वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 116
From जैनकोष
वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् । उच्छिंदंपरवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भव- न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ॥116॥
963- ज्ञानी की निराश्रवता का तथ्य-
यहाँ श्रावकाधिकार में यह बताया जा रहा है कि जिस आत्मा ने अपने सहज स्वरूप को पहिचाना, सहज स्वरूप में अपने अस्तित्व को स्वीकार किया, ऐसा ज्ञानी पुरुष तो निराश्रव है अर्थात् अब वहाँ कर्मों का जोर नहीं, आस्रव नहीं। इस प्रकरण में यह सदा ध्यान में रखना कि द्रव्यानुयोग में जो वर्णन होता है वह बुद्धिपूर्वक का वर्णन होता है। अबुद्धिपूर्वक तत्त्व का वर्णन द्रव्यानुयोग में नहीं, करणानुयोग में है, इस कारण करणानुयोग मोटा से मोटा वर्णन करता है, और छोटा से छोटा वर्णन करता है, सूक्ष्म और स्थूल सभी प्रकरणों का वर्णन करणानुयोग में है। द्रव्यानुयोग में तो बुद्धिपूर्वक बातों का वर्णन है, ज्ञानी के ज्ञान का उपयोग सहजस्वरूप की ओर लगा है, आनंदसागर है, जिस स्वरूप में स्वयं आनंद भरा हुआ है। पदार्थ सभी निरापद हुआ करते हैं स्वयं अपने आप। तो ऐसा जो अंतस्तत्त्व है उसकी ओरजिसकी दृष्टि लगी है विषय के साधनों की ओरजिसका उपयोग नहीं है ऐसा ज्ञानी पुरुष चूँकि उसके बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोह का आस्रव नहीं है, सो उस ओर से ये निराश्रव कहलाते हैं, और चाहिए क्या? जो प्रयोग में आये, जिससे सफलता मिले, प्रगति बने वही तो एक काम की चीज है। जहाँ बुद्धिपूर्वक आस्रव न रहेगा तो अबुद्धिपूर्वक आस्रव कब तक चलेगा? तो ज्ञानी पुरुष के आस्रव की भावना का अभिप्राय नहीं है, इस कारण निराश्रव ही है। अबुद्धिपूर्वक आस्रव को आस्रव में गिना नहीं क्योंकि वह एक आनुषंगिक चीज है उसका मिटना। जब बुद्धिपूर्वक आस्रव न रहेगा तो अबुद्धिपूर्वक आस्रव अपना समय पाकर सब दूर हो जायगा। जैसे कोई वृक्ष की जड़ कट गर्द तो वृक्ष हरा होगा है खाद डालने से, पानी डालने से। जहाँ जड़ की कट गयी खाद पानी डालकर प्रयत्नपूर्वक जहाँ हरे करने की गुंजाइश ही नहीं रही, तो वह हरा कैसे रहेगा, यद्यपि हरा रहता है कुछ समय मगर वह मुरझाने की ओरही उन्मुख रहता है, इसी तरह ज्ञानी पुरुष के रहते हैं आस्रव, राग, मगर वे सब मुर्झाये हुए की ओरही रहते हैं।
964- अंतस्तत्त्व की अपनी वार्ता-
यहाँ अपने आपके अंतस्तत्त्व की बात कही जा रही है। अपने आपकी खुद की बात खुद दृष्टि में लें, खुद ध्यान में लें, खुद का खुद में प्रकाश मिल जाय तो आप यह समझें कि तीन लोक का वैभव भी न कुछ है, और आपको अपने आपके भीतर का, स्वरूप का जो प्रकाश मिला वह आपके लिए सर्वस्व है, कारण यह है कि शरण होगा आपको तो आपके स्वरूप का आश्रय शरण होगा, जगत में जो बाह्य पदार्थ हैं उनका आश्रय तो धोखे से ही भरा हुआ है, शरण की बात तो दूर ही रही, खुद ही खुद के लिए शरण है। मोटे रूप में तो प्राय: सभी कहते हैं, देहातों में भी कहते हैं कि किसी का कोई शरण नहीं, खुद के लिए खुद शरण है, पर प्राय: वहाँ इतनी ही दृष्टि रहती है कि भाई खुद अच्छा चलें, अच्छा बोलें, दूसरे का उपकार करें, हम अगर अच्छा काम करेंगे तो हम खुद के लिए खुद शरण हुए, वहाँ दृष्टि केवल इतनी है। यहाँ अध्यात्म में वह दृष्टि लेना है कि समस्त क्रियायों और चेष्टाओं से रहित जो आत्मा का सहज स्वरूप अंतस्तत्त्व है, उसमें ज्ञान जाय कि यह मैं हूँ, निष्क्रिय, रंग चेष्टारहित ऐसी भीतर में ज्ञान की अपूर्व रहे चेष्टा, ऐसी स्थिति ही इस जीव का शरण है। तो जहाँ ऐसा अंत: स्वरूप प्राप्त कर लिया ज्ञानी ने तो बुद्धिपूर्वक राग का तो त्याग ही हो जायगा। देखिये बुद्धिपूर्वक राग का त्याग हुआ, इसके दो अर्थ हैं- एक तो राग होते हुए भी याने जानकर राग कर रहा है ज्ञानी, जानकर मायने उपयोग में तो है, चेष्टा तो हो रही है मगर श्रद्धा ने काट दी है जड़, निरंतर यह प्रतीति रहती है कि ये सारी चेष्टायें ये सब मेरी नहीं है। मेरा तो सहज स्वरूप एक चैतन्य प्रकाश है। तो यों बुद्धिपूर्वक राग नहीं रहा। इससे बढ़कर और बुद्धिपूर्वक आस्रव का अभाव क्या है कि जब जीव ज्ञानस्वभाव के अनुरूप में होता तो वहाँ चेष्टा नहीं रहती है। वहाँ है बुद्धिपूर्वक आस्रव का अभाव। दोनों ही पदों में बुद्धिपूर्वक आस्रव का राग द्वेष मोह का अभाव है, अतएव ज्ञानी निराश्रव है।
965- ज्ञानी की बुद्धिपूर्वक रागपरिहरणश्री का श्रृंगार- ज्ञानी बुद्धिपूर्वक राग का निरंतर त्याग किए हुए हैं जैसे किसी का कोई इष्ट गुजर गया, जो कि घर का एक लौकिक सहारा था, और बहुत प्रिय था अचानक वह गुजर गया, तो उसकी याद वह रात दिन रखता है। कौन? जिसका कि इष्ट गुजर गया तो क्या वह खाना पीना भी बंद कर देगा? क्या वह अपना काम काज भी बंद कर देगा, या वह किसी के साथ अपना बोल चाल भी बंद कर देगा? नहीं। करता है सब कुछ मगर प्रतीति में, धुन में, वासना में याद उसकी बनी हुई है। थोड़ी देर को जितनी देर दूकान में समय लगा, दूकान में उपयोग लगा, और जरा सा भी अवकाश मिला तो झट याद करके अपने अश्रु बहाता है। तो देखो सारे काम काज करते हुए भी उसकी प्रतीति में निरंतर यही इष्ट बसा रहता है और जिस समय उसको याद विशेष आये याने बाहरी व्यग्रता न रहे तो झट उसकी याद करके दु:खी हो जाता है और अपने अश्रु बहा देता है। इसी तरह ज्ञानी जीव को इस अंत: स्वभाव की प्रतीति तो निरंतर रहती है मगर काम काज में जब लगा है पूजा, वंदना, रसोई, भोग, उपभोग आदि जब इन कामों में लगा है तब उसेयाद नहीं रहता, प्रतीति तो है मगर प्रत्यक्षपना नहीं, सामने नहीं आयी बात, लेकिन जैसे ही थोड़ा अवकाश मिला और यहाँ से बल तो यह उठा ही रहता है कि मैं अपने को स्वानुभव का अनुभव करूँ, बस जैसे अवकाश मिला, बल यहाँ से उठा ही है, यह अपनी ओर आ जाता है, अनुभूति में, चर्चा में, ज्ञान में यह अपने आपमें आ जाता है। जैसे कोई बच्चों के खेलने का ऐसा मेंढक आता है टीन का कि जिसके नीचे रार लगी हो और वहाँ पत्ती चिपका दी, जब तक वह चिपकी है तब तक वह खेल का मेंढक जमीन पर रखा है, जैसे ही वह पत्ती का लगाव मिटा कि वह मेंढक उछलकर बड़ी दूर जा गिरता है। कोई किवाड़ भी ऐसे स्प्रिंगदार आते हैं कि जिनको जब तक पकड़े रहो तब तक तो खुले रहेंगे और जब हम उसके खोलने की चेष्टा छोड़ दें तो वे स्वत: ही बंद हो जाते हैं। तो अपनी ओरआना, खिंचना यह ज्ञानी का नैसर्गिक काम है, लेकिन चारित्रमोह की प्रेरणा कहो, उसका विपाककाल कहो, जब तक इसका उपयोग विषय साधनों में रहता तब तक यह खिंचा-खिंचा फिरता है लेकिन निसर्गत: उसकी धुन, उसका आगमन, उसकी मोड़ अपने आपके स्वभाव की ओर होती है। 966- ज्ञानी की मुख्य धुन सहजपरमात्मतत्त्वानुभूति के लिये पौरुष-
भैया एक नीति बनाओ मुझको वही चाहिए मुख्य प्रधान काम मूल में कि मेरे को अपने इस सहज ज्ञानप्रकाश में यह अनुभव बने कि मैं यह हूँ, व्यर्थ की माया को क्यों मान रहे कि यह मैं हूँ, इस शकल सूरत शरीर को क्यों मानते कि यह मैं हूँ, कर्मविपाक में उठा हुआ विकल्प विचार को क्यों माना जा रहा कि मैं हूँ, जो मिट जाने वाला है, जो मायारूप है, विचार विकल्प वितर्क इनको मान रहा कि मैं हूँ, मैं तो यह निर्विकल्प अखंड सहज ज्ञानस्वभावमात्र हूँ। सोचिये, चिंतन करिये और ऐसे ही प्रयोग में अपने आपके ज्ञान को ढालें, धन्य क्षण आयेंगे कोई कि सारे विकल्प टूटकर एक इस ज्ञान स्वभाव का अनुभव होगा कि जिस अनुभव में कहीं का विकल्प नहीं और मैं खुद को जान रहा हूँ, खुद में लग रहा हूँ, यह भी विकल्प नहीं, विकल्प का नाम नहीं और वहाँ बस यह ज्ञानस्वभाव का अनुभव, उसमें एक परिणमन, यह एक चीज होगी। जहाँ सहज अद्भुत अलौकिक का अनुभव होना ही होता है, उसे फिर समझाने की जरूरत नहीं कि तुझे अनुभव हुआ कि नहीं। वह स्वयं जान जायगा क्योंकि उसके चिन्ह हैं। वह खुद समझेगा, अब उसे जगत का वह लौकिक वैभव उसके लिए कुछ न रहेगा।
967- बुद्धिपूर्वक आस्रव का संन्यास करने वाले ज्ञानी का अबुद्धिपूर्वक आस्रव को जीतने का सहज प्रयास- ज्ञानी पुरुष बुद्धिपूर्वक तो निरंतर राग का त्याग किए हुए हैं, अब रह गया अबुद्धिपूर्वक राग विकार, मायने कर्म के उदय होते हैं, उनकी झलक होती है जैसे कि सिनेमा के पर्दे पर दूर चल रहे फिल्म का निमित्त पाकर वहाँ फोटो आ जाती है ऐसा यहाँ प्रतिफलन होता है, उस प्रतिफलन को कोई रोक नहीं सकता। अबुद्धिपूर्वक विकार है, रोकने का प्रयत्न बुद्धिपूर्वक को होता है, लेकिन उसी उपाय से, स्वभावाश्रय से अबुद्धिपूर्वक विकार को भी जीतने का प्रयत्न सहज चल रहा है, वह प्रयत्न यही है कि अपने स्वभाव में रहें। स्वभावदृष्टि की जावे, यह ही अनुभव किया जावे कि मैं तो ज्ञान स्वभावमात्र हूँ, फिर समय पर सहज ही अबुद्धिपूर्वक राग दूर होगा। तो अबुद्धिपूर्वक राग को जीतने के लिए यह ज्ञानी जीव अपनी शक्ति का बार बार स्पर्श करता है। किसी कुमित्र का (खोटे दोस्त का) साथ लग जाय तो उससे छुटकारा पाने का उपाय क्या है?उससे लड़ना, यह उपाय नहीं, उससे प्रेम करना यह भी उपाय नहीं है। कुछ न करें, उपेक्षा कर जायें, समय आयगा जल्दी कि उसका संग छूट जायगा। यह कर्म उपाधि का प्रसंग और तन्निमित विभाव का प्रसंग जो उसके साथ लगा हुआ है इसको दूर करने का उपाय उन पर दृष्टि देना नहीं, कर्म और विभाव को गाली देना उपाय नहीं, किंतु उनकी उपेक्षा कर जावे और अपने सहज स्वभाव की ओर उपयोग लगा दे तो ये कर्म और विभाव ये जैसे जैसे जिस विधि से दूर होंगे, जिसकी विधि करणानुयोग मेंबतायी है, दूर हो जायेंगे। तो बुद्धिपूर्वक विकार को जीतने के लिए जीव अपनी शक्ति का स्पर्श करता है। 968- ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होने का मोड़ देने की प्रेरणा- भैया, अब इसी समय जितने शीघ्र हो उतने शीघ्र ज्ञान की जो समस्त परिवृत्ति है परिवर्तन है, कर्मस्वभाव का होना है उसका उच्छेद कर दें, ढंग बदल दें, उस सही परमार्थता को स्वीकार तो कर लें। आत्मा ज्ञानस्वरूप है उसका काम निरंतर जानते रहना है। यह ज्ञान द्वारा जाना ही करेगा। अब वह जानना किस विधि से हो रहा है बस इसी में ही संसार और मोक्ष का उपाय बना हुआ है। आत्मा ज्ञानमात्र है, अन्य कुछ करता नहीं है। तब यह ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व किस प्रकार से इसका परिणाम बने यह ही बात खास देखने की है। दर्पण तो अचेतन है, मगर कुछ स्थितियों तक इसके लिए वह दृष्टांत है पूरा दृष्टांत नहीं बनता, क्योंकि वह अचेतन है। यहाँ तक तो दृष्टि निभायेगा। यह कि सामने किसी वस्तु का सन्निधान हुआ, तत्काल स्वच्छस्वरूप दर्पण ने अपनी स्वच्छता ढककर अपने में फोटो का परिणमन कर लिया, इसी तरह कर्मविपाक रागद्वेष प्रकृति, इनका उदय हो, अपने में जब विपाक फूटा हो जैसा कि कपड़े का रंग कपड़े में ही है, मगर रंगीन कपड़े का सन्निधान पाकर दर्पण में भी उसी रंग का फोटो होता है, ऐसे ही कर्म की प्रकृति कर्म में ही है, उसमें ही उसका विपाक निकला है, मगर उसका सन्निधान पाकर उस ही प्रकार यह प्रतिफलन होता है, छाया माया यह कर्मलीला, कर्मरस ये सब उसके उपयोग में प्रतिफलन रूप में आये। यहाँ तक दर्पण का दृष्टांत निभा। अब चूँकि यह दर्पण अचेतन है तो वह यह नहीं कर सकता कि उस फोटो को वह अपना ले कि मैं तो यह ही हूँ। लेकिन यह आत्मा चूँकि चेतन है सो वह यहाँ कर डालता है, यह अपने में आया हुआ जो कर्मविपाक प्रतिफलन है उसको अपना लेता कि यह मैं हूँ, अपने सही कुल की बात तो भूल गया यह, चैतन्यकुल में मैं हूँ, यह तो वह बिल्कुल भूल गया और जो जड़ कर्मरस है उसको अपना लिया। तो जिनकी ज्ञानदृष्टि बन गई कि यों हो रहा है यह काम, यह भ्रम में बन रहा है यह सब कुछ जगजाल, मैं तो अपने में ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ, जहाँ यह दृष्टि जगी और स्वभावविभाव का यह भेद बना, बस उस समय से फूट पड़ गई, संधि में भेद आ गया, अब स्पष्ट जान रहा है कि यह मैं नहीं हूँ, यह मेरे पर बोझ है, भार है, परतत्त्व है, परभाव है, ऐसा जानता है, इस कारण उसका परभाव से अब राग नहीं लगाव नहीं। ज्ञानी कष्ट में खेद नहीं मानता। कुछ तो होता ही है, पर खेद नहीं मानता, पर अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव तो उस ही रूप अपने को अनुभव करता है इसलिए वह सदा खेदखिन्न रहता है। तो ऐसे ज्ञान की सकल में यह मोड़ आया। अज्ञानवश अनादि से उस प्रतिफलनरूप में अपने को ढाल-ढालकर उस रूप अनुभव करता आया था यह प्रकृति चली आयी, किंतु आज उसमें भंग हुआ तो यह अपने स्वभाव की ओर मुड़कर अपने को ज्ञानस्वभाव रूप अनुभवने लगा। ऐसी स्थिति में ज्ञान का ज्ञान स्वभाव से होने की बात पूर्ण करता हुआ अपने में यह जीव नित्य निराश्रव है। 969- परविविक्त निज अंतस्तत्त्व को निर्भार परखकर प्रसन्न रहने का संदेश- उस प्रसंग में हम आपको क्या उत्साह लेना चाहिए, क्या उत्साह जगना चाहिए सो भाई देखो यह भ्रम छोड़ दो कि तेरे पालने पोषने से बच्चे पलते पुसते हैं। काम तो यही बनेगा गृहस्थावस्था में जो कर रहे हैं, दूकान जायेंगे, सब कुछ करेंगे मगर मौलिक बात समझें। अगर ऐसा नियम हो कि आपके पालने से आपके रक्षा करने से यह रक्षित होता है इसलिए हम पर उनका भार है, अगर ऐसी ही बात है श्रद्धा में, प्रवृत्ति में तो यह करना ही पड़ेगा जब तक गृहस्थ हैं। गृहस्थ का और तरह से गुजारा नहीं, मगर सत्य बात तो जानो। यदि ऐसा है कि आपके परिजन का पुण्य का उदय उतना नहीं है, पाप का उदय आ गया है तो आप कभी सफल हो भी सकेंगे क्या? सिद्धांत की बात देखो। यहाँ जितने भी जीव हैं वे सब अपने-अपने कर्मोदय से ही सुखी दु:खी होते हैं और किसी भी जीव का कर्म कोई दूसरा दे नहीं सकता। जिसने जो कर्म उपार्जित किया बस वही कर्म उसके उदय में है और उसके अनुरूप उसकी स्थिति बनती है तो मैं दूसरे को क्या कर सकता हूँ? पर जब राग है तब तक आप ऐसा किए बिना ही नहीं रह सकते। बाह्य निमित्त है परिजन का पुण्योदय, अत: प्रेरणा मिलती है, आपको पर के राग से क्या लाभ मिल रहा। काम तो सारा चल रहा है, मगर सत्य बात समझने का इतना बड़ा महत्त्व है कि हर परिस्थिति में रहकर यह जीव अंत: प्रसन्न रहा करता है। तभी तो बतलाया कि नारकी जीव कटते छिदते भिदते हैं? फिर भी वे अंत: प्रसन्न रहते हैं। इतनी विपत्ति में भी रहकर भीतर प्रसन्न रह सकें, यह किसका बल है?ज्ञानदृष्टि का। देव जो ज्ञानी हैं वे भलेभले पुरुष देवांगनावों के बीच रहकर भी तरह तरह के सांसारिक सुखों के बीच रहकर भी अंत: प्रसन्न रहते हैं। इसका कारण क्या है? ज्ञानदृष्टि। दु:ख में भी संकट है, सुख में भी संकट है आकुलता है। तो जहाँ भोगसाधन बहुत मिले हों और यह उपयोग बाहर-बाहर की ओर चला करे तो इसमें आकुलता नहीं है क्या? वह मोह में मानता नहीं, पर भीतर में तो आकुलता उसके बराबर चल रही है। तब ही तो वह उचक-उचककर विषयों के समूह में दौड़ता है। विषयसंबंधी तृष्णा में इतनी आकुलता है कि वह उसके लिए चेष्टायें करता, विकल्प मचाता, जहाँ विकल्प उठते हैं वहाँ क्लेश ही क्लेश हैं। 970- स्वनिधि की भान व आदान की शान-
ज्ञानी, देवजन भी सांसारिक सुखों के विषय के बीच पड़े हुए अंत: प्रसन्न रहा करते हैं। तो किसका बल है? यह अंत: स्वभाव में अपने आपको स्वीकार करने का बल है, यह बात यहाँ मनुष्यों में आप निरखते जाइये, जिसको ज्ञान जगा है भीतर स्वभावदृष्टि बनी है, कुछ परिस्थिति ऐसी होती है कि उस परिस्थितियों में वह गुजर रहा है, व्यवहार करता है फिर भी अपने इस आनंदमय स्वरूप कोभूलता नहीं है।प्रतीति में है उसके। कोई बड़ी निधि मिल जाय किसी याचक को तो उसकी वह इतनी खुशी मानता है कि निरंतर उसकी याद रहती है। और, उस याद में, उस अनुभूति में यह जीव अंत: प्रसन्न रहता है। घर में निधि गड़ी है तो वह गरीबी का अनुभव करता है और कष्ट भोगता है। अगर घर में गड़ी हुई निधि का भान भी हो जाय कि मेरे घर में निधि गड़ी है और उसे वह निकाल भी नहीं पाया और उस दारिद्रय की परिस्थिति में सूखा रूखा खाकर ही गुजारा कर रहा है, पर उसके अंदर एक ठसक जरूर आ जाती है कि मेरे घर में यह निधि गड़ी है।तो एक तो उस निधि के माल की शान और दूसरे वह उपाय करे और उस निधि को ग्रहण कर ले, पा ले तो उसकी शान उससे भी अधिक हो जाती है। तो सम्यग्दृष्टि ने तो अभी अपनी निधि का भान किया है। जाना है तो इस ज्ञान भी बड़ा प्रभाव है कि वह अपने आपमें एक ठसक रखता है मायने एक बल रखता है, प्रसन्न रहता है, साहस रखता है, जिससे उपद्रवों को, कष्टों को बड़े हर्ष से सह लेता है। और जब यह उपाय करे, अनुभव बनाये और उस निधि को हस्तगत कर ले, प्रत्यक्ष कर ले, अपने ज्ञान में समाये रहे। ऐसी स्थिति अगर पा ले तो इस ज्ञानी की स्थिति एक बड़े शान की होती है। बस यही तो बात आयी। यह आध्यात्मिक कथन यह सब ठीक चल रहा। अगर स्वानुभव के लिए चले तो बस वहाँ विघ्न होता है। क्या? कि घर की खबर, बच्चों की खबर। चूँकि वस्त्रादिक के परिग्रह रखे हैं ना, तो वे बाधक होते हैं आत्मा के स्वानुभव में लगे रहने के पौरुष में। इस कारण इनका त्याग है बस, यह है चरणानुयोग का तथ्य।अतएव उस ज्ञानी पुरुष के अपने स्वभाव में अभिमुख होने के कारण, उसका परिचय, अनुभव होने के कारण बुद्धिपूर्वक आस्रव तो दूर हो गया और अबुद्धिपूर्वक आस्रव को दूर करने का निरंतर प्रयत्न चल रहा है। ऐसी स्थिति में इसका ज्ञान ऐसा प्रसिद्ध हो गया कि वह तो निराश्रव है, वंदनीय है, आदरणीय है, क्योंकि उसकी दृष्टि इस ओरलगी है और इस ओरजुटने का प्रयत्न चल रहा है। हमको यह भली प्रकार निर्णय रखना चाहिए कि मेरा जीवन परिजन, धन वैभव इनके लगाव के लिए नहीं है, इसमें तो हम धोखा खा जायेंगे, दुर्गति में रहना होगा। मेरा जीवन तो अपने आपमें इस सहज अंतस्तत्त्व में यह मैं हूँ- ऐसा अनुभव बनाये रहने के लिए है।