वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 108
From जैनकोष
मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्तन्निषिध्यते ॥108॥
916- ज्ञान का कर्मस्वभाव से होने की मोक्षहेतुतिरोधायिता- इससे ऊपर के कलश में यह बताया गया था कि ज्ञान का कर्मस्वभाव से होना, यह स्थिति मोक्ष का हेतु नहीं है, क्यों नहीं है? यह बात इस कलश में बतला रहे हैं। मोक्ष का जो हेतु है उसका तिरोधान होने से यह कर्म स्वयं बंध स्वरूप है अर्थात् शुभ अशुभ विभाव ये ही कर्म ये स्वयं बंधनरूप हैं, क्योंकि ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से भवन यहाँ नहीं है, किंतु जो कर्मोदय है, उसका प्रतिफलन है, उसके अनुरूप इसमें विकल्प जगे हैं तो ये कर्मस्वभाव रूप से ज्ञान का होना बन रहा है। तो इस प्रकार की जो परिस्थिति है याने अपने सहज ज्ञानस्वरूप के आश्रय से जो कुछ अलगाव है, उसमें जो विभाव है वह तो मोक्ष के कारण का तिरोधान करता है अर्थात् उस ज्ञानविकास का वहाँ तिरोभाव है, वह तो विभाव में लग गया सो वह बंधनरूप है और मोक्ष का हेतु तिरौधायी है याने तिरस्कार करने वाला है, इस कारण वे कर्म निषेध्य हैं, मायने शुभ अशुभ सभी कर्म हेय हैं, भले नहीं है। मेरे को भला मेरे सहजस्वभाव की दृष्टि हैं। जगत के जीव जब जब जो जो दु:ख पाते हैं वे दु:ख क्या हैं, कष्ट क्या हैं?अपने सहज स्वभाव के आश्रय से चूँकि नहीं हुए हैं ना? तो कष्ट पा रहे, व्यग्र हो रहे। जैसे कोई मछली अपने रहने के घर से याने जल से किसी कारण अलग फिंक जाय और रेत में, धूल में कहीं पहुंच जाय तो अपना धाम तज दिया तो जैसे वह व्यग्र होती है, ऐसे ही उपयोग जब अपने स्रोत को तज देता है, मायने सहजस्वभाव की सुध से अलग होता है, दूर पड गया। वह दूर परतत्त्व क्या है? परभाव स्वभाव से हटकर परभाव में चला गया तो वह तो व्यग्र हो गया, तकलीफ हो गई और प्रकृत्या यह सब बात होगी। और, ऐसी स्थिति जो है वह मोक्ष के हेतु का तिरस्कार करने वाली है। मोक्ष का हेतु तो ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होना, बस यह परिणति है। तो इसका तिरोधायी होने के कारण ये समस्त विभाव पुण्य हों, पाप हों, पुण्यकर्म हो, पापकर्म हो ये सबके सब निषेध किए जाने योग्य है। 917- ज्ञानपरिणमन के प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र आदि-
देखिये कुछ अपनी अपनी पदवी की भी बात है। श्रद्धा में शुभभाव का पूर्ण निषेध करना, प्रवृत्ति में निषेध नहीं बनता। वह तो प्राथमिक दशा में है, उसके शुभोपयोग का प्रवृत्ति में निषेध नहीं बन पा रहा, मगर श्रद्धा में निषेध है, यह स्वभाव ही मोक्ष का हेतु है, इसका सही भवन होना। यह किसी भी प्रकार का जो कर्मस्वभाव है, मायने कर्म के प्रतिफलन में जो लगाव है, भाव है, इस रूप से ज्ञान का होना यह मोक्ष का हेतु नहीं हैं। हां तो क्या रहा मोक्ष का हेतु? ज्ञान काज्ञानस्वभाव से होना, इस तथ्य को भेददृष्टि से तीन रूपों में रखते हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। ज्ञान का समीचीनपना याने विपरीत अभिप्राय जहाँ से निकल गया ऐसी ज्ञान की जहाँ स्वच्छता आयी, उस स्वच्छतारूप से होना यह है सम्यग्दर्शन। इसका तिरस्कार करने वाला कौन? मिथ्याभाव, मिथ्यात्व और मिथ्याभाव का निमित्तभूत मिथ्यात्वप्रकृति। हुआ क्या? वहाँ ही एक अतत्त्वश्रद्धानरूप से परिणमन। जैसे- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये क्या चीज है? ज्ञानी का जीवादिक अंतस्तत्त्व के श्रद्धान् रूप से होना सम्यग्दर्शन है। ज्ञान का जीवादिक ज्ञानस्वभाव से होना सम्यग्ज्ञान है, ज्ञान का रागादिक परिहार के स्वभाव से होनामायनेज्ञान में स्वयं रागपरिहरण का स्वभाव पड़ा है, ज्ञान तो ज्ञानरूप है, ज्ञातारूप है, उसमें रागभाव का स्वरूप नहीं है, तो रागादिक के परिहार के स्वभाव से होना इसे कहते हैं सम्यक्चारित्र। तब फिर मिथ्यादर्शन क्या? इस ही ज्ञान का मिथ्यात्व कर्मस्वभाव से होना, सो हुआ मिथ्यादर्शन। इस ही ज्ञान का अज्ञानभाव से होना सो हो गया मिथ्याज्ञान, इस ही ज्ञान का रागादिक विकल्प से लगाव रूप से होना सो हो गया मिथ्याचारित्र। कर्मस्वभाव से होना इसमें मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र ये तीनों आ जाते हैं और ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होना इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र तीनों आ गए। भेदविवक्षा से निरखा जा रहा है।
918- जीव में श्रद्धान ज्ञान आवरण की शाश्वत प्रर्वतमानता-
जीव श्रद्धान, ज्ञान, आचरण बिना कहीं भी नहीं रहता, किसी भी परिस्थिति में हो, संसारी स्थिति में हो, मुक्त स्थिति में हो, कहा जायगा सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र गुण का परिणमन होता ही रहता है, और देखो- सब इस समय भी नजर आयगा। आप तो कार्य करते हैं उनमें विश्वास साथ है, जानकारी है, इस प्रकार की प्रवृत्ति है, इसी के मायने है कि आप जो भी कार्य कर रहे हैं उसमें तीनों साथ लगे हैं- श्रद्धान, ज्ञान, आचरण। रोगी वैद्य से दवा लेता है तो उसके प्रति एक श्रद्धान है कि इससे मेरी तबीयत ठीक हो जायगी, इसने अच्छी दवा दी है। उस दवा का ठीक-ठीक ज्ञान है, उसकी विधि का ज्ञान है, और फिर खाता है, उसकी प्रवृत्ति करता है, लो ये तीनों कार्य वहाँ किये ना? कहाँ नहीं होता श्रद्धान, ज्ञान, आचरण? व्यापार करते हैं लोग। श्रद्धान साथ है ना कि ऐसा ऐसा ढंग बनाना यह लाभदायक है, उसका ज्ञान भी है और उस रूप चेष्टा भी करते हैं, तो आत्महित में मोक्षमार्ग में भी तदनुकूल श्रद्धान, ज्ञान, आचरण काम करता है। ज्ञान का एक बड़े सहज स्वभावरूप में श्रद्धान रूप से परिणमन होना सम्यग्दर्शन, ज्ञान का जानकारीरूप से मात्र जाननरूप से जो ज्ञान की वृत्ति है वह है ज्ञान। ज्ञान तो ज्ञान ही है, राग राग है। राग में ज्ञान नहीं, ज्ञान में राग नहीं, स्वरूप उनका जुदा है, सो उस रागादिक के परिहार स्वभाव से ज्ञान के होने का नाम सम्यक्चारित्र, ये ही मोक्ष के हेतु हैं, इसका तिरोधान कर दिया मिथ्याभाव ने, मिथ्याज्ञान ने, मिथ्या आचरण ने इसीलिए इनका निषेध किया जाता है। ये परभाव हैं।
919- परभाव का परिचय- परभाव का अर्थ है, पर पदार्थ का निमित्त पाकर होने वाला भाव, निमित्त नहीं करता है इस भाव को, क्योंकि वह जो नीति है, स्वरूप है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की परिणति नहीं करता वह अलंघ्न है, तो दो ही द्रव्य हैं सामने निमित्त और उपादान, तो निमित्त उपादान की परिणति नहीं करता फिर निमित्त कैसे कहते हैं? बस निमित्त के सन्निधान का ऐसा ही कोई संपर्कजभाव उदित हुआ है या एक वातावरण बना है कि वहाँ यह अशुद्ध उपादान अपनी परिणति से राग विकाररूप परिणम जाता ऐसा वह कर्मोदय के अभाव में नहीं परिणमा। कर्मोदय का सन्निधान पाकर परिणमा। जैसे दर्पण में फोटो आया तो उस फोटो को सामने जो हाथ या मुख है उसने नहीं कर दिया, वह फोटो या मुख तो मुख की जगह हैं, अगर मुख दर्पण में पहुंच जाय और दर्पण की परिणति करने लगे तो यह मुख नदारत हो जायगा, यह मर जायगा, फिर काहे का दर्पण और काहे का देखना? यह मुख दर्पण में नहीं गया, दर्पण की परिणति मुख ने नहीं की, मगर उस समय यह स्थिति हैं कि मुख का सन्निधान पाकर दर्पण ने अपने में प्रतिबिंब रूप परिणमन बनाया, ऐसा ही परिणमन मुख के सामने आये बिना नहीं हुआ करता है, क्योंकि वह उसी के अनुरूप तो परिणाम है। सो यद्यपि निमित्तनैमित्तिक भाव में कर्तृकर्मत्व रंच भी नहीं हैं, मगर ऐसा ही योग है कि उस निमित्त का सन्निधान पाकर उपादान अपनी परिणति बनाता है, यह ही कहलाता है निमित्तनैमित्तिक योग। पूर्वबद्ध कर्म आ रहे हैं। कर्मसिद्धांत का बहुत अधिक अध्ययन भी आवश्यक है। उससे बहुत स्पष्ट जानकारी होती है कि देखो यह बात कर्म में कर्म की चलती है। 920- शुद्धभाव के सान्निध्य में कर्मप्रकृतियों में प्रभाव- जब जीव के शुद्धभाव होता है तो उसका निमित्तपाकर कर्म में भी कितनी गड़बड़ी चलती है। कैसे वे कर्म निर्जीर्ण होते हैं, उनकी बात कर्म में पायी जाती, पर जीव के शुद्ध परिणाम का निमित्त पाकर हो रहा यह सब कर्म में निर्जरण। कैसे होता? यों झट नहीं फूट जाते कर्म। झट नहीं निकल जाते कर्म। कर्म में जो लंबी स्थिति पड़ी है तो प्रथम जो अंतर्मुहूर्त है इससे ऊपर की अंतर्मुहूर्त की निमित्त में से कुछ कर्मनिषेक की स्थिति बदलती है और करीब एक त्रिभाग छोड़कर कुछ अधिक दो त्रिभाग में वे निषेक मिल जाते याने उस जैसी स्थिति हो जाती इस तरह बढ़ते-बढ़ते जब आवली प्रमाण निक्षेप हो जाता है तब और ऊपर के नवीन निषेक निक्षेपों में बढ़ते जाते हैं, निषेक निक्षेप बढ़ते जाते, अतिस्थापनायें सरकती जातीं, अंत में एक फाली रहती वह भी किसी प्रकार से सर्वसंक्रमण से बदल जाती। इस प्रकार आत्मा का एक प्लेटफार्म क्लियर हो जाता है। उसका निमित्त है जीव का शुद्धभाव। तो निमित्त नैमित्तिक भाव जहाँ हैं वहाँ अर्थ यह ही है कि एक दूसरे का कर्ता नहीं, पर उसके सन्निधान में उपादान परिणम गया। यह ही बात हो रही इस मोक्ष के हेतु का तिरोधान करने वाले भाव में।