वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 117
From जैनकोष
कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मति: ॥117॥
971- ज्ञानी के निरास्रवत्व का प्रकरण-
यहाँ यह बतलाया जा रहा था कि यह जीव जब अपने ज्ञान को अपने ज्ञानस्वरूप में जोड़ता है अर्थात् मैं सहज ज्ञानमात्र हूँ ऐसा अपने में विश्वास लाता हुआ जानता है और इसके कारण अब उसके इच्छा नहीं रही संसार के प्रपंचों की, ऐसी स्थिति में इस जीव के आस्रव नहीं होता। यहाँ बुद्धिपूर्वक आस्रव नहीं होता, यह अर्थ जानना और जहाँ ऊँची समाधि हो जाती है साधुजनों की वहाँ अबुद्धिपूर्वक भी न होगा, सांपरायिक आस्रव भी अकषाय में नहीं होता। द्रव्यानुयोग में समयसार में जहाँ-जहाँ भी यह लिखा है कि ज्ञानी निराश्रव है, सम्यग्दृष्टि के कर्म का बंध नहीं है वहाँ यह अर्थ लेना कि इस जीव की इच्छा अब विषयों में रमण की नहीं है, वहाँ ये यह हटाव लिए रहता है इस कारण इसके बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोह नहीं है, मोह तो है ही नहीं और बुद्धिपूर्वक रागद्वेष नहीं है इस कारण यह जीव निराश्रव है, अर्थात् बुद्धिपूर्वक रागद्वेष होने के कारण जो आस्रव हुआ करता है वह यहाँ नहीं होता। फल मिलता है अपने भावों का। कोई परिस्थिति में क्रिया कुछ करनी होती फिर भी फल होगा तो भाव का होगा। जैसे लड़की का विवाह हुआ और बहुत उम्र हुई, कुछ वृद्धापना आने को है और जब-जब भी वह अपने मायके आती है तो मायके से जाते समय वह रोकर जाती है एक रिवाज है, और, मन में चाहे यह हो कि घर का काम बिगड़ रहा, हमें जल्दी जाना है, मन में खुशी है, क्योंकि काम तो चलेगा घर से, तो मन में खुशी है, सो जायगी, पर रोये बिना न जायेगी। रिवाज है, परिस्थिति है और ऐसा रुदन भी करती कि दूसरे लोग सुनकर चाहे आँसू ला दें कि यह तो बहुत कठिन रो रही, इसे बहुत अधिक खुद हो रहा है और भीतर में फल क्या है? उसे तो सुख है, बल्कि कोई लिवाने न आये तो अपने लड़का बच्चों को खबर भेजती कि तुम लिवाने आ जाना। फल किसका मिला? जैसा भीतर में भाव है उसका फल मिला।
972- आशयानुसार भविष्यनिर्माण-
कोई दो बालक थे, छोटे बड़े भाई थे। उस नगर में कुछ ही घर भक्तों के थे। वहाँ एक-एक दिन एक-एक घर के लोग बारी से मंदिर में पूजन करते थे। एक दिन इन लड़कों की पूजा की बारी थी। उसी दिन रसोईघर में लकड़ियों की जरूरत पड गई तो उस बड़े लड़के ने छोटे से कहा कि हम तो जाते हैं लकड़ियाँ बीनने और तुम जाकर पूजा कर आना।...ठीक है। बड़ा लड़का तो चला गया लकड़ियां बीनने और छोटा लड़का चला गया पूजन करने। अब जंगल में लकड़ियाँ तोड़ने वाला लड़का क्या सोचता है कि कहाँ मैं झंझट में पड़ गया? हमारा छोटा भाई तो प्रभु की भक्ति में, पूजा में प्रभु के गुणगान करके आनंदविभोर हो रहा होगा...और इधर छोटा भाई मंदिर में क्या सोचता है कि मैं कहाँ झंझट में पड़ गया। मेरा बड़ा भाई तो आम के पेड़ों पर चढ़कर मीठे-मीठे फल खा रहा होगा, सिनेमा के गीत गा रहा होगा...अब देखो भावों की बात। इससे कहीं यह न समझ लेना कि लकड़ी बीनना अच्छा है (हंसी) अरे अगर लकड़ी बीनते हुए भी भाव खराब रखा तो वह अच्छा काहे का? अच्छापन तो पूजा में आयगा।थोड़ा भाव सुधार ले, भगवान के स्वरूप की दृष्टि कर ले, यह तो एक साधन है, मगर फल मिलता है भाव का। तो ज्ञानी जीव के भाव आत्मा के स्वभाव की ओर है। इस ही में वह तृप्त रहना चाहता। बाकी चारित्रमोह के उदयवश बाहरी कामों में लगना पड़ रहा है फिर भी उसका मूल उद्देश्य, मूलभाव यह स्वभावरमण है। इसी कारण ज्ञानी को निराश्रव कहा है।
973- द्रव्यप्रत्ययसंतति होने पर निराश्रवत्व प्रतिपादन में एक आशंका- ज्ञानी के निरास्रवत्व की बात सुनने पर यह एक आशंका हुई कि अभी यह ज्ञानी अविरत भी है श्रावक भी है और मुनि भी हो, पर श्रेणी में तो नहीं है, और हो तो भी 9 वें, 10 वें गुणस्थान तक इन सबके कर्म लगे हैं, निरंतर कर्म उदय में आ रहे हैं, लगातार उदय में आ रहे हैं, द्रव्यप्रत्यय की संतति बराबर चल रही है। द्रव्यप्रत्यय मायने पहले बाँधे हुए कर्म जो उदय में आये हैं तो उदय में आये हुए कर्मों का नाम है द्रव्यप्रत्यय। उसके तो संतान लगी है, लगातार चल रही है फिर इस ज्ञानी को निराश्रव कहा सो कैसे कहा? और, कहा कि यह ज्ञानी सदा निराश्रव है याने सो रहा है वहाँ पर भी सम्वर जग रहा, खा रहा पी रहा और इंद्रियविषयों में भी है तो भी निराश्रवत्व, सम्वर उसके ही रहा, ऐसा क्यों कहा गया है। कर्मोदय बराबर चल रहा है, तो द्रव्यप्रत्यय जो कि विकारभाव के निमित्तभूत हैं वे चल रहे और फिर निराश्रव कह रहे सो इसका कारण क्या है? उसके उत्तर में अब आगे का कलश सुनो।