वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 115
From जैनकोष
ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो निरास्रवो ज्ञायक एक एव ॥115॥
955- विभावविष को तजकर स्वभावामृत का पान करने की प्रेरणा- जितने भी संसार में कष्ट हैं वे अब अपने स्वरूप की सुध छोड़कर कर्मविपाक से उत्पन्न हुए, कर्मरस में, कर्मलीला में अपने उपयोग को जुटाने से हुये हैं। साफ स्पष्ट मामला है। दो बातें हैं- आपको अगर सबसे निराले निज अंत: स्वरूप की रुचि है और मात्र उसमें ही रहकर आप प्रसन्नता पा सकते हैं तो आपका भविष्य उज्ज्वल है और इस आत्मतत्त्व की सुध छोड़कर इस कर्मरस में, इस ज्ञान विकल्प में, इन रागद्वेष भावों में, इनके बाह्यसाधनभूत पुत्र, मित्र, स्त्री कुटुंब वैभव आदिक में यदि आपकी उमंग है, रुचि है तो नियम से भविष्य खराब है, दुर्गति ही प्राप्त होगी। दो ही निर्णय हैं और ये दोनों ही बातें अपने आपके उपयोग पर निर्भर हैं। भला बतलाओ- जहाँ इतनी छूट दी जाय कि तुम चाहो तो अमृत पी लो यह भी रखा सामने और तुम चाहो तो विष पी लो, यह भी सामने रखा है। अब इसमें कोई विष पीने की ही हठ करे तो उसका और इलाज क्याहै? ऐसे ही अपने आत्मक्षेत्र में स्वयं अनादिनिधन ज्ञायकस्वभाव परमात्मतत्त्व निरंतर बसा हुआ है, और पर्याय में बाहर रागद्वेष विकल्प ये चीजें चल रही हैं, अब तुम्हारी रुचि की बात है। अगर पर्याय में रुचि करते हो तो दुर्गतियाँ ही प्राप्त होंगी और स्वभाव में रुचि होती है तो आपका भविष्य उज्ज्वल होगा, संकटों से मुक्ति मिलेगी। तो देखो यदि कोई स्वभावामृत को तजकर विभावविष का पान करता है तो उसे क्या कहोगे खुद एक अपने को अपना प्यारा, अपना श्रेय जानकर अपने पर दया कर लीजिए।भीतरी ही बात है। समाधान और प्रयोग कीजिये कि कहाँ उपयोग जमायें कि इस जीव का कल्याण हो। 956- ज्ञानतत्त्व की लगन में ही उद्धार की संभवता-
भैया, एक बात कह देते हैं और आप उसको चाहे कहीं शिला पर अंकित कर रख लें- ज्ञान के प्रति, ज्ञान की साधना के प्रति यदि उमंग नहीं जमी है और उसके विरुद्ध तृष्णा का रंग जमा है तो उद्धार का रास्ता नहीं मिलता। यह बात एक प्रयोग की है। जो मन आये सो करोमगर यह सदा ध्यान रखना कि सर्वोत्कृष्ट वैभव ज्ञान है, ज्ञानस्वभाव का परिचय है। अगर इस ज्ञान के प्रति उमंग नहीं है तो समझिये कि केवल ज्ञान की संभावना नहीं है। केवलज्ञान होने के लिए उसे इस ज्ञानबीज में पनपना है, यह ही एक बीज है, ज्ञानस्वभाव की प्रीति, जिसके लिए तन भी हाजिर, मन, धन, वचन, प्राण भी हाजिर, ये सब भी अगर न्यौछावर हो जायें तो भी वहाँ आपने सर्वस्व पाया, ऐसे ज्ञानस्वभाव के प्रति उमंग नहीं है और धर्म के नाम पर चाहे आप मंदिर निर्माण करें, चाहे आप धर्मशाला बनवायें, चाहे और-और भोज खोल दें, कुछ भी काम करें, एक ऐसे ज्ञान की उमंग नहीं, रुचि नहीं तो आपको मोक्षमार्ग न मिलेगा। संसार के संकटों से छुटकारा का रास्ता न मिलेगा। ज्ञान की बात चल रही, ज्ञान में कितना वैभव पड़ा है, ज्ञान में कितना आनंद बसा हुआ है, उपयोग ही तो है, बाहर तो हमारा कुछ नहीं। ये ये हैं, बाहर में बाहरी बातें है, कोई संबंध तो नहीं बाहर की चीजों से, बाह्य संगप्रसंग में दु:ख ही दु:ख है। यही ज्ञानतत्त्व इसके लिये सर्वस्व है, बाकी तो सब धोखा है, और ऊधम है।
957- अनात्मतत्त्व की रुचि तज देने का अनुरोध- अहो, अपने आत्मा को नियंत्रण में रख नहीं पाते और इन असार पदार्थों में रुचि और तृष्णा घर कर रही है, तो बतावो, क्या पावोगे। रहेगा कुछ नहीं, छोड़कर सब जाना होगा। दूसरे लोग ही इस बात को समझ पायेंगे कि सारे जीवन इसने कुछ नहीं किया। धर्म की, ज्ञान की कोई बात नहीं की, छोड़कर चले जायेंगे। खुद कैसे समझेंगे? खुद तो अगले जन्म में पछतायेंगे। पछता भी न पायेंगे, क्योंकि पछताना तो तब बनेगा जब यह ज्ञान हो कि मैंने पूर्वभव व्यर्थ गमाया था, इस कारण मैं पशु हुआ हूँ, पर यह ख्याल कहाँ आयगा? बस कष्ट ही भोगना हाथ रहेगा, इसलिए चेतो, अपनी मोड़ मोड़ों, ज्ञानस्वभाव की रुचि करो और इस ही आत्मज्ञान के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दो, अन्य कुछ नहीं। कहते तो रोज-रोज पूजा में भगवान के सामने, पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि। वहाँ चूँकि यह ज्ञान-ज्ञान ही दिखा वही भगवान, उसकी भक्ति में कहते हैं कि इस केवलज्ञान रूपी अग्नि में उस सारे पुण्य को मैं एकमन होकर स्वाहा करता हूँ। पुण्य वैभव की रुचि थी इसलिए पुण्य वैभव के स्वाहा की बात किया। पाप में रुचि नहीं है तब तो इतनी पात्रता है। प्रभुभक्ति कर रहे हैं और पाप में रुचि हो, धन संतान वैभव चाहना, दूसरों को हराना मुकदमें में हराना, अन्याय करना, अन्याय करते हुए भी दूसरों पर विजय पावें, ऐसी इच्छा आकांक्षायें बनाता है तो उसे पाप में रुचि कहेंगे या पुण्य में? पाप में कहेंगे। तो एक अपनी सम्हाल करें, इसी में सार है, बाकी बाहरी पदार्थों की सम्हाल करने में एक विकल्प जाल है और उस विकल्पजाल में अपने आपका उद्धार नहीं। 958- प्रवृत्ति होने पर भी ज्ञानी का आंतरिक लक्ष्य– ज्ञानी जीव ने क्या पाया? अविकार अपने आत्मा के स्वभाव की दृष्टि। समझ बनी कि मैं अपने स्वरूप में केवल एक प्रकाशमात्र हूँ, बीत रही घटना के निषेध के विषय में समय गमाना वह तो एक अन्याय है। परिणति का विरोध करके स्वभाव की एकांतत: चर्चा करना अच्छी बात नहीं, क्योंकि सत्य का अपलाप क्यों किया जा रहा? घटना तो हो ही रही लेकिन उस घटना ही घटना में चित्त बसाये तो आत्मा का उद्धार नहीं। है घटना, मान ली, मगर किसको हम दृष्टि में लें कि हमारा उद्धार हो। वह क्या है? अपना सहज स्वरूप। उसे ज्ञान में लिया तो अब जितने भी भाव बनेंगे वे ज्ञानमय भाव बनेंगे। कषाय के काम में भी प्रवृत्ति हो रही मगर भीतर तो देखो रुचि कहाँ है? और लगन कहाँ है, धुन कहाँ है, यह बात जिनके हो उनकी ही वह चर्चा है। ज्ञान की बाहरी क्रिया को देखकर उन क्रियायों का तो आग्रह कर लिया, पर ज्ञानी की अंत: साधना को कोई रहस्य ही नहीं समझ पाया, तो उससे काम नहीं बनता। एक किताब है गधे की कहानी नाम की। एक धोबी के पास उसका एक गधा था और उसकी एक कुतिया भी थी, जिसके छोटे-छोटे पिल्ले भी थे। कुछ बड़े हो गए वे पिल्ले तो वह धोबी उन पिल्लों को खूब खिलाये, हाथ से उठाये, कंधे पर बिठाये, छाती से लगाये- अब वह सोचता है कि मैं तो मर रहा भार से और मैं ही इसके कुटुंब का पालन पोषण करता हूँ, मैं इसके परिवार को खिलाता हूँ, मैं तो इतना कमाता हूँ, मगर यह धोबी हमको नहीं खिलाता हमसे नहीं प्यार करता ! तो उसने सोचा क्या कारण है। कि मैं इतना तो काम करता हूँ और फिर भी यह मुझको तो खिलाता नहीं और इस कुत्ते को खिलाता है, उसकी समझ में आया- ओहो इन पिल्लों पर इसलिए धोबीकी इतनी प्रीति है कि ये इसको अपने पैरों से मारते हैं, ऊपर चढ़ते हैं, काटते हैं- बस ऐसा ही काम मैं भी करूँगा जिससे हमारा यह धोबी मालिक हमसे प्रीति करेगा, हमको खिलायगा। इस आशा से उसने धोबी के पास जाकर फटाफट लातें मारना व काटना शुरू कर दिया, पर वहाँ काहे का प्यार? वहाँ तो फटाफट डंडे बरसने लगे। वहाँ गधा सोचने लगा अरे हमसे ऐसी क्या भूल हो गई जो हम पर डंडे बरसे। तो सबकी बात जुदी होती है। किसी की बाहरी क्रिया में देखकर उनकी नकल करने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं होती। ज्ञानी की बाहरी क्रियायें भी ऐसी ही होती हैं जैसा कि प्राय: रिवाज है धर्म के प्रसंग में पूजा, दया, दान, त्याग, व्रत उपवास आदिक का, मगर यह ज्ञानी कैसा परिणम रहा, कैसा ज्ञान बना रहा, किस ओरदृष्टि दिए हुए है, यह तो ध्यान में आया नहीं और ऊपरी क्रियावों की नकल करे कोई तो नकल मात्र से अंत: शांति तो नहीं आ सकती, वह तो बाह्य प्रवृत्ति मात्र आयगी। होता ही है ऐसा पद में, ऐसा कर्तव्य ही है मगर किसके लक्ष्य से, किसके आश्रय से कर्म कटते हैं इस बात का भी तो ध्यान करें। आत्मस्वभाव के आश्रय से, कर्म कटते हैं। तो ज्ञानी ने अपने सही ज्ञानस्वरूप को निरखा तो उसके अज्ञानमय भाव सब रुक गया, अब ज्ञान-ज्ञान जैसा ही भाव चल रहा। अब उसके ज्ञानस्वरूप में धुन होने से ऐसी निर्मलता जगी है कि पूर्वबद्ध कर्म उदय में आवे तो वे भी अबुद्धिपूर्वक या कम अनुभाग में प्रकट होकर निकल जाते हैं। 959- ज्ञानी के भावास्रव का अभाव और द्रव्यास्रव से स्वत एव भिन्नपना- देखो जो कर्म आज बाँधे हैं उन कर्मों का फल आज ही नहीं मिलता। वह सत्ता में ही पड़ा रहता है। जब उनकी सत्ता पड़ी होने को होती है याने प्रकट होने आती है तब उसका फल प्राप्त होता। तो देखो अज्ञान अवस्था में तो कर्म बाँधे ये, पर जब कर्म उदय में आने का समय हुआ उस समय में इसकी ज्ञान अवस्था बन गई, तो पहले तो पृथ्वी के डेले के समान पड़े थे, याने उनका कोई कुफल न था। अब ये विपाककाल में आये सो ज्ञानी का मन विरक्त हो गया तो अब वे भी निष्फल हो रहे हैं। जैसे किसी बड़े उम्र वाले पुरुष ने एक छोटी कन्या से विवाह किया, पहले था रिवाज- तो वह कन्या मानो 8-9 वर्ष की थी, तो वह उपभोग के योग्य नहीं है, जब वह जवान हुई और उपभोग के योग्य हुई तो पुरुष के ज्ञान व वैराग्य का अभ्युदय हुआ। देखो विवाह के बाद वह कई वर्ष तक बेकार रही, और जब वह उपभोग के योग्य हुई, जवान हुई और इस पुरुष को भीतर में ज्ञान जग गया, अंत: वैराग्य बना, ज्ञानस्वरूप की धुन बनी तो उसको उपभोग तो कुछ नहीं हुआ। जैसे एक मोटी कहावत है कि जब दाँत थे तब चने न मिलते थे गरीबी के कारण और जब चने हुए याने गरीबी दूर हुई तो दाँत नहीं रहे। तो जब कर्म बाँधे, अज्ञान अवस्था थी सो पहले बाँधे का तो फल पा रहा, मगर इस समय बाँधे का फल नहीं मिल रहा। और जब उनका फल मिलने का समय आया तो यहाँ कषाय की उमंग न रही। ज्ञानस्वभाव में प्रीति जग गई, तो यही तो हाल हुआ ज्ञानी का। उसके अब भावाश्रव नहीं रहा। देखो जो कर्म थे उनसे तो न्यारा था ही यह जीव स्वरूपदृष्टि से। यद्यपि यहाँ बंधन तो है मगर स्वरूप को देखो तो जो द्रव्यकर्म है, द्रव्याश्रव है उससे तो यह भिन्न है, स्वयं यह ही क्या? अज्ञानी भी भिन्न है, ज्ञानी आत्मा भी भिन्न है, क्योंकि वे पदार्थ दो प्रकार के हैं और दो पदार्थ विभिन्न होते ही है मगर जैसे ही इसको अपने ज्ञानस्वरूप की सुध हुई वह भावाश्रव से भी दूर हो गया। सो भावाश्रव तो इसके रहा नहीं, मायने भावों का आस्रव नहीं रहा, रागद्वेष के प्रति इसकी उमंग नहीं रही, लगाव नहीं रहा, उसे सर्वस्व समझे यह बात अज्ञान में थी। अब तो विरक्त हो रहा। तो भावाश्रव का अभाव हो गया ज्ञानी के, और द्रव्यकर्म सो जुदा है ही। अब यह ज्ञानी सदा ज्ञानमय ही एकभाव में बस रहा। अब यह तो ज्ञायक है, ज्ञाता है। 960- अंतस्तत्त्व के आश्रय का प्रताप-
आत्मस्वभाव व विभावों में भेद विज्ञान की बातें जिन्होंने पायी वे हैं अमीर और भेदविज्ञान की छटा जिन्होंने नहीं पायी, वे विषयों में रमते, इष्ट अनिष्ट सोचते, धन वैभव ही अपना सर्वस्व समझते। उनके उपयोग में ज्ञानस्वभाव को, परमात्मस्वरूप को रंच भी स्थान नहीं, और कदाचित् भक्ति भी करें, कुछ धर्म भी करें जिसे समझ रखा तो केवल वैभव की तृष्णा के कारण करते हैं, उन्हें वह दृष्टि मिली नहीं कि जिससे यह प्रकाश जगे कि ये धन वैभव ये अत्यंत तुच्छ बातें हैं। तो यह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष अपने भावों में इतना स्पष्ट निर्मल हो गया, ऐसे ज्ञानी की सेवा मिलना ही बड़ा कठिन और दुर्लभ है। ज्ञानी संत की सेवा भी जिसे प्राप्त हुई वह भी एक बहुत बड़ा भाग्यवान है, उसका निर्मल भवितव्य है और फिर जिसने उस ज्ञानी के अंत: स्वरूप का परिचय पाया कि यह आत्मा ज्ञानस्वरूप अपने ज्ञान को कहाँ छुवे रहता है, वह कौनसा तत्त्व है कि जिसमें रमण करके यह अपने आपमें अपना प्रसाद पाये हुए है, उस ज्ञानी की कला का परिचय हो जाय यह उससे भी अधिक सौभाग्य और सुभवितव्य की बात है। और, फिर उस परम ज्ञानकला के प्रति ऐसी उमंग उठी कि मुझे यह ही चाहिए, बाकी तीनों लोक का वैभव भी तुच्छ है। त्रिलोक के वैभव से मेरे आत्मा का उद्धार नहीं, बल्कि बरबादी है, यह भाव जहाँ जम गया और अपने अंत: उस सहज परमात्मस्वरूप में भक्ति जग गई तो समझिये कि हमारा संसार संकट छूट गया। जैसे एक पेड़ कट गया, जड़ से गिर गया हरातो अब भी है मगर वह हरियाली क्षण-क्षण मुरझाने की ओरहै तत्काल तो मुरझाना विदित नहीं होता। दो चार दिन में मुरझाने की बात कुछ अंदाज में आती, मगर जिस काल में पेड़ कटा उस ही काल से वे पत्तियाँ मुरझाने की ओरमुख कर गई, अब हरियाने की ओरमुख नहीं है, ऐसे ही स्वभाव और विभाव का जहाँ भेदविज्ञान हुआ, अपने स्वभाव की दृष्टि हुई, यह मैं हूँ, विभाव पर हैं, ऐसा भेद जगा, ऐसा ज्ञान में परिचय आते ही ये विभाव मुरझाने की ओरहैं, अब बढने की ओर नहीं हैं।तुरंत तो मुरझाना विदित नहीं हो रहा मगर जड़ ऐसी ही बन रही। लोग कहते हैं कि भरत चक्रवर्ती को दीक्षा लेते ही तुरंत अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान हो गया ऐसी तुरंत की साधना कैसी? लोगों को तो विदित हो रहा कि तुरंत की साधना थी? उन्होंने गृहस्थावस्था में भी निरंतर आत्मसाधना की थी, घर में रहते हुए भी वैरागी, भरत के बारे में प्रसिद्ध ही है। इतना वैभववान होकर भी वैभव से अलिप्त रहे, उसमें मोह नहीं, उसमें उपयोग नहीं, राग नहीं बसा। तो ज्ञानी पुरुष की अंत: साधना यही तो एक काम करती है, काम करने को दूसरा कुछ नहीं रखा।
961- परकर्तृत्व का व्यर्थ भ्रम- यह तो व्यर्थ का भ्रम है कि धन वैभव मेरे जोडने से जुड़ता। अरे जिन-जिन के काम में यह वैभव आयगा उनका पुण्योदय है तो आपको उनका नौकर बनना पड़ा। आप धन कमा नहीं रहे, आप तो उनकी नौकरी कर रहे। किनकी? जिन-जिन के उपभोग में यह संपदा आयगी। अच्छा तो उनकी नौकरी करने से कुछ फल मिलेगा क्या? हाँ मिलेगा फल। वह पाप, पाप का फल, यही तो मिलेगा। और अधिक अच्छी नौकरी नहीं मिलने की, क्योंकि सब कुछ ऐसे ही तो (मुफ्त ही तो) आया है। तो यह जायगा भी मुफ्त, मुफ्त कैसे आया? पैदा होते ही आपने कुछ कमाया क्या? कमाया तो नहीं, पर कहलाने लगे लखपति। तो यह सब पुण्ययोग है, पूर्वकाल में किए हुए धर्म का प्रसाद है। हो गया, मगर यदि धर्म में बुद्धि नहीं, ज्ञान में प्रीति नहीं तो बस ऐसे ही यह विषय वैभवों की प्रीति में समय जायगा, जो बिल्कुल बेकार सा समय है और अंत में खोटा फल प्राप्त होगा। तो क्यों न चेते और अपने अध्यात्म में अपना प्रकाश पायें। 962- आत्मज्ञान से आत्मजीवन का प्रारंभ-
एक बार एक छोटी ही उम्र के मुनिराज किसी सेठ के घर आहार करने आये। आहार करने के पश्चात् जब थोड़ा बैठे तो सेठ की बहू ने पूछा मुनिमहाराज से- महाराज आप इतने जल्दी कैसे आ गए। तो मुनिराज बोले- बेटी समय की खबर न थी। मुनिराज ने पूछा बहू से- बताओ तुम्हारी उमर कितनी है?...महाराज मेरी उम्र 5 वर्ष की है।...और पति की आयु?...सिर्फ 5 महीना की।...और तुम्हारे ससुर साहब की?...महाराज ससुर साहब तो अभी पैदा ही नहीं हुए?...अच्छा ताजा खाती हो कि बासी।...महाराज सुबह दोपहर, शाम तीनों ही बार बासा ही बासा खाते हैं, ताजे का नाम नहीं। खैर, मुनि महाराज तो चले गए। इधर सेठजी बहुत बिगड़े अपनी बहू पर। बोले कि आज जो तूने इतने लोगों के सामने मेरी इज्जत गँवा दी। कैसे अटपट उत्तर दिए। तो बहू बोली- पिताजी आप नाराज न हों, चलो उन्हीं महाराज के पास, उन्हीं से सब बातों का समाधान करें। पहुंचे तो क्या समाधान मिला कि मुनि थे 18-19 वर्ष की उम्र के सो जब बहू ने पूछा था कि इतने जल्दी कैसे आ गए, तो उनका अर्थ था कि इतने जल्दी मुनिपद में आप कैसे आ गए। तो वहाँ मुनिराज ने कहा था कि बेटी समय की खबर न थी याने इस जीवन का क्या ठिकाना कि कब तक रहे यही सोचकर जल्दी ही इस मुनि पद में आ गए। बहू की उम्र के विषय में जो बात चली तो बहू ने बताया कि 5 वर्ष से मुझे धर्म में श्रद्धा हुई तभी से मैं अपना जीवन समझती, उसके पहले का जीवन कोई जीवन नहीं समझती। जब से धर्म में श्रद्धा हो तब से जीवन सही समझना। पति की उम्र 5 माह की बतायी तो उसका अर्थ था कि पति को सिर्फ 5 माह से धर्म में श्रद्धा हुई। और ससुर बोला-महाराज, यह तो ठीक समझ गए, पर मैं जो इतना बड़ा बूढ़ा हो गया सो उसे बताती कि अभी पैदा ही नहीं हुए सो कैसे? तो बहू बोली- महाराज देख लो यह अब भी झगड़ते हैं। इनको अभी तक धर्म में श्रद्धा नहीं हुई तो हम इनका जीवन कैसे समझें। धर्म में श्रद्धाविहीन जीवन कोई जीवन नहीं। अब रोज-रोज बासा खाने की बात क्या थी, उसके संबंध में बहू ने बताया कि सेठजी ने पूर्वभव में जो पुण्य की कमाई की थी उस कमायी को आज खाया जा रहा है। सो वह सब बासा ही तो कहलाया क्योंकि सेठजी कोई नई कमाई धर्म की पुण्य की नहीं कर रहे। सेठ की समझ में सब आ गया कि इस बहू और मुनिराज की वास्तविक वार्ता क्या थी, सहर्ष वापिस आया। तो भाई जिंदगी अपनी तब से समझो जब से अपने को अपने आत्मा की प्रीति जगे।ज्ञानस्वरूप का आदर बने, तोये कर्म झड़ेंगे संसार के सर्व संकट छूटेंगे।