वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 129
From जैनकोष
संपद्यते संवर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलंभात् ।
स भेदविज्ञानत एव तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ॥129॥
1035- शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि से मोक्षमूलोपायभूत संवर का संपादन-
इस समय यहाँ हम आप सब संसारी जीवों के विभावों की अपवित्रतापड़ी हुई है। ये विभाव बने है अपनी परिणति से, किंतु यहाँ निमित्त है कर्मविपाक और ये कर्मविपाक बने कैसे? कर्म का बंध हुआ था सो उदय में आकर इनका विपाक बना, बंध क्यों हुआ था? कर्म आये, कर्मत्व बना, आस्रव बना, आया, उसके साथ ही बंध हुआ, तो हम आपके अनर्थ की जड़ हैं आस्रव और बंध । 7 तत्त्वों में आस्रव और बंध ये सब अनर्थ की जड़ है। इनका अभाव होना ही कल्याण का उपाय है। आस्रव का अभाव होना उसके मायने है सम्वर, याने अब नवीन कर्म न आये, यह उपाय पहले बनाना होगा। जैसे जिस नाव में छेद है, पानी आ रहा है और उससे पानी में डूबने का खतरा है तो उस नाव से बचने का उपाय क्या है? नाव में आये हुए पानी को उलीचना, दूर कर देना। मगर यहाँ तो पानी को उलीचा जाय और छेद से पानी बराबर आता जाय तो इससे तो सफलता न मिलेगी। तो पहला काम है कि पानी के छिद्रों को रोक देना बंद कर देना ताकि नया और पानी न आये और पहले का आया हुआ पानी यहाँ से हटा दिया जाय तो नाव भली प्रकार पार हो जायगी। इसी प्रकार संसारसमुद्र में हम आपकी यह नैया मझधार में पड़ी और यह वजनदार बन गई जिससे यह संसार में ही चारों गतियों में रुल रहा है। इसके उद्धार का उपाय क्या है? पहला उपाय तो यह करना कि जो कर्मों के आने का द्वार है, आस्रव है उस आस्रव को रोकना, मायने सम्वर करना, मन, वचन, काय की चेष्टा के निमित्त से जो आत्मा में बौखलाहट चलती है वह न रहे तो सम्वर हो जायगा। जहाँ नये कर्मों का आना बंद हुआ और पहले के बाँधे हुए कर्मों की निर्जरा हुई तो ऐसा होते-होते कोई निकट समय आयगा कि कर्मों के भार से बिल्कुल रहित हो जायगा।
1036- भेदविज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि-
यहाँ यह बात जानना कि सभी कर्मों का सम्वर एक साथ नहीं हो पाता। जैसे पानी के छेद को बंद भी करे तो भी कुछ न कुछ आता रहता है, मगर कुछ समय बाद वह बिल्कुल बंद हो जाता, ऐसे ही जब हम मोक्षमार्ग की ओर अपना मुख डालते हैं याने हमारा ज्ञान अविकार स्वभाव की ओर अपना चलता है तो उस समय कुछ सम्वर होता है मगर जो अधिक खतरनाक प्रकृतियाँ हैं उनका सम्वर पहले होता, रहा सहा थोड़ा काम यह होता रहेगा। तो सम्वर कैसे होता है? यह होता है शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से, याने अपने आत्मा का जो सहज स्वरूप है, अविकार स्वरूप है ज्ञानमात्र, वही ध्यान में रहे, वही उपयोग में रहे तो सम्वर बनता है और वह भेदविज्ञान से ही हो सकेगा। याने आत्मतत्त्व की उपलब्धि भेदविज्ञान से होती है और आत्मस्वरूप की प्राप्ति याने जानकारी और आस्था होने से सम्वर होता है, तो शिक्षा यह निकली कि भेदविज्ञान की बहुत-बहुत भावना करना चाहिए।
1037- भेदविज्ञान से प्राप्त शुद्धात्मतत्त्व के उपयोग से रागादिक का शमन-
यह राग आग दहे सदा ये जगत के जीव मानो ईंधन सा बन रहे और उनको राग आग जला रही है। उस राग की आग का शमन करने का उपाय समतारूपी जल है, याने रागद्वेष न जगें, इष्ट वियोग में प्रीति, अनिष्ट विषयों में द्वेष, ऐसी राग विरोध की बात न बने एक समता परिणाम रहे तो उस समता जल से वह सब राग आग शांत की जा सकती। वर्तमान में दु:ख क्या है? सब लोग अपने आपमें दृष्टिपात तो करें, दु:ख नाम किसका है? कोई कहेगा कि हमको इतना धनलाभ नहीं है, हमारा यह काम रुका है, अभी हमारा मकान नहीं बना है इस कारण से दु:ख है, पुत्र, आज्ञा नहीं मानते हैं इस कारण से दु:ख है, अच्छा तो जिसके मकान अच्छा बना है, परिवार भी आज्ञाकारी है उनसे जाकर पूछो कि तुमको दु:ख है कि सुख है? यद्यपि वे सामने आकर कहेंगे कि हम खूब सुखी हैं, मगर उसके ये वचन एक व्यग्रतापूर्व निकले। कोई शांत मुद्रा में तो नहीं निकले, वहाँ तो बोलने की बात ही नहीं आती। वह तो शुद्ध आनंदामृत का पान करता। संसार के सुख जो भोग रहे हैं उनमेंभीव्यग्रता है और जिसे लोग दु:ख कहते हैं उसमें भी व्यग्रता है, क्योंकि व्यग्रता का मूल कारण है बाहरी परपदार्थों का आश्रय करके विकल्प बनाना। यह है आकुलता का मूल कारण। चाहे इष्ट पुत्र मित्र का उपयोग करके विकल्प बनाये, वहाँ भी व्यग्रता आयी, चाहे अनिष्ट तत्त्व का विकल्प करे वहाँ भी व्यग्रता। जहाँ कोई अनात्मतत्त्व हमारे उपयोग में न बसे और केवल एक सहज ज्ञानानंद स्वरूप यह अंतस्तत्त्व ही उपयोग में रहे तो इसे कहते हैं अनाकुलता। आकुलता में कर्मों का आस्रव है, कर्मों का बंध है और निराकुलता में सहज आनंद की स्थिति, कर्मों का निर्जरण, कर्मों का सम्वर, श्रेयोमार्ग में गमन है। आकुलता मिटाना है तो तत्काल इसी समय लो, मिटा सकते हो। अगर अपने को अनाकुल रखना है तो उसका उपाय बताया कि अपने विशुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि करें याने इन विषय कषायों का उद्यम छोड़ दें और अपने में अंत: प्रकाशमान जो सहज चैतन्य स्वरूप है उस उस रूप अपने को अनुभव करें कि मैं यह हूँ, आकुलता समाप्त हो जायगी, इसी को कहते हैं सम्वर तत्त्व।
1038- निज सहज अंतस्तत्त्व के परिचय बिना सांसारिक दुर्दशायें-
भेदविज्ञान से निज शुद्ध आत्मा की उपलब्धि हुई और शुद्ध आत्मा की उपलब्धि से सम्वर तत्त्व बना। यह जीव अपने आत्मस्वरूप में है, और जो आत्मप्रदेश में कर्मों की झलक हुई है, विपाक का प्रतिफलन हुआ है उसमें भेद नहीं मान पाता कि यह तो पर तत्त्व है और मैं चैतन्य स्वरूप हूँ। जैसे दर्पण के सामने कोई रंगीन चित्र रखा है तो उसका प्रतिबिंब हुआ दर्पण में और, यहाँ हम समझते हैं ना, कि दर्पण में जो यह रंगीन फोटो आयी है वह दर्पण की निज की चीज नहीं है, यह उसकी फोटो है, मायने उसके सदृश यहाँ यह आकार बना है। उसका निमित्त पाकर यहाँ दर्पण की यह निज की चीज नहीं तो जैसे यहाँ यह भेद कर सकते हैं, ऐसे ही अपने आपके आत्मा के अंदर भी तो भेद डालें। ये परभाव, रागादिक भाव ये सब अनात्मतत्त्व हैं। कर्मविपाक का सान्निध्य पाकर यह प्रतिफलन है। यह मैं नहीं हूँ मैं तो वह हूँ जो अपने ही स्वरस से जो कुछ हूँ चैतन्यमात्र, ऐसा यहाँ अगर भेदविज्ञान बने तो बाहर में और आगे का सब काम सुगम है। अब देखिये- जो केवल जिंदगी भर की बात है वही कठिन लग रही है, बाहर में कुछ करें, कुछ छोड़े, यह तो चर्चा ही नहीं की जा रही है, सिर्फ यही कहा जा रहा है कि जैसे आप दर्पण को निरख रहे हैं कि यह फोटो दर्पण का निज का फोटो नहीं है, सामने आये हुए पदार्थ का प्रतिबिंब है, ऐसे ही क्या यहाँ न जानना चाहिए, जानने में कृपणता क्यों? जानने में आलस्य क्यों। जो सच्ची बात है उसके समझ में तो उमंग रहा करती है। कोई लौकिक घटना आये तो वहाँ यह उमंग रहा करती है कि वास्तविक बात है क्या? कहीं कोई झगड़ा मच गया तो यह उमंग रहती है कि आखिर यह झगड़ा हुआ क्यों? कैसे हुआ? जड़ में बात क्या थी? तो बाहर की बातों में तो हम सही जानकारी पाने की उमंग रखा करते हैं और अपने आप पर जो बीत रही हैं उसकी सही जानकारी के लिए उमंग नहीं। मेरा स्वरूप सिद्ध समान है, अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंतशक्ति, अनंत आनंद, ऐसा मेरा स्वभाव है तो फिर यह हो क्या रहा? यह कीड़ा भी बन गया,मनुष्य भी बन गयायह क्या मच रहा है कैसे बन गया?
1039- भगवान सहज अंतस्तत्त्व का तिरस्कार करने वाले विभावों की प्रीति के महान् अन्याय का फल-
अब समाधान सुनिये, भाई झगड़े की मूल जड़ यह है कि हमने अपने स्वभाव की सुध तो ली नहीं, और जो अनादिसंतति से चले आये ये कर्मविपाक हैं, कर्मप्रतिफल हैं उनको अपने आत्मरूप समझ रखा, बस लो यहाँ तो एक समझ भर की बात थी, और झगड़ा इतना बड़ा बन गया कि पशु बने, पक्षी बने, नारकी बने, और और बने, झगड़ा इतना ऊँचा। अभी किसी से जरासी मामूली सी गलती हो जाय याने कुछ मानो कुछ शब्द कह दिया और उस पर इतना उत्पात मचे कि उस पर लाठी बरसाये तो लोग समझाते कि भाई बात क्या थी। जरासी बात इससे निकल गई, थोड़ीसी गलती भई, पर इतना उत्पात न मचावो कि उसके प्राण चले जायें। एक कहावत में कहते हैं ना- ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं, ऐसे ही यहाँ लग रहा कि इस जीव ने क्या किया? अरे यहाँ कर्मप्रतिफलन हुए, ज्ञेय बने और उसमें यह मान लिया कि यह मैं हूँ, इतनी भर गलती का इतना बड़ा दंड क्यों मिल रहा है? नारकी बने, तिर्यंच बने, पशु पक्षी बने, तो मालूम होता है कि इसका गैर संबंध, खोटा संबंध मामूली अपराध नहीं है। भगवान ज्ञानघन आनंदमय सहज परमात्मतत्त्व के प्रति यह कितना बड़ा अन्याय है कि हम उसकी सुध ही नहीं लेते। उपेक्षा करते, और यहाँ उस स्वभाव का तिरस्कार करने वाले इन विभावों को अपनाते। तो भला बतलावो कि भगवान परमात्मतत्त्व के तिरस्कार करने वाले विभावों से यदि प्रीति की जाय तो इस निज भगवान आत्मा पर कितना बड़ा अन्याय है। इतने महान अन्याय का यह दंड हुआ। बल्कि न्यायसंचित बात यह है कि यह नारकी बने, पशु पक्षी बने, क्योंकि इन्होंने अपने भगवान आत्मा का तिरस्कार करने वालों का साथ निभाया तो कल्याण का प्रारंभ तब तक नहीं हो सकता जब तक कि शुद्ध आत्मा की उपलब्धि न हो सके। शुद्ध आत्मा की उपलब्धि हो उसका उपाय है भेदविज्ञान। तो इस भेदविज्ञान की अधिकाधिक भावना करना चाहिए।