वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 1
From जैनकोष
वीरं विशालणयणं रत्तुप्पलकोमलस्समप्पावं ।
तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसामेह ।।1।।
(1) विशालनयन वीरप्रभु को नमस्कार कर शीलपाहुड ग्रंथ बनाने का संकल्प―यह कुंदकुंदाचार्य द्वारा विरचित शीलपाहुड नाम का ग्रंथ है । यहाँ कुंदकुंदाचार्य मंगलाचरण पूर्वक इस ग्रंथ में क्या कहेंगे, उसका प्रतिज्ञापन कर रहे हैं । मैं वीर प्रभु को नमस्कार करके शील गुणों को कहूँगा । इस ग्रंथ में शील और गुणों का वर्णन है । शील के मायने हैं आत्मा का स्वरूप स्वभाव और उस स्वभाव की दृष्टि रखना, यह तो है शील और गुण के मायने है, उस आत्मस्वभाव को पाने के लिए जो आंतरिक परिणति चलती है ज्ञानरूप वह है गुण । तो शील और गुणों के वर्णन के प्रसंग में शील गुण से परिपूर्ण यहाँ वीर प्रभु को नमस्कार किया है जिसके दो विशेषण दिए हैं―महावीर भगवान विशालनयन हैं । जिसके नेत्र बड़े हैं उसे कहते हैं विशालनयन । नेत्रों का बहुत बड़ा होने से कोई प्रशंसा का अधिक संबंध नहीं है । यद्यपि छोटे नेत्र होना यह पुण्य का सूचक नहीं, नेत्र सही परिमाण में होता है और उसे विशाल कहते हैं, पर यहाँ विशालनयन कहने से कोई आध्यात्मिक अर्थ गर्भित है । जिस ज्ञाननेत्र के द्वारा भगवान जानते हैं वह ज्ञानरूपी नेत्र विशाल है । तब कोई पूछता कि कितना विशाल है भगवान का नयन? तो जितना लोक और अलोक है उतना बड़ा भगवान नेत्र है । और जब भगवान का एक नेत्र इतना बड़ा है तो दूसरा भी बड़ा होगा?....नहीं, दो नेत्र हैं ही नहीं भगवान के । एक केवल ज्ञानरूपी नेत्र है । भगवान का एक नाम है त्रिनेत्र । जिसके तीन नेत्र हों वह है जिनेंद्र । वैसे नेत्र क्या कहलाते? तो दो नेत्र जो शरीर में लगे हैं वे हैं, क्योंकि अरहंत भगवान के अभी शरीर साथ लगा हुआ है, और तीसरा नेत्र है केवलज्ञान । तो केवलज्ञानरूपी नयन जिसके विशाल हैं ऐसे महावीर प्रभु को नमस्कार करके, विशालनयन विशेषण का यह अर्थ है ।
(2) रक्तोत्पलकोमलसमपाद वीर प्रभु को नमस्कार कर शीलपाहुड की रचना का प्रारंभन―इस गाथा में वीरप्रभु का दूसरा विशेषण दिया है कि लाल कमल के समान कोमल जिनके चरण हैं अर्थात् एक पुण्यवानी की दृष्टि से शरीर की जो शोभा है उसको लक्ष्य लेकर कहा है । पैर भी लाल हैं, यह तो एक सामान्य अर्थ है, पर इस ही में एक आध्यात्मिक अर्थ है―रक्त मायने लाल भी है और रक्त मायने होता है रागादिक विकार से युक्त । ऐसा जो आत्मपरिणाम है उसे भी रक्त कहते हैं । और उसको उत्पल कर दिया मायने दूर कर दिया, उखाड़ दिया, अतएव जिसके कोमल वचन हैं अर्थात् राग के दूर होने से वीतरागता आने के कारण जिसकी दिव्यध्वनि कोमल हित मित मधुर है, जिसको सुनकर प्राणी अपने संकट दूर करते हैं । तो ऐसे महावीर प्रभु को नमस्कार करके तीनों योग से मैं प्रणाम करता हूँ । मन की सम्हाल करके, वचन की सम्हाल करके, शरीर की सम्हाल करके मैं प्रणाम करता हूँ और प्रणाम कर शील गुण का वर्णन करता हूँ । वास्तविक नमन आत्मस्वरूप का बोध हुए बिना नहीं हो पाता । आत्मस्वरूप का परिचय हुए बिना तो भगवान के स्वरूप का भी ज्ञान नहीं होता । भले ही शब्दों से कहते रहें और कुछ-कुछ पर्याय की भी महिमा ज्ञात होती रहे, वे वीतराग हैं, रागद्वेषरहित हैं, सर्वज्ञ हैं, पर उन सबको भावभासना तब तक न हो पायगी जब तक आत्मा के शील का परिचय न हो । आत्मा के स्वभाव को जब तक न समझ लिया जाये तब तक प्रभु की प्रभुता भी भली-भांति नहीं ज्ञात हो सकती । आत्मा का स्वभाव ही है यह कि वह जो सत् है, सबको जाने, सर्व सत् उसमें झलके, ऐसा मेरा स्वरूप ही है, और उपाधि जब झलक गई, आवरणकर्म दूर हो गये तो यही स्वभाव, यही शील पूर्णरूप में प्रकट हुआ है, अत: जिस शीलगुण के प्रताप से भगवान महावीर स्वामी संकटहीन हुए हैं उनको प्रणाम करके मैं शीलगुण का वर्णन करूंगा ।