वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 130
From जैनकोष
भावयेद्भेद-विज्ञान-मिदमच्छिन्न-धारया ।
तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥130॥
1040- ज्ञान में ज्ञान की मग्नता न होने तक भेदविज्ञान की उत्कृष्ट भावना की आवश्यकता-
कहते हैं कि अनवच्छिन्न धारा से इस भेदविज्ञान की निरंतर भावना करना चाहिए। कब तक भावना करें जब तक कि परतत्त्वों से एकदम हटकर यह ज्ञान ज्ञान में मग्न न हो जाय। हमारा सहारा, हमारा शांति का आधार सिर्फ ज्ञान है। दूसरा कोई हमारी शांति का आधार नहीं, हमारा सहारा नहीं, इन वैभवों को तो ऐसा समझो कि अभी कुछ ही दिनों बाद छोड़नापड़ेगा। अभी कितने दिन जीवन के शेष हैं इसका कुछ पता क्या? न जाने किस क्षण यह जीवनलीला समाप्त हो जाय। अब थोड़े दिनों बाद चूँकि यह जीवन समाप्त ही हो जाने वाला है। आज का पाया हुआ यह सारा समागम छूट जाने वाला है, तब फिर अभी से मान लो कि आज जो कुछ हमारे पास धन वैभव, परिवार आदिक का समागम है वह हमसे छूटा ही हुआ है। कोई समय आयगा ना ऐसा कि जिस समय यह सारा का सारा समागम छूट जायगा और इस आत्मा को यहाँ से अकेला ही जाना होगा। जिस शरीर को निरख-निरखकर हम अंदर में बड़ी प्रीति करते हैं, अभिमान करते हैं, अहंकार रखते हैं यह शरीर इन मित्रों द्वारा, इन बंधुओं द्वारा, जिनके बीच रहकर प्रीति करते हैं ये इसमें आग लगाकर जला देंगे, घर में रखना पसंद न करेंगे। एक चैतन्यज्योति भगवान जब तक इस शरीर में बसा हुआ है तब तक ही लोग आदर किया करते हैं इस आत्मा के निकल जाने पर फिर इस शरीर का कोई आदर नहीं करता। अभी थोड़े ही दिनों बाद वह दिन आयगा जबकि यहाँ से मरण करके जाना होगा। यहाँ कोई दावे के साथ कह सकता है क्या कि हम तो कोई 100 वर्ष तक जिंदा ही रहेंगे?...अरे एक पल का भी भरोसा नहीं। इससे अपना एक निर्णय बना लीजिए कि यहाँ मेरा कहीं कुछ नहीं है। देह भी मेरा नहीं हैं, मैं तो एक सहज चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ। ऐसे इस भेदविज्ञान की निरंतर भावना कीजिए अनवच्छिन्न धारा से, रुके नहीं बीच में, और तब तक करें जब तक कि यह ज्ञान परतत्त्वों से च्युत होकर अपने ही ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाय।