वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 114
From जैनकोष
रुंधं सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौघान् एषोऽभाव: सर्वभावास्रवाणाम् ॥114॥
950- ज्ञानी जीव के भाव की ज्ञाननिर्वृत्तता- रागद्वेष मोह के बिना जो जीव का भाव, जीव का ज्ञान परिणाम चलता है वह तो ज्ञान से रचा हुआ ही है। रागद्वेष तो अज्ञानभाव हैं, और ज्ञान जब ज्ञानस्वरूप को देखे जाने तो वह ज्ञानभावहै। भैया, अपने-अपने उपयोग को तो देखे आपका ज्ञान कहाँ लग रहा है। आपका ज्ञान जहाँ लगरहा आपके लिए तो बस वही सर्वस्व है, दूसरा कुछ नहीं है। यहाँ फिट बैठती भी नहीं यह बात कि आपके ज्ञान में जो बात बस रही, मकान, धन, परिवार, आदिक, सो यही आपके लिए सर्वस्व है, यह बात फिट बैठती नहीं, फिर भी ज्ञान में उन्हीं परतत्त्वों को बसाये हुए हैं और अपने ज्ञान में आत्मा का ऐसा ज्ञान का प्रकाश ही रहे तो यहाँ बात फिट बैठती है। कितनी सुगम बात है। खुद है, खुद को ही तो जानना है पर इतनी सुगमता होने पर भी कषाय का ऐसा उदय है, प्रभाव है कि इसे यह बात बड़ी कठिन लग रही है। घर की बात कठिन लगे, दूसरे की बात आसान न लगे। घर के बच्चों की ऐसी आदत होती कि घर का भोजन रुचता नहीं और दूसरे का घर का भोजन सूखा-रूखा भी हो तो भी रुचता है, तब ही तो बच्चों में ऐसी आदत देखी जाती कि वे अपने घर में न खाकर मौसी के पास से कुछ खा आये, कहीं बुवा के पास से तो कहीं किसी के पास से। तो ऐसे ही ये संसारी अज्ञानी मोही प्राणी अपने आपके स्वरूप में बसे हुए निज ज्ञानानंद स्वरूप को न चखेंगे, किंतु परवस्तु के भोग चाहेंगे। तो जहाँ रागद्वेष मोहभाव है वहाँ अज्ञानभाव है, जहाँ रागद्वेष मोह नहीं है वह तो ज्ञानी ही रचा हुआ भाव है याने ज्ञान से ही पैदा हुआ, ज्ञान से ही बना, ज्ञान को ही बनाया। 951- ज्ञानमय भाव की स्वाधीन वृत्ति-
ज्ञानमय भाव की रचना एक ऐसी स्वाधीन है जिसमें किसी अन्य-अन्य तत्त्व की अपेक्षा नहीं कोई भोजन बनाता है तो बनाने वाला और, आधार और तवा आदिक साधन आटा वगैरह अन्य आग जल रही, कितना झंझट है और आत्मा के अनुभव के काम में कोई झंझट नहीं। यह ही ज्ञान अनुभव करता, इसी ज्ञान का अनुभव होता। इसमें किसी परतत्त्व की कोई अपेक्षा ही नहीं होती। तो कितना स्वाधीन काम और अपने को लग रहा है कठिन और परपदार्थों में रमने के विकल्प के काम इनको लग रहे हैं सरल। सो जिसकी जैसी रुचि है उसे उस प्रकार की बात सरल लगती है और उसके खिलाफ कोई बात आये तो वह उसे बड़ी कठिन जंचती है। किसी बालक को ऐसा कोई देख ले घर पड़ोस के कि यह तो केवल धर्म-धर्म में ही चित्त देता, मंदिर में, त्यागियों के संग सेवा में यहाँ ही चित्त देता है,न इसे खाना रुचता है, न घर रुचता, न लोग रुचते, सो एकदम ऐसा संदेह करने लगते कि कहीं इसका दिमाग खराब तो नहीं हो गया। डाक्टर को भी दिखाते। उन्हें आश्चर्य होता है कि ऐसा कैसा कर्तव्य होता कि अपने घर को न देखें, किसी से राग नहीं, मोह नहीं। बस त्यागियों के संग ही बना रहे। जब हम कथानक सुनते हैं कि सुकौशल, सुकुमार, गजकुमार आदि महापुरुष ऐसे उपद्रव के समय भी अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए। सुन लेते हैं, मगर हृदय अनुभव नहीं कर पाता कि ऐसा भी हो सकता, क्योंकि जिसकी जैसी रुचि है उसकी वैसी प्रवृत्ति होती है। तो जीव के जब ऐसी केवल ज्ञानज्योति का विलास चलता है, जिसमें रागद्वेष मोहभाव नहीं है तो वह सारे द्रव्यकर्म आस्रव को रोकता है, अब उसमें शुभ अशुभ विभाव नहीं चलते बुद्धिपूर्वक और कर्मों का आस्रव नहीं होगा, बस यह ही कहलाता है समस्त आश्रवों का अभाव। जब ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही समाये, स्वानुभव हो रहा तो वहाँ अबुद्धिपूर्वक कुछ भी हो पर बुद्धिपूर्वक बिगाड़ वहाँ रंच भी नहीं है।
952- वहिस्तत्त्व का आग्रह तजने में ही कल्याण लाभ-
हित के लिए अपना कर्तव्य क्या है? बस अपने में बसे हुए सहज परमात्मतत्त्व को इस ज्ञानस्वरूप को निहारो और जरा भी ऐसी भीतर में श्रद्धा में न लावो न बनाओ कि बाहर मेरा कुछ है। जो कुछ कुछ चाहेगा उस पर विपत्ति ही आयगी, लाभ कुछ न मिलेगा। कुछ की हठ छोड़ो परिवार से ही कुछ मिलेगा, दूकान से कुछ मिलेगा, अमुक से कुछ मिलेगा। अरे जो हो सहज सो हो, पर अपने आत्मस्वरूप के सिवाय बाहर में परद्रव्य में किसी की भी, कुछ भी इच्छा न रखना। श्रद्धा में ऐसा निर्माण बनना है। कुछ चाहने वालों को क्या मिलता? कोयला। एक नाई सेठ की हजामत बना रहा था। वह सेठ था कुछ डरपोक, कुछ बहमी। जब वह नाई सेठ की हजामत बना रहा था तो उस्तुरा भी कभी कभी गर्दन के पासतकजाता था। सेठ खूब डर रहा था कि कहीं ऐसा न हों कि यह नाई हमारी गर्दन ही साफ कर दे। सो उस डर के मारे सेठ ने कहा नाई से- खूब अच्छी तरह दाढ़ी बनाना, हम तुम्हें कुछ देंगे। तो वहाँ नाई ने समझा कि सेठजी हमें न जाने क्या वैभव हमें देंगे पुरस्कार रूप में। खैर जब हजामत बन चुकी तो सेठ ने 1) निकालकर नाई को दिया। पहले तो दिया करता था कोई दो आने, पर उस दिन 1) दिया। तो वहाँ नाई अड़ गया, बोला- सेठजी हम 1) नहीं लेते आपने तो कहा था कि हम कुछ देंगे, सो जो देना हो सो दे दो। सेठ ने 10, 20, रु. दिए, पर नहीं लिया, मोहर दी, पर नहीं लिया, वह कुछ की अड़ करके बैठ गया। सेठ बहुत परेशान हो गया, बहुत सोचा कि अब मैं इसे क्या दे दूँ। कुछ समझ में नहीं आता। खैर इसी प्रसंग में सेठ को लग गई प्यास सो नाई से कहा- जरा वह आले में रखा दूध का गिलास दे देना। कुछ दूध पी लें, फिर तुम्हेंदेंगे कुछ। नाई ने झट से गिलास उठाया, नजर गई तो उसमें कुछ पड़ा था, समझ में न आया, तो झट कह उठा अरे सेठजी इसमें कुछ पड़ा है।...क्या कुछ पड़ा है?...हाँ कुछ पड़ा है।...अच्छा तो तू उसे उठा ले क्योंकि तू कुछ की अड़ किए पड़ा था। लो नाई ने उसे उठाया तो क्या पाया?...कोयला। तो भैया जो कुछ की हठ करता है उसे कोयला ही हाथ लगता है अर्थात् उसे कुछ नहीं प्राप्त होता। आज जो लोग इन बाह्य पदार्थों की आशा तृष्णा लिए बैठें हैं, बस कुछ मिले, यही हठ किए बैठें है तो उसके फल में लाभ मिलेगा कुछ नहीं, उल्टी बरबादी ही होगी। अरे एक अपने आपके ज्ञानस्वरूप को ग्रहण करो। वही अपने लिए सर्वस्व है, सारभूत बात है।
953- अपने को सर्वविविक्त कृतार्थ निरखने का संदेश- भैया, अपने को सर्व से निराला, कृतकृत्य देखो। बाहर में कहीं कुछ करने को नहीं पड़ा। कुछ किया ही नहीं जा सकता बाहर में। केवल यह भाव ही तो बनाना है जीव को। भाव से अतिरिक्त यह जीव कुछ नहीं करता। बाहर में मेरे को करने को कुछ नहीं पड़ा। वहाँ से वह विश्राम लेता है, अपने आपमें रमता है और अपना आनंद बढ़ाता रहता है। किंतु जो बाहरी पदार्थ में इष्ट अनिष्ट की बुद्धि रखता है उसके उदारता खतम हो जाती है, गंभीरता रंच भी नहीं रहती है, झगड़ा कलह ये उसके एक खेल से बन गए हैं। यह तो अनादि से चला आया है , उसमें ही रम रहा है। उसके आस्रव होता, संसार में रुलना होता। कुछ थोड़ा भी यदि सोच लिया जाय कि हम मनुष्य हुए हैं तो यह भव तो सदा नहीं रहने का। यह तो कुछ ही दिनों का है और तिस पर भी यह निश्चय किया कि हम कल भी जीवित रहें, अगले क्षण भी जीवित रहेंगे। भले ही आशा बना रखी है, मगर निश्चित तो कुछ नहीं ना। जब मृत्यु हमारे सिर पर ही मंडरा रही है तो फिर यहाँ भोगों की प्रीति से कौनसा काम साध लिया जायगा? एक अपने आत्मस्वरूप को देखो, उस ही में तृप्त हो, उसी की बात करो, अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए तन, मन, धन, वचन, प्राण सब कुछ भी समर्पित करने पड़ें, तो करें। उसने एक बहुत बड़ी निधि पायी जिसने अपने आत्मा के सहज आनंदमय स्वरूप की उपलब्धि की। यह ही है ज्ञानज्योति, जो धनुर्धारी बड़ा वीर, सारे संकटों को नष्ट कर देने वाला है। यह आत्मज्ञान प्रकाश जहाँ उदित होता है वहाँ फिर कर्मों का आस्रव नहीं रहता। 954- हेय तत्त्व आस्रव पर संवर का विजय-
आस्रव बंध ये दो ही तो संसार के तत्त्व हैं। 7 तत्त्व जो बताये गए- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा और मोक्ष, इनमें हेय तत्त्व क्या हैं? जो बुरे हैं, जो हमें छोड़ना ही चाहिए, इन 7 में हेय तो दो तत्त्व है आस्रव और बंध। ये भले के लिए नहीं हैं। इनको छोड़ना ही चाहिए। और, उपादेय तत्त्व क्या है जिसको कि ग्रहण करे। तो अत्यंत उपादेय तो है मोक्ष और मोक्ष न मिले जब तक, उसकी प्राप्ति के उपाय में उपादेय है सम्वर और निर्जरा। तो आस्रव बंध हैं हेय, सम्वर निर्जरा हैं उपादेय और मोक्षतत्त्व है सर्वथा उपादेय, अत्यंत उपादेय। और जीव और अजीव से पदार्थ हैं, ज्ञेय हैं इन्हें जान ले। केवल जीव अजीव में हेय, उपादेय पाने की बात क्या? पदार्थ हैं, अपना-अपना सत्त्व लिए हुए हैं। तो हेयतत्त्व कौन कहलाये? आस्रव और बंध, और इनमें भी मूल कौन है। आस्रव। आस्रव हो तो बंध का मौका मिलता तो ऐसा जो हेयतत्त्व आस्रव है उस पर विजय पाने से प्रकट हुआ है यह सम्यग्ज्ञान। इस सम्यग्ज्ञान के बल से ये सारे आस्रव रुकते हैं और अपने भीतर बसे हुए सहज परमात्मतत्त्व से इसका मिलाप होता है। प्रभु मिल गए।अपना प्रभु अपने में जो बसा वह मिल जाय, इससे बढ़कर जगत में और कोई सार की बात नहीं है।