वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 138
From जैनकोष
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्त:
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधा: । एतैतेत: पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातु: शुद्ध: शुद्ध: स्वरसभरत: स्थायिभावत्वमेति ॥138॥
1084-जगत के प्राणियों की अनादि से नित्यमत्तता-
जगत के ये प्राणी अनादिकाल से प्रत्येक परिस्थितियों में रागी होते हुए नित्य उन् मत्त रहे और सोते रहे। जिसमें सोते रहे वह इनका पद न था। रागी मायने मिथ्यादृष्टि, यहाँ रागी का अर्थ है अज्ञानी। प्रतीति में अणुमात्र भी, लेशमात्र भी जिसके राग है अर्थात् जो अणुमात्र भी राग को आत्मस्वरूप मानता है ऐसा पुरुष चाहे समस्त आगम का भी पाठी हो तो भी वह अज्ञानी है क्योंकि उसको आत्मा और अनात्मा का बोध नहीं है। रागभाव तो अनात्मतत्त्व है आत्मा ज्ञायक स्वभाव है और यह मान रहा है रागविभाव को आत्मरूप। चाहे लेशमात्र भी जो व्यक्त राग हो उसमें ही वह मान रहा है आत्मत्व क्योंकि अज्ञानी है। तो ऐसा अज्ञानी जीव अनादिकाल से कैसा मस्त चला आया है।इसकी अनादि निगोदअवस्था थी। प्रत्येक जीव सर्वप्रथम निगोद में था। जो आज सिद्ध हुए हैं वे भी पहले निगोद में थे। वहाँ से विकास करके दो इंद्रिय आदिक या अतिक्रम से जब वह मनुष्य हुआ और वहाँ साधना की तब शक्ति प्राप्त हुई। तो अनादिकाल तो निगोद में व्यतीत हुआ। देखिये- कितनी एक समस्या सी है कि कोई भी जीव जो सिद्ध हुआ है वह मनुष्यभव पाकर 8 वर्ष बाद सिद्ध हुआ है। अब देखो सिद्ध हो रहे अनादिकाल से और सब सिद्धि की ही तारीफ है कि मनुष्यभव पाकर 8 वर्ष बाद उन्होंने सिद्धि पायी। तो लगता है ऐसा कि भाई संसार तो पहले थाऔर मुक्ति बाद में शुरू हुई। तब कोई भी सिद्ध ऐसा नहीं कि जो अनादि से सिद्ध हो। निगोद में था, मनुष्य पर्याय पायी। 8 वर्ष बाद सिद्ध दशा पायी। जब सिद्धों की यह ही बात है तो जल्दी सोचने में यों लगता है कि संसार पहले से है, मुक्ति बाद में बनी है, किंतु ऐसा मानने पर यह संसार भी अनादि नहीं ठहर सकता। खूब ध्यान से देख लो, संसार तो अनादि से है और उसके 8 वर्ष बादमोक्ष शुरू हुआ, तो जो 8 वर्ष बाद कहा उससे 8 वर्ष पहले ही संसार था, यह सिद्ध होता है, अनादि नहीं रहा। कैसी एक विचित्र समस्या है जो यों नहीं सुलझाई जा सकती, पर अनादि का पेट ही ऐसा है कि अनादि संसार में 8 वर्ष बाद मुक्त होते हुए भी सिद्ध भी अनादि से हैं, याने सिद्ध होने की परंपरा अनादि से है और संसार भी अनादि से है और 8 वर्ष बाद मुक्ति हुआ करती है, तो अब कहाँ ले जायेंगे, कहाँ एक सीमा बाँधेंगे कि यह संसार यहाँ से चला और मुक्ति यहाँ से चली? अनादि से संसार, अनादि से मुक्ति।सोपाय मुक्त होने पर भी उस मोक्ष में भी यह नहीं बतला सकते कि इस दिन से जीव का मोक्ष होना शुरू हुआ और येसिद्ध सबसे पहले सिद्ध हुये थे। जगत की ऐसी ही व्यवस्था सब स्वत: चली आ रही है। तो अनादि काल से याने जब से संसार है तब से प्रत्येक पद में यह जीव रागी मत्त होता हुआचला आ रहा है।
1085- अज्ञानी जीव की एकेंद्रियभव में दु:स्थिति-
निगोद में ‘‘एक श्वास में अठदश बार, जन्म्यो मर्योसह्यो दु:ख भार।’’ एक श्वांस में 18 बार जन्म लिया, मरण किया श्वांस कौनसा?नाड़ी एक बारउचकती है जितने समय में, करीब 1 मिनिट में 72, 73 बार, उस हिसाब से एक सेकंड मेंकरीब 23 बार जन्ममरण होता है निगोद जीव का, तो फिर यों ही समझिये कि एक ही व्यापार है- जन्मे मरे, और जन्ममरण के समान कोई संकट है क्या? सब निरखते हैं, मरते समय का तो संकट लोग खूब जानते हैं, पर जन्म के समय मरण से कम संकट नहीं होता। असल में जन्म तो वह कहलाता है कि दूसरे भव से आकर अगले भव की जो पहले समय में प्राप्ति है वह जन्म है, और पेट से निकला 9 माह बाद, उसको जन्म नहीं कहते। वह तो जन्मा हुआ बच्चा पेट में था वह बाहर निकल आया। तो देखिये कि जिसके बाहर निकलने में ही कितना कष्ट और जन्म के समय यह जीव तैजस कार्माण शरीर को लिए हुए अकेला पहुंचता और वहाँ की आहार वर्गणायें जब शरीररूप बनती हैं तो जीव उनमें मिलेगा मायने शरीर के एक क्षेत्रावगाह में होगा, एक ऐसा बंधन चलेगा तो इतनी बातों में कितनी कितनी गजब की बातें हुई होगी। कष्ट का अंदाज करो और निगोद जीवों को एक सेकंड में 23 बार जन्ममरण का कष्ट भोगना पड़ता है। वहाँ से निकले तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु प्रत्येक वनस्पति हुए तो उनका भी कष्ट भोगा। फूलों को जैसे चाहे तोड़ा, फलो को जैसा चाहा काटा। भले ही गृहस्थों को बताया है कि बिना प्रयोजन वनस्पति का छेदन भेदन न करें। जितना प्रयोजन है सो करें। तो क्या प्रयोजन अनुसार छेदन भेदन करने में उस वनस्पति को कष्ट नहीं हुआ? पृथ्वी को खोदना, सुरंग लगाना, पानी को गरम करना, आग पर पानी डालना, हवा कर देना...ये सब बातें चलती कि नहीं चलती। कष्ट है। हवा को रोकना, रबड़ में भरना, पंखे से झेलना, तब ही तो आलोचना पाठ में कहते हैं- ‘‘पंखे से पवन विलोल्यौ’’ ये ये कष्ट सहे जीव ने, क्यों सहे कि विभावों में आत्मरूपता अंगीकार की इसने कि मैं (यह) हूँ, जो खुद है उसे तो भूल गया, जो सही स्वरूप है उसकी तो सुध नहीं। जो गुजर रहे विभाव हैं, विकार है उनमें माना कि मैं यह हूँ।
1086- अज्ञानी जीव की विकलत्रिक भव में दु:स्थिति-
चलो वहाँ से निकले दो इंद्रिय हुए तो उनकी दशा देख लो- अभी चावलों में लट पड जायें तो कोई उनको आदर से उठाकर सम्मान से कहीं कोई रखता है क्या? या क्या करता है? प्राय: उठाया फेंका, लोग मसल देते हैं, सो अनेक प्रकार के कष्ट होते।पड़े हैं जीव नीचे, लोग अपने जूतों में नाल गड़ाकर और उसमें भी बहुत से कीले गड़ाकर जानबूझकर रौंदते हुए चले जाते हैं, तो कितना उस पद में कष्ट है, तीन इंद्रिय जीव हुए- खटमल, जूँ, लीख, बिच्छू, पटार, कानखजूरा, चींटी, चींटा आदि इनकी भी कौन रक्षा करता है। बुरे बुरे तरिकों से इनकी मृत्यु होती है। देखिये इन इंद्रियों की मोटी पहिचान। एक साँप को तो छोड़ दो, वह तो पंचेंद्रिय जीव है, बाकी जिसके पैर नहीं हैं और पूरे लंबे शरीर से सरकता रहता है वह दो इंद्रिय जीव होगा। लट केंचुवा, जोंक ये दोइंद्रिय जीव ही होंगे। जिनके चार से अधिक पैर हैं और उड़ते नहीं, चलते हैं ऐसे जीव आपको प्राय: तीन इंद्रिय मिलेंगे- चींटा चींटी, कानखजूरा, बिच्छू आदिक। और, जिनके चार या अधिक पैर हैं और उड़ते हैं वेचार इंद्रिय मिलेंगे- मक्खी, मच्छर वगैरह। प्राय: इस मोटी पहिचान से अंदाज जल्दी कर सकते हैं। और, पंचेंद्रिय में तो अधिक बताने की जरूरत भीनहीं, आप सब जानते ही हैं पशु, पक्षी, मनुष्य आदिक तो तीन इंद्रिय हुए तो वहाँ किसने रक्षा की? खटमलों को मारने के लिए लोग खाट पर गरम पानी डालते हैं, लाठी से पीटकर नीचे गिराते या जो जो कुछ भी करते ये क्रूर परिणाम वाले जीव। कोई लोग तो जलती आग में पकड़कर फेंक देते, या उस पर तेज गरम पानी डाल देते। उनके चित्त में करुणा जरा भी नहीं। कैसे कैसे कठिन दु:खभोगे इस जीव ने। चार इंद्रिय जीव हुए, मक्खी, मच्छर ततैयावगैरह बने, उनकी भी कौन रक्षा करता? लोग ततैयों के झुंड के झुंड को आग से फूंक देते हैं या मिट्टी का तेल डालकर मार डालते, कौन उन पर रहम करता। तो हर तरह से कष्ट ही कष्ट भोगा इस जीव ने। अज्ञान से मोह से विभावों में आत्मत्व स्वीकार किया इस जीव ने, ऐसा ही बंध, ऐसा ही उदय, ऐसी ही स्थिति ये सारी बातें यों चली आयीं। यह जीव बड़ा दु:खी रहा।
1087- अज्ञानी जीव की पंचेंद्रिय पद में भी दु:स्थिति-
पंचेंद्रिय के दु:ख देखो इनमें शारीरिक दु:ख तो जो हैं सो है ही, पर मानसिक दु:ख और भी विचित्र हैं। भीतर यह मान कषाय का जो दु:ख लगा है वह भी बड़ा भयंकर दु:ख है। कभी किसी बच्चे को आप जमीन में लिटा दें या बैठा दें तो वह झट रोने लगता है। क्यों रोने लगता? अरे वह ऐसा अपमान अनुभव करता कि मैं इतना ऊँचे चढ़ा था और मुझे नीचे पटक दिया। तो यह मानसिक दु:ख बड़ा कठिन होता है। सहारनपुर का एक किस्सा है। एक कोई छोटा बालक था बजाज का और उसके घर के सामने एक जंबूप्रसाद नाम के रईस का मकान था। उनके घर एक हाथी भी था। तो वह छोटा बालक अपने पिता से यह हठ कर गया कि मुझे हाथी चाहिए। खैर महावत से कहकर हाथी उस बजाज के द्वार पर खड़ा कर दिया गया और उस बालक से कहा उसके पिता ने लो बेटा यह है हाथी। तो वह बालक फिर रोने लगा। पिता बोला अरे अब क्यों रोता है? तो बालक बोला इसे खरीद दो। अब उस हाथी को बजाज के बाड़े में खड़ा कर दिया गया, और पिता ने कहा लो बेटा खरीद दिया। बालक फिर रोने लगा। पिता ने पूछा अब क्यों रोता है, तो बालक बोला अब इस हाथी को हमारीजेब में धर दो। अब भला बतलाओ यह काम कौन कर सकता? तो जो काम असंभव है उसकी हठ में तो दु:ख ही होता है तो प्रत्येक मोही का यह ही हाल तो हो रहा है। हम किसी परपदार्थ का सुधार बिगाड़ परिणति कर पाते हैं क्या? नहीं कर पाते, मगर इसकी हठ है कि ऐसा कर दो, तो उस बालक की तरह की ही तो यह हठ रही। अशक्य बात की भी हठ, अनहोनी बात की भी हठ होती है ना? और हठ बनी है तो ऐसा इन विभावों में आत्मरूपता अंगीकार करके जीव रागी हुआ कष्ट पा रहा है।
1088- अपद से हटकर स्वपद में आने का अनुरोध-
अनादिकाल से जिस पद में, जिस स्थिति में जिन भावों में ये अज्ञानी रम रहे, सो उनके प्रति आचार्य कहते हैं कि वह अपद है, तेरे रमने का स्थान नहीं है, सो हे अंधजनो ! उन रागी मोही जीवों को संबोध रहे हैं, जब एक विशेष प्रीति उमड़ती है समस्त जगत के जीवों पर तो किन्हीं भी शब्दों से संबोधन कर लो, जब अपना स्वरूप ही नहीं दिख रहा तो अंध ही कहेंगे, अरे चेतो, समझो, आवो अपने ज्ञान में, देख तेरा वह पद नहीं है, वहाँ मत रमो, वहाँ आराम नहीं। परपदार्थों की ओर योगदान देना इसमें आराम नहीं, वह अपद है। आवो, इधर से आवो, इस रास्ते से आवो, याने तत्त्वज्ञान, भेदविज्ञान, उस प्रकार की बुद्धि बनाकर रास्ता निकाल लो अपने आपके घर में आने का। वहाँ से चलो, इस रास्ते आवो, तेरा पद यह है, यह है, कुछ लक्ष्य देकर संकेत से कहा जा रहा है कि वह तेरा पद नहीं, पर पदार्थों में रमना, ऐसे विभाव बनाना यह तेरा पद नहीं। तेरा पद तो यह है,जहाँ यह चैतन्यधातु विद्यमान है।
1089- चैतन्य धातु का रहस्य-
इस चैतन्य को धातु क्यों कह रहे? यों कहते कि जैसे धातु के कितने ही बर्तन बनाते जावो, कितना ही कुछ उसमें से बनाते चले जावो तो बनते चले जायेंगे। ऐसे ही इस चेतन में तरंग परिणतियाँ कितनी ही निकलती चली जावें, यह चेतन है, धातुरूप ही है। एक श्लोक है अन्य दर्शन में- ‘‘पूर्णमिदं पूर्णमद: पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णात् पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।’’ देखिये- इदं और अद:, इन दोनों के अर्थ तो एक ही कहलाते यह, यह, मगर यह कहने में भी थोड़ा अंतर है। यह, यह। जैसे पास में दो व्यक्ति बैठे हों, एक जरा और पास है, एक उसके पास में बैठा है तो उनको भी तो कहते हैं ये और ये, मगर इन दोनों ‘‘ये’’ में कुछ अंतर है कि नहीं? एक कुछ निकट है, एक कुछ दूर है, ऐसा इदं और अद: इन दो शब्दों में अद: निकट है, इदं उसके निकट है, पूर्णमिदं पूर्णमिदं यह पूर्ण है, यह पूर्ण है, पहिले एक पिंडरूप दिखा मान लो, फिर एक अपने आपके एक सहज स्वभावरूप दिखा। समक्ष दोनों ही हैं। यह श्लोक तो है अन्य दर्शन का, पर इसमें क्या रहस्य है, वह जैन सिद्धांत के अनुसार सब कह रहे हैं। पूर्णात्, पूर्णं उदच्यते इस पूर्ण से पूर्ण निकल रहा है, यह आत्मा परिपूर्ण है और इसमें जो पर्याय प्रकट होती है वह परिपूर्ण है। पहले ही समय में जो भी पर्याय है वह पूर्ण है। कभी पर्याय यों नहीं बना करती कि अभी अधूरी बनी, अभी आधी मिटी। पर्याय एक परिपूर्ण पदार्थ का परिणमन है और उसकी अविनाभावी एक समय की जो पर्याय है वह परिपूर्ण है। पूर्ण में से पूर्ण निकलती है, और पूर्ण से पूर्ण कितनी ही निकलती चली जायें, उन पूर्णों को ग्रहण करके, ज्ञान में ग्रहण करके कहीं रख भी देवें तो भी वहाँ पूर्ण ही शेष रहता है। यह आत्मा पूर्ण है, इस पूर्ण आत्मा से पर्याय प्रतिसमय पूर्ण ही निकलती है, विकार पर्याय है वह भी पूरी है, स्वभावपर्याय है वह भी पूरी है, पूरी के मायने ऐसा नहीं कि बनने में आधी बन पायी आधी नहीं बन पायी। प्रतिसमय में जो भी पर्याय है वह अपने में पूर्ण हैं। भले ही यह भेद है कि हम अपने उपयोग में एक समय की पर्याय को ज्ञेय कर नहीं सकते, क्योंकि छद्मस्थ हैं। जयधवल में इस प्रकरण में बताया है कि किस तत्त्व का कितना समय, किस तत्त्व का कितना समय है और उपयोग द्वारा कोई पदार्थ ज्ञान में आता है तो वह असंख्यात समय के उपयोग में ज्ञेय हो पाता है। यह तो है एक छद्मस्थ जीव की बात। और इसी का ही लक्ष्य करके फिर बोद्धों में यह बात निकली है कि देखो जिस समय में पर्याय हुई उस समय में तो यह जीव उसे ज्ञात ही नहीं कर पाया, क्योंकि असंख्यात समय के उपयोग में निर्धारण कर पाता यह जीव, तो जो वास्तविक प्रत्यक्ष है वह निर्विकल्प है, दर्शन मात्र है, क्षणिकवाद प्रत्यक्ष को दर्शन कहता है और उसके बाद जो समझा वह सब विकल्प है, और विकल्प कल्पना है और कल्पना से जो जाना जाता है, वह जो कुछ भी जीवों को ज्ञान में आता है वह सब कल्पनारोपित है, ऐसा क्षणिकवाद में एक सिद्धांत बना है। नहीं फबता तो युक्ति से तो जानते। अगर एक समय में पूर्ण नहीं तो दो समय में मिलकर भी पूर्ण नहीं हो सकता, तीन चार असंख्यात समयों में भी नहीं हो सकता। तो प्रतिसमय में अपने आपमें अपने आप परिपूर्ण है, वहाँ अधूरापन नहीं तो ऐसे पूर्ण से पूर्ण निकलते चले जा रहे हैं, फिर भी यह पूर्ण ही शेष रहता है। यह ही तो है चैतन्य धातु का रहस्य।
1090- चैतन्यधातुधाम में आने का आह्वान-
जहाँ यह चैतन्यधातु है मूल बीज चैतन्यस्वरूप सहजभाव, आचार्य कहते हैं कि यहाँ आवो, यह है तेरा पद। तू अपने स्वरूप को भूलकर त्यागकर बाहर-बाहर उपयोग भ्रमा रहा तो तू पर घर मेंजा रहा। ‘‘पर घर फिरत बहुत दिन बीते’’ ये बाहर के जितने पदार्थ हैं उन पर दृष्टि देना और पर का आश्रय करके अपने में नाना कल्पनायें बनाना यह फिरना ही तो है। अपने आप पर दया भाव करके सोचना है। प्रथम तो पर का आश्रय करके, पर का लक्ष्य करके जो विकल्प किया जाता, जो कल्पनायें बनती, ये सब अकल्याणरूप है और परपदार्थों में तीव्र इष्ट अनिष्ट बुद्धि बनाना, यह मेरा है, यह गैर है, इस प्रकार की वहाँ इष्ट अनिष्ट बुद्धि बनाये तो आप समझो कि ऐसी भावना वासना के रहते हुए इस जीव को स्वानुभव की पात्रता भी है क्या? मैं आत्मा हूँ। केवल आत्मा का ही नाता रखना है, मुझे श्रेय, कल्याण, आनंद चाहिए। मैं अब भटकना नहीं चाहता। देखिये- यह बात भी विकल्प के समय की है। जब देख लिया तो बस देख लिया। अब कुछ करना है क्या? नहीं नहीं देख, लिया, देखने के लिए देख लिया, बस यही प्रयोजन हो, यही कार्य हो, यह तो बहुत अंत: समाधि वाली बात है। आइये इस रास्ते से, यह है तेरा धाम, जहाँ यह चैतन्यधातु विराजमान है। जो शुद्ध है याने निष्पीत हो गये हैं गुण पर्याय जहाँ ऐसा अखंड है, गुण और पर्याय का जहाँ भेद नहीं, बुद्धि में भेद नहीं। यद्यपि पर्याय बिना द्रव्य होता नहीं और गुण भी हैं तो भेददृष्टि में हैं, लेकिन जब उस स्वभाव को, सहज चैतन्यस्वरूप को, अखंड तत्त्व को हम उपयोग में लेते हैं तो वहाँ क्या है? न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है। अरे तो फिर चौथी क्या है? चौथी चीज है अर्थ। तीन बातें तो बड़ी प्रसिद्ध हैं- द्रव्य, गुण, पर्याय, पर द्रव्य भी भेद की बात, गुण भी भेद, पर्याय भी भेद। तब ही बताया है- दव्बगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्बत्तो।.....प्रवचनसार में बताया है- द्रव्य गुण पर्याय में जो स्थित है वह अर्थ स्व अस्तित्व से रचा हुआ है।
1091- स्वरसभर चैतन्यधातु का स्थायित्व-
अंतस्तत्त्व शुद्ध है याने इन सब भेद कल्पनाओं से अतीत है और अपने ही रसभार से ये स्थायी भावपने को प्राप्त होते हैं, यह भी तो स्थायी है। इसका जो स्वरस है, चैतन्यतत्त्व का जो अपने आपमें एक रस है, प्राण है, स्वरूप है वह तन्मय है। पूर्ण है, इस सहजकला के कारण यह स्थायीभावपने को प्राप्त होता है, सदा रहता है, एक स्थायीरस के अनुभवपूर्वक यह चैतन्यधातु विराजमान रहता है। तात्पर्य इतना है कि पर से हटें अपने आपमें लगें, अपने आपमें ही छाँट कीजिये, पर्याय में नहीं लगना, देह में नहीं लगना, किंतु अभेद विधि से अपने आप जैसा अखंड स्वरूप को निरखा उसमें यह अनुभव करना है कि यह मैं हूँ, इसके अतिरिक्त जितने भी विभाव भाव हैं वे मैं नहीं हूँ। तब ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि मैं सेठ हूँ, पंडित हूँ, धनी हूँ, त्यागीहूँ, आदिक जो जो कुछ भी अपने आपमें बुद्धियाँ लगायी जा रही है, वह सब ऐसी श्रद्धा में है तो अज्ञानभाव है। जैसे कोल्हू में पिलकर भी मुनिराज उस शत्रु पर समभाव रखते, उसे शत्रु नहीं समझते फिर भी संभव है कि ये मुनि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि रह सकते हैं। अरे इतना तपश्चरण किया फिर भी बात क्या हुई? तो बात यह हुई कि अपने को माना एक पर्यायरूप में- मैं मुनि हूँ, मुनि अवस्था है। मगर श्रद्धा में यह माना कि मैं मुनि हूँ तो क्या मानना चाहिए था मैं सहज चैतन्यस्वरूप हूँ।इस पर तो टिक नहीं पाये और एक बाहरी भेष में, पद में मैं मुनि हूँ, मुझको बैर न करना चाहिए नहीं तो मुक्ति न मिलेगी, यों कितनी ही बातें विचारते जावो जब एक मूल भूमि गलत है, जब एक पर्याय में आत्मबुद्धि की हुई है तो कितनी भी बात होती जायें, ऐसा ही कहा जाता है रागी, मोही तो ऐसे जीव अब तक जिस स्थिति में रहे हैं, घूमें हैं,वह परपद है नहीं, स्वपद वहाँ से हटें और अपने पद में आयें।