी में कहा है वह सब पूर्णतया सत्य है । जब जीवादिक प्रयोजनभूत 7 तत्त्वों के बारे में जो कुछ वर्णन किया गया है उसमें जब हमको रंच भी त्रुटि नहीं विदित होती तो हमको उन मुनिराज पर भी इतनी दृढ़ श्रद्धा होती कि उनके कहे हुए जितने भी वचन है उन वचनों में उसे संदेह नहीं होता । तो ऐसे इस जिनलिंग भेष में रहकर जो अश्रद्धान बनाता, पापक्रियावों में रत होता, वह मुनि पापरूप है और नरक का पात्र है ।