वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 136
From जैनकोष
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वत: स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥136॥
1065- सम्यग्दृष्टि के सहज स्वरूप के प्रकाश का प्रभाव-
सम्यग्दृष्टि मायने सही सही दृष्टि वाला अपने आपके बारे में अपना जैसा सहज स्वरूपहै अपने सत्त्व के ही कारण स्वयंनिरपेक्ष जो कुछ इसका स्वरूप है उसमें उसका अनुभव हो, उसका उस ही में प्रत्यय हो, ऐसी जिसकी दृष्टि बनी उसे कहते हैं सम्यग्दृष्टि। सम्यग्दृष्टि जीव में ज्ञान और वैराग्य की शक्ति स्वयं हो जाती है। ज्ञानशक्ति क्या? जब ज्ञान में ज्ञानस्वरूप को जाना, स्वरूप में ज्ञान उपयुक्त हुआ वह एक इतना महान बल है कि जिससे धीरता, गंभीरता स्वयं ही प्रकट होती है। धीर कहते किसे हैं? लोग तो यह बतलाते हैं कि कोई विपत्ति आये उसमें घबड़ायें नहीं उसे कहते हैं धीर, पर धीर का यह सही अर्थ ही नहीं है। जो भाव बुद्धि को देवे याने जिसमें बुद्धि व्यवस्थित रहे ऐसी स्थिति वाले को कहते हैं धीर। चूँकि घबड़ाहट में बुद्धि व्यवस्थित नहीं रहती है इस कारण से उसका अर्थ यह कर दिया गया कि घबड़ायें नहीं सो धीर, पर धीर का अर्थ है जहाँ बुद्धि व्यवस्थित रहे सो धीर। तो सम्यग्दृष्टि जीव जिसने अपने आपमें अपने सहज स्वरूप का प्रकाश पाया उसने सर्वस्व पाया। और उसे कोई कठिनाई नहीं, अंधकार नहीं। क्या करना चाहिए, क्या न करना चाहिए ऐसी कोई दुविधा नहीं, उसे तो मिल गया अपना शरण, परम शरण। इसी को कहते हैं परमपिता। पिता नाम पैदा करने वाले का नहीं है। पैदा करने वाले के नाते से तो उसका नाम जनक है, पिता नहीं है। पिता उसे कहते जो रक्षा करे। तो मेरा परम पिता कौन? उत्कृष्ट रक्षक कौन? मेरा यही अंतस्तत्त्व, यह ही मेरा उत्कृष्ट रक्षक है। तो इसका शरण जिसने पाया यह दृष्टि यह अनुभव जिसने पाया वह उस ही ओर का तो पौरुष करता और इस पौरुष में, इस आत्ममग्नता में स्वयं ऐसी बात होती है बाहर कि कर्म निर्जरा को प्राप्त हो जायें। जब कर्म खिरे तो देह भी कभी सदा के लिए गमाना होगा तो सिद्ध अवस्था प्राप्त होगी।
1066- धर्मपालन व धर्मपालन कीपात्रता के लिये बाह्य साधन- परम श्रेय का मूल है अपने आपके सहज स्वभाव की दृष्टि, अनुभूति, प्रतीति उसका आलंबन एक ही कात करने को पड़ा हैधर्म के लिए। धर्म अनेक जगह नहीं है। धर्म केवल निज सहज भाव में है, इसका आश्रय करना इसी को कहते हैं धर्मपालन। धर्म मायने वस्तु का स्वरूप, पालन मायने उस स्वरूप का आश्रय, यह ही है धर्मपालन। मगर स्थिति हम आप सब लोगों की विचित्र है, फिर भी अपने लक्ष्य से गिर जाते हैं कभी बाहरी पाप व्यसन आदिक भावों में लगना पड़ता है। ऐसी स्थितियाँ होती है तो उनको टालने के लिए उन खोटी स्थितियों का तुरंत निवारण करने के लिए आपके पास क्या साधन है? बस यही शुभोपयोग व्यवहार धर्म व्रत, तप, संयम आदिक। सो उन सब अशुद्ध भावों को टालने के लिए यह आपका एक तुरंत साधन है, फिर उस साधन में रहते हुए स्थिति तो सुरक्षित तो हो गई कि पाप और व्यसन इसके नहीं रहे और ऐसी सुरक्षित दशा में रहकर फिर भीतर आइये और अपने उसी सहज स्वरूप में दृष्टि कीजिए। जैसे युद्धस्थल में लड़ने वाले योद्धावों को शस्त्र और ढाल इन दो से सज्जित देखा होगा, क्योंकि ढाल तो काम आती है शत्रु का वार रोकने के लिए और तलवार काम आती है शत्रु का संहार करने के लिए, इसी तरह शुभोपयोग तो ढाल का काम करता है अशुभोपयोग का आक्रमण हो तो वह हामी न हो सके, वहाँ इसका उपयोग विचलित न हो सके इसने तो किया ढाल का काम, अब ढाल से सुरक्षित दशा में प्रहार करे तो विभाव और कर्मों का प्रक्षय हो जायगा। सम्यग्दृष्टि जीव ने जब अंतर्दृष्टि से ज्ञानलाभ लिया तो उस ज्ञानलाभ के होने पर भी जो परिस्थितियां आती हैं विरुद्ध विचित्र, उनमें वह इस प्रकार की प्रवृत्ति करता है जिसे चरणानुयोग मेंबताया गया है, वह प्रवृत्ति उससे बनती है। वह सुरक्षा के लिए है, और उस सुरक्षित स्थिति में हम अपने आपके स्वभाव के आलंबन का अपना निजी काम करें। ज्ञानशक्ति सम्यग्दृष्टि में उत्पन्न हुई जान गए और वैराग्यशक्ति भी हुई। वैराग्यशक्ति किस परिचय से हुई। बाहरी वस्तुओं के वैराग्य की बात अभी नहीं कह रहे, वह भी एक वैराग्य है जो घर, मकान, परिवार, परिजन, मित्रजन आदिक विषम संग प्रसंग, इनसे विरक्त रहे वह भी वैराग्य है, किंतु जब तक यह अंत: वैराग्य न बनेगा तब तक यह बाहरी उपयोग इसको प्रतिष्ठित न रख पायगा। 1067- अंत: वैराग्य का विधान-
अंत: वैराग्य क्या? जिसको यही बताया है कि ये कर्मोदयविपाकप्रभवा भावा न ते मम स्वभावा अर्थात् कर्मों के उदय से होने वाले जो भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं हैं। लो विभाव से ही तो वैराग्य करना था, विभाव से ही तो उपेक्षा करना था। तो जब तक विभावों कि विषय में यह निर्णय न बने कि ये मेरे स्वरूप नहीं, ये मेरे स्वभाव नहीं तब तक उनसे वास्तविक विरक्ति कैसे बन सकेगी? देखना, जगत में निमित्तनैमित्तिकभावों का उल्लंघन नहीं है और वस्तुस्वातंत्र्य में कलंक नहीं है। दोनों ही बातें सहज आपको सर्वत्र दिखेगी। कर्म का उदय हुआ, विपाक हुआ, कर्म का विपाक हुआ, मगर वहाँ एक ऐसा ज्ञेयरूप जो विपाक हुआ, जो प्रतिफलन हुआ उतने तक तो अनिवारित है प्रतिफलन, अब जैसा-जैसा इसका संयोग है, उपादान है, जैसी-जैसी जब स्थिति होती है वह उस विपाक में, प्रतिफलन में आता है, उसे अपना सर्वस्व मानता है और अनुरूप फिर इसकी चेष्टायें होने लगती हैं। जहाँ यह ज्ञान किया कि ये परभाव हैं, परप्रतिबिंब हैं, पर का प्रतिफलन है, इससे मेरा क्या मतलब है। मैं तो अपने में टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायक स्वभावमात्र हूँ। ऐसा ज्ञान होते ही विभावों से विरक्ति हो जाती है। देखिये- परभाव समझने के लिए यह निमित्त नैमित्तिक भावों का सही परिचय बहुत सहयोग देता है। तो जब जाना कि यह परभाव हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं तो उससे विरक्ति हो गई,क्यों लगूँ, इसे क्यों अपनाऊँ, इसका द्रष्टा रहूँ, उदय है, इसका प्रतिफलन है, हो रहा है, मेरा स्वरूप नहीं है। तो ऐसे अंत:वैराग्य की शक्ति इस सम्यग्दृष्टि के अपने आप आयी हुई है।
1068- बुद्धिपूर्वक आस्रव के प्रभाव का तात्पर्य-
चारित्र मोह के उदय से किसी पद तक ज्ञानी के भी मोक्ष होता है और यह बाह्य प्रसंगों में, बाह्य पदार्थों में अपना उपयोग देता है, उनका आश्रय बनाता है, यह कहलाता है उपचरित कारण। कर्मोदय के सिवाय बाकी जितनी ये बाहरी बातें हैं ये सब कहलाती हैं उपचरित कारण याने क्रोधादिक भावों के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध नहीं है इन बाहरी पदार्थों का, किंतु एक आश्रय वाला संबंध है याने यह जीव इन बाहरी साधनों में उपयोग जुटाये तो बुद्धिपूर्वक रागादिक विकार हुए। यह घटना बनती है। न उसमें उपयोग जुटाये, एक स्व की ओरदृष्टि ले, न इसका विकल्प हो तो कर्मों के उदय तो अपनी स्थिति पर बराबर चल रहे हैं, उनकी स्थिति हो रही और उस स्थिति में अबुद्धिपूर्वक जो कुछ बात हो रही वह मलिनता होती है, पर बुद्धिपूर्वक विकार तब होता जब हम किसी बाहरी संग प्रसंग में अपना उपयोग फंसाते हैं, तो ऐसे ज्ञान और वैराग्य की शक्ति सम्यग्दृष्टि जनों में नियत है, सो यह अब क्या करता है? समस्त रागयोगों से विराम लेता है और अपने आपके स्वरूप में ठहरता है। कुछ प्रयोजन तो होना चाहिए भेदविज्ञान का।चावलों को बीनने का, साफ करने का कुछ प्रयोजन तो होना चाहिए, कूड़ा करकट हटावें, अकेला चावल रहने दें, भात बनायेंगे, खायेंगे, यों कुछ प्रयोजन तो है चावल बीनने का। तो यहाँ क्या प्रयोजन है? विभावों को जाना कि ये परभाव हैं और अपने सहज स्वरूप को जाना कि यह स्वभाव है, ऐसे ज्ञान का प्रयोजन यह है कि उस रागयोग से, उस विभाव से विरक्ति करें, विराम लें, मुख मोड़े और अपने आपके स्वरूप में ठहर जायें, यह बात कैसे बनेगी? जब स्व और पर का भेद जान लिया तब ही तो बनेगी ना?
1069- स्वभाव विभाव के भेदविज्ञान से पहिले जीव का कर्तृत्व व भोक्तृत्व-
जब तक भेद न जानते थे तब तक यह जीव कर्ता था, उनको अपनाता था। अपनाने का नाम कर्ता, अभिप्राय में जहाँ करना बसा हुआ है वह कर्ता। तो यह जब तक अज्ञान भाव है, विभाव में और स्वभाव में अंतर न जान पाया था तब तक उछल उछलकर विभावरूप बन रहे थे, जैसे किसी किसान को हल जोतते हुए में साँप ने काट लिया तो वह किसान विष चढ़ जाने से कुछ साँप सा बनकर बकने लगता, जो चाहे बात करता है। किसान अपने बैल को पीटता है और यह कहता कि तूने मेरे ऊपर पैर क्यों रख दिया...। उस साँप का विष किसान में ऐसा व्याप गया कि उसका दिमाग, उसकी बुद्धि कुछ इस ढंग से चलने लगी कि वह अपने को साँप जैसा अनुभव करने लगा। वह किसान उस बैल को बुरी तरह से पीट रहा था और यह बक रहा था कि तूने मेरे ऊपर पैर क्यों धर दिया। तो वहाँ किसी ने आकर समझाया- ‘‘अरे भाई क्यों इतना पीट रहे बैल को? यदि वह मर गया तो फिर किससे जोतोगे? क्या कमाओगे? कैसे बच्चों को पालन पोषण करोगे? तब उसकी अक्ल कुछ ठिकाने हुई, बात समझ में आ गई। तो दृष्टांत यह कह रहे हैं कि जैसे विष चढ़े में वह अपने को साँप जैसा अनुभव करता हुआ अटपट बालता है ऐसे ही समझिये कि मिथ्यात्व का विष जब चढ़ा है तो विभाव रूप बनकर विभाव की बोली में बोलता है बस यों यह है, भोक्ता है, उमंग ला-लाकर उचकता फिरता है, जब यह भेद डाला कि ये सब विभावभाव परभाव हैं, मेरे स्वरूपकी चीज नहीं हैं, परिणमन तो मेरे में है, मेरी परिणति है, पर मेरे स्वरूप से स्वभाव से विकारभाव परिणमते नहीं, ये नैमित्तिक हैं, औपाधिक हैं, इनसे मेरा क्या संबंध? देखिये- निमित्तनैमित्तिक भावों का सही परिचय आपको एक स्वानुभव की स्थिति बनाने के लिए, स्वभाव का परिचय बनाने के लिए बहुत मददगार है, पर इसमें इतनी सावधानी निरंतर रहे कि निमित्तनैमित्तिकभाव में परस्परकर्ताकर्मभाव अंशमात्र भी नहीं है।होताक्या है कि संपर्कज भाव, एक वातावरण इस तरह का एक विपाकसन्निधान है कि उस काल में यह जीव, यह अशुद्ध उपादान अपनी कला से विभावरूप अपना प्रभाव बना लेता है। वह प्रभाव दूसरे पदार्थ का नहीं, निमित्त का प्रभाव नहीं। यद्यपि यह प्रभाव निमित्त का नहीं, अशुद्धात्मा का है, मगर उसकी रचना की विधि यह ही है कि ऐसे उदय काल में जीव अपने में चूंकि स्वयं अशुद्ध उपादान है सो अपने में अपना प्रभाव प्रकट कर लेता है।
1070- भेदविज्ञान व स्वरूपविज्ञान का प्रयोजन-
विकाररूप तो हुआ यह जीव ऐसा, मगर ये सब बातें बनी तो ये औदयिक हैं, परभाव है, मेरे स्वरूप नहीं हैं, ऐसा जानने पर यह विभाव से हट गया और अपने स्वरूप में ठहर गया। यह सब बना क्या, कैसे बना? और उसमें बात प्रयोजन की क्या है? कैसा अपना अस्तित्व रख रहा वह? कर क्या रहा? कर कुछ नहीं रहा, जो अपनी वास्तविकता है उस वस्तुत्व को वह उत्पन्न कर रहा, रख रहा, करता आ रहा, यों कह लीजिए जान रहा। जब और गहरी स्थिति होती है तो किस लिए जान रहा? भेदविज्ञान तो इसलिए किया गया कि ज्ञानी परभाव से हटे और स्वभाव में लगे। अच्छा अब स्वभाव का ही मात्र जानन किसलिए चल रहा, इसका क्या प्रयोजन? वह ज्ञान ज्ञान के लिए ही चल रहा है। ज्ञान से ज्ञान के लिए ज्ञान में ज्ञान का ज्ञानरूप परिणमन चल रहा है वहाँ दूसरा कोई प्रयोजन नहीं, तो प्रथम उपाय की बात क्या रही कि बाहर के पदार्थों में थोड़ा सा अध्ययन बने कि ये अनित्य हैं, मिट जाने वाले हैं, अशरण हैं, ये मेरे को सदा साथी नहीं हैं, यों थोड़ा सा साधारण ज्ञान बाहरी पदार्थों के बारे में हो जाय तो इससे कुछ धर्म करने की या अपने उद्धार की एक वांछा उत्पन्न होती है? जिन जिन के अपने उद्धार की एक वांछा उत्पन्न हुई है जिन जिनके ऐसी बात हुई है वह प्राय: इस विधि से हुई है कि पहले इन बाहरी संग प्रसंग के बारे में कुछ व्यवहारिक बोध रखा था जैसा कि सभी जानते हैं। देहाती जन भी बोलते हैं कि क्या रखा है यहाँ? सब छूट जायगा, यह मेरा देह भी न रहेगा, तो ऐसी बातें जरा भावनापूर्वक हों तो मन में यह बात आयगी कि फिर अपने को करना क्या है? जब ये सब छूट जायेंगे तब अपने को करना क्या है? यह सब कुछ थोड़ी मन में ज्ञात होगा, कुछ सत्संग की भावना होगी, स्वाध्याय की बात होगी, जो महान ज्ञानीजन हैं उनके पास बैठने की भावना होगी, चर्चा करेंगे जिज्ञासापूर्वक, कुछ ज्ञान होगा। अभ्यास चलते-चलते यहाँ पर भेदविज्ञान की बात अंत में आयगी। देखो जानने की बात तो जरा सी है, अपने सहज स्वरूप को जानें और उसमें मग्न हों, मगर जिसे करना है हित, उसे ही तो कठिन पड़ता। गुरुजी एक घटना सुनाते थे टीकमगढ़ की।वहाँ कोई मल्ल बड़ा पहलवान आया था दंगल में लड़ने के वास्ते, तो उससे लड़ने को किसी की भी हिम्मत न पड़ी। सबसे अंत में एक बड़ा दुबला-पतला कमजोर आदमी उससे लड़ने के लिए तैयार हो गया, उसने कहा हम लडेंगे इससे।...अरे तुम कैसे लड़सकते? तुम तो इसके सामने कुछ भी नहीं हो, तो वह पुरुष बोला- हम तो लडेंगे इससे, पर एक शर्त है हमारी कि जब हम और ये दोनों लड़ने लगें तो हमारे छूते ही यह जमीन पर गिर जावे।...अरे जो कठिन काम है, उसके ही तो करने की बात कही जा रही, जो कठिन काम है उसको करने के लिए ही तो सारी शक्ति, पौरुष की सम्हाल की बात कही जा रही। यों ही समझो कि बात कहने को तो थोड़ी है कि अपने स्वभाव में लगें, पर यह ही तो कठिन काम दिख रहा है।
1071- आत्मपरिचय में सर्वतोमुखी बोध का सहयोग-
अध्यात्म ज्ञान के काम को करने के लिए इससे संबंधित बाहरी ज्ञान करना आवश्यक है तभी तो स्पष्ट विकास होता है। कुछ करणानुयोग से समझें, कुछ दर्शनशास्त्र से समझें, कुछ युक्तियों से समझें, कुछ अनुभव से समझें तो उसका एक स्पष्ट बोध होता है। तो ये परभाव हैं, मेरे स्वरूप नहीं है, ऐसी जानकारी के लिए कुछ हमें युक्तियाँ भी चाहिए। कुछ हमें आर्ष अनुसार जो करणानुयोग का वर्णन है उसका भी थोड़ा परिचय चाहिए। देखिये- स्पष्टता के बोध के लिए तो थोड़ा ख्याल में आता है, सभी दर्शनों में थोड़ा प्रभाव बन ही जाता। जैसे एक ब्रह्म का स्वरूप कहा, जिसे ब्रह्मवादी कहते अपरिणामी है, ब्रह्म है, सर्वगत है, ऐसा कोई अगर अपना विकल्प बनाये, जानकारी बनाये तो उस पर प्रभाव तो पड़ता ही है, लो बाहर के विकल्प हट गए, मगर एक ऐसा स्पष्ट विशुद्ध मार्ग नहीं मिल पाता कि उस मार्ग से चलकर उसमें फिट हो जाय। तो इसी तरह संबंधित विविध परिचय होने से बहुत स्पष्टता होती है और नि:शंक अपने आपके स्वरूप में वह प्रवेश कर पाता है। यह ही सब जब जाना इस ज्ञानी पुरुष ने तो क्या किया कि स्व को तो प्राप्त किया और पर से छुटकारा किया अपने उपयोग द्वारा और बाकी तो वश की नहीं, वह तो स्वयं होगा, पर उपयोग ने जब जाना कि ये विभाव मेरे स्वरूप नहीं तो विभावों से छुटकारा ही किया उपयोग द्वारा ज्ञान ज्ञान में। जब अपने स्वभाव की ओरचल रहा और अपने स्वरूप में अपने ज्ञान को लगाया, इस उपाय से करना क्या चाहता? यही कि जो अपना सही वस्तुत्व है उसका एक कलन करना चाहता। वही स्थिति रह जाय। वही बात रहे जो सही है उसका ज्ञानी एक उद्यम कर रहा केवल एक पौरुष के लिए, सो कुछ आगे बढने पर पर से विराम पाता हैऔर अपने आपमें लीन होता।
1072- सर्वतामुखी परिज्ञान का प्रभाव- ऐसी एक कथा है वेदांत की जगदीश टीका में कि एक पुरुष किसी संन्यासी के पास पहुंचा, कहा महाराज हमें आत्मज्ञान दीजिए, हमारे कल्याण की कुछ बात बतलाइये। तो संन्यासी ने कहा- ब्रह्मास्मि...और अधिक कुछ न बोला, इसका अर्थ है कि मैं ब्रह्म हूँ,...अब कुछ और बात बताइये।...ब्रह्मास्मि, यों ही तीन चार बार कहा पर ‘ब्रह्मास्मि’ यही उत्तर मिला। फिर कहा तो संन्यासी बोला- देखो अधिक जानकारी करना हो तो अमुक गाँव में अमुक पंडित रहता है, उसके पास जाकर सीखो। पहुँचा वह पुरुष उस पंडित के पास और बोला- गुरुजी हमें आप आत्मज्ञान की बात बतलाओ। हम आपके पास रहकर आत्मज्ञान की बात सीखना चाहते हैं तो वह पंडित बोला अच्छा देखते हैं कोई तुम्हारे करने लायक काम। यदि कुछ काम करते रहोगे, तो हमें पढ़ाने में कोई आपत्ति नहीं। काम समझ में आ गया और कहा देखो हमारे घर में कोई 8-10 गायें हैं सो उनका गोबरउठाया करो, उनके नीचे की सफाई किया करो और हमारे पास आत्मविद्या भी सीखो।...ठीक है गुरुजी। अब वह पुरुष काफी दिनों तक यही काम करता रहा और विद्या सीखता रहा। धीरे-धीरे 12 वर्ष व्यतीत हो गए। सब प्रकार की विद्या सीख ली, और अंत में विदा होते समय कहा- अब आप निष्कर्ष रूप में, अंतिम शिक्षा दे दीजिये। वह पंडित बोला- ब्रह्मास्मि। तो वह पुरुष बोला- अरे महाराज, इतनी सी बात तो हमें 12 वर्ष पहले एक संन्यासी ने भी बतायी थी, इतनी सी बात के लिए क्या हमने 12 वर्ष तक गोबर व्यर्थ में ही उठाया? तो गुरु बोला- अब तुम स्वयं इस बात को समझ लो कि 12 वर्ष पहले तुमने क्या सीखा था और अब क्या सीख गए हो? उस ब्रह्मास्मि का मर्म 12 वर्ष पहले तुमने न पाया था और अब पा गए हो। बात समझ में आ गई और नमस्कार करके चल दिया? तो हम जब आत्मज्ञान की दिशा में बढ़े तो सर्वप्रकार के परिचय से हमें अपने आपमें उमंग उत्पन्न होती है स्वभाव की ओर बढ़ने की, चारित्र बढ़ता है और उनसे उमंग होती है कि मैं भी ऐसा ही करूँ, स्वभाव की ओर ही रमूँ। जब करणानुयोग की बात पढ़ें, तो वहाँ एक विशेष जानकारी बढ़ती है, आचार्य महाराज के प्रति बहुत श्रद्धा होती है। उसका एक प्रभाव विशेष होता है। दूसरी बात का विकल्प न होने से जो स्थिति बनी उसका प्रभाव और साथ ही अपने आपको स्वभावदृष्टि करने की बीच मेंउमंग बनती, तो उसका एक वेग होता है, वहाँ भी एक अपने को काम रहता है। द्रव्यानुयोग की चर्चा में द्रव्य गुण पर्याय, गुण की दशा, गुण, द्रव्य का स्वभाव, जानते चलते आखिर सबको उस द्रव्य में अंत:प्रलीन करके निरखने की जो एक कला बनती है वह भाव की कला है। तो एक स्वभाव दृष्टि करने के लिए हमें कोई अपनी बात कसर की न रखनाचाहिए। आप कोई दूकान का काम करते हैं तो यहाँ वहाँ की अनेक बातें अपने को सुरक्षित रखने के लिए करते हैं। ग्राहकों से, सरकार से, घर के लोगों से, नाते रिश्तेदारों से सभी प्रकार से बात करके अपना एक काम बनाते हैं, जब कोई एक स्थिति होती है, तो ऐसे ही स्वभाव के उन्मुख होने में उसका अनुभव पाने में तो एक ही स्थिति होती है, उसके निकट करने में, उसके बनाने में, पौरुष में, स्वाध्याय, सत्संग, पूजा, और और भी बातें ये जीवन में जैसे श्रावकाचार में बतायी गई हैं, श्रावकों के आचार में, मुनियों के आचार में बतायी गई है, उस प्रकार ज्ञानीआचरण करता है। 1073- शुभोपयोग में प्रवृत्त भव्यों को शुभोपयोग से हटकर शुद्धोपयोग में आने का उपदेश-
मुनिजनश्रावकजन व्रत तप आदि में एक अपनी प्रवृत्ति रखते हैं तब उनको कोई डाट लगायी गई। वे शुभोपयोग में ही मस्त रहते हैं, उसमें ही अपनी इतिश्री समझते हों तो उनको कहा जाता है- अरे यहाँ से हटो, और अपने आपके अंत: स्वरूप में आवो। शुभोपयोग से हटकर अंत:स्वरूप में आवो। और, शुभोपयोग में जो आया ही नहीं, पहले से ही हटा सा है उसके लिए कैसे कहा जाय कि तू शुभोपयोग से हट और शुद्धोपयोग में आ। जितना भी वर्णन है वह ऐसा ही विशुद्ध आचरण करने वाले के लिए एक तरहकी समझ बतायी कि इनमें आसक्त मत हो। इनमें कुछ धरा नहीं, ये तो बाहरी विषयकषाय दुर्भाव हैं, ये उत्पन्न न हों। जब मन, वचन, काय की क्रियायें करनी ही पड़ती हैं तो खोटी क्रियायें न हों और ऐसी क्रियायें हों कि जिससे आपको स्वभावदृष्टि की पात्रता रहे। वे क्रियायें की जा रही है, वे प्रवृत्तियाँ बन रही हैं, पर उन प्रवृत्तियों को ही जो अपना सर्वस्व मान लेते हैं बस उनको समझाने के लिए कहा कि तू इन्हें अपना सर्वस्व मत समझ। तू अपने में अपना काम कर ले। इस प्रकार यह जीव विभावों से हटकर अपने आपके स्वरूप में ठहरता है, काम दो हैं याएक? किसी अन्य तरह से विचारों तो दो मालूम होते हैं पर वहाँ काम केवल एक है। जो अपने स्वरूप में लगा वही तो विभाव से हटा। विभावों से बिल्कुल हट गया तो वही तो अपने स्वरूप में लग गया। तो दो स्थितियाँ हैं- विभावों से हटना और स्वरूप में लगना। सूक्ष्मदृष्टि से विचारो- देखो यह अंगुली है ना? इसे टेढ़ी किया है तो सीधी से तो हट गई और टेढ़ी में आ गई तो ये दो बातें हैं क्या? सीधा से हटना बन जाय और टेढ़ी न हो पाय, ऐसा हो सकता क्या? अरे यह तो एक ही बात है। सीधी का हटना और टेढ़ी का होना यह तो एक ही काम है। तो ऐसे ही समझो कि इन विभावों का हटना और स्वभाव में आना यह एक ही काम है। किसी स्थिति का हटाव और किसी स्थिति की उमंग इनमें तो पूर्वापर बन जायगा मगर वास्तविक हटाव, वास्तविक लगान की जो एक वृत्ति है उसमें यह न होगा कि पहले यह होगा पीछे यह। इस तरह विभाव स्वभाव काभेद करके विभावों से तो विरक्त होना है और अपने स्वभाव में लीन होना है।