वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 140
From जैनकोष
स्वादं द्वंद्वमयं विधातुमसह: स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् । आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम् ॥140॥
1097- समस्त ज्ञानरश्मियों को एकता में लाने का ज्ञानोद्योग- यह आत्मा ज्ञान को एकता में लाता है, एक रूप करता है। अभी देखो ज्ञान कैसा स्वच्छंद फिर रहा है, यह ज्ञान कैसा उठ-उठकर यहाँ वहाँ कहीं जा रहा है। जैसे कोई नल की धार अंगुली लगा देने से किसी तरह आवरण होने से छितर बितर हो जाय तो वह जल की धार इधर उधर दूर भागती है, वह एक रूप में नहीं रहती है, ऐसे ही इस ज्ञान में अज्ञानमय रागद्वेष की के हाथ अंगुलियों का आवरण होने से यह तितर बितर हो रहा। इस ज्ञान की विशुद्ध सही मोटी धार नहीं बन रही, यहाँ भागता, वहाँ भागता, इसे सोचता, उसे सोचता, लेकिन जो विवेकी आत्मा है वह अपने में एक ऐसा उपाय बनाता है कि उसका ज्ञान एक दूसरे में एकता को प्राप्त होता है। वह विधि क्या है, किस तरह कर रहा है? उसने तत्त्वज्ञान किया, वस्तुस्वरूप का निर्णय किया, सो एकज्ञानभाव से भरपूर एक महान स्वाद को प्राप्त हुआ। वह स्वाद है ज्ञायकभाव निर्भरसाम्यरस का। 1098- सर्व शब्दों की विशेषणरूपता- देखिये कहना तो पड़ेगा कुछ न कुछ, मगर कोई शब्द ऐसा नहीं है जो शब्द विशेष्य बन जाय याने गुण की तारीफ तो न करे और केवल पदार्थ का नामहीरहे। देखो विशेष्य के शुद्ध नाम को कहते हैं नामवाचक संज्ञा, मगर जितने भी शब्द हैं वे सब विशेषण ही विशेषण हैं। विशुद्ध नाम का शब्द एक भी नहीं मिल रहा। लेकिन उन विशेषणों से ही अपना काम चलाते हैं? कौनसा आप शब्द कहेंगे? कहा कि चौकी ले आवो तो चौकी के मायने क्या? जिसमें चार कोने हों सो चौकी, चटाई ले आवो चट आई लो चटाई, दरी- देर अरई सो दरी, याने जिसके लाने, घरी करने आदि में देर लगे, कमंडल के मायने पानी, मंड मायने शोभा, याने पानी जिसमें शोभित होवे, सो कमंडल, कं मंडते यत्र स: कमंडलु: यों आप कितनी ही चीजों के नाम लेते जावो, हर नाम उस चीज की विशेषता बताने वाला ही होगा, भले ही उस शब्द का अर्थ भी हम आप आसानी से न निकाल सकें फिर भी वह नाम उस चीज की कुछ न कुछ विशेषता बताने वाला तो होगा। जैसे कहा पतेली, तो आप लोग जानते ही होंगे- जिसमें साग भाजी वगैरह चीजें पतित की जायें सो पतेली। उस पतेली के अंदर कोई धीरे से थोड़े ही कोई चीज डालता, वह तो उसमें उस चीज को पटक सा देता। तो जिसमें साग भाजी आदिक चीज पतित की जावें सो पतेली। जैसे कहा लोटा- तो जिसके नीचे पेंदी न हो, जो नीचे जमीन में लोटता फिरे सो लोटा, गड़ई, जिसमें नीचे पेंदी हो, जो जमीन में गड़कर रह जाय, इधर उधर लोटती न फिरे सो गड़ई। अब बताओ कौनसा ऐसा शब्द है जो शुद्ध नाम वाला हो? आत्मा के बारे में भी कोई नाम नहीं मिलता,बस बोलो मत, अगर आत्मा की बात समझता है, जानता है तो बोलो मत। तुम बोलोगे तो कोई खंड की बात ही कर बोलोगे, क्योंकि दुनिया में कोई शब्द ही नहीं ऐसा जो उस अखंड का सीधा ज्ञान करा सके। 1099- आत्मा शब्द की विशेषणरूपता-
जैसे बोला आत्मा। तो यह आत्मा नाम ही नहीं हैं, वह तो एक विशेषण है- अतति सततं गच्छति इति आत्मा याने जो निरंतर जानता रहे। अत् धातु के दोनों अर्थ हैं, चलना और जानना।प्राय: करके जाने के जितने शब्द हैं उन शब्दों के करीब जानन के अर्थ भी होते हैं। जो निरंतर चले सो आत्मा।केवल एक प्रत्यय का भेद है, इसी अत् से आदित्य बना, जिसका अर्थ है सूर्य। वह निरंतर चलता ही रहता है और यह आत्मा निरंतर जानता रहता है। सो रहा है वहाँ भी जान रहा। कुछ भी जान रहा, कैसा ही जान रहा, अच्छा भी जान रहा, बेहोश हो वहाँ भी जान रहा। उसकी जानकारी हम क्या बतावें? होश में है वह भी जान रहा, निगोद में है वह भी जान रहा। तो जो निरंतर जाने सो आत्मा। नाम क्या मिलेगा? एक नाम धरा ज्ञायक, सोचा तो है बहुत कि इसका भाव एक अखंड ज्ञानस्वरूप में लग जाय औरलगता ही है, बोलते ही हैं, मगर ज्ञायक का अर्थ तो है जानने वाला, यह ही अर्थ है। तो वह एक ज्ञानगुण की ही बात तो उसने ली पर काम कैसे बनाये? कोई शुद्ध नाम तो मिलता नहीं। जितने नाम मिलते हैं वे सब विशेषण के नाम मिलते हैं। तो भाई उनमें भी छाँट करो। कौनसा विशेषण वाला नाम ऐसा है कि जिसमें हम अखंडत्व की समझ बनायें सो आसानी रहे? वह शब्द तो है ज्ञायक।
1100- विविध भावों के आश्रय में विड्रूपता-
एक ज्ञायक भाव करके भरा पूरा महास्वाद है उसको प्राप्त करता है यह जीव। हाँ क्या करने के लिये बात समझा रहे हैं कि उस समग्र ज्ञान की एकता को प्राप्त करना है, मायने ज्ञान तितर बितर बिछुड़ा फिरा, जैसे कहीं किसी पदार्थ का ज्ञान है, इसका ज्ञान है, उसका ज्ञान है, कुछ को छोड़ दिया, ऐसाछोड़छोड़कर कहीं-कहीं जो ज्ञान चलता है, चलता है ना मोही जीवों के, रागियों के। तो कहते हैं कि ऐसे उस ज्ञान की एक बिछुड़तीअहित स्थिति को समाप्त करते हुए एकता को प्राप्त करायें, उस ज्ञान में सारा लोकालोक प्रतिभास हो जाय, कुछ बात नहीं, मगर सारे लोकालोक को जानने पर कहीं गैप तो नहीं होता। इसे जाने, इसे न जाने, छितर बितर होवे। परिपूर्ण लोक अलोक को भी जाना, वहाँ भी एकता की बात नहीं टूटी। यह कह रहे हैं परिणति की बात। यह स्वभाव के अनुरूप है इसलिये वहाँ बात घटित होती है। अब स्वभाव में चलें, उसमें एकता को प्राप्त कराते हैं, यह मुनिजन भी कर लेते हैं, और प्रभु कर चुके हैं, और सभी तो करते हैं, मगर जिनके ज्ञान है, प्रकाश है उनकी बात कही जा रही है। स्वभाव कहीं अनेक नहीं हो जाते। सहज स्वभावज्ञान विविध नहीं हो पाते, मगर जिसे पता ही नहीं है उसके लिए तो विविध है। जैसे कि एक जीव दूसरे पदार्थ का कर्ता नहीं है। कहते हैं कि अज्ञानी जीव पुद्गल कर्म को करने वाला है। कैसे कर लेगा अज्ञानी पुद्गलकर्म को उत्पन्न? जब दो वस्तुयें न्यारी-न्यारी हैं तो चाहे अज्ञानी हो, मगर वह किसी दूसरे द्रव्य को कर तो नहीं सकता। लेकिन उसमें करने का विकल्प है। मैं इसे करूँगा, मैंने इसे किया, ऐसा करने के विकल्प का वह अपना परिणमन बना रहा। तो ऐसा परिणमने वाले को कर्ता बताया है। अज्ञानी जीव कर्ता है। वस्तु सिद्धांत से तो प्रत्येक पदार्थ अपने में अपना परिणमन करते हैं, मगर निमित्तनैमित्तिक भाव चल रहा है। जैसे हाथ से झट चीज उठाया, यहाँ रख दी, वहाँ हाथ में हाथ का काम हुआ, चीज में चीज का काम हुआ, मगर यहाँ संबंध में है ना, इसका निमित्त पाया और ऐसी स्थिति में चूँकि हाथ भी चला और उसी बंधन में पुस्तक है तो पुस्तक भी चली, तो हाथ चलने का निमित्त पाकर पुस्तक चली। निमित्तनैमित्तिक भाव से यह बात सही है मगर वस्तुत्व से देखें तो पुस्तक में पुस्तक की बात है, हाथ में हाथ की बात है।
1101- प्रतिपक्षनय का विरोध न करके विवक्षितनय की मुख्यता से जानने में अनापत्ति- सर्वत्र यह बात जानना कि एक ही कुंजी है, प्रतिपक्षनय को मना करके कि यह झूठ है, फिर अपने विवक्षित नयकी बात रखना, यह जैन शासन के विरुद्ध है। इसको कहते हैं एकांत। और, जिन्होंने दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया है वे जान लेंगे कि यह एकांत किस संप्रदाय से मिलता है यह किस दर्शन से मिलता है। यह परख भी हो जायगी। तो जैन शासन यह कहता कि प्रतिपक्षनय का विरोध न करें और विवक्षितनय की बात रखें, प्रयोजनवश यह तो चलता है, किंतु प्रतिपक्षनय को मना करके कि यह असत्य है, झूठ है, एक नय को ही कहा जाय तो वह जैन शासन से विरुद्ध हो जाता है। उदाहरण के लिए- जैसे जीव कहा तो जीव नित्य है। भाई इसमें कोई संदेह तो नहीं। जीव नित्य है, सदा रहता है, मिटता नहीं है। वस्तु है, सत् है, लेकिन उसमें एक यह भी तो विशेषता है कि वह जीव वस्तु या कोई भी सत् निरंतर परिणमता रहता है, उसमें अवस्थायें बनती रहती हैं। जरा देख लो मना करके कि भाई क्या जीव में, क्या सत् में परिणमन होता ही नहीं? क्या उसमें कोई अवस्था होती ही नहीं, दशा होती ही नहीं। अच्छा ऐसा पर्याय निषेध स्वीकार करके फिर बोला कि जीव नित्य है, यह किस दर्शन की बात बन गई? इसे वेदांत कहो, ब्रह्मद्वैतवाद कहो, बात वही कही जा रही थी पहले, मगर प्रतिपक्षनय की बात स्वीकार करके कहा जा रहा था वह जैनशासन का कथन था। अब इस समय प्रतिपक्षनय को झूठा करके कहा जा रहा है तो ब्रह्मद्वैतवाद आ गया। ऐसे ही आप सर्वत्र यह बात जान जायेंगे कि प्रतिपक्षनय को झूठा करके विवक्षितनय का एकांत रखे तो इसमें किस संप्रदाय की बात आ जाती है। अब सब जगह यह बात घटित हो जायगी। ऐसे ही जीव के बारे में देखिये, पर्याय दृष्टि से अनित्य है, और द्रव्यदृष्टि से नित्य है, अब वहाँ कोई यह निर्णय रखे कि द्रव्य कहाँ रखा है, कहाँ दिखता है? द्रव्य की बात झूठ, सिर्फ यह बात सत्य की क्षण-क्षण में नया-नया बनता है, लो यह क्षणिकवाद का मत आ गया। कोई यों कहे कि कहाँ तुमने पर्याय की बात रखी, पर्याय कोई चीज भी होती हैं, अवस्था दशाकहीं हुआ भी करती है। वह जीव नित्य है। तो अर्थ क्या बन गया? अपरिणामी। परिणाम नहीं माना।अपरिणामी नित्य मानाजिसे कहते हैं कूटस्थ नित्य तो कौनसा सिद्धांत बन गया? ब्रह्मा द्वैत। अब एक ज्ञान से स्वभावदृष्टि से उस एकता पर जा रहे हैं, जा तो रहे हैं प्रयोजन से और उस उपयोग के समय कृपा करके दूसरा उपयोग न बनावें, पर्याय का उपयोग न बनावें, भेद का उपयोग न बनावें, एक अखंड ज्ञायक स्वभाव को लखना है। ऐसा ही तो मूड़ बनाना होगा। बनाओ, चलो, काम तो बन गया। किसका बन गया? जिसके निर्णय में अज्ञान नहीं है, प्रकाश है, सही निर्णय है कि यह पर्यायदृष्टि से अनित्य है, इसमें प्रतिसमय परिणमन होता है। ऐसा सही ज्ञान करने वाला जीव ऐसा स्वस्थ है कि वह एक अखंड ज्ञानस्वभाव की मुख्यता से अपना उपयोग बढ़ाये तो वह ज्ञायकभाव अपने शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकता है। इस ज्ञायकस्वभाव के इस अखंड तत्त्व की मुख्यता से एकांतपना ब्रह्मद्वैतवाद ने भी तो किया। तो क्या गलती है जो उसके अनुकूल प्रयोग नहीं बना पाते? उन्होंने पर्याय का विरोध किया। पर्याय होती ही नहीं है। वहाँ तो केवल एक अपरिणामी कूटस्थ नित्य माना गया है। ऐसे ज्ञायक स्वभाव को न निरखता हुआ यह जीव उसी महास्वाद को ले रहा, पर इस मोह के दूर होने पर यह जीव उस ज्ञान की एकता को प्राप्त करेगा। 1102-ज्ञायकभावनिर्भरमहास्वाद के बल पर निर्जरा-
निर्जराधिकार में जिस बल पर निर्जरा होती है उस बल की बात कह रहे हैं। यह जो इतना सारा ज्ञान तितर बितर अपूर्ण नाना रूपों में जो चल रहा है, यह सामान्यरूप होकर अपनी एकता को प्राप्त करे, यह है वह पुरुषार्थ कि जिसके बल से कर्मों की निर्जरा होती है। सीधी बात क्या है? अपने ज्ञानस्वभाव को सम्हालना, उसमें उपयोग देना, मग्न होना, और केवल एक दर्शनज्ञानसामान्यात्मक अंतस्तत्त्व मेरी दृष्टि में रहे, ऐसा अंत: संयम बने तो उसके बल ये यह समझिये कि विभावों की तो उपयोग की तो जुदाई हो ही गई, पर शेष कर्म भी निर्जरा को प्राप्त होंगे। क्या किया इस भव्य आत्मा ने कि एक ज्ञायक भाव से निर्भर महान स्वाद लिया। स्वाद का भी फर्क देखो, जब बाहर दृष्टि जाती है और वहाँ इष्ट अनिष्ट बुद्धि जागती है तब भीतर में क्या स्वाद लेता है? यह आकुलता, व्यग्रता का स्वाद लेता है और जब अपने अंत: स्वरूप में आता है और केवल ज्ञानप्रकाशइसकी दृष्टि में रहता है तो वहाँ विकल्प नहीं, निराकुलता चलती है। तो जैसे व्यापारी लोग अपना नफा टोटा देखते हैं उसमें लाभ है, इसमें हानि है तो ऐसे ही प्रथम उपयोग की गति में नफा टोटा जैसी बात क्यों नहीं निरखी जाती? मैं अपने उपयोग को किस तरफ लगाऊँ कि मुझे व्यग्रता रहे और किस जगह लगाऊँ कि व्यग्रता न रहे? उपयोग कहीं बाहर नहीं लगता, यह तो यहीं विराजमान है, बाह्य पदार्थ उपयोग के विषय होते हैं और बाह्य विषय की ओर उपयोग करके कुछ तरंग उठती है उसे कहते हैं उपयोग बाहर गया। और अपना ही शुद्ध अंतस्तत्त्व इसकी बुद्धि में आये तो ऐसी स्थिति को कहते हैं कि उपयोग अपने अंदर रहा। उपयोग कहीं बाहर दौड़कर नहीं जाता। किसी भी पदार्थ का गुणपर्याय कुछ भी उसके प्रदेशों से बाहर नहीं जाता। बाहर उसका कुछ आधार ही नहीं है, तो ऐसे ही यह उपयोग जब अपने ज्ञायकस्वभाव के चिंतन में है, दृष्टि में है तो वहाँ एक महास्वाद को प्राप्त होता।
1103- ज्ञानी की द्वंद्वमय स्वाद लेने में असहता-
जब जान लिया सबसे निराला एक ज्ञानप्रकाशमात्र यह मैं हूँ और उसका स्वाद जान लिया तो अब द्वंद्वमय स्वाद को पाने के लिए यह अक्षम अथवा असह बन गया। तो जो पहले हो रहा था कि रागादिक विकार से जुटकर, उनमें आत्मारूप बनकर जो एक खोटा स्वाद लिया जा रहा था, अब उस स्वाद को यह नहीं ले सकता। सीधी बात यों कह लीजिए कि जैसे मोही पुरुष ज्ञानियों जैसा काम करने में असमर्थ हैं तो ज्ञानी पुरुष भी मोहियों जैसा काम करने में असमर्थ हो गए। वे कर ही नहीं पा सकते। जैसे सामने कोई चीज पड़ी थी, रस्सी पड़ी थी जान लिया कि यह साँप है तो भ्रम में जो घबड़ाहट चिंता आदि हो रहे थे, कदाचित् उसे कोई समझाये या वह कुछ थोड़ा निगरानी से देखे और धीरे-धीरे समझकर सही निर्णय बना ले व हाथ में रस्सी उठाकर एकदम समझ बना ले कि यह तो कोरी रस्सी है, कहां साँप है, मैं व्यर्थ ही भूला था, ऐसा प्रकाश जगने पर उससे अगर कहा जाय कि भाई तुम अभी 10 मिनट पहले जैसी घबड़ाहट कर रहे थे, छाती धड़का रहे थे, ओंठ फड़फड़ा रहे थे, अंग कपकपा रहे थे जरा वैसी ही बात करके अब फिर दिखा दो, तो वह दिखा सकेगा क्या? नहीं दिखा सकता, तो जैसे अज्ञान अवस्था में ज्ञानी पुरुष ज्ञानियों जैसी उदारता नहीं बर्त सकता तो ज्ञान जग जाने पर ज्ञानी अज्ञानी जैसा स्वाद भी नहीं ले सकता। तो यह अंतरात्मा इस द्वंद्व वाले स्वाद को अब नहीं पाता याने उपयोग और क्रोधादिक आस्रव अथवा कहिये स्वभाव और रागादिक विकार इन दोनों के एक मेल में कहो, एक उपयोग में जो एकता की थी, उससे जो स्वाद बना था, अब वह स्वाद यह नहीं ले सकता। उसे दो टूक कर दिया। यह मैं ज्ञानप्रकाशमात्र आत्मा हूँ, ये रागादिक विकार औपाधिक हैं, परभाव हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, ऐसा दो टूक कर दिया तो अब घटना में रचकर दोनों के मेल में, अपने उपयोग में जो बात बन रही थी अब वह बात ही नहीं बन सकेगी। तो ऐसे द्वंद्वमय स्वाद को यह नहीं ले सकता।
1104- ज्ञानी की स्व वस्तुवृत्ति की प्रसिद्धि-
जब ज्ञानी द्वंद्वमय स्वाद को नहीं ले पाता तब अपने आपकी निगाह होने से जो ज्ञानी की चेष्टा होती, जो वस्तुव्यापार बनता उसका ही तो यह अनुभव कर रहा, मायने मैं मैं हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, मेरा सब कुछ मुझमें है, मेरा कुछ बाहर नहीं है, मैं स्वयं सहज आनंदमय हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, इसमें पर की क्या बात है? यह यह है, ऐसी दृष्टि रखता हुआ अपने वस्तुत्व को प्रसिद्ध कर रहा है यह ज्ञानी। जिसने अपने आत्मा का अपने आत्मा के द्वारा अपने में अनुभव परिणाम किया उसकी ऐसी वृत्ति बनी कि अब यह पहली जैसी चेष्टाओं में कुछ नहीं कर पाता, ऐसा विवश हो गया अर्थात् स्ववश हो गया कि अब यह अज्ञानमयी चेष्टाओं को करने में असमर्थ हुआ। उस समय विशेष का उदय दूर हुआ अर्थात् जो एक विशेष ज्ञान तरंग की लहर उठी हुई थी वह सब यहाँ शांत हुई, क्योंकि अपने आत्मस्वभाव को निरखने में लगा ना? उस समय इन सारे ज्ञानों को एक सामान्यरूप बनाता हुआ अपने ज्ञान में एकता का अनुभव करता है।
1105- ज्ञान की पर्यायों के परिचय से अखंड ज्ञानसामान्य की प्रसिद्धि- दूसरी बात समझने की बताते हैं, जैसे- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, ऐसे 5 प्रकार हैं और उन 5 प्रकार के ज्ञानों के जुदे-जुदे भाव हैं, हैं वे, लेकिन जब ज्ञान सामान्य पर दृष्टि दी तो वहाँ फिर यह विशेष नहीं ठहरता। उपयोग है ना स्वभाव की ओर।जैसे सूर्य के नीचे बादल आये हैं तो यहाँ विकास कम है, जरा सा बादल हटे तो और प्रकाश बना, पूरे बादल हटे तो सारा प्रकाश बना। तो जैसे यहाँ प्रकाश में भेद पाये जाते हैं क्या ये भेद कोई उस वस्तु के स्वरूप हैं, क्या ये भेद उस सूर्य के प्रकाश के स्वरूप हैं? सूर्यप्रकाश तो एक प्रकाशमय है, यह भेद जो घटना में विराजमान है, इस भेद को देखकर टुकड़े न बनावें प्रकाश के, किंतु सूर्य ऐसा अखंड प्रकाशमय है यहाँ दृष्टि डालना, ऐसे ही ये मति श्रुत आदिक ज्ञान के भेद पड़े हैं, इस भेद में ज्ञान स्वरूप के टुकड़े न बनाना कि वह ज्ञानस्वरूप यहाँ ऐसा ऐसा है। इन भेदों को निरखकर दृष्टि जानी चाहिये मूल में कि यह आत्मा मूल में तो एक ज्ञानस्वभावमात्र है, यों अपने इस निज ज्ञानस्वभाव पर उपयोग पहुँचते ही यह सारा ज्ञान एकत्व को प्राप्त होता है। सब प्रयोग की बात है। अनुभव में जहाँ केवल एक ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व है वहाँ इस जीव को स्वयं शरण मिल गया। यह ही एक रक्षक है, यह ही एक सर्वस्व है, बाहर में मेरा कुछ नहीं है। ऐसा दृष्टि का अभ्यास बने तो यह ही अभ्यास एक धीरता उत्पन्न करेगा। अपने आपमें अपने विकास को लायेगा। और, एक बाहर ही दृष्टि बनाये रहे तो यह ही तो है मेरा पुत्र, यह ही तो है मेरा घर, इसके लिए ही तो है मेरा तन, मन, धन, वचन यह ही तो है मेरा सर्वस्व, ऐसा बाहर बाहर में चित्त रहे तो उसकाफल है आकुलता, कर्मबंधन, संसार की परंपरा। तो सीधी बात यह आ गई कि एक अपने आपमें अगर देखें केवल एक आत्मा की बात, तो इस आत्मा में ज्ञान की विविध पर्यायें समय-समय पर बनती है। हाँ तो ज्ञान की जो अनेक समयों में पर्यायें बनती हैं उन पर्यायों में भेद की मुख्यता लाकर एक ऊर्ध्वतासामान्य की दृष्टि से निरखा जाय तो वह सब ज्ञानमात्र मालूम होता है, और ऐसे ऊर्ध्वतासामान्य की दृष्टि में इस जीव को अपने आपसे उस परमार्थ ब्रह्मत्व की उपलब्धि होती है। 1106- ऊर्ध्वतासामान्य के अनुभव का प्रभाव-
देखो एक चीज में दो बातें समझना- (1) ऊर्ध्वता विशेष और (2) ऊर्ध्वता सामान्य। जैसे एक मनुष्य है, वह शिशु-बालक, जवान, बूढ़ा उसकी ऐसी स्थितियाँ हुई, मगर उन सब स्थितियों में वह मनुष्य तो एक ही है। मनुष्य जुदे-जुदे न होंगे। जो ही मनुष्य की एक स्थिति बनी है सो उस समय उसके भेद की स्थिति को कहा है ऊर्ध्वताविशेष और उन सब भेद पर्यायों में रहने वाला जो एक पद है उसको कहते हैं ऊर्ध्वतासामान्य। तो ऐसे मनुष्यों में ये दो बातें समझ में आयी हैं ऐसे ही आत्मा में ज्ञानमुखेन भेद डालकर ज्ञान बनाना, अब यों ज्ञान बनाना, इस प्रकार बनाना, ज्ञान के जो ये भावना में भेद डाले गये मति श्रुत अवधि आदिक, तो इन भेदों के होने से आत्मा कहीं जुदा तो नहीं हो गया। इन सब भेदों में व्यापक जो एक ज्ञानस्वरूप है उस ज्ञानस्वरूप को निरखना, लो यह कहलाता है ऊर्ध्वसामान्य। लोक में विशेष की बड़ी महिमा गायी जाती है जैसे यह साहब बड़े विशिष्ट पुरुष हैं इन्होंने बड़ा विशेष कार्य किया है, उसकी बड़ी विशेषता बतायी जाती है और उससे एक प्रभाव माना जाता है। तो लोक में तो विशेष का प्रभाव है, मगर कल्याणमार्ग में विशेष का महत्त्व नहीं दिया गया, किंतु सामान्य का महत्त्व दिया। सो विशेष से हटकर वहाँ से उपयोग निकालकर एक इस सामान्य स्वभाव में उपयोग जमाया जाय। ध्यान करने के लिए योगीजन क्या काम करते हैं, निर्जन स्थान में ध्यान बनाते हैं, बहुत समय तक चिंतन करते हैं तो चिंतन में नाना बातें आ जायें मगर पौरुष उनका यह रहता कि इस विशेष से हटकर एक सामान्य स्वरूप में उपयोग दूँबस इसी में जिसको जितनी सफलता मिली है उसकी वही एक समाधि बतायी गई है। परमसमाधि क्या? विशेष से हटकरसामान्य स्वरूप में मग्न हों, यह ही एक परम समाधि है। यह एक समाधि का बल है जिस बल से हम समस्त संकटों से छूटकर पूर्ण शांति प्राप्त कर सकते हैं।