वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 109
From जैनकोष
संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन् नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥109॥
921- समस्त कर्म की सन्न्यस्तव्यता- सभी कर्म याने ज्ञानस्वभाव के आश्रय के सिवाय होने वाली जितनी परिणतियाँ हैं वे सभी कर्म त्यागने योग्य हैं। जब एक यह बात आयी, परिस्थिति हुई कि मोक्ष चाहने वाले पुरुष को सभी प्रकार के कर्मों का संन्यास करना चाहिए तो उस समय फिर पुण्य और पाप की जुदी-जुदी कथा ही क्या है, एक अपने सहजभाव का अनुभव, प्रतीति, ज्ञान, स्मरण, वही उसका सर्वस्व है। लोग कहते हैं परमपिता परमेश्वर। वह परमपिता परमेश्वर कहाँ हैं बाहर? दूर कहाँ है। पिता कहते हैं रक्षक को। परमरक्षक मेरा कौन? मेरा परमरक्षक मेरा स्वरूप। इस ज्ञान को इस स्वरूप को कोई कैद कर सकता क्या? कोई बाधा डाल सकता क्या? भले ही किसी के कुबुद्धि जगो- और किसी ज्ञानी को कैद कर दे, तो भला शरीर पड़ा है कारागृह में- पर ज्ञानविकास को, ज्ञानविलास को कोई कैद कर सकता क्या? वह अपने आपमें सहज बिलसित है। यह ज्ञान जो सम्यक्त्व आदिक निज स्वभाव से हो रहा। ज्ञानमात्र आत्मा कहो तो जिसका विलास, जितनी भी चीज परिणति होगी वह सब इस ज्ञान में ही तो घटित होगा। भेदविवक्षा से अनंत गुण व उनकी प्रत्येक की पर्याय हैं सो अनंत पर्याय हैं, फिर भी ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व को जब ज्ञानमात्र अभेदरूप में देखा तो कुछ भी पर्याय हो, वह इस ज्ञानमात्र आत्मा की अखंड पर्याय है। सम्यग्दर्शन होना वह भी ज्ञान का सम्यक्त्व स्वभाव से हुआ, सम्यज्ञान हुआ तो वह भी ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होना हुआ, सम्यक्चारित्र हुआ तो वह भी ज्ञान का विकार परिहार स्वभाव से होना हुआ। तो इस प्रकार सम्यक्त्वादिक अपने स्वभावरूप से होने के कारण यह ज्ञान मोक्ष का हेतु है। 922- ज्ञानमयभाव की नैष्कर्म्यप्रतिबद्धता-
यह ज्ञान नैष्कर्म्य में प्रतिबद्ध है। जहाँ जाननमात्र की ही बात चल रही है वहाँ कोई कर्म तो नहीं है। कर्मरहित उपस्थिति से वह प्रतिबद्ध है। कर्म मायने ये शुभ अशुभ भाव, ये चेष्टायें। अथवा कर्म मायने निमित्तदृष्टि से पौद्गलिक कर्म। इन कर्मों से, इन परिणतियों से रहित जो एक अवस्था है उसमें यह नियतजो नियंत्रित है, प्रतिबद्ध है, ऐसा यह ज्ञान अपनी उज्ज्वल तरंगों से अपने एक उद्धत रस के रूप में शीघ्र दौड़ आता है, एकदम स्पष्ट सामने आता है। अपना यह ज्ञान अपनी नैष्कर्म्य अवस्था में ही रहता है। देखिये सारी करामात उपयोग में है। उपयोग जहाँ लगा है वहाँ उपयोग तन्मय है और उसी में ही बात कही जाती है। मुमुक्षु ज्ञानी के करणानुयोग की दृष्टि से अभी अनेक कमियाँ चल रही हैं। चल रही अबुद्धिपूर्वक। कर्मविपाक का प्रतिफलन होना अनिवारित है। तो वहाँ बुद्धिपूर्वक रागद्वेष नहीं है इसकी ही चर्चा द्रव्यानुयोग में चलती है। और कर ही क्या सकते हैं, बुद्धिपूर्वक पौरुष अपना अन्य बन ही क्या सकता है? यह ही तो ना? परद्रव्य में क्या पौरुष और उस कर्म विपाक का प्रतिफलन होना यह तो आत्मा की एक कला की बात है, एक उसके गुण की बात, गुणविकास की ही बात है। जो हो सो आया ज्ञेय प्रतिफलन में। अब वहाँ जो प्रतिफलन के साथ ही जितना मालिन्य हुआ वह अबुद्धिपूर्वक हैं। और जब यह उपयोग बाहर विषय साधनों में पड़ा है तो वह विकार बुद्धिपूर्वक विकार है।
923- निमित्त कारण व आश्रयभूत कारण में विवेक कर ने का अनुरोध-
यहाँ तीन प्रकार से कारण जानना- उपादान, निमित्त और आश्रयभूत। आश्रयभूत समस्त पदार्थ हैं, जिन-जिन में हमारा उपयोग लगे और निमित्त है केवल कर्मप्रकृति का उदय। निमित्त के साथ निमित्तक का अन्वय व्यतिरेक संबंध नहीं और तब ही यह बात सामने आती है कि भला यह जीव समवशरण में हो गया और इसे सम्यग्दर्शन नहीं हुआ। अरे समवशरण में जाना यह सम्यग्दर्शन का निमित्त नहीं है, किंतु है क्या? दर्शन, जिनबिंब दर्शन यह सम्यग्दर्शन के निकट पूर्व होने वाले शुभोपयोग के लिए आश्रयभूत कारण हैं। जिनबिंबदर्शन आदिक ये सम्यक्त्व के आश्रयभूत कारण कभी नहीं हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र शुद्धोपयोग आदिक जो हैं ये सब निर्मल बातें हैं। ये अशुभोपयोग के बाद कभी नहीं होते ये सब शुभोपयोग के अंतर होते हैं। और इसी के अंतर होने के कारण शुभोपयोग परंपरया कारण है, उसका अर्थ यह ही है, तो वहाँ यह बात समझना कि जिनबिंबदर्शन वेदनानुभव या अन्य अन्य चीज सो सम्यक्त्व के निमित्त कारण हैं यह शब्द दिया गया है धवल की छठी पुस्तक में जहाँ यह चूलिका दी गई है कि वहाँ यह सब बताया गया है कि उस गति के जीव में सम्यक्त्व के इतने निमित्त हैं, इनमें ये निमित्त हैं ऐसा कहा जाता है, पर विवेक यह करना कि सम्यग्दर्शनसे पहले होने वाले शुद्धोपयोग के लिए ये आश्रयभूत कारण हैं, उस शुद्धोपयोग के भी निमित्त कारण नहीं, जिनबिंबदर्शनादि। सम्यक्त्व का निमित्त कारण तो मोहनीय की 7 प्रकृतियों का क्षयोपशम आदि है, दर्शन मोहनीय की 3 व अनंतानुबंधी नामक चारित्र मोह की 4 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम है। जो सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक हैं वहाँ उनमें से एक सम्यक्त्व प्रकृति का उदय है। कैसी स्थिति बनती है देखो अब शुभोपयोग में कि ज्ञानावरण का क्षयोपशम है साथ ही कुछ राग शुभ है उसका आश्रयभूत कारण होता है। सम्यक्त्व का आश्रयभूत कारण बाहर नहीं। सम्यक्त्व तो स्व के आश्रय से ही होता है। तो शुभोपयोग के आश्रयभूत कारण भी क्या है? उपचरित कारण हैं। जहाँ निमित्त शब्द आये वहाँ इतना विवेक करना चाहिए कि यह आश्रयभूत कारण के लिए कहा गया या वास्तविक निमित्त के लिए कहा गया।आश्रयभूत त कारण उपचरित कारण है, आरोपित कारण है, उपयोग जुटे तो कारण कहलाये, न उपयोग जुटे तो कारण नहीं कहलाता, पर वास्तविक निमित्त की यह बात नहीं। उसका कोई उपयोग ही नहीं कर पाता, एकेंद्रिय के भी कर्मप्रकृति का उदय है। वहाँ तो कुछ सुना, समझा ही नहीं है। मनुष्यों में कुछ जैन लोग बात करते हैं, उस कर्म को चर्चा से, आशय से, युक्ति से जान करके बाहर प्रकट करते हैं। वहाँ तो ऐसा ही योग है। जब विपाक हो तो प्रतिफलन हो। तो कर्मोदय वास्तविक निमित्त है। इसके साथ अन्वयव्यतिरेक संबंध है, वह आरोपित कारण नहीं है, आश्रयभूत कारण आरोपित कारण क्यों हैं, यों कि उसके साथ विकार का अन्वय व्यतिरेक नहीं।
924- ज्ञप्ति के साध्य साधन भाव को उत्पत्ति के साधन मान लेने का अविवेक तज देने का अनुरोध- अब ज्ञप्ति की बात देखिये- रागविकार होता, उसे देखकर कर्मोदय का ज्ञान किया कि इसके कर्मोदय है, इस जाति का कर्मोदय था तब ही तो ऐसा वह रोया, तब ही तो वह बड़ा विह्वल हुआ। तो उसका रागविकार देखकर जो कर्मोदय की जानकारी होती है सो ऐसी जानकारी होना इसे कह लीजिए एक ज्ञप्ति। सो एक ज्ञप्ति का तो परिचायक बना यह रागविकार, किंतु उसका उद्भावक निमित्त कारण कर्मप्रकृति का उदय है। दो प्रकार के कार्य होते- ज्ञप्ति और उत्पत्ति। उत्पत्ति की बात कहेंगे तो यह कहना पड़ेगा कि अग्नि से धुवाँ उत्पन्न हुआ, वहाँ यह नहीं कह सकते कि धुवाँ से अग्नि उत्पन्न हुई, पर ज्ञप्ति की बात कहेंगे तो यह कहेंगे कि धूम देखने से अग्नि का ज्ञान हुआ। वहाँ यह बात नहीं बनती कि अग्नि के देखने से धूम का ज्ञान हुआ। तो यहाँ भी बात हो ज्ञप्ति की और चर्चा बना दें उत्पत्ति के ढंग की तो विवाद संभव होता है, बात तो करें आश्रयभूत कारण की और वास्तविक निमित्त की बात लपेट दें तो विवाद होता है। 925- व्यवहारनय व उपचारभाषा में विवेक करने का अनुरोध-
व्यवहार और उपचरित की भी जुदी जुदी बात है, ग्रंथों में उपचार को भी व्यवहार शब्द से कहा और व्यवहार शब्द को भी व्यवहार शब्द से कहा तो जहाँ जहाँ यह व्यवहार मिथ्या है ऐसा कथन मिलेगा वहाँ उपचार वाला व्यवहार ही होगा, व्यवहारनय वाला व्यवहार न मिलेगा। यह उसमें परखने की बात है, अब होता क्या है कि व्यवहार नाम उपचार का भी है व्यवहारनय का भी है। तो सारे व्यवहार को जब कह बैठते हैं कि मिथ्या है तो वहाँ विवाद खड़ा हाता है। खूब सूक्ष्म निगाह से देखो- मोक्षमार्ग प्रकाश में या अन्य सब ग्रंथों में जहाँ जहाँ व्यवहार को मिथ्यारूप बताया आत्मख्याति टीका में आदि आदि में, वहाँ मिलेगा आपको उपचरित वाला व्यवहार। उपचार वाला व्यवहार किसे कहते हैं? जहाँ परस्वामित्व और परकर्तृत्व की भाषा ला दी जाय उसे कहते हैं उपचार वाला व्यवहार। दो का संबंध बताने मात्र से उपचार नहीं, किंतु दो का परस्वामित्व और परकर्तृत्व की विधि से संबंध बताये उसे उपचार कहते हैं। और, निमित्तनैमित्तिक व्यवहार बताना यह उपचार नहीं बताया गया और इसको कहीं भी मिथ्याशब्द से प्रयोग न मिलेगा। मिथ्या शब्द से प्रयोग मिलेगा तो बोलेंगे उपचार वाले व्यवहार को। ऐसी, ऐसी सूक्ष्म बातें हैं जिसकी कुंजी विदित न होने से साधारणरूप से कुछ भी कह दिया जाता तो वहाँ ऐसी ही एक बात बन जाया करती है। देखो- एक होता है आपका दूध, कोई एक आध छटांक आक का दूध पी ले तो वह मर जायगा, बच नहीं सकता। वह तो एक विष है और नाम उसका दूध रख दिया। जैसे गाय, भैंस, बकरी आदि का दूध, वैसे ही आक का दूध। जब कांटा लग जाता है भीतर गहरा तो लोग कहते हैं कि इसमें आक का दूध डाल दो, पककर कांटा निकल जायगा। तो आक का दूध तो विष है मगर उसका नाम धर दिया दूध। अब कोई जगह देखा कि आक का दूध पीने से लोग मर जाया करते हैं तो उसे देखकर कोई यह नियम बना ले कि दूध सारे प्राणघातक होते हैं तो यह नियम लोक में बाधारूप है, ऐसे ही कितने ही ऐसे तथ्य हैं जिनको आप बारीकी से निरखें तो, तथ्य का पता पड़ेगा। स्याद्वाद में विवाद का कहीं स्थान नहीं है। उसका प्रयोग विधि से करें।
926- ज्ञान से ज्ञान में ज्ञानस्वरूप निहारकर त्वरित सहज आनंदरस पान करने का अनुरोध-
भैया और करना ही क्या है? स्वभावदृष्टि करें, अपने स्वभाव में मगन हों, अपना काम बना लें और बाहर क्या है? लेवा मरे या देवा, बल्देवा करे कलेवा, क्या पड़ी है? इतना ही तो प्रयोजन है, स्वभावाश्रय करें। यह उपयोग बाहर में भटक-भटककर परेशान बन गया। इसकी परेशानी मिटावो। वहाँ से हटकर अपने सहजस्वरूप में इसको लायें, यह ही तो कार्यकारी है। यह सब करें, विवाद से क्या लाभ मिलेगा? यदि विवाद हो जहाँ कषाय बनती हो, कोई बात आती हो तो आज निश्चय समझें कि उसको स्वानुभव न जगेगा, क्योंकि कषाय का आग्रह बन बैठता है, तो ऐसे आग्रह को छोड़े- हमें तो अपना काम करना, अपने स्वभावदृष्टि में रहना, ऐसा एक भीतर में भाव बनाने से अपना लाभ है। तो इसी की बात कही जा रही कि यह स्वभावभाव, इसका आश्रय, इसका विकास, इसका विलास याने ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होना यह है एक व्रत, सम्यक्चारित्र, परमार्थसंयम यह है मोक्ष का हेतु, और अन्य विभावों में उपयोग को फंसाना, जुटाना, यह तो साक्षात् बंधन है और क्लेश भी है, वह मोक्ष का हेतु कैसे हो सकता? इस तरह इस ज्ञानस्वरूप को निहारने पर एक नैष्कर्म्य दशा बनती है और उस नैष्कर्म्य दशा में जब ज्ञान प्रतिबद्ध हुआ तो इसका रस ऐसा अनुभव में आता कि बस यह ही स्थिति है वह जो भव-भव के बाँधे हुए कर्मों की निर्जरा का निमित्त बनता है यह ही लाभ की बात है। बाहर में क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय तृष्णा इनका लगाव, इनकी प्रीति, इनमें अपना समय गंवाना है। कितने क्षणों का समय रह गया इस दुर्लभ मानवजीवन में? उस समय को व्यर्थ क्यों खोया जा रहा है? अपने उपयोग को अपने स्वभाव में लगावो। एक यह ही काम पड़ा है जीवन में करने को। इसको ही करने की हमारी वृत्ति होनी चाहिए।