वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 35
From जैनकोष
णिद्दड᳭ढअट्ठकम्मा विसयविरत्ता जिदिंदिया धीरा ।
तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता ।।35।।
(73) विषयविरक्त एवं इंद्रियविजयी का सिद्धपर्याय पाने का अधिकार―जो पुरुष विषयों से विरक्त हैं, जिन्होंने इंद्रिय पर विजय प्राप्त किया, जो प्रत्येक परिस्थिति में धीर रहते हैं, तपश्चरण विनय और शील से जो युक्त हैं, जिन्होंने अष्ट कर्मों को नष्ट कर दिया है, वे पुरुष सिद्ध अवस्था को प्राप्त होकर सिद्धभगवान कहलाते हैं । जीव पर बड़ा कलंक है विषयरमण । अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं, विषयभूत पदार्थ भी अत्यंत भिन्न हैं, इन विषयों में इस जीव को प्रीति होती है, रमण होता है, वही इसके उपयोग पर चित्रित रहता है तो यह तो इस भगवान परमात्मा के लिए बड़ा कलंक है । विषयों से विरक्ति पाये बिना कोई धर्ममार्ग में जरा भी नहीं चल सकता, क्योंकि विषयों से प्रेम रखने वाला पुरुष ऐसा जकड़ा हुआ है कि वह अपने में निर्भारता या प्रसन्नता पा नहीं सकता । अभी व्यवहार में ही कोई कामवासना वाले पुरुष का जो कि किसी समय सुख मान रहा है या अन्य इंद्रियविषयों के भोग में खाने में, सूंघने में, देखने में, सुनने में सुख मान रहा है और उस सुख में थोड़ा चेहरा भी खिल जाता है, एक तो उसका फोटो लीजिए और एक जो विषयों में नहीं रमता, विषयों से विरक्त है और शुद्ध आचार-विचार से रहता है उसे भी आनंद के कारण चेहरे पर मुस्कान रहती है । एक उसका फोटो मिलायें तो दोनों ही फोटो में आप बड़ा ही अंतर पायेंगे, वह प्रसन्नता सुंदरता में, विषय सुख वाले में नहीं पायी जा सकती । तो विषयों से विरक्त होना यह धर्मार्थी पुरुष का सर्वप्रथम कर्तव्य है, सिद्धि को प्राप्त करने का अधिकारी जितेंद्रिय है । जिसने इंद्रिय को जीता है, विषयविरक्ति का और जितेंद्रिय का परस्पर संबंध है, जिसने इंद्रिय पर विजय पायी, वही विषयों से विरक्त हुआ है, वही इंद्रिय पर विजय पायेगा । ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के साध्य-साधक हैं । तो जो पुरुष जितेंद्रिय हुए हैं वे ही सिद्ध अवस्था प्राप्त करने के अधिकारी हैं ।
(74) धीर व तपविनयशीलसहित जीवों को अष्टकर्मरहित होकर सिद्धपर्याय का लाभ―धीर वीर पुरुष सिद्ध अवस्था को पाने के अधिकारी हैं । वीरता होने का कारण विषयविरक्ति और जितेंद्रियपना है, तो विषयविरक्ति और जितेंद्रियत्व तो कारण है और धीर बनना यह उसका फल है । धीर शब्द का अर्थ है जो बुद्धि को देवे सो धीर । धी मायने बुद्धि और र का अर्थ है देने वाला । रा धातु देने अर्थ में आती है, और धी मायने बुद्धि, तो धी राति इति धीर:, जो बुद्धि को दे उसे धीर कहते हैं, ऐसी अवस्था, ऐसी स्वच्छता की दशा कि जिसमें बुद्धि काम करे, बुद्धि विचार न बिगड़े, उस अवस्था से युक्त पुरुष को धीर कहते हैं । अब बुद्धि न बिगड़े, ज्ञान सही काम करता रहे तो वह पुरुष बन सकेगा ऐसा कि जो विषयों से विरक्त हो और इंद्रिय का विजयी हो । तो जो धीर वीर पुरुष हैं वे सिद्ध अवस्था पाने के अधिकारी होते हैं । जिन पुरुषों ने तपश्चरण का आदर किया है यथाबल अंतरंग बहिरंग तप करते हैं, अपने आपको इच्छारहित अनुभव करते हैं, वह तपसहित कहलाते हैं । जिनको अपने ज्ञानस्वभाव की प्रीति है और ज्ञानस्वभाव की ओर उपयोग जिनका झुकता है वे पुरुष वास्तव में विनयशील हैं और जिन्होंने ऐसे ज्ञानस्वभावोपयोग के बल से आत्मविजय पाया है वे ही व्यवहार से व निश्चय से विनयशील बन पाते हैं, अन्यथा विनय बनावट में भी हुआ करती है, पर बिना बनावट की विनय, वास्तविक विनय उसी पुरुष के संभव है जिसने अपने ज्ञानबल में विनय किया है । जो शीलसहित पुरुष है, जिनका ध्यान अपने आत्मा के सहज ज्ञानस्वभाव की ओर रहता है वे यथार्थ तपविनय के पात्र है, सो जो तपश्चरण सहित है, विनयसहित है वह पुरुष सिद्धअवस्था को प्राप्त होकर सिद्ध कहलाता है । सिद्धदशा अष्टकर्मों के नष्ट हुए बिना नहीं प्राप्त होती । उनमें 4 घातिया कर्म तो अरहंत अवस्था में नहीं हैं । अरहंत होने के लिए पहले ही नष्ट कर दिया गया था, शेष चार अघातिया कर्म जो आत्मा के गुण को तो नहीं घात रहे, पर आत्मगुण घातने के सहायक नोकर्माश्रयभूत जैसा उनका फल रहता था शरीरादिक, वे शरीरादिक अब भी हैं । अघातिया कर्मों का उदय चल रहा है, उनका उस 14वें गुणस्थान के अंत में विनाश हो जाता है । यों अष्टकर्मों का नाश होने पर शरीररहित होकर वे सिद्ध भगवान कहलाते हैं । तो ऐसा सिद्ध होना आत्मशील का प्रताप है । आत्मा के शील बिना सिद्ध पद की प्राप्ति असंभव है ।