वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 21
From जैनकोष
जह विसयलुद्ध विसदो तह थावर जंगमाण घोराणां ।
सव्वेर्सिपि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ।।21।।
(40) स्पर्शन रसना के विषयों के लुब्ध के उदाहरण से विषयविष की यथार्थता का ख्यापन―जैसे विषय के लोभी विषयों के वश में आकर प्राण खोते हैं, ऐसे ही विषयों के मोही ये जीव अपने ज्ञान दर्शन प्राण का घात करते हैं । हाथी कैसे पकड़े जाते हैं? कई उपाय होंगे, पर हाथी पकड़ने का एक मुख्य उपाय है जो कि प्रसिद्ध है । जंगल में एक जगह बड़ा गड्ढा खोदा जाता है, बाद में उस गड्ढे पर बांस की पतली पंचें बिछाकर उसको मिट्टी आदि से पाट दिया जाता है, उस पर कागज की एक झूठी हथिनी बनाई जाती है और कुछ दूरी पर कागज का एक नकली हाथी, उस हथिनी की ओर दौड़ता हुआ, बनाया जाता है । इतना काम होने के बाद अब जो जंगल का हाथी दूर से उस हथिनी को देखता है सो उसके रागवश और साथ ही उस दूसरे हाथी से द्वेषवश हथिनी की ओर दौड़ता है, वासना का संस्कार तो उसके था ही सो उसे देखकर उसको गड्ढे का भी ज्ञान खत्म हो जाता है । वह यह नहीं पहिचान पाता कि यहाँ गड᳭ढा है । वह ज्यों ही हथिनी के निकट पहुंचता त्यों ही वे पंचें टूट जाती और वह गड᳭ढे में गिर जाता । उसे कुछ दिन उस गड्ढे में पड़ा रहने देते हैं और जब जाना कि यह दुर्बल हो गया सो कोई रास्ता बना लेते उसके निकालने का और हाथी पर बैठकर उसे अंकुश के बल पर वश में कर लेते हैं । कितने ही हाथी तो अपने प्राण गंवा देते हैं । तो आखिर विषयों के वश होकर ही तो गंवाया । मछलियां पकड़ी जाती हैं तो पकड़ने वाले ढीमर लोग जाल में या बंशी में कोई लोहे का फंदा रखते हैं और वहाँ कुछ मांस चिपका देते हैं केंचुवा वगैरह, अब वे मछलियां उस मांसपिंड के लोभ में आकर वहाँ मुंह बा कर जो दबाती हैं तो कंठ छिद जाता है, इस तरह से मछली पकड़ी जाती है, मारी जाती हैं । तो आखिर रसनाइंद्रिय के वश होकर ही तो मछलियां अपने प्राण खो देती हैं । अब देखो ये पंचेंद्रिय के विषय कैसे विषरूप हैं? इच्छा होने पैर कुछ समय को भी ये जीव धैर्य नहीं रखते, विषयों के वश हो जाते हैं और सर्व कुछ उपाय विषय के कर डालते हैं, मगर विषय सब अनर्थ हैं, असार हैं, बेकार हैं ।
(41) घ्राण चक्षु व कर्ण के विषयों के लुब्धों के उदाहरणों से विषयविष की यथार्थता का ख्यापन―भ्रमर शाम के समय किसी कमल के फूल में बैठ गया, अब कमल की यह प्रकृति है कि रात्रि में बंद हो जाता है और सवेरा होते ही खुल जाता है, तो जैसे ही कमल में वह भंवरा आया गंध लेने के लिए और कमल बंद हो गया तो उस भंवरे में यद्यपि इतनी शक्ति है कि काठ को भी छेदे तो उसे छेद कर आर-पार निकल जाये, मगर गंध के लोभ में आकर गंध की संज्ञा रहने से उस फूल के कोमल पत्तों को भी नही छेद पाता और उसके भीतर रहकर श्वास न मिलने से वह मरण को प्राप्त हो जाता है । तो यह भंवरा मरा तो कैसे मरा? एक घ्राणइंद्रिय के विषय में मरा । तो विषय कितना विष है जिस विषयविष के पान से जीवों का ऐसा घात होता रहता है । रोज-रोज देखते हैं आप कि बिजली के बल्ब में कितने कीड़े आ जाते? वहाँ तो चाहे वे छिपकली से बच भी सकें, पर मिट्टी के तैल वाले दीपक में तो पतिंगे आ-आकर जलते ही रहते हैं, उसमें बचने का क्या काम? आखिर ये पतिंगे भी तो चक्षु इंद्रिय के लोभ में आकर अपने प्राण खो देते हैं । तो विषय कितना विष है? इन विषयविषों में जो लुब्ध जीव हैं वे अपने ज्ञान प्राण का घात करते हैं । हिरण व सांप को तो सुना ही होगा―हिरण पकड़ने वाले व सपेरे लोग बंशी की मधुर तान या सितार वगैरा सुनाते तो झट ये हिरण, सर्प आ-आकर उसके पास आकर मस्ती से सुनते रहते हैं, अपनी कुछ लीलायें करते हैं, वहाँ मौका पाकर पकड़ने वाले लोग पकड़ लेते हैं । तो वहाँ जो हिरण, सर्प आदिक जीव शिकारियों के चंगुल में आते तो उसका मूल कारण क्या है? बस वही कर्णेंद्रिय के विषय का लोभ । तो ये विषय बड़े विष हैं ।
(42) शीलविरोधी विषयविष की अनर्थकारिता―विषयों के जो लोभी जीव है याने अपने शील के खिलाफ चलने वाले जीव हैं वे सब अपने ज्ञानप्राण का घात करते हैं । सर्व विषों में विषयों का विष बड़ा भयंकर है । अगर यहाँ का विष पी ले कोई तो वह एक बार ही तो इस देह का मरण करेगा, अगला जन्म जो पायेगा वहाँ तो कुछ असर नहीं करता, यह विष तो एक जन्म में असर करता है, मगर विषयों का विष, जो विषयों के लोभी हैं, विषयों में आसक्त हैं उन्हें यह विषयविष जन्म-जन्म में दु:खी करेगा । मरे फिर जन्मे, फिर मरे फिर जन्मे । फिर विषयों का संस्कार रहा तो वे भव-भव में दु:खी हैं । इससे उन विषयों से प्रीति हटायें और अपने शीलस्वभाव में आयें । यह बात किसी दूसरे की नहीं कही जा रही, खुद के, अपने आत्मा की, अपने आपकी है । सभी लोग अपने-अपने आत्मा पर दृष्टि देकर इसे घटित कर लीजिए कि इन विषयों के वश में लगे रहे तो हमें सदा संसार के कष्ट भोगने पड़ेंगे ।