वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 102
From जैनकोष
तद्बंधमार्गाश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बंधहेतु: ॥102॥
840- जीव के विकार का हेतु परोपाधिसंपर्क- जीव में जितने भी बिगाड़ होते हैं वे सब अपने आप स्वभाव से तो हुए नहीं, स्वभाव तो अनादि अनंत है। जैसा यहाँ हम आपमें है वैसा ही सिद्ध प्रभु में भी है। स्वभाव से बिगाड़ होता तो सिद्ध प्रभु में भी बिगाड़ रहता और वह बिगाड़ नित्य हो जाता, कभी मिटता नहीं। तो बिगाड़ बना कैसे? उसकी घटना हुई क्या? तो घटना यह ही तो है कि पूर्व का बँधा जितना कर्म का उदय आया, विपाककाल हुआ उस विपाक समय में, प्रतिफलन में यह जीव लगाव कर बैठा और अपने स्वरूप को तो भूल गया और उस ही प्रतिफलन रूप अपने को मानने लगा। जैसा उसकी प्रकृति का विपाक था, हास्य हँस रहा कर्म। सुनने में जरा गड़बड़ लगता होगा कि वह कर्म अचेतन क्या हँसेगा, मगर अचेतन कार्माणवर्गणा में हास्य प्रकृति और अनुभाग हे उस दृष्टि से विचारें, जो कुछ भी हो सकता हो वह हास्य कर्म का विपाक ही तो है और यहाँ प्रतिफलित हो गया उसे आपारूप मानकर यह सोचता है कि मैं हँसता हूँ, मैं रोता हूँ, मैं राग करता हूँ, मैं द्वेष करता हूँ। इस जीव को कर्मविपाक से भिन्न, इस मलीमसता से भिन्न विभावों से निराले अपने चैतन्य स्वभाव की सुध नहीं है। यह तो स्वयं चैतन्यस्वरूप है और अपने ही स्वरूप के कारण इसमें चैतन्य रस की उछाल निरंतर चलती रहती है, मगर जब उस स्वच्छ उछाल मे कर्मविपाक का कीचड़ लिपटा है, विभाव लिपटा है।तो वह एक बोझल हो गया और उसकी शोभा समाप्त हो गई। अब यह दूसरे ढंग से चलने लगा, तब यह जीव विभाव करता है, किंतु मैं इन विभावों रूप नहीं। मैं तो स्वच्छ चैतन्यस्वरूप हूँ। मेरे में मेरे ही स्वरसत: इस चेतना के कारण ज्ञानमयी स्वच्छ उछाल हुआ करती है। पदार्थ है, अपने स्वरूप से प्रकट हो रहा है, कोई विसम्वाद नहीं है। तो जहाँ बंध कथा हो याने पर भावों से संबंध बने वहाँ ही विवाद हो उठता है। 841- जिससे अपने को विविक्त समझना है उसके सुपरिचय में विविक्तता के परिचय की स्पष्टता-
वह पर उपाधि क्या है? जिसके संपर्क से विसंवाद बन बैठा उसके संबंध में यदि स्पष्ट जानकारी हो तो उससे भेद करना बड़ा स्पष्ट हो जायगा जिससे हमको अलग होना है, निराला समझना है, उसके बारे में यदि काफी परिचय हो तो निरालापन समझने में बड़ी स्पष्टता है, सुगमता है, दृढ़ता है, वह बात की बात नहीं रहती। वह अंतर से उत्पन्न होती है और जिससे हमको निराला समझना है उसके बारे में कुछ जानकारी ही न करें- एक सामान्य शब्द ले लिया और बस कर्म से निराला, विभाव से निराला, इतना ही मात्र करने भार को शब्द ही रह गए, कर्म के बारे में, विभाव के बारे में स्पष्ट परिचय नहीं है तो उससे निरालापन भी दृढ़ता के साथ नहीं हो पाता, इस कारण थोड़ा कर्मसिद्धांत को भी समझना चाहिए, जहाँ अनेक समझ बना रखे हैं, लो जिससे हमारा प्रयोजन विशेष नहीं, केवल एक गुजारा मात्र है वहाँ तो हम आप जानकारी बनाते, बड़ा दिमाग लगाते और जिनसे हम आपको निराला समझना चाहिए उनको केवल कर्मरस, धूल, बस इतनी ही बात कह कर छुट्टी पा ली तो उनके दृढ़ता आना मुश्किल है। तो कर्मसिद्धांतों को जब कोई अच्छी प्रकार जानता है तो उससे भिन्नता भी बड़ी स्पष्ट समझ में आती है, अब उसी पर उपाधि का कुछ परिचय कराते हैं। वह पर उपाधि है कर्म।
842- जीवविकार के निमित्तभूत पर उपाधि का संक्षिप्त परिचय-
वे क्या हैं कर्म जो कर्म पुण्य और पाप इन दो रूपों में बँधे हुए हैं? क्या हैं वे कर्म? उन कर्मों के बारे में लौकिक जनों में दुविधा मच गई और उनको कुछ ऐसा मान लिया कि पुण्य तो हमारे श्रेय के लिए है और पाप मेरे बिगाड़ के लिए है, तथा इस बात पर उनकी कई दलीलें भी होती हैं, और कोई भी शंकाकार कुछ भी शंका रखता है या अपनी कोई जिज्ञासा रखता है तो उसके समझ तो कुछ होती है, पर समाधान ही उसका अंतिम निर्णय होता है। कर्म क्या चीज? कार्माणवर्गणायें इस ही आत्मा के इसही क्षेत्र में रहने वाला कार्माणस्कंध है कोई, जैसे घट की उत्पत्ति में निमित्त कुम्हार है, तो कुम्हार कोई पर्दे के आकार मात्र का नहीं है वह तो दो हाथ पैर वाला हस्तादिक का व्यापार करने वाला, समझ बनाने वाला कोई पुरुष है, इसी तरह ये विभावों के निमित्तभूत जो कर्म हैं सो ये कोई हौवा ही नहीं हैं, केवल एक सिनेमा जैसी छाया मात्र हो ऐसा नहीं है,रूप, रस, गंध, स्पर्श के पिंड और अपने एक विशिष्ट जाति के, कार्मावर्गणायें हैं। पुद्गल की 23 जाति की वर्गणायें हैं, उनमें एक कार्माणवर्गणा भी है। सो जीव के जब रागभाव हुआ विकारभाव हुआ तो उसका निमित्त पाकर उदय में आये हुए कर्मों में ऐसा बल हुआ उसका अपने आपका कि वह नवीन कर्मों के आस्रव का कारण बन गया। आ गया कर्म, मायने कर्म में कर्मत्व रूप हो गया। जैसे मानो किसी के अपने पड़ोस के ही किसी लड़का लड़की की शादी हो, एक की कन्या, एक का लड़का, मान लो आज पति पत्नी हो गये। तो क्या वे लड़का लड़की आज उत्पन्न हुए? वह क्या कोई नई बात है? अरे वे ही तो हैं जो रोज-रोज एक दूसरे को देखते थे, मगर आज कुछ नातापन उत्पन्न हो गया। तो वे कार्माणवर्गणायें पहले से तो हैं, एक क्षेत्रावगाह में हैं और आज वे कार्माणवर्गणायें विकृत हो गई हैं, बँध गई।
843- हेतुभेद से पुण्य व पाप कर्म में भेद विदित होने की आशंका और उसका समाधान-
वे कार्माणवर्गणायें कोई भली हैं कोई बुरी हैं, ऐसा कोई मोही जीव निरखता है, पर जिसको अपने आत्महित की भावना है, आत्महित के मार्ग में जो लगता है उसके लिए सारे कर्म एक स्वरूप विदित हुआ करते हैं। कहाँ लगना है? अपने आनंदधाम ज्ञानपुंज में, अविकार निज स्वरूप में। जहाँ अपने ही स्वरूप के कारण ज्ञानानंद स्वरूप शुद्ध उमंग उछला करती है, जिस स्वरूप में सहज चिद्विलास होता है उस स्वरूप का जो रुचिया है उसका एक ही निर्णय है कि सभी कर्म ये मेरे स्वरूप नहीं, मेरे हित के लिए नहीं। इसके सहारे, इसके आश्रय से मेरा श्रेय नहीं। तो कोई ऐसी चर्चा छेड़ सकता कि इनमें सबको एकसमान क्यों कहते? पुण्य भला है, पाप बुरा है, क्योंकि पुण्य तो बना है जीव के शुभ परिणाम के निमित्त से और पाप बना है जीव के अशुभ परिणाम के निमित्त से, इसलिए उनमें भेद तो होना ही चाहिए। हाँ भेद तो है, वहाँ भी शुभ अशुभ संज्ञा है, मगर हे आत्मन् ! तेरा लक्ष्य क्या है? मुझे क्या चाहिए? तू अनंत काल तक किस पद में रहना चाहता है ! तूने अपना सदा के लिए कौनसा काम सोचा है। यही स्वरूप में रमूं स्वभाव में मग्न होऊँ, यह ही तो सोचा है ना। तो इसके अतिरिक्त जो कुछ भी भाव हो, जो कुछ भी विराधना हो उनमें से तू किसी को इष्ट मानकर रमना चाहता है और किसी को अनिष्ट मानकर उससे बचना चाहता है। खैर बचने की बात तो ठीक है मगर किसी को इष्ट मानकर रमने की बात यदि तेरे चित्त में आती है तो तूने अभी मोक्षमार्ग नहीं देखा। किस रास्ते से जाना, किस मंजिल में पहुँचना यह तेरे सही निर्णय से अभी बाहर है। तू अपने स्वभाव की ओर ही तो चलना चाहता तो उसके अतिरिक्त जो भी भाव हैं,विभाव हैं।वे सब बिगाड़ हैं, और जो कर्मबंध हुआ, जो आगामी इस द्वैत के कारण बनेंगे वे भी सब एक रूप हैं।
844- आपतित कर्मभार के समय भी अंतस्तत्त्व के रुचिया की दृष्टि का विषय सहज चैतन्यभाव-
देखो अंतस्तत्त्व के रुचिया ज्ञानी पुरुष की कैसी अंत:आराधना है। केवल एकस्वभाव ही, यह एक पारिणामिकभाव हीअनादि अनंत अचल चैतन्य तत्त्व स्वरूप ही यह मैं हूँ, बस ऐसा ही तो रहना है, जैसा इसका सहज स्वरूप है उसी रूप ही तो सत्तासिद्ध अनुभाव है, इसकी ओर ही अंतस्तत्त्व के रुचिया संत का दृढ़ परिणाम है। भाव यह है कि वह इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहता। मगर जब इस ही ज्ञानी को पूर्वबद्ध रागप्रकृतियां आक्रांत करती है और यह जम नहीं पाता है अपने स्वरूप में तो बाह्य की ओर तो चलता ही है। बाह्य की ओर चले तो कैसे चले? जब कभी आपके सामने जो आप चाहते तो हों बहुत बढ़िया बात, कोई बढ़िया चीज वह तो सामने न दिखाये और अन्य दो चीजें आपके सामने दिखाये और कहें कि इनमें तुझे क्या ठीक लगता? तो ठीक तो दोनों ही नहीं, मगर जब परिस्थिति ऐसी है कि परम अभीष्ट तो मिला नहीं, कुछ अन्य ही दुर्निवार दो बातें आ पड़ी जो चाहे उनमें ले लो तो उनमें ही आप ऐसी छांट बनायेंगे कि चलो इनमें तो यह चीज अच्छी है, तो रागादिक की चेष्टा होती ही है। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति होती ही है, तो पाप में प्रवृत्ति न हो, भक्ति, दया, दान, चिंतन, मनन, चर्चा इनमें प्रवृत्ति हो तो यह तो परिस्थिति में एक छांट है, पर इस स्वभाव के रुचिया को उनमें रुचि नहीं है। वह तो जानता है कि मेरे मूल में क्या पड़ा है? केवल एक अंतस्तत्त्वस्वरूप, बस इसका अनुभव ही एक परमोत्कृष्ट कार्य है।
845- पुण्य पाप कर्म के हेतुभूत शुभ अशुभ भावों में अज्ञानरूपत्व की समानता से हेतु की अभेदरूपता के कारण पुण्यकर्म व पापकर्म की अनादेयता की समानता-
हेतु की दृष्टि से भले ही शुभ अशुभ भावों से उत्पन्न हुए हैं ये कर्म, फिर भी शुभभाव और अशुभभाव ये अज्ञानरूपभाव ही तो है। यहाँ अज्ञान के मतलब क्या समझना? देखो जीव में ज्ञानभाव, केवल ज्ञान ही रहता और ज्ञान गुण का ऐसा परिणमन जिसमें सहजज्ञान ही विषयभूत हो, इस परिस्थिति को ज्ञानभाव कहते हैं। इसके अतिरिक्त चाहे कितना ही ज्ञानी पुरुष हो, सम्यग्दृष्टि हो, बड़ा संयमी हो, उसका भी जो राग है, विकार रूप है, तो स्वरूप दृष्टि से देखो वह चूंकि स्वयं चेतने वाला नहीं है इसलिए अज्ञान है। यहाँ अज्ञान की परिभाषा जरा भली प्रकार समझना और इस दृष्टि से कदाचित् कह सकते- अच्छा बतलावो- ज्ञान गुणचेतन है या अचेतन? ज्ञानगुण ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप? ज्ञानरूप।और चरित्र आनंद और और? ये अज्ञानरूप। जो जो गुण, जो जो पर्याय, जो जो परिणतियाँ स्वयं स्वयं को चेत न सकें, ज्ञान द्वारा ही जिनका ज्ञान बने, ऐसी जो अन्य अन्य स्थितियाँ हैं वे ज्ञानरूप नहीं कहलाती। केवल एक ज्ञान ही ज्ञानरूप है, क्योंकि एक वह ही जानने वाला और वही जानने में आ गया। जिसको जानने वाला और बना, वह अज्ञान। जिसको जानने वालास्वयं ही हो, वह ज्ञान। फिर तो रागादिक की बात तो और ही स्पष्ट है। वह तो अज्ञानरूप चरित्रगुण का विकार भाव है, विकृत कर्मविपाक के प्रतिफलन में हुआ है तो उसमें तो और स्पष्टता है कि अज्ञान भाव है। तो शुभ भाव हो, अशुभ भाव हो, वे सब स्वयं स्वयं को चेतने वाले नहीं हैं। उनको जानने वाला ज्ञान है, तो जहाँ ऐसी अटक पड जाती कि बेचारा खुद अपने को जान नहीं पा रहा, जानना बन रहा किसी दूसरे के द्वारा तो वह तो अज्ञानरूप है। फिर से ध्यानपूर्वक इस बात को समझिये- ज्ञान अपने आपके द्वारा जानने में आता, वह है ज्ञान भाव। जो अपने आपके द्वारा जानने में नहीं आता वह है अज्ञान भाव। तो शुभ भावों में भी वह अपने आपके द्वारा अपने को चेत नहीं सकता इसलिए भी अज्ञानरूप है, और फिर विकाररूप है इसलिए भी अज्ञान है। तब वह हेतु भी एक ही चीज है ज्ञानदृष्टि से। इस कारण उससे उत्पन्न पुण्य और पापकर्म हैं वे भी एक रूप कहलायेंगे।
846- अंतस्तत्त्व की अंतर्दृष्टि से अंतरात्मा के अंत: आनंदलाभ का प्रसाद- देखिये लक्ष्य की बात चैतन्यचमत्कारमात्र स्वभाव के रुचिया का लक्ष्य केवल निज सहज चैतन्यस्वरूप पर है। कोई भी पदार्थ है वह अपने आप ही तो है कि दूसरे की दया से है, क्या दूसरे के संबंध से है? अरे अस्तित्व कभी भी किसी किसी दूसरे पदार्थ के संबंध से नहीं हुआ करता। है तो, खुद है और जब इस आत्मा का अस्तित्व स्वयं है तो वह स्वयं का अस्तित्व जिसका है वह क्या है? यही ही तो एक दृष्टि में लेने की बात है, उसको मान लेवें कि यह मैं हूँ, बस संसार से पार होने का रास्ता मिल गया। यहाँ देखो कितनी विपत्तियाँ छायी हुई हैं कि इस जीव का उपयोग किन-किन बाहरी पदार्थों में अटक रहा है। नाम लेकर सुनायेंगे तो आप लोग और अधिक भटक जायेंगे, इसलिए इतना ही रहने दो। केवल इतना ही समझना है कि कहां कहां अटक रहा इसका उपयोग। यह स्थिति विपत्ति है या समृद्धि। और, विपत्ति पाकर भी जीव मानता है समृद्धि तो दोष पर दोष बढ़ते। एक तो भूल करना और फिर उस भूल को ही सही मानना यह महान भूल कहलाती है। कोई पुरुष कहीं मार्ग से जा रहा था, वह रास्ता भूल गया, एक मील आगे चला गया और बड़ी अकड़ के साथ तेजी से चलता जा रहा और उसे सही समझता जा रहा, बड़ी उमंग से आगे को पैर उठाता जा रहा है तो एक तो भूल गया और फिर उसी भूल को सही मान रहा सो यह तो महाभूल बन गई। ऐसे ही एक तो राग होना और उस राग की स्थिति को भला मानना, स्वरूप मानना बस इसी का नाम है मिथ्यात्व। राग में राग होने का नाम है मिथ्यात्व। विकार में राग होने का नाम हुआ मोह। ये विकार परभाव हैं इनसे विविक्त अंतस्तत्त्व की प्रतीति से ज्ञानी अंत: सदा प्रसन्न रहता है। 847- अंतस्तत्त्वसंबंधित चर्या का आह्वान-
भैया अपनी चर्या पर थोड़ा दृष्टिपात तो करो और ऐसा कुछ ध्यान में लाओ कि आखिर मुझे अकेला ही तो रहना है सदा, अकेला ही तो जन्मा, अकेला ही तो मरना है, अकेला ही तो जो कुछ होवेगा वह अकेले ही होवेगा, यहाँ कोई दूसरा मददगार है क्या? आज जो बड़े अच्छे प्यारे लगते हैं, बहुत भले लगते हैं और उनमें अनुराग बनाते हैं, क्या वे कुछ भी इस जीव के मददगार हो सकेंगे? नहीं हो सकते। इस भव में भी नहीं हो सकते। वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि कोई किसी का शरण नहीं, कोई किसी की प्रवृत्ति नहीं कर सकता। तो फिर जब ऐसा है कि सर्वत्र प्रत्येक पदार्थ नंगे नंगे नच रहे हैं, अकेले-अकेले ही अपने में परिणम रहे हैं। तो ऐसे इस नंगे नाच वाले संसार में किसी पर से लगाव रखना, अंदर से उसको अपना सर्वस्व मानना उससे अपना महत्त्व प्रभाव समझना, यह कितनी बड़ी भारी भूल है। और, इसका फल भोगने आयगा कौन? अपनी बात अपने को ही सम्हालनी होगी। इस कारण एक ही नाता रखें अपना कि मैं आत्मा हूँ,चैतन्यस्वरूप हूँ,जो मैं खुद हूँ, स्वयं हूँ, केवल हूँ, शुद्ध (Pure) हूँ, सबसे निराला, विविक्त अपने एकत्व में हूँ बस वही मात्र मैं रहूं तो सारे झंझट खतम।
848- सहजपरमात्मतत्त्व के रुचिया संत की बाह्य प्रवृत्ति-
जब मैं अपने इस सहज स्वरूप में नहीं रह पाता तो मेरी सारी दशायें होती हैं। वे दशायें क्या है? ये ही तो विभाव हैं और ये विभाव हैं पूर्वबद्ध कर्म के विपाक में, किंतु ये मिट जायेंगी, नैमित्तिक हैं, परभाव हैं, यह तो एक झलक मात्र है यहां, जितने भी विभाव बन रहे हैं, वे सबके सब एक कोटि में हैं, जब स्वभावदृष्टि कर रहे हैं, लक्ष्य में ले रहे तो उसका यह ही अपने स्वभावमात्रपने का निर्णय है, अब प्रवृत्ति बिना तो वह भी नहीं रह पा रहा, जो इतना समझ रहा तो बस प्रवृत्ति में उसकी क्या परिणति होती है, परखिये जहाँ यह स्वरूपविकास दिखा ऐसे प्रभु के प्रति उमंग के साथ प्रभु का स्मरण करता है। स्मरण क्या करता? अपने भावों को, अपने उपयोग को उस प्रभु के अविकार स्वरूप में बड़ी उमंग के साथ ले जाता है और उसे ऐसे स्वरूपविकास की साधना वाला कोई दिखे तो वहाँ बड़ी उमंग के साथ उनकी परिचर्या में, सेवा सत्संग में प्रवृत्त होता है। यह रुचि की ही तो बात है। जैसे किसी बालक को सिनेमा देखने की रुचि है और उसका कोई पड़ोसी समवयस्क बालक है, उसके भी भाव हुए कि मैं भी सिनेमा देखूंगा, तो जब एक ही लक्ष्य मिल गया दोनों का तो वे कैसा एक दूसरे के कंधे में हाथ डालकर बड़ी अच्छी गप्पें लगाते हुए, जेब में अगर मूंगफली हो तो खाते खिलाते हुए कैसा बड़े वात्सल्य से चलते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य एक है। तो ऐसे ही अंतस्तत्त्व के रुचिया ज्ञानी का जो लक्ष्य है उसकी ही साधना करने वाला कोई व्यक्ति मिलता है तो उनको देखकर वह कितना वात्सल्य से रहेगा उसके लिए मानो सर्वस्व ही यह है, कल्पित घर के भी कुछ उसके नहीं रहे, यह है अंतस्तत्त्व की रुचि के विकास का पर मनोज्ञ लक्षण।
849- ज्ञानी का आत्मसंतोष-
यह ज्ञानी पुरुष सदा एक अपने आपमें ही संतोष रखता, तृप्ति रखता, अपने प्रभु से ही आशीष चाहता, बाहर से कुछ नहीं, कोई वस्तु ही नहीं चाहता। परवाह क्या, जो परिस्थिति होगी उसी में निपट लिया जायगा। क्या चाहिए? बड़े-बड़े महापुरुष जिनके पुण्य का अतुल प्रताप बर्त रहा था, सारा लोक जिनका सेवक था उनको भी कठिन अनिष्ट समागम प्राप्त हुए, उपसर्ग आये, उपद्रव आये। जैसे महावीर भगवान मुनि अवस्था में थे, रुद्र ने उपसर्ग किया, पार्श्वनाथ प्रभु पर मुनिपद में कमठ ने उपसम किया, सुकुमाल, सुकौशल, आदिक बड़े-बड़े पुण्यवान पुरुष ही तो थे, उन पर भी ऐसी स्थितियाँ आयीं। तो हम बाहर में किस-किस पदार्थ का विचार करें? उनके विचार करने से इस जीव को लाभ क्या? लोग तो सोचते हैं कि हमें ऐसा बनना है, ऐसा घर बनाना है, ऐसे ठाठ के साधन बनाना है; अरे ठीक है, घर में रह रहे हैं तो गुजारे के लिए सब कुछ कर्तव्य है, सो तो करना, मगर अपने अंदर में ऐसा आकुलित न होना कि ऐसा ऐसा हुआ क्यों नहीं? अरे जिस घर के उपभोग में वे सब चीजें आनी हैं उनका ही भाग्य अगर साथ नहीं दे रहा तो आप उसमें क्या करेंगे?
850- अपने अंत: एकत्वस्वरूप के आश्रय का संकल्प-
भैया बाहर में जो हो, सो हो, मगर अपने आत्मा की अंत: साधना बना लें, क्योंकि खुद को ही अकेला रहना होगा। अब भी अकेले हैं और आगे भी अकेले रहेंगे, तो फिर उस अकेलेपन से क्यों घबड़ाते? जब हमने प्रोग्राम ही बनाया कि मुझे अनंतकाल तक अकेला ही रहना है। सिद्ध होने का और अर्थ ही क्या है? अनंतकाल तक पूर्ण रूप से सर्वथा अकेला ही रहना, न देह, न कर्म, न वैभव, न मित्र, न परिजन, केवल एक ज्ञानमूर्ति। जब हम इस स्थिति में रहना पसंद कर रहे हैं और अनंतकाल तक कि लिए हम अपने को ऐसा ही चाह रहे हैं तो यहाँ अगर केवल दो मिनट अपने आपके अकेले इस सहज स्वरूप का चिंतन करने बैठते हैं तो उसमें घबड़ाहट क्यों मचाते? चिच्चमत्कारमात्र परम पदार्थ में उपयोग के प्रतपन की एक गर्मी सी लग रही है मानो, कि वहाँ से भागकर अपने कल्पित शीतल पदार्थ में पहुंचते हैं। अनंतकाल तो अकेला रहना है ना? तो दो एक क्षण कौनसी बड़ी बात है? किसी भी क्षण, सामायिक में किसी भी समय सर्व कुछ भार कोत्यागकर अपने आपको केवल एक अकेला चैतन्यस्वरूपमात्र निरखें, थोड़ा विश्राम लेवें। इन विकल्पों में अनादिकाल से अब तक थकते ही तो चले आये, उन विकल्पों को त्याग कर सुनसान विश्राम से ऐसा बैठ जायें कि किसी भी पदार्थ का उपयोग न बनायें, ध्यान न बनायें, जरा ऐसा प्रयोग तो करें, यह ज्ञानस्वरूप अपने आप उमड़-उमड़ कर उसके ज्ञान में आयगा और यहाँ यह अनुभव अपना करेगा। जब अनुभव बन जाता है फिर उससे उसे कोई विचलित नहीं कर सकता। मैं यह ही हूँ, ऐसा ही चैतन्यस्वरूप हूँ इस भावना से फिर विचलित करने की किसी में भी बाह्यसाधन रूप से भी बात नहीं आती, ऐसे अंतस्तत्त्व की जिन्होंने भावना की, रुचि की, उसका अनुभव चखा, आनंद लूटा ऐसे पुरुष के लिए यह संसार का सारा जाल और इसका हेतुभूत समस्त कर्मजाल ये सब एक हिसाब में आते हैं। सब पर हैं, सब मेरी आकुलता के हेतुभूत हैं। मेरा उसमें कुछ नहीं है।मुझे वहाँ कुछ न चाहिए, मेरी वहाँ कोई छांट नहीं। मैंने तो छांट लिया एक अपने इस अनादि अनंत चैतन्य महाप्रभु को। इसके अतिरिक्त और कुछ भी मेरे उपास्य नहीं है। ऐसे रुचियों को सारे कर्म, सारे विभाव ये सब परभाव हैं।
851- स्वभाव विभाव का भेद ज्ञात कर स्वभाव के आश्रय के बल से कष्ट दूर करने की भावना-
जगत में जीवों का जो-जो कुछ भी नाना प्रकार का परिणमन चल रहा है- द्रव्य और परभावरूप जैसे नारकी बनना, तिर्यंच होना, मनुष्य बनना, देव बनना, कषायें जगना, विकल्प होना आदि जो कुछ भी ये परिणमन चल रहे हैं, यह निश्चय जानो कि ये मेरे स्वरूप की वस्तु नहीं, स्वभाव के तत्त्व नहीं। मैं तो अपने आप सहज चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ। और फिर जो कुछ भी विपदायें, गड़बड़िया विकार विकल्प जो कुछ जग रहे हैं वे उस प्रकार की प्रकृति का निमित्त पाकर यहाँ उठ रहे हैं। ये पौद्गलिक हैं, इनसे मैं निराला हूँ, ऐसा अपने आपके स्वरूप को कोई निरखे, माने तो उस ही पुरुष का, जीव का कल्याण है। मैं क्या हूँ एक इसके निर्णय पर ही अपना सारा भविष्य निर्भर है, तो इन विकारों को तो ले जावो निमित्त की ओर,वहीं जावे, मेरे में मत रहो और अपने स्वभाव को अपने में ले आवो, मैं चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ। जितना भी कष्ट है वह सब ज्ञानविकल्प का कष्ट है और यह विकल्प मेरे स्वरूप से उठता नहीं है, होते मेरे में ही परिणमन, पर ये अनैमित्तिक नहीं। ये पुद्गल कर्म का निमित्त पाकर हुए।
852- कर्मफलेच्छापरिहार के लिये कर्मपरिचय का सहायकत्व-
विभाव के निमित्तभूत कर्म क्या-क्या है? किस ढंग के हैं? उसके ही विवरण मेंयह प्रकरण चल रहा है कि कर्म को जानें, समझें तो सही, याने जिनके उदय में इतनी भारी विपत्ति चलती है उन्हें भी तो थोड़ा समझें कि वे हैं क्या? तो वे हैं पुद्गलकर्मवर्गणायें, सभी चाहे पुण्यकर्म हो चाहे पापकर्म हो, पुद्गलकर्मवर्गणायें हैं, उनका जो ढाँचा है, उपादान है, स्वरूप है वह सब जड़ स्वरूप है इसलिए अपने अंत: स्वभाव के लिए उनका कोई प्रयोजन नहीं है। वे रहें अपने आपमें, मैं रहूंगा अपने स्वरूप में।जिसको ऐसे कर्म का, आत्मा का भेदज्ञान नहीं, विभाव का स्वभाव का भेदज्ञान नहीं, वह अपने स्वरूप की सुध से हटकर बाहरी बातों में लगकर व्यर्थ ही हैरान हुआ करता है। थोड़ा स्पर्श तो करें अपने स्वरूप का कितना भार हटता है, कितना विलक्षण आनंद आता है। मेरा कुछ नहीं फिर से तो परखो यह बात। यह शरीर भी मेरा नहीं, प्रकट अचेतन है और देखते भी हैं कि भव छूटने के बाद याने मरण के बाद यह शरीर साथ नहीं जाता, जीव अकेला चला जाता। लोग इस शरीर को जला देते। इसे कोई मना तो नहीं करता कि मेरे मुन्ने को या मेरे बाबा को मत ले जावो जलाने, यहीं पड़ा रहने दो....। सब जानते हैं कि यह शरीर पार्थिव है, इस शरीर का क्या करना। सो भैया, वही तो शरीर है यह जो मरे के बाद निश्चेष्ट, रहेगा वही तो शरीर है जो साथ नहीं जाता, तो जब देह भी मेरे साथ नहीं जाता तो जगत के और पदार्थों में लालच का जो रंग बनाया है, मोह का जो रं बनाया है यह ही मेरा सब कुछ है, इस वैभव से ही तो मेरा पूरा पड़ेगा, ऐसा जो रंग बनाया है तो अपने आपके अंदर यह बड़ा कलंक है और यह ही इस जीवन को बरबाद करने वाली बात है।
853- ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान के लिये ज्ञानमात्र बनाने के प्रयोग की आवश्यकता-
भैया अपनी करुणा कीजिये, कुछ क्षण निर्लेप तो रहें। हो रहा सबका खुद का खुद में परिणमन। कर्मोदय के अनुसार चलती हैं संसार की बात। और शांति की बात, मोक्ष की बात, आत्मकल्याण की बात, ये अपने स्वरूप के ज्ञान के अनुसार चलते हैं, तो पहिले अपनी परिस्थिति से तो निपट लें जो रोज रोज की परिस्थितियाँ घर में आती हैं उन पर प्रयोग नहीं करते, उनमें लाभालाभ का हिसाब घटित नहीं करते, धर्म की बातें तो बड़ी ऊँची ऊँची कर डालते, आत्मा की चर्चा भी करते और-और भी सूक्ष्म बातें करते, मगर अपना जीवन कैसा चल रहा है और उस जीवन में कितना कलुषता का रंग चढ़ा है, कितनी अधीरता है और घबड़ाहट भी किया करते हैं, कहाँ क्यास्थिति बन रही है उस पर थोड़ा ध्यान तो करना चाहिए। कहने से आनंद न आयगा, अनुभव न बनेगा, उसके लिए तो भीतर में ज्ञान द्वारा ज्ञान में ज्ञान का ही प्रयोग करना है, स्वानुभव के लिए कोई अन्य साधना न चाहिए, उसे तो एक अकेलापन चाहिए। तो उसके लिए थोड़ा उस ज्ञान में रमना, ज्ञान से ज्ञान में ज्ञानस्वरूप को संबोधना, मैं क्या हूँ, किसी भी क्षण अगर चित्त में यह सारा संग का ख्याल, परिग्रह का ख्याल वासना से भी निकल जाय कुछ क्षण, और यह हो सकता है ज्ञान के उदय होने पर, तो सम्यग्ज्ञान पाना हमारे ही ज्ञान की तो बात है। कोई दूसरा हमारा ज्ञान परिणमन करने न आयगा। किसी क्षण यदि कोर्इ विकल्प न रहे, तो निज ज्ञान समुद्र की सहज उछालों में सकल संकट संताप दूर हो जावेंगे। हम ऐसा जानें कि समग्र पदार्थ मेरे कुछ नहीं है, इन समग्र बाह्य पदार्थों से मेरे को कुछ सहारा नहीं। मैं तो ज्ञानरूप, ज्ञान के परिणमन के अनुसार फल भोगता रहता हूँ। मेरा किसी अन्य वस्तु से कुछ प्रयोजन नहीं। फिर किसी पर का ध्यान क्यों रखूं? पर का ख्याल क्यों बनाऊँ? मैं तो शांत बैठा हूँ, मुझे अब कुछ नहीं सोचना है, ऐसा एक क्षण भी अगर जीवन में आ सके तो यह आनंदसागर, आनंदनिधान, यह ज्ञान भगवान, यह अपने आप दर्शन देता है। यही तो जीवन में करने की आवश्यकता है।
854- प्रयोग बिना मात्र गप्प से लाभ की असंभवता-
जैसे सभाओं में ऐसा होता ना कि प्रस्ताव तो बहुत-बहुत कर लिया, मगर उनका अमल नहीं होता। तो कोई कहता कि भाई प्रस्ताव तो बहुत कर लिए, अब प्रस्ताव तो रहने दो, अब उस पर अमल करो। तो ऐसे ही जो हमने ज्ञानाभ्यास किया है, थोड़ी बहुत जानकारी की है उस पर थोड़ा बहुत अमल करना है। जैसी करनी वैसी भरनी, गप्प से कुछ काम न बनेगा। कुछ समय आत्म-चिंतन प्रयोग से बाहरी विकल्प, लगाव रागद्वेष, विरोध इन सबका परिहार कर अपने में अपने ज्ञानमय भगवान को निरखने का सत्य आग्रह करना यह अगर सच्चे मन से हो सके तो वह कुछ इस जीवन में पा लेगा, और यह बात अगर न हो सकी तो कहते ना कि उससे क्या उठता? मानो कोई बाबूजी बंबई जा रहे थे तो पास-पड़ोस की कई सेठानियाँ बाबूजी के पास आ गई। कोई सेठानी बोली- बाबूजीमेरे मुन्ने को बंबई से खेलने का हवाई जहाज ले आना, कोई बोली हमारे मुन्ने को खेलने का राकेट ले आना, कोई बोली हमारे मुन्ने को खेलने का रेल का इंजन ले आना। और एक गरीब बुढ़िया अपने हाथ में दो पैसा ले आई बोली- बाबूजी ये लो दो पैसे, हमारे मुन्ने को खेलने के लिए मिट्टी का खिलौना ले आना, तो वहाँ बाबूजी बोले बुढ़िया माँ ! मुन्ना तो तेरा ही खिलौना खेलेगा, बाकी सेठानियाँ तो सब यों ही गप्प मारकर चली गई, उनका न खेल सकेगा। तो ऐसे ही समझो कि हम बोलते अधिक हैं, करते नहीं है, करने का तो ध्यान तक भी नहीं है, केवल बोलने बोलने की ही बात है और करने का, भीतर में सोचने का, एक अनुभव करने के लिए प्रयास करने का, पुरुषार्थ करने का इस ओरतो ख्याल भी नहीं किया कि यह भी कोई करने की चीज है, ऐसा अभ्यास, योगाभ्यास नहीं करते और केवल हम रुटीन से कुछ कुछ करते रहें, सो उससे भीतर में कुछ प्राप्ति नहीं हो पाती। तो कोई 24 घंटे में एक समय सामायिक का काम नियमित रूप से होना चाहिए और प्रभुस्मरण का काम, नाम जाप, कुछ भावना पाठ आदि ये सब हों, मगर कुछ क्षण योगाभ्यास में लगाना चाहिए। यह परवाह न करें कि हम गृहस्थ हैं, अरे! गृहस्थ हैं तो आत्मा नहीं है क्या? सम्यग्दर्शन तो जैसा मुनियों को हो सकता है वैसे ही गृहस्थों को भी हो सकता है, उसमें तो कुछ अंतर नहीं। हाँ, बाह्य प्रसंग ऐसे हैं कि गृहस्थ को स्थिरता नहीं हो पाती और मुनि को ऐसे बाह्य प्रसंग हैं कि उनके लिए कुछ मोह का, विकल्प का साधन नहीं, वे स्थिरता पा सकते हैं, मगर जितनी अपनी सामर्थ्य है ज्ञानी गृहस्थों में, उसका उपयोग तो करें, आत्मचिंतन करें। मैं क्या हूँ इसका चिंतन तो करें। बहुत भीतर उतरकर निरखकर आयगी समझ में बात। जैसे किसी पदार्थ का स्वाद केवल बात करने मात्र से नहीं आता उसके खाने से आता उसी प्रकार आत्मतत्त्व की बात केवल बात बात से समझ में नहीं आती, उसके लिए समय लगाना होगा- प्रभुभक्ति में, सत्संग में, तत्त्व चर्चा में।
855- सर्वतोमुखी कुछ धार्मिक ज्ञान होने पर भेदविज्ञान व स्वरूपज्ञान में स्पष्टता की संभवता-
स्वाध्याय के लिए यह बात ध्यान में रखें कि केवल एक सीमित शब्दों वाला कोई एक ग्रंथ का ही आग्रह करके रहे, सिर्फ वही-वही पढ़े तो कुछ इस जीव की प्रकृति है ऐसी कि उसका प्रभाव उस पर कम रहता है, फिर तो वह एक जैसे रिकार्ड है रोज बुलवा लो, रोज बोलते हैं, रोज वही-वही बात है तो इससे उसमें एक उमंग नहीं बढ़ पाती है। और, आवश्यक भी है ऐसा कि हम विविध विषयों का परिज्ञान करें ताकि भेदविज्ञान स्पष्ट हो और अनेक प्रसंगों से हममें उमंग जगे और सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा जगह, इसके लिए कभी पुराणों में चरित्र पढ़ना, चरणानुयोग के ग्रंथ पढ़ना, करणानुयोग में भी प्रवेश करना, उसका भी अध्ययन करना, जैसे भक्तामर पाठ है- संस्कृत में हैं, हिंदी में भी बना है, मगर आचार्यों की रचना जिन शब्दों में है उसका थोड़ा अर्थ समझकर हम आचार्यों के शब्दों में ही अपनी भक्ति बनायें, उस संस्कृत पाठ के द्वारा ही बनायें तो श्रद्धा में, उमंग में, बल में बड़ा उत्साह जगता है।आचार्य प्रणीत ग्रंथ का जब अध्ययन करते हैं मानो कर्मसिद्धांत, जिनसिद्धांत का जब अध्ययन करते हैं, जीव के विषय में नाना प्रकार की स्थितियों का अध्ययन, कौन जीव, कहाँ कैसी रचना, कहाँ क्या बात? तो आचार्यों के उन शब्दों के सहारे जब हम अध्ययन करते जाते हैं तो देखो बाहरी विकल्प हटे, श्रद्धा बड़ी और होते होते यह ज्ञान तो ऐसा है कि न जाने किस क्षण कब किस जगह एक बिजली सी उत्पन्न कर दे, एक प्रकाश उत्पन्न कर दे, ज्ञानानुभव की दशा बना दे। तो यह जब चार वेदोंरूप आगम है, तो उन चारों वेदों में से प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग इन सबमें हम अपना प्रयोग बनायें, हाँ अध्यात्म ग्रंथों का अभ्यास अधिक बनायें, तो उससे क्या होगा? एक तो होती है कृत्य की बात, उसमें तो रोज जैसे समय बिताते हैं वैसा व्यतीत हो, पर जरा सोचो तो सही कि उससे कुछ उपलब्धि हुई कि नहीं, कुछ आत्मविश्वास, आत्मरमण, आत्मस्पर्श बना कि नहीं, कुछ प्रयोग की हिदायत से बात कह रहे हैं कि अपने को चारों अनुयोगों में प्रवेश करना चाहिए।
856- अपने ज्ञानबल से ही दु:खों से छुटकारा-
अपने लिए केवल अपना ही सहारा है, इस जीव को दूसरा कुछ नहीं कर सकता।मान लो हम किसी कारण दु:खी हो रहे हैं तो हो रहे अपने विकल्प से और हमारे प्रेमी चार आदमी बहुत समझायें कि तुम दु:खी मत होवो, हमारे रहते हुए तुम फिक्र किस बात की करते हो...पर उनकी किसी भी चेष्टा से हमारा दु:ख दूर नहीं होता। हमारा दु:ख दूर होता है हमारे ही ज्ञानबल से। यह वस्तुरूप है, किसी का दु:ख कोई दूर करने नहीं आयगा, किसी की विपत्ति को कोई दूसरा मेटने न आयगा। यहाँ जो कुछ मान बैठते हैं कि हमारी इस विपत्ति में फलाने ने मदद कर दी, तो वहाँ तथ्य तो यह है कि न वहाँ विपत्ति ही थी और न वह मदद ही थी। विपत्ति भी मायारूप, मदद भी मायारूप। वह एक कल्पना की बात, यह भी एक कल्पना की बात। इस जीव पर विपत्ति बाहरी पदार्थ से कभी नहीं आती। बाहर पदार्थ है, यों परिणमता, परिणमे और तरह परिणमता, परिणमे, उससे विपत्ति की क्या गुंजाइश, विपत्ति तो अपने आपके विभाव की है, दूसरी कोई विपत्ति नहीं। और विभाव का, विपत्ति का निमित्त यह जीव खुद नहीं है तब ही तो यह गुंजाइश है कि हम विकार को हटा सकते हैं, अगर विकार का, विपत्ति का मैं ही निमित्त बन गया, मैं ही अकेला, परसंग बिना स्वयं ही विकार को उड़ेलता रहता तो फिर ये विकार मिटने किसी भी तरह संभव न थे। ये नैमित्तिक हैं। वह कौनसा निमित्त है? ये कर्म। वे स्वयं क्या हैं? पुद्गलवर्गणायें। सब, चाहे पुण्य अनुभाग लिया हो किन्हीं ने, चाहे पाप अनुभाग लिया हो किन्हीं ने, पर वे सब वर्गणा जाति की अपेक्षा एक ही प्रकार के हैं। उन सबसे पूर्णरूप से हमको अलग होना है, पृथक होना है।
857- कर्म और कर्मफल की चेतना से विविक्त स्वसंचेतन में सर्वस्व हित मार्ग का लाभ-
देखिये, दृष्टि कर्मविविक्तता की ही हो, लक्ष्य ऐसा ही हो, फिर बनेगा क्या, होगा क्या? अरे पुण्य प्रकृतियाँ बँधेंगी, होगा यह। उनका अनुभाग आयगा, उनके फलको भोगना होगा, और चूंकि तत्त्व का ज्ञान पाया है तो भीतर में यह ज्ञानामृत की वर्षा भी चलती रहेगी। अंततोगत्वा यह समस्त पुण्य पाप कर्मों की निर्जरा और इनसे इसका छुटकारा होगा और यह केवल अपने में अपने चैतन्यस्वरूप मात्र रहेगा। अपनी दृष्टि केवल एक स्वभाव को ही अपनाने की होनी चाहिए। फिर होगा जो कुछ, ढंग से वह होता रहेगा, चलता रहेगा, पर अपने लक्ष्य कहाँ हो? जहाँ शंका रंचमात्र भी न हो। कर्म अपने स्वभाव से चलें, मैं अपने स्वभाव से चलूंगा। आखिर यह साझेदारी किकर्म का निमित्त पाकर जीव विकृत होता, जीव का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणायें विकृत होती, यह साझेदारी कभी तो मिटेगी, कभी तो इसमें बिगाड़ होगा? अहा, बिगाड़ होने दो देखो- बिगाड़ होने पर फिर ऐसा बिगाड़ बनता कि बस कुछ प्रयोजन ही नहीं, कर्म अपने स्वरूप में रहें, मैं अपने स्वरूप में रहता हूँ। यह भीतर का दृश्य, ज्ञानपरिणमन, कर्मपरिणमन और निमित्तनैमित्तिक योग, प्रतिफलन, ये सारी की सारी बातें इस ज्ञानी को स्पष्ट जंच रही हैं। जान रहा है ज्ञानी कि मैं चैतन्यमात्र हूँ, यह मैं तत्त्व हूँ। आज ही इसी समय यदि मैं अपने इस सहज चैतन्यस्वरूप का आग्रह करके यही रम जाऊँ तो यही सारा झगड़ा खतम हो जाय। रम क्यों नहीं पाते? बस वही बात। कोई औदयिक नैमित्तिक भाव बाधक है, कमजोरी खुद की है और निमित्त में कर्म पर चल रही है यह सब बात, मगर अपने को भीतर ही भीतर अंत: अभिसुख रहना चाहिए कि मैं केवल चैतन्य प्रकाशमात्र हूँ। कर्मसंपदा पर आसक्त होंगे तो, जब यह परमेश्वर, यह भगवान आत्मा उस कर्म संपत्ति पर आसक्त हुआ, रीझ गया तब देखो कर्मपरंपरा और संसार जाल बढने में फिर कौनसी कसर रह जाती है। मोही जीव कर्मफल पर रीझता, बस यह ही इसका अपराध है, उसकी रीझ छोड़े।
858- अपनी अंत: सूझ बूझ रीझ से स्वसिद्धि की संपन्नता-
सूझ बूझ और रीझ से तीन चीजें साथ-साथ चलती हैं हरएक काम में। आत्मा की सूझ, आत्मा की बूझ और आत्मा की रीझ याने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। सूझ हो गई बस यही आत्मा के स्वरूप का स्पर्श हुआ, दृष्टि में आया, जान गए और फिर उसी को बूझ रहे, बराबर उसमें बुद्धि लग रही, मनन कर रहे और उसी पर रीझ गए। लौकिक बातें भी जब सूझ, बूझ, रीझ से बना करती हैं तो आत्मा का यह कामभी सूझ, बूझ, रीझ से ही बनेगा। अपने को अपने आप ही जिम्मेदार मानकर एक बार भी तो इस आनंदविधान ज्ञानस्वरूप परमसमृद्ध भगवान अंतस्तत्त्व की ओर स्वरूपत: आ जाय तो इसको आत्मानुभव जग जायगा। इस आत्मानुभव के जगने पर सारा संसार उसे नीरस जचेगा और स्वयं का जो एक आनंद है वह फिर कभी न भुलाया जा सकेगा। सदा वह अपने आपमें तृप्त रहेगा- ‘‘होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जगत का करता क्या काम?’’ मैं अपना ही परिणमन कर पाता, सो मैं अपने आपकी ओरही रहूंगा।
859- सहज अंतस्तत्त्व में अहंप्रत्यय की आस्था से परमसिद्धि का लाभ- अपने कल्याण के लिए कर्तव्य बस एक ही है कि अपना जो सहज स्वभाव है अपने के सत्त्व के कारण जो चैतन्यस्वरूप है बस उसे ज्ञान में लें और उसमें यह मैं हूँ ऐसा अनुभव बनायें। अनुभवन की तो सबको प्रकृति पड़ी है, कोई नाम में यह मैं हूँ, शरीर में यह मैं हूँ, और बाहरी बातों में यह मैं हूँ, ये मेरे हैं, ऐसी इसकी बान तो पड़ी हुई है पर सहज वास्तविक जो अपना स्वरूप है उसमें अनुभव बने कि यह मैं हूँ तो उसका ऐसा अलौकिक प्रताप जगता है कि इस ज्ञानसमुद्र में ऐसी ज्ञान की उछालें उठती हैं कि उसमें सारे संताप, संकट सब शांत हो जाते हैं। उस मैं का ज्ञान करने के लिए कठिनाई क्यों पड रही? यों कि स्वरूप की सुध नहीं रख रहा और परभावों में, विभावों में यह अपने आपका अनुभव कर रहा कि यह मैं हूँ, यह इसकी बड़ी भारी कठिन समस्या है, विपत्ति है इससे अलग होना है, मुक्त होना है, तो इससे अलग हटने के लिए हमें इन विभावों का, विभावों की घटनाओं का, विभावों के हेतुओं का भली प्रकार परिचय करना चाहिए, इससे यह स्पष्टता जगेगी कि ये विभाव और विभावों के हेतुभूत, निमित्तभूत ये पौद्गलिक कर्म हैं। इन सबसे मैं निराला हूँ, मैं अपनी सत्ता से ही समृद्ध हूँ। 860- अंतस्तत्त्व के रुचिया को अंतस्तत्त्वातिरिक्त अन्य सब भावों में रुचि का अभाव- देखो उस ही कर्म की बात चल रही है जिससे अपने को विविक्त रखना है। वे कर्म दो प्रकार के हैं- पुण्यकर्म और पापकर्म। तो इसके बारे में कुछ लोग द्वैतबद्धि करते हैं कि पुण्यकर्म तो शुभफल वाला है और पापकर्म अशुभफल वाला है। पुण्यकर्म में अनुभव शुभ है, पापकर्म में अनुभव अशुभ है। देखो किन्हीं की दृष्टि में ऐसी बात भी आती। यह अपनी अपनी पदवी की, योग्यता की बात है। पर जिस ज्ञानी संत को एक निज अंतस्तत्त्व की रुचि जगी है, जो और कुछ चाहता ही नहीं है उसकी निगाह में उसके लिए तो बस एक अंत:स्वभाव ही सर्वस्व है, उसके अतिरिक्त जो कुछ है वह सब एक नाम में है। हाँ प्रकृति तो जरूर पड़ी है, पुण्यकर्म में शुभअनुभाग है, जिसकी कक्षायें गुड़, खाँड़, मिश्री, और अमृत इनके गुण की तरह तारतम्य को लिए हुए हैं जैसे कि पापकर्म कटुकरस को लिए हुए है जैसे नीम की तरह, गुरबेल की तरह, विष की तरह, हालाहल की तरह। उनमें प्रकृतिभेद तो पड़ा है अनुभागभेद भी है, जुदा-जुदा रस है इन दोनों में, पर रहो जुदा रस, इस तत्त्वज्ञानी के लिए तो वे सबके सब एकरूप हैं, क्योंकि जो उन कर्मों में पुण्य हो अथवा पाप हो, जो अनुभागपड़ा है, शक्ति पड़ी है वह पुद्गलमय है या चैतन्यरूप? पुद्गल का जो कुछ है वह पुद्गल में है। तो पुद्गलरूप होने के कारण वह सब अनुभव एक ही प्रकार का है। यह ज्ञानी कर्मजाल के बीच पड़ा हुआ भी अपनी बहादुरी के साथ उन कर्मों की उछालों सहित उनसे विरक्ति रखता हुआ उससे विमुख हो रहा और स्वभाव के अभिमुख हो रहा। ज्ञान का ऐसा ही प्रसाद है। यह तत्त्वज्ञानी इन समस्त पुण्यविभावों को, उसके हेतुभूत पुण्यकर्म को, उसके हेतुभूत शुभभाव को इन सबको एक तिलांजलि दे रहा। स्वभावदृष्टि के प्रसंग में उसके लिए स्वभाव के अतिरिक्त सारा विभाव, सारा लोक उसके लिए कुछ नहीं है। 861- प्राप्त संग प्रसंग की रुचि से आत्मीय अनंत वैभव समृद्धि का तिरस्कार- जैसे कोई सेठ था, वह अचानक ही अपनी 4-5 लाख की संपत्ति को छोड़कर गुजर गया। उसके था एक छोटा सा बालक। सरकार ने उस सेठ की सारी संपत्ति कोर्ट आफ बोर्ड कर ली और उसके बदले में उस बालक के गुजारे के लिए 500) मासिक बाँध दिया। खैर 500) मासिक पाकर वह बालक बड़ा खुश रहा करता था, वह सरकार के बड़े गुण गाता रहता था- अहा कितनी अच्छी सरकार है, देखो घर बैठे मुझे 500) मासिक भेजती रहती है। उसे अपनी सारी संपत्ति का क्या पता? धीरे-धीरे जब बालक 18-19 वर्ष का सयाना हुआ, समझ में आया के सरकार ने मेरी 4-5 लाख की संपत्ति कोर्ट आफ बोर्ड कर रखी है तो झट उसका राग उन 500) से हट गया। सरकार ने 500) रु. भेजा तो झट वापिस कर दिया और अपनी अपील पेश कर दी सरकार के सामने कि मुझे अब नहीं चाहिए आपके 500) मासिक। मैं अब बालिग हो चुका हूँ, मुझे मेरी 4-5 लाख की संपत्ति वापिस की जाय। तो ऐसे ही यह लावारिस जीव, अनादिकाल से अज्ञान के कारण लावारिस बना फिर ही रहा है, दर्शनशास्त्र में कहते हैं कि यो यत्र वंचक: स तत्र वाल: अर्थात् जो जिस बात में कुशल नहीं वंचक है, चतुराई नहीं है वह उस विषय में बालक है, लावारिस प्राणी है। इसकी जायदाद मायने अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतआनंद, अनंतशक्ति ये सब कोर्ट आफ बोर्ड हो चुके। इस प्रसंग को लो नाटक रूप से। तो सारा वर्णन समयसार में नाटकरूप में ही तो किया है। इस कर्म सरकार ने इसकी निधि को कोर्ट आफ बोर्ड कर लिया और किसी समय इसी को किसी भव में कुछ वैभव मिला, पुण्य के साधन मिले तो यह पुण्य सरकार के बड़े गुण गाता है अहा मेरे पास बड़ा ठाठ है, मेरा कितना पुण्य का उदय है, मुझे कुछ फिकर नहीं, सब कुछ अपने आप पुण्य दे रहा है, मेरा ऐसा मकान बन गया, ऐसी दूकान बन गई, ऐसाअमुक काम चल रहा- यों इस पुण्य सरकार के बड़े गुण गाए जा रहे हैं। अरे भैया, किसी समय समझ लो तो तथ्य शास्त्रों से, सत्संग से, ज्ञानियों से, अपने आपके खुद विचार से कि ओह मेरे में तो अनंत आनंद है, मेरा स्वरूप ही आनंद है, मैं रचा ही गया हूँ, तान और आनंद भाव से। किसी दिन रचा गया, यह बात नहीं कह रहे, जब से सत्त्व है तब से ही यह ज्ञानानंदस्वभाव से रचा हुआ है। वह सब इस कर्मजाल के चक्र में लुट गया और अब उसके एवज में मानो थोड़ा कुछ वैभव मिल रहा है तो इससे अगर प्रीति रखेगा तो अपनी समृद्धि से हाथ धोवेगा। जैसे वह सेठ का लड़का यदि 500) मासिक में प्रीति रखता रहता तो वह अपनी उस बड़ी संपत्ति से हाथ धोये रहता। तो यह सब कुछ जो बाहरी सामग्री मिली हैं, इनमें यदि आसक्ति है, तृष्णा है, लोभ है, ममता है तो अपने आत्मा में एक अनंत समृद्धि पड़ी है उससे हाथ धोये रहोगे। 862- आत्मवैभव के परिचय का एक उपाय-
अपने में क्या वैभव समृद्धि है इस तथ्य को अरहंत और सिद्ध भगवान के स्वरूप से पूछ लो, मेरे में क्या सामर्थ्य, क्या समृद्धि, क्या चमत्कार, क्या मेरी रचना है- पूछ लो प्रभु से याने प्रभु के स्वरूप से समझ लो, अपने आपकी समृद्धि का परिचय हो जायगा। देखो- अगर प्रभु का स्वरूप नहीं समझा और फिर रोज-रोज प्रभु के दर्शन करने आते तो फिर क्यों आते? किसलिए आते, क्या भव रहता, यह सब अपनी अपनी जान लो। मगर प्रभुदर्शन तो तब ही संभव है जब प्रभुस्वरूप का परिचय हो। प्रभुस्वरूप का परिचय तब ही संभव है जब आत्मस्वरूप का परिचय हो। थोड़ा परस्पर सहयोग है प्रभुस्वरूप व आत्मस्वरूप के परिचय में, प्रभु का स्वरूप जाने तो आत्मस्वरूप जानने में आयेगा, आत्मस्वरूप जाने तो प्रभु का स्वरूप जानने में आयगा। तो यहाँ यह दुविधा न समझना कि हम पहले क्या जानें। अरे जो बने सो जानो। जैसा जिसको जो भाव बैठ जाय सो करे, मगर ये दोनों परस्पर सहयोगी हैं। स्वरूप का निर्णय जिस ज्ञानी ने किया वह इस पुण्य वैभव का निषेध करता, मुझे न चाहिए, और फिर इसके कारणभूत जो पुण्यकर्म हैं वह भी मुझे न चाहिए, फिर इसके कारणभूत जो शुभभाव हैं सो यह भी न चाहिए। किसकी बात कह रहे हैं। जो अशुभभाव तजकर शुभभाव में आया है उसके बात बनती है ऐसी।
863- शुभोपयोगी के लिये शुभोपयोग में शुभोपयोग का निषेध-
जैसे यह मुनिलिंग, यह द्रव्यलिंग, यह मोक्ष का हेतु नहीं, यह मोक्ष का कारण नहीं, इसे तज करके, इससे हट करके अपने स्वरूप में आवो यह उपदेश है। इसको मुख्यतया कौन सोचे? जो निर्ग्रंथ है, मुनि है वह सोचे। यह निर्ग्रंथपद, यह चीज, यह भेष मोक्ष का कारण नहीं, यह बाहरी लिंग है, शुभभाव से चलकर अपने अंत: स्वरूप में आवो, मोक्षमार्ग मिल जायगा। कोई साधारण पुरुष जिसने पाप और व्यसनों का भी त्याग नहीं कर पाया, ऐसा पुरुष यदि इस बात को घटित करे कि यह निर्ग्रंथभेष, यह साधुधर्म, ये व्रत त्याग ये सब बेकार हैं, हाँ ठीक है किंतु व्यवहार का निषेध व्यवहार करने वाले किया करते हैं और इसमें फिर कहीं भी धोखा नहीं होता। पूजा करते-करते 10-12 वर्ष हो गए अथवा सारा जीवन भी बीत गया, तो वहाँ तो आत्मज्ञान जागृत होना चाहिए था, आत्मस्वरूप की ओर दृष्टि होनी चाहिए थी मगर नहीं हो पाती और यदि नहीं हो पाती आत्मस्वरूप की दृष्टि तो फिर उस पूजा करने से लाभ क्या पाया?वह तो बेकार रहा। अब यह ही बात कोई शुरू से बच्चों को समझाये कि पूजा करना बेकार...तो उसका असर क्या होगा? यद्यपि बात ठीक है, पर कौनसी बात किस पद में ठीक है, इसका भी तो ध्यान रखना चाहिए।कहाँ कौनसी बात ठीक है इस पात्र भेद से ही थोड़ा भेद बन जाता है। कुंदकुंदाचार्य स्वयं निर्ग्रंथ थे और उन्होंने इस निर्ग्रंथलिंग की बहुत-बहुत टीका की। उन्होंने कहा कि जो भी सिद्धि पा सके हैं वे द्रव्यलिंग का त्याग करके ही पा सके हैं। तो क्या इसका अर्थ यह था कि कपड़े पहिनकर सिद्धि पायी है? अरे वह उपदेश तो मुनियों के लिए था। जो द्रव्यलिंगी मुनि हैं वे इस द्रव्यलिंग का आश्रय त्याग दें तो उन्हें सिद्धि मिलेगी। याने मुनि होकर भीमैं मुनि हूँ ऐसा विकल्प भी न जगे। व्रत समिति गुप्ति आदि की सब क्रियायें करते हुए भी अपने सहज अंत: स्वरूप पर दृष्टि रहे।
864- बाह्यव्रृत्तियों के निर्विघ्न गुजारे से बढ़कर लक्ष्य की साधना में ज्ञानी की प्रगति-
बाह्यवृत्तियाँ तो एक गुजारा है, याने मोक्षमार्ग में चलने वाले गृहस्थ भी हैं, मुनि भी हैं, गृहस्थ के लिए गुजारे का साधन परिजन, दूकान, व्यापार आदि और-और बातें हैं तो वहाँ ज्ञानी गृहस्थ यह समझता है कि यह तो एक गुजारे के लिए है, आश्रय तो स्वभाव का ही करना है, तो इसी तरह और आगे बढ़ो क्योंकि गृहस्थी की दशा में उस स्वभाव की उपासना अच्छे प्रकार नहीं बन पाती, क्योंकि कितना ही कोई सोचे, विकल्प कितने ही आते हैं रोज-रोज। जरा-जरासी बात में घमंड उखड़ ही आता है, क्योंकि संग प्रसंग परिग्रह व्यवहार नाता रिश्ता आदि ये सब बातें अगल-बगल के इतने कीचड़ भरे रहते हैं गृहस्थी में कि उसे अध्यात्मसाधना में विघ्न बहुत आते हैं, और जिस ज्ञानीगृहस्थ को अध्यात्म की तीव्र इच्छा है वह उन सब आश्रयभूत साधनों को जोड़ देता जिनमें रहकर अध्यात्मसाधना में कठिनाई पड रही थी याने अब निर्ग्रंथ अवस्था आयी तो वहाँ भी यह सोचना कि यह भी गुजारे के लिए है, क्योंकि शरीर है, रहना पड़ता है, मन वचन काय की चेष्टायें करनी होती हैं, वह सब हो रहा है, यह भी एक गुजारे की चीज है, वहाँ से ममकार त्याग देता है। तो शोभा, श्रृंगारऔर सच्चाई सब कुछ वहाँ मिलती है, उस शुभ व्यवहार में आकर उस व्यवहार का अत्यंत निषेध कर अंत:स्वरूप में प्रवेश करना है। वहाँ उसे निर्वाध आनंद मिलता है, क्योंकि वह पदवी निर्वाध है, वहाँ स्वानुभव अधिक क्षण करते रहने का मौका भी मिलता है।
865- मार्गदर्शनपूर्वक मार्गगमन- आचार्यजनों ने जो गृहस्थों को षट्कर्म का उपदेश किया- देवपूजा, गुरु पासना, स्वाध्याय, तप, दान और संयम या और भी जो जो कुछ बताया है यह कृपा करके ही तो जताया है। कृपा करके ही तो तत्त्वमनन श्रद्धान का उपदेश किया है। सो गृहस्थ ज्ञानी इन सब कर्तव्यों को करता तो है, किंतु उसकी श्रद्धा में अविकार स्वभाव ही सारभूत परम पदार्थ है। अंतस्तत्त्व के सिवाय अन्य सब भाव परिवर्तित भाव एक ही जाति के हैं एक ही प्रकार के हैं। मुनि के और गृहस्थ के श्रद्धान में अंतर नहीं है। कर्मों से, विभावों से, सर्वविकल्पों से निराला जो एक अंतस्तत्त्व है वही मैं हूँ, ऐसी श्रद्धा अटल ज्ञानी गृहस्थ की भी है, मुनि की भी है। श्रद्धा तो हो गई, जैसे मार्ग तो दिख गया, पर अब चलना चाहिए ना उस पर, सम्यग्दर्शन तो केवल मार्ग दिखाता है, चलाया नहीं उसने, चलाने वाला है चरण चारित्र। मार्ग दिख गया, इसका तो आनंद आयगा, पर अब चलना रह गया। तो जिसको मार्ग दिख गया वह चलना तो चाहता है ना। यह गृहस्थ जितना चल पाता है उतने में इसे संतोष नहीं होता, बेकार है सब झंझट, सारे समागम। मैं अपने इस मार्ग में चल नहीं पा रहा हूँ, इस मार्ग में उतर ही नहीं पाता हूँ तो चरणानुयोग के अनुसार बतायी हुई प्रक्रिया से वह परिग्रह से विरक्त होता जाता, उस भार से अलग होता जाता और इस अध्यात्म की साधना में वह एक अवसर पाता जाता। 866- सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में आंतरिक अंतर- एक पुरुष किसी दूसरे गाँव से अपने गाँव को जा रहा था, रास्ते में शाम हो गई, अंधेरी रात थी। गाँव से कोई तीन चार मील जगह ही पार कर चुका था कि वह जंगल में रास्ता भूल गया। पगडंडियाँ उसमें अनेक थीं। वह भूल से काफी दूर गलत रास्ते में चला गया, ज्यों-ज्यों चलता जाय त्यों-त्यों फंसता जाय। थोड़ी ही देर में घना अंधकार छा गया।बादल कड़कने लगे वह घबरा गया उसने कुछ विवेक से काम लिया कि अब मुझे चलना बंद कर देना चाहिए क्योंकि अंधेरी रात है, जंगल ही जंगल मिल रहा है, ज्यों-ज्यों चलते जा रहे हैं त्यों-त्यों फंसते जा रहे हैं, अब आगे चलना उचित नहीं है, उसने चलना बंद कर दिया और एक पहाड़ी पर एक टीले पर बैठ गया। अब आकुलता, चिंता, शल्य उसको क्या होगी सो तो विचारो- अरे अब मैं इस भयानक जंगल में अकेला फंस गया, ये देखो भयंकर जंगली जानवरों की आवाजें भी सुनाई पड रही हैं, पता नहीं मैं इस जंगल में अपने प्राण बचाकर निकल पाऊँगा भी या नहीं इस प्रकार की चिंता में पड़ा हुआ वह मुसाफिर जंगल में बैठा हुआ था। इसी बीच थोड़े ही समय बाद क्षणिक बिजली चमकी, उस बिजली की चमक में ही उसे कुछ ही दूरी पर सड़क दिख गई जिससे उसे जाना था।बिजली की चमक तो तत्क्षण खतम हो गई, फिर वही भयानक अंधकार छा गया। वह मुसाफिर पड़ा था वही का वही, मगर उसने बड़ा संतोष मार्ग पा लिया, सोचने लगा अरे काफी रात बीत चुकी, कुछ ही घंटे बाद प्रात:काल होगा बस उस सड़क से निकल जायेंगे अब भला बतलावो कि उस बिजली की चमक में जो मार्गदर्शन हुआ उसमें कैसा भाव है? निराकुलता, संतोष कष्टमुक्ति की प्रतीक्षा, और उससे पहिले का क्या भाव था? घबड़ाहट, शल्य, चिंता। देखिये वहाँ अंतर पड गया ना। बस यही तो मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का अंतर है। मिथ्या गहन क्लेश विकल्पजाल में फंसा हुआ यह प्राणी परभावों की ओर,परपदार्थों की ओरनाना प्रकार के विकल्प बना-बनाकर घबड़ा रहा, परेशान हो रहा, हाय अब क्या करें, क्या होगा कदाचित् इसको यह ज्ञान बिजली चमक जाय भीतर और भीतर ही भीतर उस सहज आत्मस्वरूप का दर्शन हो जाय, हो गया क्षणभर के लिए स्वानुभव, आत्मदर्शन हो गया, अब उसके बाद इसको बड़ा संतोष हुआ। यह है आनंदधाम। यहाँ है मेरी समृद्धि, बाहर में मेरा कहीं कुछ नहीं। संतोष हो गया, सम्यक्त्व जगने के बाद अपने ज्ञान में, स्वरूप में रति, संतोष हो जाता है। 867- सन्मार्गगमन में आंतरिक प्रभाव-
हो तो गया संतोष स्वरूपदर्शन कर लेने पर, मगर उस स्वरूप में समाये, लीन हो, यह काम तो पड़ा है अभी करने को। जैसे उस क्षणिक बिजली की चमक में मार्ग तो दिख गया उस मार्ग से जाना है निर्णय होने से संतोष हुआ, मगर मार्ग पर चलना अभी नहीं बना। ऐसे ही सम्यग्दर्शन के होने पर मार्ग का दर्शन तो हुआ, पर अभी चलना नहीं बना, तो चलेगा, थोड़ा चलेगा। जैसे बड़े गहने वन से सबेरे चलेगा तो पहले पगडंडियों से चलेगा, सकरी गलियों से चलेगा, जिसमें कभी काँटों से धोती भी छिदेगी, कहीं थोड़ा काँटा भी निकालना पड़ेगा, थोड़ा मुड़ कर भी जाना पड़ेगा सब तरह की बातें आयेंगी, याने नि:शंक एक खूब हाथ पसार कर, शान के साथ उसका चलना नहीं बन रहा, वह अभी जंगल में से ही तो निकल रहा है, होते होते जब वह जंगल पार करके सड़क पर आयगा तो यहाँ से खूब हाथ फैलाते हुए बेधड़क बड़ी शान के साथ प्रसन्न मुद्रा में चलता है अपने घर को। सम्यक्त्व में मार्ग का दर्शन तो हो गया, अब उस पर चलने की बात है, सो जैसे-जैसे कषाय मंद होती जाती, जैसे जैसे विरक्ति बढ़ती जाती और बाह्य संग परिग्रह का परिहार होता जा रहा है वैसे ही वैसे यह ज्ञानी गृहस्थ श्रावक उस स्वभाव के अनुभव में चल रहा है। थोड़ा ही चल पाता, बस कि झंझट बहुत हैं। वैसे ही बैठे कभी कुछ ख्याल आया, कभी कहीं चित्त गया क्योंकि यह श्रावक छोटी छोटी पगडंडियों से चल पा रहा है। उसे वह बेधड़क की सड़क नहीं मिली, क्योंकि उसके सामने परिस्थिति ऐसी है, वह गृहस्थी के बोझ से दबा हुआ है, परिजन है ही। तो खैर धीरे-धीरे चलते जब कभी वह एक निर्ग्रंथ का मार्ग पा ले, फिर यह तत्त्वज्ञान का रुचिया संत बड़ी प्रसन्नता से क्षण क्षण में वह अपनी दृष्टि करता, आत्मा की ओरदृष्टि करता, उसका एक शान से चलना हो रहा है।
868- अध्यात्म शान- यहाँ अध्यात्म शान की बात कर रहे, शरीर के शान की बात नहीं कह रहे, शरीर का लगाव तो छूट गया। कैसी उसकी भीतरी शान है, क्षण-क्षण में आत्मदृष्टि स्वभावदृष्टि चल रही है। देखिये परिस्थिति के अनुसार उस पर भार कितना है फिर भी उसके स्वभावदृष्टि में, समिति में अंतर नहीं आ रहा। स्वभावदृष्टि अनेक बार हो रही, उसकी एक भीतरी शान को निरखियेगा। आहार करते हुए में लग गए कोई 20-मिनट, इतने समय तक वह स्वभावदृष्टि से स्वभावसाधना से वंचित नहीं रहता। बीच-बीच क्षण-क्षण में झट स्वभावदृष्टि बन रही। यद्यपि क्रिया चल रही, फिर भी अंतर नहीं आ रहा, लोग नहीं समझ पा रहे और चल रही है अप्रमत्तदशा। सो जैसे-जैसे यह एक ऐसी स्थिति आती है कि कोई चिंता का स्थान नहीं, शल्य का स्थान नहीं, वैसे ही वैसे इसको अध्यात्म की उपासना का अवसर मिलता जाता है। हो रहा यह सब काम, मगर आस्था अविकार स्वभाव की रही। ये बाह्य क्रियायें चल तो रही हैं, गुप्ति, समिति, सामायिक आदिक ये सब चल तो रहे हैं, मगर परिस्थिति यह कह रही है कि जो जो ये चेष्टायें हो रही हैं ये सब अज्ञानचेष्टायें हैं; क्योंकि उनका मूल है राग जो कि स्वयं अज्ञानस्वरूप है। ज्ञान जगने के बाद भी, सम्यक्त्व होने के बाद भी उन सारी चेष्टाओं को अज्ञानचेष्टा में डालते हुए यह ज्ञानी संत कैसा अध्यात्म में बढ़ता चला जा रहा है। ऐसा इस पुरुष के लिए पुण्यकर्म हो तो पापकर्म हो तो शुभ अनुभाग ये सब उसकी कुशील जंच रहे। इस तरह ये भेदविज्ञानी पुरुष इन कर्मों से विराम पाता है और अपने आपके स्वभाव में प्रवेश करता हुआ विश्राम करता है। 869- बंधनविमुक्ति और स्वाधीनता का आदर- सभी जीवों को छुटकारा प्यारा लगता है। बच्चे स्कूल में रहते हैं, पढ़ते हैं।पर उनके भीतर यह ही इच्छा रहती है कि कब घंटी बजे और छुट्टी हो। अक्सर करके ऐसा देखा जाता है इसलिए ऐसी बात कही जा रही है। एक केवल दृष्टांत भर के लिए ही तो बात लेना है। छुट्टी की घंटी बजते ही स्कूल के बच्चे कैसा अपना अपना पाटी बस्ता लेकर उछलते कूदते हुए, अपने हाथ पैर आगे पीछे फेंकते हुए हँसते खेलते प्रसन्न मुद्रा में भागते हैं। बताओ- उनको खुशी किस बात की हुई? उनको खुशी हुई एक बंधन से छुटकारा पाने की। उन्होंने वह ही बंधन समझा, दृष्टांत की बात कह रहे कि जो जिस बंधन में है वह उस बंधन से छुटकारा पाने को अधिक इच्छा रखता है। जो कारागार के बंधन है वह उससे छुटकारा पाने की अभिलाषा रखता। ज्ञानी पुरुष जिसने स्वाधीन आनंद का अनुभव किया, आत्मा का जो सहज स्वरूप आनंदमय चित्प्रतिभास मात्र जहाँ झंझट नहीं, जहाँ दूसरे का दखल नहीं, जहाँ आनंद ही आनंद बरसता रहता है, ऐसे स्वभाव का परिचय पाया, आनंद का अनुभव किया उसे ये बाह्य सामग्री ये सब बंधन मालूम होते हैं। यह घर बंधन है, यह परिवार समूह बंधन है। जैसे कहते हैं ना- तनकारागृहमाँहि, याने यह शरीर जेलखाना हैं ना? तो जब आत्मीय आनंद का अनुभव हो जाता है तो उसे ये सब बाहरी संग प्रसंग बंधन मालूम होते हैं। उनसे छुटकारा चाहिए। हैं तो ये बाहरी बातें, किंतु इससे जीव बुरा प्रभावित हो रहा है। 870- ज्ञानी की परमार्थ स्वाधीनता की आकांक्षा-
इस ज्ञानी को अपने आपके अंत: बंधन यह मालूम पड़ा कि कर्म साथ है, उनका उदय है, उनका प्रतिफलन होता है, उसमें हम धंधक जाते हैं, बहक जाते हैं।वहाँ स्वरूप की सुध छोड़ देते हैं। यह हमारे लिए बड़ा विकट बंधन है। इस बंधन से छुटकारा चाहता है ज्ञानी और चाहता है कि मैं पूर्ण स्वाधीन रहूँ, आजाद, स्वतंत्र, स्वाधीन, स्वावलंबी रहूँ। लोग तो स्वावलंबी इसे कहते हैं कि घर में अच्छीकमाई है, घर है, खुश हैं अपने घर में रहते हैं, खाते हैं, कहते हैं कि बस हम स्वतंत्र हैं, स्वाधीन हैं, पर यह स्वाधीनता नहीं, आखिर द्रव्य की अपेक्षा तो की, घर के अन्य साधनों की अपेक्षा तो की। और उस सुख भोगने के समय इस इंद्रिय की अपेक्षा तो रही, यह स्वावलंबी जीवन तो नहीं है, स्वावलंबी जीवन है- ज्ञान में मात्र ज्ञानस्वरूप दृष्टि में हो, उसका ही ज्ञान हो, उसही ज्ञान में निरंतर रहे और वहाँ जो एक सहज आनंद झरता है उस आनंद से तृप्त रहे, यह है स्वाधीन जीवन ! क्योंकि इस उपाय मेंसर्वप्रकार के बंधनों से छुटकारा मिलता है।
871- मोक्षेपाय की गवेषणा में लोगों की अंत: व बाह्य निरख-
विभाव, विकार, बंधन से छुटकारा चाहने वाले ज्ञानी संत मार्ग जान गए कि इस निरावलंबन के मार्ग से चलें, स्वाभावाश्रय के मार्ग से चलें तो हमको वह स्वावलंबी जीवन प्राप्त होगा अर्थात् वह परिणमन प्राप्त होगा। तो यह मुक्ति के लिए उद्यम करता है। इसने तो मुक्ति के लिए उद्यम किया और देखने वाले लोग समझते नहीं क्या, कि ये ज्ञानी है यह मोक्ष का उद्यम कर रहा है। ओह ! जब तीर्थंकर , जब इतने बड़े पुरुष इन सब विभावों को त्याग कर एक इस निर्ग्रंथता में रह रहे थे और मोक्ष की साधना कर रहे थे। मोक्ष प्राप्त किया, तो कोई अद्भुत सुख है, ऐसा लोगों को विदित हुआ था? हुआ विदित, अब उसे भिन्न-भिन्न तरह के लोगों ने अपनी-अपनी बुद्धि से वहाँ अंदाज लगाया कि यह मोक्ष कैसे मिलता? किसी ने यह ठीक समझा कि आत्मा का जो सहजस्वरूप है उसमेंमग्न होना, उसके ही ज्ञान की धारा में निरंतर रहना, यह अंत: पौरुष चलता, उसका फल है मुक्ति। किसी ने अंदाज लगाया कि घर के सारे बाह्य परिग्रहों को त्यागकर ऐसे निर्ग्रंथ वेष में रहे कि किसी से कुछ मतलब नहीं, चिंता नहीं, परिग्रह नहीं, ऐसा एक निर्ग्रंथ पद में आये इससे मुक्ति होती है। किसी ने यह अंदाज लगाया कि इस तरह भिक्षाचर्या से भोजन करे, इस इस तरह से जमीन को देखकर निरखकर चले, ऐसा तपश्चरण करे, ऐसा अनशन हो, ये सब क्रियायें हैं, इनसे मुक्ति मिलती है...। सबने अपनी-अपनी योग्यता से अंदाज लगाया, अब उन सब अंदाजों में संपर्क तो सब बात का है, मगर लक्ष्य में मूल और प्रवृत्ति में विचार दोनों ही चल रहे। जो मुक्ति की साधना में लगा है उसके लक्ष्य और प्रवृत्ति दोनों ही चल रहे और उसे देखकर लौकिक लोगों ने जो अंदाज बनाया सो यह नहीं कि उसका जरा भी संबंध नहीं, मगर लक्ष्य को छोड़कर केवल बाहरी प्रवृत्ति में जिन्होंने मोक्षमार्ग समझा, उन्होंने तो तथ्य नहीं पाया और जिन्होंने ऐसे बाह्य प्रवर्तन में रहने वाले निर्ग्रंथ साधु के उस भीतरी प्रक्रिया को देखा, समझा, उनका एक लक्ष्य देखा, समझा, उन्होंने मोक्षमार्ग का तत्त्व पाया। अब ऐसा होने में हम अगर प्रवृत्ति का निषेध करें तो तीर्थ प्रवृत्ति समाप्त होती है और लक्ष्य का निषेध करें तो तत्त्व नष्ट हो जाता है। मार्ग चल रहा है, महावीर भगवान का एक तीर्थ है, इस तीर्थ में अपनी-अपनी योग्यता से सब लोग चेष्टायें कर रहे हैं, कोई सफल होता कोई नहीं सफल होता। जिन्होंने अंत: लक्ष्य पाया उनको सफलता मिली। उनके ज्ञान में स्पष्ट है कि यह सदामुक्त परमेश्वर अंत: प्रकाशमान है।
872- अंत: प्रकाशमान अंतस्तत्त्व की सदामुक्तता व परमेश्वरता-
देखिये सहज परमात्मतत्त्व की भक्ति की कोशिश सब दार्शनिकों ने की। एक दार्शनिक मानता है कि सदामुक्त सदाशिव एक ईश्वर है। बाकी तो जितने मुक्त होते हैं, जितने मोक्ष में जाते हैं वे सब उसके नीचे है। उन मुक्त जीवों की अवधि है कि इतने दिन तक मोक्ष में रहना, अवधि समाप्त होने पर उनको पुन: वहाँ से गिरना होता है, फिर संसार में अवतार लेना होता है, फिर उनकी वही गति होती है। फिर जब कभी अच्छी क्रिया करेंगे तो फिर मोक्ष होगा, फिर वह संसार में गिरेगा, इस प्रकार की प्रक्रिया चलती रहेगी, मगर जो सदामुक्त परमेश्वर है, वह जगत का कर्ता है, वह एक अद्वैत परमेश्वर है, ऐसा एक दार्शनिक का कथन है। अब देखिये बात कुछ होती है तो बात उड़ती है, कुछ भी न हो तो बात कहां से चले? जितने भी जगत में दार्शनिक हैं उन सबके मतों का जितना बढ़िया वर्णन जैन सिद्धांत के दृष्टिवाद नाम के 12 वें अंग में है कि उतना वर्णन और विवेचन तो वे लोग भी न कर सके। अब सबका एक समन्वय देखिये एक तत्त्व मिलेगा और श्रद्धा बनेगी मूल बात में कि बात वास्तव में तथ्य वह ही है। सदाशिव के मायने क्या? जो सदा कल्याणमय है सदामुक्त के मायने क्या? जो सदा छूटा हुआ है मुक्त है, ऐसा कौन है? यह अपना अंत: स्वरूप हैं, अपना सहज चैतन्य स्वरूप है उसमें किसी पर का प्रवेश नहीं। एक के स्वरूप में किसी दूसरे का प्रवेश नहीं होता। अन्य पदार्थ का मेरे प्रदेशों में प्रवेश हो जाय यह तो बात बन सकती है व्यवहार से, मगर किसी के स्वरूप में किसी दूसरे का प्रवेश हो यह बात नहीं बनती। स्वरूप और प्रदेश ये कोई न्यारे-न्यारे तो नहीं हैं, जो आत्मा के प्रदेश हैं, जो आत्मा के प्रदेश हैं वही आत्मा का स्वरूप है। प्रदेश न्यारे हों, स्वरूप अलग बसता हो ऐसा तो नहीं हैं, मगर समझने की बात है। स्वरूप कहकर जो ज्ञान में आता उस तत्त्व में पर का प्रवेश नहीं है। प्रदेश समझकर जो एक ज्ञान में आता, स्पेश, जगह, चीज वहाँ पर का प्रवेश है व्यवहार से।जैसे कि आत्मा में कर्म का प्रवेश है प्रदेश में, स्वरूप में नहीं। अनुभव की इच्छा करने वाले आत्मा के प्रदेशरूप में निरखने की मुख्यता नहीं रहती, अथवा गुण है पर्याय है ऐसे विस्तार से निरखने की मुख्यता नहीं रहती। वह तो केवल एक अखंड स्वरूप को ही निरखने का अभिलाषी होता है।
873- सदामुक्तता व पारमैश्वर्य की पर्याय में व्यक्ति होने पर ही आनंदानुभवन एवं उसकी प्राप्ति का उद्यम- सहज स्वरूप की बात कह रहे हैं कि उस स्वरूप में पर का प्रवेश नहीं है, वह सदा मुक्त है, मगर भोग तो स्वरूप का नहीं हो रहा, भोग तो परिणमन का हो रहा, आफत तो यह लद रही है, तो आवश्यक हो गया कि जैसा स्वरूप मुक्त है, सदामुक्त है, ऐसा स्वभावमात्र निरखने में ही इसी तरह की मुक्ति पर्याय में मिले, व्यक्त मिले तो इस जीव को आनंद का अनुभव हो, घर में निधि गढ़ी है, घर में माया गढ़ी है, उस घर में रहने वाले को पता ही नहीं है, कुछ जानकारी ही नहीं है, कुछ सुन भी नहीं रखा, तो वह गरीबी का अनुभव करेगा या अमरीकी ठसक लायगा? बात तो बताओ। वह तो अपनी गरीबी का अनुभव करेगा, अमरीकी ठसक नहीं ला सकता। ऐसे ही अनंत आनंद की निधि सब मेरे में है, पर रागद्वेष विभाव पटल के नीचे ऐसी दबी है पड़ी है कि उसका पता ही नहीं, सुध नहीं तो ऐसी अनंत समृद्धि निधि का जिसे पता नहीं, वह क्लेश का अनुभव करेगा या आत्मोत्थ निधि का अनुभव करेगा? तो आवश्यकता है इस बात की कि जैसा यह मेरा स्वरूप स्वभावत: सर्वसे विविक्त न्यारा सदा मुक्त है, ऐसी स्थिति मेरे व्यक्त रूप में हो, बस इसका इच्छुक ज्ञानी पुरुष लक्ष्य सहित प्रयोग में लगता है। देखिये व्रत, क्रिया, इनका पालन करते हुए साधु के प्रति जो ज्ञानी का आदर होता है सो क्रिया को देखकर भीतर का जो एक उसके लक्ष्य का अनुमान हुआ और उसकी उस भीतरी साधना का ज्ञान हुआ उस साधना पर मुग्ध होकर यह ज्ञानी उसका आदर करता है, जिसके ऐसा अखंड अंत: स्वभाव का लक्ष्य बना, उसकी साधना में बढ़ रहा और जब तक उसके राग है, मन, वचन, काय की चेष्टा है तो उसकी चेष्टा नियम से व्रत, तप आदिकी साधनारूप मिलेगी। इसी कारण से तो हम उसके द्वारा उस भीतरी साधना का अनुमान करके उसके प्रति हम भक्ति किया करते हैं। मोक्ष के उपाय की बात जानकर ही तो ज्ञानी का निर्णय है कि शुभ अशुभ भाव सब स्वभाव से विपरीत भाव है। 874- आश्रयभेद से पुण्य पाप में भेद डालने की एक आशंका- मोक्ष की बात सुनकर बाह्य दृष्टि वाले यह कह बैठे कि कर्म जो दो प्रकार के हैं पुण्य और पाप, सो पुण्य तो मोक्ष का आश्रयभूत है और पाप बंध का आश्रयभूत है, याने पुण्य और पाप में अंतर है, पुण्य से होता मोक्ष और पाप से होता दु:ख, कष्ट। अब क्यों कहा ऐसा किसी ने? कुछ तो निरखा होगा। बिल्कुल मूर्ख जगत मेंकोई नहीं है त्रुटि तो होती है, मगर मूलत: एकदम विपरीत बात समझने के लिए किसी की बुद्धि नहीं चलती, उसने क्या देखा? उन ज्ञानी साधु संतों की क्रिया, जिससे वहाँ सातिशय पुण्यबंध हुआ करता है। तो देख करके बात कहीं थोड़ा सा ऐसा भी सोचा कि धन्य है ये साधु संत और यह पुण्य का ही उदय है जो ऐसा वातावरण मिला, स्थिति मिली और देखोयह राजा थे या बड़े सेठ थे इतना बड़ा पुण्य था, उसको भी लात मारकर इस अवस्था में आये, मोक्ष की साधना में आये, तो ऐसे पुण्य वाले ही मोक्ष की साधना में लग पाते हैं, ऐसी अनेक बातें चित्त में रहीं जिससे उन्होंने यहसोचा कि पुण्य से तो मोक्ष और पाप से बंध होता। और भी क्या बात उनके चित्त में आयी होगी कि देखो पुण्य हो गया, इंद्र हो गए तो ये इंद्र एक भवावतारी होते हैं। इंद्र एक भव पाकर मोक्ष जायगा तो देखो यह पुण्य ही तो सिलसिला रहा जिससे मोक्ष पहुंचने आदिक की बातें उनके चित्त में आयीं।उनकी कुछ बात उनके दिमाग से ठीक भी है कि भाई पुण्य की परंपरा में उन्हें मुक्ति मिली याने किसी को भी मुक्ति मिली है तो शुद्धोपयोग से मिली और जिसे भी शुद्धोपयोग मिला है तो वह शुभोपयोग के बाद मिला।अशुभोपयोग के बाद किसी को भी शुद्धोपयोग नहीं मिला।एक भी दृष्टांत न मिलेगा कि किसी को अशुभोपयोग के बाद शुद्धोपयोग मिला हो। हो ही नहीं सकता, वस्तुस्वरूप ही नहीं कि अशुभोपयोग के बाद तुरंत किसी को शुद्धोपयोग हो सके। जिसको भी शुद्धोपयोग होता है उसको शुभोपयोग के बाद ही होता है और शुभोपयोग, पुण्य ऐसी सब बात सोचकर एक चित्त में आया कि पुण्य और पाप में यह फर्क है कि पुण्य तो है मोक्ष का आश्रय और पाप है बंध का आश्रय। अब इसका समाधान सुनिये। 875- आश्रयभेद से पुण्य पाप में भेद डालने की उक्त आशंका का समाधान-
सहज अंत: स्वभाव का रुचिया ज्ञानी पुरुष समझ रहा है कि मुझे चाहिए क्या? बस जान गए और टन्ना कर रह गए। टन्ना कर रह जाना यह एक बुंदेलखंडी शब्द है। टन्ना कर रह जाने का अर्थ है कि न अब भला कहना न बुरा कहना, न प्रवृत्ति करना न कुछ करना। है तो वह एक रूसने जैसी दशा, पर यह रूसने की ऐसी विचित्र दशा है कि वह किसी को बुरा भी नहीं कह रहा, किसी की प्रवृत्ति को देखकर कुछ भी नहीं कह रहा, न चाहने की बात कहता, गुम्म सुम्म ऐसा टन्ना कर रह गया। यह ज्ञानी क्या करता है कि जब इसने अपने अंत: अविनाशी, अविकार चित्स्वभाव का अनुभव किया, जाना, बस जानकर रह गया। मुझे यह चाहिए इतनी भी बात नहीं। कुछ तरंग उठी, मुझे यह स्वरूप चाहिए, यह मेरा स्वरूप है, इसी में मुझे लगना है, ऐसा जो कभी विकल्प हुआ है तो शुभ विकल्प करेगा। जो इस केवल स्वरूप को देखकर जान गया, बस जानता है, जानता ही चला जाता है, न मोक्ष की इच्छा, न स्वरूप में रम जाऊँ ऐसा विकल्प, यह तो एक ज्ञाता हो गया, जान गया। करना क्या है अब, समझ गया बात यों है। एक ऐसी अद्भुत कोई क्षण स्थिति होती है। ऐसे इस निर्विकल्प अखंड विविक्त इस एकत्वस्वरूप की उपलब्धि किसी भी बाहरी विकल्प से, क्रिया से, प्रवृत्ति से, किसी से प्राप्त नहीं होती है। तो मोक्ष तो है स्वभाव के आश्रय और बंध है पुद्गल के आश्रय। वहाँ पुण्य और पाप में यह भेद नहीं पड़ा। भेद यह है कि जीव के स्वभाव के आश्रय है मुक्ति और पुद्गल, प्रवृत्ति करना आदिक के आश्रय है बंध।
876- व्यवहार चारित्र निरखकर अतिथियों की सेवा करने वाले श्रावक की परमार्थत: अंतस्तत्त्व व परमार्थसंयम से भक्ति-
स्वभाव का आश्रय करके मोक्षमार्ग में चलने वाला पुरुष कैसी कैसी गैल से चल रहा है, किस किस प्रवृत्ति में चल रहा है, उसके कैसे हाथ चलते, कैसे पैर चलते, कैसे मुख चलता, कैसे उठते कैसे बैठते, कैसा उनका प्रवर्तन होता, उसको देखकर उमंग उठती, उसके प्रति प्रमोद होता है, यह एक उनके स्वभाव की ही उपासना है, कहीं उस क्रिया की उपासना नहीं। यह ज्ञानी पुरुष सर्वत्र स्वभाव की आराधना में रहता है, वहाँ भी स्वभाव का ही आश्रय किया। पिता की फोटो आपके घर में टंगी है और कोई पुरुष अविनय से फोटो उठाये और फेंक दे तो आप उससे कुछ झगड़ भी जाते और फिर उस फोटो को उठाकर उसे कपड़े से पोंछकर उसे जहाँ की तहाँ टाँग देते हैं। तो बताओ आपने वहाँ प्यार किससे किया? क्या उस फोटो में लगी स्याही से, क्या उस कागज से? अरे इनसे प्यार नहीं किया, किंतु प्यार किया अपने पिता से तभी तो आप उसे आदरपूर्वक उठाकर कपड़े से पोंछकर उसे आप अपने हृदय से लगाते हैं, कभी उसे अपने सिर पर भी रखते हैं, तो यह सब आदर किसका है? उस कागज, स्याही, रंग, तख्ती आदि का नहीं। वह आदर है, वह प्यार है आपका अपने पिता का। इसी तरह साधु संत जन जिनकी क्रियायें, चेष्टायें चरणानुयोग के अनुसार चल रही हैं, वहाँ आप उनकी सेवा करें, उनकी सुविधा में मदद दें तो यह सब जो कर रहा है ज्ञानी पुरुष वह किसके प्यार से कर रहा है। ये ज्ञानी श्रावक रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले इस देह के प्यार से सेवा नहीं कर रहे। फिर कैसी कर रहे हैं प्रवृत्ति? उनसे मिल भी रहे हैं, मालिश भी कर रहे हैं, कुछ भी कर रहे हैं, कर रहे हैं वैयावृत्ति, मगर यह वैयावृत्ति किसके प्यार से होती है? बस उनका जो एक लक्ष्य है, वही है यह अंतस्तत्त्व, स्वभाव तो मोक्ष हुआ तो इस स्वभाव के आश्रय से हुआ, वे प्रवृत्ति कार्य कर रहे हैं इसलिए उनके बाह्य प्रवर्तन को देख रहे और चूंकि उनका जीवन है, सो उनकी साधना में सहयोग दे रहे हैं।
877- तीर्थप्रवृत्ति का विलोप करने में प्राणियों का अहित-
मानो किसी नगर में आज कल के जैसे आधुनिक सम्यग्दृष्टि याने शुष्क गप्प वाली चर्चा वाले बन जाय, मायने मतलब तो स्वरूप का समझें नहीं और अनुकूल प्रवृत्ति व्यवहारिक तीर्थ में होती है उसका भी कुछ ध्यान नहीं, मगर एक धर्म का नाम लेकर इतनी अपनी महत्ता बढायें कि बस मैंने ही सब जाना, मैं ही सब कुछ हूँ, बाकी सब मूर्ख हैं, कोई कुछ नहीं समझता, ऐसा मान लो जहाँ किसी नगर में सभी हो जायें ऐसी एक ढंग से तो फिर इस तीर्थप्रवृत्ति का क्या होगा? कोई त्यागी व्रती साधु भी वहाँ से निकले तो उसको तो यों ही भूखा जाना होगा। कोई प्रवृत्ति ही नहीं रह सकती। इसलिए श्रावकों को बताया है कि ‘‘गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमार्ष्टि खलु गृहविमुक्तानां। अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि’’ गृह कार्यों से जो पाप संचित होते हैं वे पाप धोये जाते हैं अतिथियों की पूजा से। जैसे जल खून को साफ कर देता है ऐसे ही अतिथियों की पूजा यह गृहकार्यों में होने वाले पापों को साफ कर देती है। जिनका स्वावलंबी जीवन है उनके लिए ही है कि स्वभावाश्रय का एक सत्य ही आग्रह बनाकर तुरंत ही निर्विकल्प समाधि में आवो। यह बात गृहस्थजनों से नहीं बन सकती, उनको गृहस्थोचित प्रवृत्ति करनी होगी। देखो शुभ व्यवहार का श्रद्धा में निषेध है, प्रवृत्ति तो पदवी अनुसार रहती है। इस ज्ञानी गृहस्थ के जो कि सम्यग्दृष्टि है उसकी श्रद्धा में समस्त कर्मों का निषेध है, समस्त चेष्टाओं का निषेध है, मगर ऐसा जानकर मुनि तो निभा लेंगे कि समस्त चेष्टाओं का हमारा निषेध है, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, इनको गृहस्थ निभा नहीं सकता, उसे प्रवृत्ति में आना होता है। तो प्रवृत्ति में व्यावहारिक कार्यों का निषेध नहीं बन पाता मगर ज्ञानी की श्रद्धा में व्यावहारिक कार्यों का निषेध है, क्योंकि वस्तुस्वरूप ही ऐसा है कि वह जान रहा है कि समस्त कर्मों से विविक्त यह केवल रहे इसी का नाम है सिद्ध होना।
878- अनेक प्रोग्रामों में भी ज्ञानी का मूल लक्ष्य एक परमार्थ अंतस्तत्त्व का आश्रय-
अपने आप जो स्वरूप है बस यह मैं हूँ और ऐसे ही मुझे व्यक्तरूप में होना है, इसके अतिरिक्त हमारा कोई भीतर दूसरा प्रोग्राम नहीं। एक महल बनवाने वाले पुरुष को रोज-रोज दसों प्रोग्राम उसके सामने आते हैं। कभी ईटें मंगाने का काम, कभी सीमेन्ट मंगाने का काम, कभी लोहा मंगाने का काम, कभी बदरपुर रेत मंगाने का काम, कभी कारीगरों के पास आने जाने का काम, यों अनेक काम उसके सामने रोज रोज रहते हैं, पर लक्ष्य उसका एक रहता- महल बनाने का। इसी तरह ज्ञानी गृहस्थ का मूल लक्ष्य तो एक है, जो सदा मुक्त नित्य अंत: प्रकाशमान सहज स्वरूप है वही मेरे ज्ञान में रहे। गृहस्थ की परिस्थिति ऐसी है कि उसके सामने तो प्रतिदिन दसों लक्ष्य आते हैं, पूजा को जाता है, जाप करता है, स्वाध्याय करता है, गुरुसेवा करता है, सब काम करता है, पर क्या उसकी भावना होना चाहिए कि इन सब लक्ष्यों में हमारा जीवन गुजरे? नहीं। करने होते हैं ये सब काम, मगर लक्ष्य यह रहता है कि मेरे तो क्षण उस स्वरूपदृष्टि में ही गुजरें। जैसे एक भजन में कहा आत्मस्वभाव के प्रति कि ‘‘तेरी भक्ति में क्षण जायें सारे।’’ याने मेरा सारा समय तेरी भक्ति में जाय। तो स्वभाव की परख, स्वभाव की आराधना, स्वभाव की धुन और व्यवहार में तीर्थप्रवृत्ति तो चली आयी, जो परंपरा, जो संस्कृति चली उसके विरुद्ध प्रवृत्ति न करना वह एक सुरक्षा के लिए है। बस सुरक्षित रह गए यथार्थ प्रवृत्ति करके और भीतर में फिर इस सहज चैतन्य प्रभु की उपासना करें, जितना भी बन सके, यह है गृहस्थ का एक निर्विघ्न मार्ग, जिसमें स्वभाव के अनुभव के अनेक प्रसंग भी प्राप्त होते हैं।