वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 137
From जैनकोष
दित्युत्तनोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरंतु । आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यक्त्वरिक्ता: ॥137॥
1074- सम्यक्त्व पाने के उपाय में प्रथम पौरुष- सम्यग्दृष्टि किसे कहते हैं? जो अपने सहज चैतन्य स्वरूप को जाने और ऐसी श्रद्धा रखे कि यह ही मेरे आत्मा का स्वरूप है, यह ही मैं हूँ। निज सहज चैतन्य स्वभाव में मैं का जो अनुभव कर चुका, सहज एक मैं की जिसमें प्रतीति है वह होता है सम्यग्दृष्टि। तो ऐसे आत्मतत्त्व को जानता कौन है? मैं चित्प्रकाशमात्र हूँ, ऐसा उपयोग में आ जाय, ऐसी प्रतीति में रहे, ऐसी स्थिति बनती कब है? तो एकदम स्पष्ट बात है कि यह जो नहीं हो रहा था वह किस वजह से नहीं हो रहा था?आत्मा के सहज स्वरूप का बोध, श्रद्धान, अनुभव आदिक नहीं हो रहे थे, किस कारण नहीं हो रहे थे, आत्मा में जो विभाव हुए, रागादिक विकार हुए उन रागादिक विकारों में इसने अहं का बोध किया, यह मैं हूँ, मैं हंसता हूँ, मैं करता हूँ, मैं कराता हूँ, मैं रोता हूँ...आदिक रूप से विभावों के रूप में रंगकर यह अपने भगवान अंतस्तत्त्व का बड़ा तिरस्कार करता था सो यह सहज अंतस्तत्त्व ढका हुआ था, याने अपने उपयोग में न आ रहा था, तब क्या करना था, क्या करना चाहिए कि उस विभाव से उपेक्षा हो, कि यह मेरी वस्तु नहीं, मेरा स्वभाव नहीं, कैसे उपेक्षा हो? तो इसके लिये दो तीन गाथायें में जो ऊपर आयी हैं उनके अनुसार यह समझना कि ये विभाव परभाव हैं, मेरे स्वभाव नहीं। बस इतना निर्णय होते ही विभावों से उपेक्षा हो जायगी। 1075- उदाहरणपूर्वक भ्रम में व्याकुलता और निर्भ्रम होने पर निराकुलता का वर्णन-
जैसे जब कभी किसी बालक में यह भ्रम बन गया कि यह मेरा बालक है तो उस अनुरूप इसका विकल्प बनता है, जब कोई बालक नाली में गिर गया और इस देखने वाले मोही को यह भ्रम हो गया कि ओह मेरा बच्चा गिर गया तो उसको व्यग्रता, व्याकुलता बहुत बनती है और थोड़े समय बाद परख करके जब जाना कि यह मेरा बच्चा नहीं, तो उसके हृदय को तो देखो कैसा वह अपने मौज की ओरआ जाता है, यह एक मोह की ही तो बात है। जैसे राजवार्तिक में दृष्टांत दिया है कि एक बालक को किसी हस्ती ने सूंड से पकड़ लिया और उसे मरोड़कर बड़ी दूर फेंक दिया, अब उस देखने वाले को यह भ्रम हो गया कि यह मेरा बालक है जिसे हाथी ने पटका, उसी उम्र का था, वैसे ही रंग का था, वैसे ही डीलडौल का था। तो उस घटना को देखकर वह मूर्छित होकर गिर पड़ा।लोग इकट्ठे हो गए, कुछ पानी के छींट वगैरह डालकर उसको सचेत करने का उपचार करने लगे। किसी बुद्धिमान पुरुष ने उनके मूर्छित होने का कारण समझ लिया, इसी बीच उस मूर्छित हुए पुरुष के बालक को उसके घर से बुलवा लिया। कुछ देर बाद उस पुरुष की आँखें खुलीं, अपना बालक अपने नेत्रों के सामने दिखा तो समझ गया- अरे वह तो मेरा कोरा भ्रम था, वह मेरा पुत्र न था। तो ऐसे ही समझो कि यह जीव इन विभावों में रचपच रहा है और उन्हें यह अपना मान रहा है, यह जीव भी इन विभावोंरूप बनकर कुछ से कुछ चेष्टा करता, चिंतन करता, बोलता। यही कारण है कि वह अपने इस चैतन्य महाप्रभु के दर्शन नहीं कर पाता। तो पहला काम है कि इन विभावों से उपेक्षाहोना। देखिये- यद्यपि परस्पर साध्यसाधकता है। कुछ स्वभाव की परख हो तो जाने कि ये विभाव परभाव हैं। इन विभावों की ओरसे वैराग्य हो तो स्वभाव की ओरउन्मुखता बने। इससे पहले क्या करना, पीछे क्या करना, यह कुछ छाँट न करना होगा। कल्याणार्थी को अपने आप जिस प्रकार जो पीछे होना होगा, हो जायगा।
1076- विभावों से उपेक्षा पाने के लिये विभावों की परभावता का परिचय- इन विभावों को परभाव जानें, कैसे जानें कि ये कर्मों के उदयविपाक से उत्पन्न हुए हैं, ये मेरे स्वभाव नहीं हैं। मैं तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायकस्वभाव हूँ। यह तथ्य एक गाथा में बताया, बाद की गाथा में भिन्न-भिन्न करके कहा कि रागप्रकृति नाम का पुद्गल कर्म है। उसके उदयविपाक से उत्पन्न हुए ये रागभाव हैं, ये मेरे स्वभाव नहीं। देखिये- निमित्तनैमित्तिकभाव की बात जहाँ कहीं भी आये यह समझना कि निमित्तभूत परद्रव्य उपादान की परिणति को नहीं करता। और वह तो मात्र अपने प्रदेश में ही अपना कार्य कर पाता है। प्रत्येक पदार्थ जितने में व्यापक होते हैं, जितने प्रदेश में है, सभी पदार्थ अपने प्रदेश में ही अपनी कृति कर पाते हैं। अपने प्रदेश से बाहर उनका न द्रव्य, न क्षेत्र, न काल, न भाव, कुछ भी नहीं होता है। भले ही ऐसा दिख रहा है कि यह सूर्य का प्रकाश तो है, मगर विचारो जरा, सूर्य कितना बड़ा है पहले यह निर्णय बनावें। तो कहेंगे कि कुछ कम दो हजार कोश का है, तो बस वह जितना है सूर्य का सब कुछ उतने में ही है। उतने से बाहर नहीं है। फिर यह प्रकाश होता कैसे? बस यह ही निमित्तनैमित्तिकभाव का रहस्य है। उसका सन्निधान पाकर ये पदार्थ अपने आपमें भी तो ऐसी ही योग्यता रखते हैं कि प्रकाशस्वरूप बन जाय, तो उसका सन्निधान पाकर ये ही पदार्थ अपनी अंधकार अवस्था को छोड़कर प्रकाशरूप में आये। ऐसी बात न हो तो कोई इसका कारण तो बताये कि काँच पर क्यों अधिक चमक होती है? दरी पर, भींट पर चमक कम क्यों होती है? यदि सूर्य का ही प्रकाश यहाँ उतरता है तो वह तो समान होना चाहिये, पर बात हुई क्या कि काँच में उस प्रकार की योग्यता है दर्पण में उस प्रकार की प्रकृति है कि सूर्य का सन्निधान पाकर वह इस प्रकार अपने में चमक बनाये और उस दरी आदिक में भिन्न तरह की प्रकृति है। तो रागनामक जो प्रकृति है वह जीव में ज्ञानविकल्परूप रागविकार को नहीं करता, किंतु वह तो एक वातावरण है केवल, और उस वातावरण में वे अशुद्ध उपादान जीव अपने में स्वयं अपना राग विकाररूप प्रभाव बना लेते हैं। तो अब जब इस तरह से समझा इस ज्ञानी ने कि ये तो परभाव हैं, जैसे दर्पण में फोटो है तो कहते हैं कि यह पर का फोटो है, परभाव है, वहाँ यह अर्थ लेना कि पर का निमित्त पाकर खुद में होने वाला परिणमन है। परभाव का अर्थ पर की परिणति नहीं। पर की परिणति उस पर में ही हैं, मगर पर का सन्निधान पाकर इस स्व ने अपने आपमें उस प्रकार का विकल्प किया है तो वे परभाव है, ये मेरे स्वभाव नहीं है। 1077- विभावोपेक्षा, स्वभावोन्मुखता, निरास्रवता, स्ववस्तुत्वप्रसिद्धि का दिग्दर्शन-
जब सम्यग्दृष्टि ने सामान्य रूप से जाना कि विकार मेरा स्वरूप नहीं, विशेष रूप से जाना कि ये राग, ये द्वेष, ये क्रोधादिक कषायें मेरे स्वरूप नहीं, तो समस्त परभावों से अलग बन गया, उपयोगत: अलग बन गया, ज्ञान में, उपयोग में, श्रद्धा में, प्रतीति में जब से सम्यक्त्व है तब ही से विभाव से वह अलग हुआ है और वह समझ रहा है कि यह टंकोत्कीर्णवत् निश्चल नामक स्वभावमात्र मैं यह अंतस्तत्त्व हूँ। इस प्रकार तत्त्व को जान रहा यह ज्ञानी और वहाँ स्वभाव का ग्रहण हो रहा, परभाव का परित्याग हो रहा है। विकार पूर्णतयाआत्मप्रदेश से कुछ बाहर हो रहा यह नहीं कह रहे। अभी तो करणानुयोग से बतला रहे हैं कि चारित्र मोह का उदय है और प्रतिफलन है और उसके अनुरूप वहाँ विकार भी है, वह अबुद्धिपूर्वक विकार है। बुद्धि तो लग रही है आत्मस्वरूप में, सो जब ज्ञानोपयोग इस अंतस्तत्त्व में लग रहा है तो वहाँ उपयोग में भी वह सबसे निराला है और श्रद्धा में भी वह सबसे निराला है और पुरुषार्थ बन गया है बुद्धिपूर्वक। और, बुद्धिपूर्वक जो अंतस्तत्त्व में लगे यह ही प्रयत्न बुद्धिपूर्वक आस्रव को तत्काल दूर करता है और अबुद्धिपूर्वक आस्रव को भी दूर करने का उपाय यह ही अंत: का आश्रय है। पर वहाँ बुद्धिपूर्वक कुछ नहीं हो रहा, ऐसा ही सहज निमित्तनैमित्तिक योग है कि यह आत्मा अपने स्वभाव का आश्रय करे तो वहाँ वे कर्म स्वयं अपने कर्मत्व अवस्था का परित्याग कर देते हैं तो इस प्रकार अपने वस्तुत्व को हमने अपने ज्ञान में प्रसिद्ध किया और कर्मोदयविपाकप्रभव समस्त भावों का परित्याग किया। ऐसी स्थिति होने से यह सम्यग्दृष्टि ज्ञान और वैराग्य से संपन्न होता है।
1078- ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की चर्चा सुनकर श्रोतावों की तथ्यबोध में विचलितता का अवसर और उस विचलितता का परिहार-
ज्ञान ज्ञानप्रकाश ही ज्ञान में हो रहा है, ऐसी बात सुनकर देखिये किसी के विचलित होने के अनेक अवसर हो जाया करते हैं। कोई पुरुष इस ज्ञानमात्र तत्त्व चर्चा सुनकर और यही एक सर्वस्व है, इसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं यह बात आ रही है ना, अपनी ओरमात्र उपयोग चल रहा है सो, सुनने वाले लोग कोई कैसी ही उड़कर बात कह सकता। उपदेश में जो कहा जा रहा था वह तो उसकी दृष्टि में न रहे और एक ही ध्यान में रहे, बस सब कुछ ज्ञानमात्र है, ऐसा सुनकर भी तो एक विश्वास बनता कि जगत में जो कुछ है वह सब विज्ञानमात्र है। अच्छा, जो और कुछ दिख रहा है तो आखिर वह समाधिस्थ तो था नहीं, बात तो सब सामने दिख रही थी और जो यह कुछ बाहर दिख रहा सो यह भी विज्ञानमात्र है। अन्य जुदा समझ में नहीं आ रहा। अरे दृश्यमान यह सब विज्ञानमात्र है प्रतिभासमान होने से। जो जो प्रतिभासमान होते हैं वे सब विज्ञानमात्र हैं। हेतु भी एक पकड़ लिया गया। अब दृष्टि में आ गया कि वह सब विज्ञानमात्र है, अब देखिये फुंसे में फुंसे कितने फूटा करते हैं। ज्ञानमात्र की एकांतिक निगाह में यह समझा कोई कि यह सारा जगत विज्ञानमात्र है। जैन लोग जो कहते हैं कि पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल सो ये कुछ नहीं, ऐसा दृष्टि में आया विज्ञानवाद में और थोड़ा और सोचें कि यह प्रतिभास तो हो रहा, जानना तो हो रहा मगर यहाँ एकता नहीं है, क्षण क्षण विध्वंसी है। तो वहाँ एक जो प्रतिभास है वही एक पूरा पदार्थ है यों समझ डाला और इसका नाम रखा ज्ञानक्षण। बस ज्ञानक्षण यह ही पूर्ण पदार्थ है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। चलो विज्ञानाद्वैत से आये उस ज्ञानक्षण पर। उस ज्ञानक्षण के लिए कुछ विचार चला कि यह कैसे पैदा हुआ? कहाँ से पैदा हुआ, कब तक रहेगा, जो काम बन रहा है वह कैसे बनेगा, इन सब बातों पर जब विचार चलता है तो सब ज्ञानक्षण निरन्वय जंचे। निरंशवाद ने यही समझा कि यह ज्ञानक्षण है, स्वयं हुआ है, स्वयं नष्ट हुआ है इसके आगे कोई संबंध नहीं है, इस तरह की धारा चलती है और इस तरह होते हैं सौत्रांतिक, माध्यमिक आदिक।ये क्षणिकवाद के चार समुदाय बन गए। यह नहीं जाना कि सहज स्वरूप को ज्ञानमात्र कहा जा रहा है सो जब ज्ञान में ज्ञानस्वरूप समाया हुआ है तब तो यह बोलता ही नहीं है, वहाँ तो अनुभव ही है, यह अनुभव ले रहा है, अनुभव के बाद जब वह अपने को समझाता दूसरे को कहना पड रहा अंतर्जल्प से, बहिर्जल्प से तो वह कहता है कि बस तत्त्व ज्ञानमात्र है।
1079- सम्यग्दृष्टि के भ्रम से आत्मसिद्धि की असंभवता-
ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व को जो जानता है वह ज्ञान और वैराग्य से संपन्न होता है बात तो आयी अंतर में प्रयोग की। प्रयोगात्मक स्व वस्तुत्व का परिचय जिसे होता है सो सम्यग्दृष्टि है। मात्र वचनात्मक परिचय से सम्यग्दृष्टि नहीं है, लेकिन बात तो सभी की सुनना है, और मैं सम्यग्दृष्टि हूँ ऐसा सुनने कहने कहलाने की एक लालसा भी बनी हुई है, इसमें अपनी प्रशंसा भी मानी जाती है, तो यह किंचित्किसी अनुरूप कह-सुनकर जो ऐसा अपने मन में सोच लेता है कि यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, उसके कभी भी बँध नहीं हो सकता। ऐसा एक अपने आपके बारे में निर्णय बनाकर इस तरह चलने लगा कि ऊँचा मुख उठाये, पुलकित हो औरों को तुच्छ देख रहा, इस प्रकार एक अपनी मुद्रा निराली बनाकर वह कुछ भी आचरण करता है। उसको अपने विभावों में राग हुआ है, सो उस रागवश कुछ भी यह अपनी चेष्टायें करता है तो ऐसी चेष्टायें करे कोई तो करे और इस प्रकार से कोई समिति, तप, व्रत आदिक को जो बड़ी निष्ठा से पालता रहे, पाले, आलंबन करे तो भी वह अब तक भी पापमय है। यह कुंदकुंदाचार्य कह रहे, अमृतचंद्र सूरि टीका में कह रहे तो मुनि अवस्था में रहने वाले अमृतचंद्राचार्य को यह अधिकार था कि अपने समकक्ष में जो मुनिजन हैं वे केवल इन बाह्य क्रियावों में ही आसक्त न रहें, तो उनको ऐसी डाँट-डपट के साथ कहा जा रहा है कि ये समिति में तत्परता का आलंबन करें तो करें,मगर ये अब तक भी पापमय हैं। पाप कहते किसे हैं? जो कल्याण से बचावे (बरकावे),उसका नाम पाप है। जो अच्छी बात से रक्षित रखे, बचावे, दूर रखे उसका नाम है पाप। याने कल्याण में न लगे, श्रेय में न लगे ऐसा जो कोई भाव है उसका नाम है पाप। पाप शब्द बहुत बढ़िया रखा है कि इस पाप के शब्दार्थ को जान लेवे और समझे तो कम से कम बुरा तो न माने। बुरा तो तब मानें जब कल्मष या कलुष आदिक शब्दों से कहें। पाप शब्द तो बड़ा सुहावना है। क्या इसी कारण बच्चे बाप को पापा कहने लगे। जो अच्छी बातों से, धर्म से, कल्याण से बचाकर रखे उसे कहते हैं पाप। तो वहाँ यह धर्म से बचा हुआ है, अलग पड़ा है, स्वभाव का परिचय नहीं तो संतोष कहाँ से करे, वास्तविक तृप्ति कहाँ आयी। आत्मसिद्धि का मार्ग उसे मिला नहीं है तो उससे यह अलग है, इसलिए अब तक भी यह पापरूप ही है।
1080- आत्मा और अनात्मा के बोध से रहित होने से जीव की पापमयता-
व्रतादिक को पालता हुआ भी कोई क्यों पापरूप है? इसको आत्मा और अनात्मा का बोध नहीं। आत्मा व अनात्मा के परिचय से यह अलग है, इसी कारण यह सम्यक्त्व से शून्य है। एकै साधे सब सधे, एक अपने आत्मा के उस सहज स्वरूप को पहिचान लें, वहाँ ही दृष्टि का अभ्यास बनावें, वहाँ ही अनुभव अपना बनावें, मैं यह हूँ, सब काम बनेगा स्वयं जैसी बनना है वह सब निमित्तनैमित्तिक योग से स्वत: होता है। कर्म भी दूर होगा, विभाव भी दूर होंगे, पर अपने को कर्म पर दृष्टि देकर इसको मैं चूर दूँ, इसको मैं मसल दूँ...इस तरह इन कर्मों पर दृष्टि देकर तो यहाँ कर्म ही बढ़ेंगे, घटेंगे नहीं। विभावों पर दृष्टि देकर, ये राग बड़े दु:खदायी हैं, बड़े कष्टकारी हैं, यह कहने में कुछ हर्ज नहीं, मगर स्वभाव दृष्टि न जगे, स्वभावाश्रय न जगे, सहज स्वभाव की श्रद्धा नहीं हुई तो कोई उपाय नहीं है कि हम उस आस्रव से दूर हो सकें। जितने भी उपदेश हैं उन सब उपदेशों में इस ही स्वभावदृष्टि का प्रयोजन पड़ा हुआ है। जितने भी नय हैं उन सब नयों में इस ही स्वभाव दृष्टि के पौरुष का प्रयोजन पड़ा हुआ है। जितना भी जो कुछ तत्त्वज्ञान है उन समस्त ज्ञानों में इस ही स्वभावदृष्टि करने के पौरुष का प्रयोजन पड़ा है। बस वह नहीं मिला जिसे यह सम्यक्त्व से रिक्त है। वहाँ आत्मा और अनात्मा का बोध नहीं है, इस कारण से वह अब तक भी पापमय है।
1081- अपनी कमी देखकर उसे दूर करने का अनुरोध-
देखो एक अपनी कमी की बात, कभी ऐसी बात सुनकर कि वह समिति का भी आलंबन करे, तपश्चरण का भी आलंबन करे तो भी पापमय है, ऐसा कहते सुनते उमंग आये और दोष में ही दृष्टि जाय, अपने आपके पापमय अविरतभाव का पछतावा न हो, कुछ दृष्टि न जगे तो वह उपासक नहीं है, क्यों ऐसी दृष्टि देना चाहिए? प्रयोजन क्या पड़ा है? क्यों अहंकार कर लिया? अपने आपके बारे में तो सोचना चाहिए कि मैं कितना विभावों में रमता हूँ, कितना इनको अपना रहा हूँ, कैसा खुद में अव्रत विष बना हुआ है। कैसे मैं इससे हटकर अपने में रहूँ, अपनी बात अधिक सोचना चाहिए और अपने को छोड़कर अपनी सुध छोड़कर बाहर में बहुत खोज करें- अमुक दृष्टि, अमुक त्यागी, अमुक यों यों और अपने आपकी कुछ भी बात न हो तो एक अपने लिए कोई प्रगति का मार्ग नहीं है। अपनी बात सबसे पहले सोचना चाहिए कि मैं किस स्थिति में पड़ा हूँ, और दु:खी हो रहा हूँ, मेरे में सम्यक्त्व है या नहीं है, मैं कितना अपनी सुध छोड़कर चल रहा हूँ, मैं दर्शन करने आता, पूजन में आता, स्वाध्याय में आता, इस प्रकार से अपने आपको कुछ न कुछ में जुटाये रहता, पर इतना होने पर भी स्वभाव के सुध की किसी क्षण विद्युत की ही तरह थोड़ी बहुत कभी चमक आ पाती है कि नहीं। अपने आपको सोचना है, और देखिये संसार को निरखकर हम क्या पार पायेंगे? हम अपने आपका शोधन करें, हम अपने आपको विभावों से उपेक्षित करें, स्वभाव से प्रीति करें, स्वभाव में रत हों, इसका अपना अभ्यास बने, उद्यम बने।
1082- सर्वतोमुखी ज्ञान से स्वभावदृष्टि का लाभ लेन देनका संदेश-
देखिये जिंदगी कुछ नहीं रही और बहुत है, जब दिन के 24 घंटे नहीं गुजर पाते शांति में तब तो समझिये बहुत है जिंदगी, जब एक ही दिन पहाड़ सा लग रहा तो कैसे कहेंगे कि जिंदगी थोड़ी और, जिंदगी बहुत है यह कैसे कहें? जब कल का भी पता नहीं कि अचानक क्या हो जाय तो यह भी कैसे कहें कि जिंदगी बहुत है? कुछ भी हो, जब इतना जीवन का समय है और सारा समय एक स्वभावदृष्टि में लग जाय सो होता नहीं, तब तो अपना आराम स्वाध्याय में है, चारों अनुयोग हैं उनका कभी कोर्इ अध्ययन, कभी कोई अध्ययन, उसके अनुरूप बात कही जा रही है तो एक प्रेरणा मिलती है। आप उल्टी बात भी मानो पढ़े तो भी स्वभावदृष्टि की प्रेरणा मिलती है। आप पाप की बात पढ़े- उसने ऐसे ऐसे मद्य, मांस वगैरह के सेवन किए, ऐसे ऐसे व्यसन किए, ऐसे ऐसे पाप किए, इस इस तरह से नरक गए, कदाचित् यह भी अध्ययन करें तो इसके बीच भी विरक्ति और स्वभाव के अनुरूप आश्रय के प्रसंग आते हैं, यों तो जैसे गेंद के खिलाडी बालक की लीला की बात है, जो बड़ा निष्णात् चतुर बालक है, वह गेंद खड़े खड़े खेल ले, जमीन में लेटकर खेल ले, हाथ से खेल ले, पैर से खेल ले, वह एक लीला मात्र में ही गेंद का खेल खेल लेता है, इसी तरह जिस ज्ञानी को तत्त्वज्ञान जागृत हुआ हैउसमें तो ये सब कलायें स्वयं आ गई हैं, किसी भी अनुयोग का वह अध्ययन करे, कोई भी शास्त्र पढ़ रहा हो, उसका तो ऐसा तत्त्व में वासित हृदय है कि वह स्वभावदृष्टि का अवसर उन सभी उपदेशों के अध्ययन से पा लेता है। अन्यथा चाहे चर्चा कर रहे हों स्वभावमात्र ज्ञानमात्र की, तो लग तो रहा काफी समय इसकी चर्चा में, पर संभव है कि वह एक केवल रुटीन सा बन जाय, और इस तरह बन जायगा कि कुछ वहाँ मिला ही नहीं, कोई नियम की बात नहीं कह रहे, यह कह रहे आपको किस प्रकार से अपना जीवन बिताना चाहिए जिस तरह से हमको सफलता में सुगमता हो, और यदि कुछ चरित्र देखा तो वहाँ से भी प्रेरणा मिली, कुछ कर्मसिद्धांत देखा, दर्शनशास्त्र से भी कुछ जानकारी किया, समय तो बहुत है, रातदिन के 24 घंटे पड़े हैं, कम से कम प्रतिदिन 5-6 घंटे पढ़ना है, अध्ययन मनन करना है, तो सब तरह से अध्ययन करके जो अध्यात्मशास्त्र हैं उनको पढ़ा, तो एक ऐसा प्रयोग बनेगा जिससे फिर सहज सुगम एक बड़ा अवसर मिलता है कि हम अंतस्तत्त्व के निकट पहुँचते हैं।
1083- सम्यग्दर्शन की श्रेयस्करता व सम्यक्त्वभ्रम की अश्रेयस्कता-
सम्यग्दर्शन का स्वरूप है बहुत ही श्रेयस्कर, वह जिन्हें मिलता है उनका कल्याण होता है। मगर कोई सम्यग्दर्शन तो पाये नहीं और मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मेरे कर्मों का बंध नहीं होता, इस तरह से अपना मुख फुलाये, खूब पुलकित हो होकर खूब उछल उछलकर हा हा हा हा करे, सब तरह से खूब बातें करे तो चूँकि उसके मन में यह बसा है कि मैं सम्यग्दृष्टि हूँ और अनुभव बनता नहीं, प्रतीति बनती नहीं, ऐसे जन बड़ेबड़े तप व्रत आदिक भी कर लेवें तो भी आत्मा और अनात्मा का बोध न होने के कारण सम्यक्त्वशून्य है। अपने आपको बड़ा सोच विचारकर ऐसा जीवन बनाना चाहिए जो अपने को लाभप्रद हो।