वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 128
From जैनकोष
भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलंभ: । अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरेस्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षय: कर्ममोक्ष: ॥128॥
1026- पर की महिमा का भान छोड़कर अपनी महिमा समझने का अनुरोध- यह जीव खुद अपने लिए महान है, शरण है, पर अपनी महिमा को भूल गया और कैसा पाप का उदय है कि बाह्य वस्तु की महिमा को यह समझ रहा, इसे पाप का ही उदय कहना चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्व का उदय महापाप का उदय कहलाता है। हम अपने आपकी निधि को पहिचानें नहीं, अपनी निधि को समझें नहीं, और बाहरी पदार्थों की महिमा गाया करें तो ऐसा करते-करते जीव का अनंतकाल गुजर गया, मगर यह जीव उस ही दंदफंद में, जन्म मरण में पड़ा हुआ है। यह भव पाया है दुर्लभ, तो यहाँ गृहस्थ होने के कारण आपको करना तो पड रहा है सब कुछ, मगर धुन, ध्यान, दृष्टि, लक्ष्य यह ही बनाना होगा कि मैं अपने स्वरूप को समझूँ और उस ही में तृप्त रहूँ जिससे कि संसार के जन्म मरण संकट सदा के लिए छूट जायें। बाकी पर की महिमा गाने से लाभ क्या पा लेंगे इस जीवन में? मानों कभी संपदा भी बढ़ गई तो वह संपदा क्या है? पौद्गलिक चीज है। आपसे भिन्न है, उसके कारण कहीं शांति नहीं आया करती।शांति तो अपने महिमा वाले ज्ञान से समझिये, स्वावलंबन से ही शांति होगी। शांति बाहरी पदार्थ से नहीं होती, इसमें तो और तृष्णा ही बढ़ती है। तो बाहरी पदार्थों की महिमा का गान करना छोड़ दें और अपने आपकी स्वरूप की महिमा का गान करें, जैसे जो कोई किसी वस्तु में बहुत कुछ तकलीफ पा चुका हो किसी संसर्ग में, तो जैसे वह उपेक्षा कर देता, अब उसे उस बात का प्रयोजन नहीं, न ही हठ है कि मैं तो यही रहूँगा, तो जब संसार में अनंत काल जन्ममरण की विडंबना में सह-सहकर अपने को दु:खी किया तो अब तो यह बनावें अपना दृढ़ संकल्प कि मैं अब पर की महिमा न गाऊँगा, पर पदार्थ में महिमा की कोई बात ही नहीं मेरे लिए, मैं तो अपनी महिमा को निरखूँगा और उसी महिमा में रत होऊँगा। 1027- अपने अंतस्तत्त्व की महिमा-
वह क्या है अपनी महिमा? जो मेरा असल परमार्थ निरपेक्ष सत्ता के कारण जो मेरा स्वयं सहज स्वरूप है यह स्वरूप ऐसी महिमा वाला है कि यदि उस स्वरूप में ही मैं रहूँ, उस स्वरूपमात्र ही अपने को मानकर रहूँ तो उस स्वरूप का इतना अतुल विकास होगा कि तीन लोक अलोक के समस्त पदार्थ एक साथ इसमें प्रतिबिंबित हो जायेंगे। तीन लोक का ज्ञाता हो उससे बढ़कर किसकी महिमा कहें? मुझे केवलज्ञान हो जाय, मैं तीन लोक का ज्ञाता हो जाऊँ यह इच्छा भी आवरण हो गया, यह भी बाधा हैं, और इससे क्या मतलब? तीन लोक का ज्ञाता होवे तो क्या, न होवे तो क्या? यदि अपने स्वरूप में अपना ज्ञान बना है, बसा है तो निराकुलता है, अब इसके फल में जो होना, सो स्वयमेव होगा, इससे आगे और कोई फल न चाहिए। केवल एक ही निर्णय, एक ही अपनी धुन कि मैं अपने स्वरूप को जानूँ, अपनी महिमा को पहचानूँ और उसमें ही खुश रहूँ।
1028- बाह्यपदार्थप्रसंग में लगाव तजने में ही हित-
बाहरी पदार्थों के संग प्रसंग के क्लेश के अनेक उदाहरण तो सामने पड़े हैं। यदि कोई एक घर के लोग बड़ी अच्छी तरह से रह रहे, बड़े अच्छे लड़के हैं, आज्ञाकारी है, सब मौज बन रहा है, बड़े अनुकूल बन रहे हैं उसे एक अपना घर कोई समझ ले और उसमें रहकर बड़ा मौज माने तो इतने मात्र से काम क्या बनता? तो बताओ आप एक ऐसे ही मनुष्य भर ही हैं क्या, और कुछ नहीं बन सकते क्या? जैसे और परिवार के आदमी हैं किसी की किसी से कलह रहती, किसी की स्त्री और पति की कलह रहती, उनमें आपस में सुविधा सब कुछ होने पर भी एक फूट होने के कारण तकलीफ चल रही है यदि ऐसी बातें जब सर्वत्र दिख रही है तो आप उनमें से नहीं हो सकते थे क्या? आज अगर अच्छे परिवार में हुए, मौज में हुए तो इसका क्या भरोसा? ये सब रहेंगे क्या? ये छूटेंगे नहीं क्या? और आज ऐसे हैं कल का कुछ पता नहीं। जो आज अनुकूल है कल प्रतिकूल हो सकते। तो यह सारा संसार दु:खमय है, किसी भी परतत्त्व से मेरे को कोई सुधार नहीं होता। मैं सुधरा हुआ हूँ तो पर पदार्थ वे हमारे आनंद में मौज में एक सहायक हो गए, बाह्य कारण बन गए और खुद में सुधार न हो फिर और कोई दूसरा मददगार बने लौकिक दृष्टि से, ऐसा तो नहीं होता। आज दिमाग ठीक है, प्रतिष्ठा है, मान लो किसी का दिमाग बिगड़ गया, गलियों में फिरने लगा और ऐसे ही पागलपने में वर्षों गुजर गये तो उसके कोई घर का मददगार बनता है क्या कि यह मेरा अमुक है, इसकी मदद करें। इसको आराम से रखें...। अरे अब जान लिया कि यह दिमाग से पूरा बिगड़ चुका, अब इसका संबंध रखने से हमको कोई लाभ नहीं, तो उसके लोग उसे छोड़ देते। संसार में कौनसी परिस्थिति ऐसी है जो मौज मानने लायक है। ये सब परिस्थितियाँ एक बाह्य हैं। उनसे मेरे को कुछ लगाव नहीं। लाभ है तो अपने आपकी महिमा होने में लाभ है।धर्मकरें। जब तक संसार है तब तक अच्छे अच्छे भव मिलेंगे, मुक्ति हो जायगी। लाभ ही लाभ है अपने आपको। पर पदार्थ से नाता जोड़ने में नुकसान ही नुकसान है।
1029- श्रद्धा में परिहार की नितांत आवश्यकता-
भैया, वर्तमान परिस्थिति है, गृहस्थावस्था है, सारे काम करने होते हैं, इतने पर भी दृष्टि अगर विशुद्ध रहेगी तो आप अपने लिए शरण बन जायेंगे। अगर दृष्टि निर्मल न रही तो कभी भी अपना भला नहीं हो सकता। तो अपनी महिमा में रत होने का प्रयत्न रखिये। क्या महिमा है अपने सहज स्वरूप की। देखिये ऐसी बुद्धि व्यवस्थित करने के लिए बड़ा त्याग करना पड़ेगा। कितना त्याग करना पड़ेगा? सबका त्याग करना पड़ेगा, अरे, तब तो यह बड़ी कठिन बात है। कठिन बात नहीं है, ध्यान से समझो अपने आपको, सबका त्याग किए बिना स्वरूप की समझ नहीं बन सकती। सबका मायने घर का?...हाँ।...परिवार का?...हाँ।...तो आप कहेंगे कि अच्छे उपदेशक आये। भैया, अभी यों त्याग करने की बात नहीं कह रहे, पर ज्ञान में यह तो लावो कि मेरे स्वरूप में कोई पर पदार्थ मिला ही नहीं है। ज्ञान में त्याग की बात तो पूरी लेनी ही पड़ेगी। बाहरी त्याग की बात जुदी है, उसकी कुछ चर्चा नहीं कर रहे, पर ज्ञान में सबका त्याग हुये बिना अपने आत्मा के स्वरूप का दर्शन कर पाये यह कभी संभव नहीं। कैसे त्यागें? जान लो, इतना तो जानते हो, जैसे मान लो यह घड़ी है तो इस घड़ी में और कोई बाकी चीजें घुसी है क्या, या यह ही है, घड़ी में तो घड़ी है, और चीजें तो नहीं घुसी हैं, जैसे यहाँ यह बात समझ में आती कि घड़ी में घड़ी है, उसमें कोई दूसरी चीज नहीं घुसी, यह ही समझ अपने में बना लें, मेरे में मैं ही हूँ, इसमें दूसरी चीज कुछ नहीं घुसी, यह सत्य बात है तो ऐसा मान लो कि अंत: नहीं घुसा कुछ, मुझमें किसी पर का प्रवेश नहीं। सभी पदार्थ अलग ही तो रह रहे, वे अपनी सत्ता में हैं। यह मैं अपने आपमें हूँ, उन सबका त्याग करता हूँ, अज्ञानी ही यह मानें कि मेरे में तो यह है, कौन कहता कि यह मेरा लड़का नहीं? मेरे घर में पैदा हुआ, मेरी बात मानता है, मेरा कैसे नहीं है। अरे ये लौकिक बातें छोड़ दो। यह बात बतलावो कि आपका जो स्वरूप है, जो भीतर ज्ञानमय तत्त्व है, जितने प्रदेश में है उसमें भी इन लड़कों का दखल है क्या? यह उसमें प्रवेश कर गया क्या? कोई इससे भी जुटा हुआ है क्या? है ना अलग, तो अपने ज्ञानस्वरूप को निरखो सही-सही रूप में तो एक रास्ता मिल जायगा इसी समय शांत होने का, और ऐसा अपने आपका स्वरूप पाये बिना कभी भी शांति हो ही नहीं सकती। और, फिर कितने दिनों की बात? जीवन कितने दिन का है? अनंतकाल के सामने यह 100-50 वर्ष का जीवन कुछ गिनती भी रखता है क्या? ध्यान में तो लावो कुछ बात। अपनी महिमा को पहिचानो। ‘‘लाख बात की बात यही निश्चय उर लावो। तोडि सकल जग दंद फंद निज आतम ध्यावो।’’ इसकी महिमा है केवल ज्ञान प्रतिभास। जिन बातों को आप स्पष्ट समझते, जिसके पीछे आप तन, मन, धन, वचन, प्राण सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहते उन उनका लगाव आपका पूरा दुश्मन है। लगाव परिजन से नहीं कर रहे। बच्चे दुश्मन नहीं, स्त्री दुश्मन नहीं, पति दुश्मन नहीं, घर दुश्मन नहीं, पर इन पर पदार्थों के प्रति ऐसा लगाव कि यह मेरा ही तो है, कौन कहता कि मेरा नहीं?ऐसे मेरेपन का लो भीतर में लगाव वाला ज्ञानविकल्प बसा, ऐसा जो लगाव, बस यह ही हम आपका पूरा दुश्मन है जो परमात्मस्वरूप का दर्शन नहीं होने देता।
1030- निर्मोह होकर जीवन बिताने का संदेश- निर्मोह होकर घर में रहना नहीं बनता क्या? निर्मोह रहकर भी गृहस्थ घर में रह सकता। मोह का अर्थ राग नहीं, मोह का अर्थ है अज्ञान। अज्ञान हटाकर भी घर में रहा जा सकता। निर्मोह मायने अज्ञानरहित। मोह का अर्थ प्रीति नहीं, प्रीति तो चलेगी, प्रीति बिना गृहस्थी में कोई रह नहीं सकता, पर अज्ञानरहित होकर घर में रहा जा सकता है। वह अज्ञान दूर करना, अपनी महिमा को पहिचानना।तो अपनी महिमा में जो रत हैं, लीन हैं ऐसे ज्ञानी जनों को भेदविज्ञान की शक्ति से अपने आपमें बसे हुए शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि होती है। मेरे में मैं हूँ, मेरे में और कोई नहीं, मैं मैं हूँ, मैं अन्यरूप नहीं। मैं ज्ञान ज्ञानमात्र हूँ, इस मेरे का जगत के अणुमात्र से भी ताल्लुक नहीं, संबंध नहीं, बात यह सही है कि नहीं? सही है। नहीं तो पहले इस बात पर ही निर्णय बना लें कि यह गलत है क्या? मेरे आत्मा का एक अणु मात्र से भी संबंध नहीं, बात सही है तो ऐसी ही बात जान लो, विश्वास में लावो, अब अपने आपकी महिमा समझने के लिए एक अपने उपयोग का उद्यम करो, यह महिमा समझी गई भेदविज्ञान के बल से। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, मेरे में दूसरी चीज नहीं आती। कर्मों के उदय होते हैं, उनका प्रतिफलन होता है, तो यह मुझ ज्ञानस्वरूप की ही कला है कि जो हो सो ज्ञेय बने। मगर ज्ञेय तक ही तो रहे यह जीव, उसके आगे बढ़ाकि राग करने लगा। ज्ञान की तो छुट्टी है। जितना चाहें आप ज्ञान करते रहें, पर का करें, स्व का करें, किसी का करें, मगर उस ज्ञान के साथ राग, इष्ट अनिष्टबुद्धि तरंग, यह न आनी चाहिए। मगर इस पद में, इस स्थिति में जो जानने के साथ ही कोई तरंग उठी जहाँ किसी चीज को भी जान लेने पर वह प्रतिषेध्य है, जिससे अधिक प्रयोजन भी नहीं, कहीं दो हवाई जहाज उड़ रहे हों, एक का तो बड़ा चमकदार सफेद रंग है और एक का मटमैला है तो उस चमकदार को देखकर मन कर जाता कि देखते रहें, यह बड़ा अच्छा है। और अच्छा तो है पर तुम्हें मिल क्या जायगा? तो प्रयोजन भी कुछ नहीं, मिलना जुलना भी कुछ नहीं मगर ऐसी आदत पड़ी है कि इष्ट अनिष्ट की बुद्धि उनमें कर डालते। जबकि तत्त्वज्ञान के मान पथिक को अपने घर में रहने वालों में भी उस नाते से इष्ट अनिष्ट की बुद्धि न जगना चाहिए, फिर जिससे कुछ प्रयोजन नहीं उनको देखकर तरंग उठ जाती है, ये सब चीजें परमात्मतत्त्व के दर्शन बाधक हैं। 1031- वर्तमान जीवन का अमूल्य लाभ सहज स्वरूप का अवलंबन- इस जीवन का ऐसा अमूल्य लाभ लीजिए अनुपम लाभ कि कहते तो यों हैं कि फिर से मुझे माँ का दूध न पीना पड़े याने ऐसा हो तो नहीं सकता अभी, मोक्ष होगा तो मनुष्यभव से होगा और बच्चे होंगे तो माँ का दूध पीना पड़ेगा। तो माँ का दूध न पीना पड़े, मायने जन्म न लेना पड़े। ऐसा एक अपने आपमें भाव हो कि मुझे फिर जन्म न लेना पड़े। इस काल के भव के बाद जन्म तो लेना पड़ेगा मगर देखो तो अपना स्वरूप। जन्मरहित स्वरूप है इसका। अपने आपके सहज स्वरूप को देखो, यह किसने सिखाया,भेदविज्ञान ने। तो भेदविज्ञान के बल से ही जब हम अपनी महिमा में लीन बन जायेंगे तो हमको उस शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति होगी। अकेलापन देखो,अपने आपको आत्मा, अकेला स्वयं, प्योर, अकेला मात्र यह आत्मा क्या है, सो यह ही निगाह में रखना है। इसी से धर्म का पालन होगा। अगर यह बात निगाह में नहीं आ पाती तो मोक्षमार्ग जरा भी नहीं बना हुआ है, और यह बात आती है तो बाकी तो फिर चलेगा, जो जिस पद में है उसके अनुकूल वातावरण चलेगा, करना होगा, होता ही है वह सब, मगर अपनी महिमा जिनको ज्ञात नहीं है उनसे कुछ भी नहीं होता। 1032- ज्ञानी पुरुषों को सन्मार्ग का स्पष्ट दर्शन-
ज्ञानी पुरुष याने जो भी निर्मोह दिखे तो उनकी मोहरहित स्थिति को देखकर अज्ञानी जन तो आश्चर्य मानते कि ऐसा हो कैसे जाता? मगर जिन्होंने अपने स्वरूप को पहिचाना उनको कुछ आश्रय नहीं होगा, उनकी धुन केवल अपने स्वरूप में होने की रहती है। उनसे बाकी सब चीजें छूट जाती है, तृष्णा के तरंग आदि। यह मोह की स्त्री है तृष्णा, ये दोनों एक दूसरे के बढने में परस्पर सहयोगी है, साधक है, परपदार्थ के प्रति जिसकी तृष्णा का, ममता का गहरा रंग है, भला इस सहज सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन की पात्रता हो भी सकती क्या? काम तो सब उसी विधि से बनेगा। जिस विधि से जो काम बनता है वह उसी विधि से। जो काम बना है वह उसी विधि से बनेगा। तृष्णा भी रखी जाय और धर्म भी करते जायें, ममता भी करें और धर्म भी करते रहें, ये दो बातें नहीं बनती। सोचना होगा अपने आपको सबसे निराला। केवल अनुभव करना होगा स्वयं को। धन्य हैं वे जीव जो अपनी महिमा को पहिचान गए और जिनका अपनी महिमा में लीन होने का उद्यम रहता है, ऐसे पुरुषों को शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति होती है, और जिसको इस शुद्ध ज्ञानतत्त्व की प्राप्ति हुई वह सब अन्य द्रव्यों से दूर ही स्थित है। अब उसे निरंतर यही शुद्ध तत्त्व नजर आ रहा। दृष्टि में आ रहा तो उसके तो नियम से कर्मक्षय होगा, विशुद्ध स्वयं जो जो है सो ही प्रकट हो जायगा।
1033- विदेशी हुकूमत की असह्यता-
जैसे किसी देश में किसी विदेशी शक्ति की हुकूमत चल रही है, जैसे हिंदुस्तान में यह ही तो था पहले विदेशी लोगों का शासन था उस समय में बड़ा मौज चाहे मिल रहा हो तो भी मैं दूसरों के अधीन हूँ, मुझ पर दूसरे देश के लोग भी राज्य करते हैं, यह बात नहीं सही जा रही थी, चाहे आज उससे कठिन स्थिति में हों महंगाई या और कुछ, ब्लेक-लड़ाई झगड़े रिस्वत वगैरह बहुत-बहुत कष्ट बढ़ गए हों जो पहले न थे जबकि देश परतंत्र था मगर यह बात सहन नहीं हो रही थी कि मैं दूसरे देश वालों के शासन में रहूं। परतंत्रता किसी को पसंद नहीं। अब यहाँ देखो अपने आत्मा पर संघर्ष चल रहा है विभावों का स्वभाव के साथ, इन कर्मों का जीव पदार्थों के साथ। अब तक इसने विदेशी हुकूमत की शासन को ही पसंद किया, याने पौद्गलिक कर्म का जो प्रतिफलन है बस उस कर्मस्वभाव के साथ अपने ज्ञान को बनाना यह ही पसंद किया है और उसका फल यह है कि हम चारों गतियों में भटक रहे हैं, विदेशी हुकूमत हम पर चली आ रही थी और उसके फल में चारों गतियों में डुलते फिर रहे थे, लेकिन यह विदेशी हुकूमत कब तक चलेगी, जब तक कि आप अपनी महिमा को न पहिचानेंगे तो यह विदेशी हुकूमत यह सब प्रतिफलन कर्मस्वभाव कुछ ही बने, उसी रूप में अपनी परिणति बनेगी, ये सब बातें चलती रहेगी। बोलो विदेशी हुकूमत में कुछ थोड़ाबहुत सुख भी है क्या? भले ही लौकिक परतंत्र देश में लौकिक सुख मिल जायें मगर कर्मों की इस विदेशी हुकूमत में यहाँ लौकिक सुख भी कुछ नहीं मिलता। केवल एक कल्पना ही की जाती है। ऐसी मोहनीय धूल पड़ी है कि दु:ख पा रहे हैं और सुख मान रहे हैं। पंचेंद्रिय के विषयों की प्रवृत्ति में खूब भले प्रकार परख कर लो- भीतर में धक्का आकुलतायें निरंतर चलती हैं। शांति रंच मात्र भी नहीं, मगर मोह की धूल ऐसी पड़ी है उन विषयों में ही सुख मान रहे, हो रहा दु:ख खूब पहिचान लो भली प्रकार, कितनी व्यग्रता है, स्पर्शन इंद्रिय का भोग, विषय प्रसंग, मैथुनसेवन या प्रीति का आदान प्रदान, बड़ा आकर्षक परस्पर वचन बोलना, इन सब स्थितियों में व्यग्रता है। व्यग्रता बिना यह प्रवृत्ति बन ही नहीं सकती। जो व्यग्र न होगा वह तो शांत स्थित रहेगा, वह कोई प्रवृत्ति क्यों करेगा? वह किसी तरह की चेष्टा क्यों करेगा? जो इंद्रिय विषयों के भोगों में चेष्टा करता है यह चेष्टा ही इसका अनुमापक है कि इसके भीतर में व्यग्रता है, कठिन दु:ख हुआ है और उसे मेटने के लिए यह विषय भोगों में प्रवृत्त हो रहा, पर मिटता तो नहीं। जैसे खून का दाग खून से नहीं धुलता, ऐसे ही इंद्रिय विषयों की इच्छा से होने वाले दु:ख इंद्रिय विषयों के भोग से कभी नहीं मिट सकते।
1034- अपनी महिमा में रत होने वाले अंतरात्मा के ही कर्मक्षय की संभवता-
अपनी महिमा पहिचानें, यह स्वयं अपने स्वभाव में कैसी महिमा वाला है।जहाँ शांति-शांति बसी सहज आनंद का जो धाम है, केवल ज्ञातादृष्टा रहने में, मात्र जाननहार रहने में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं। तो यह ही तो चाहते हैं कि मेरा कष्ट दूर हो, उसी की तो यह चिकित्सा चल रही है कि हमारे कष्ट इस तरह दूर होंगे, बाह्य पदार्थों के प्रसंग में ममता से, तृष्णा से कष्ट दूर नहीं हो सकता। तो यों जिसने अपनी महिमा पहिचानी है, अपने अंत: प्रकाशमान शुद्धआत्मतत्त्व की प्राप्ति कर लिया है वह अब विचलित नहीं होता, सो एक अचल ढंग से जिस शुद्ध तत्त्व की प्राप्ति की है उसमें ही उपयोग लगाकर बाहरी सब पदार्थों से उपयोग हटा लीजिए। कर्मों का क्षय तो होना ही पड़ेगा। ये कर्म तब लगे हैं जब हम इनमें लगाव रखते हैं। दूसरे महिमान आपके घर आते हैं रोज-रोज जब आप उनको प्रेम दिखाते हैं तो वे आपके घर कई दिन ठहर जाते और प्रेम न दिखावें तो फिर वह महिमान कैसे टिकेगा? ये पौद्गलिक कर्म जब आते हैं तब हम इन पौद्गलिक कर्मों के प्रतिफलन में, कलावों में अपना लगाव रखते हैं। महिमान में आप अपना लगाव न रखें, प्रीति तो करना चाहिए। और यहाँ सब चतुर हैं। महिमान से कोई लगाव नहीं रखता। प्रीति तो होती है। आप ही जानते आपके दामाद भी है, लड़का भी है, तो लगाव आपका दामाद में होता कि लड़के में? प्रीति तो दामाद में लड़के से भी अधिक बन जायगी, किंतु प्राय: लगाव नहीं, जान लिया कि यह पर घर का है। कुछ हो यह बात अलग है, पर प्राय: बात आप देखो- महिमान मायने क्या? महिमा न। जिसकी कोई महिमा नहीं उसका नाम है महिमान। महिमान की महिमा नहीं होती आपके दिल में। वही बात यहाँ रखें कि ये कर्म महिमान हैं, और कहावत भी ऐसी कहते कि कितने दिन का महिमान? तो ये पौद्गलिक कर्म है। इनके लगाव में, इनके फल के लगाव में इस जीव ने इनकी संतति बढ़ा रखी है। सो लगाव जब न हो और अपने आपमें स्थित हो तो कर्मों का क्षय तो होना ही पड़ेगा। कर्मक्षय हुआ कि सदा के लिए संकटों से दूर हो गए।