वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 141
From जैनकोष
अच्छाच्छा: स्वयमुच्छलंति यदिमा: संवेदनव्यक्तयो
निष्पीताखिलभावमंडलरसप्राग्भारमत्त इव । यस्याभिन्नरस: स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन् वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकर: ॥141॥
1107- ज्ञान की निर्मल परिणतियों का उछाल-
इससे पहले कलश में बताया गया था कि यह भव्य अंतरात्मा ज्ञानी अपनी वस्तु वृत्ति का अनुभव कर रहा है, याने अपने सही स्वरूप को परखकर उसमें मग्न होता हुआ अपने चारित्र को पुष्ट कर रहा है, तो अपनी विशेष वृत्ति का अनुभव करने वाला पुरुष प्रगति में क्या पाता है? देखिये उस समय जो ज्ञान है उस ज्ञान की व्यक्तियां याने परिणतियां निर्मल हो होकर स्वयं उछलती चलती रहती हैं? पर्याय बिना द्रव्य तो रहता नहीं और उस समय स्थिति आत्मा के आश्रय की है, सो स्वभाव-अनुरूपता और स्वभावमग्नता के उस काल में जहाँ एक परमसमाधि का रूप बना वहाँइस ज्ञान की व्यक्तियां, पर्यायें, परिणतियाँ निर्मल-निर्मल होकर स्वयं ही उठ रही हैं, ज्ञानमात्र, ज्ञानप्रकाश, केवल जाननहार यह एक स्थिति उठ रही। वे ज्ञान की परिणतियां, ज्ञाता मात्र रहने की परिणतियां यों उठ रही हैं कि उस समय चूंकि समस्त भावों से उसने पदार्थ को जाना या उनको अपने में निष्पित किया तो ऐसा जब सबको जाना, एक ज्ञानप्रकाशमात्र अनुभव में रहा तो उसका एक ऐसा रस है कि उस आनंद से मानो एक रस होता हुआ, संवेग प्रवर्तता हुआ, अपने बल के साथ प्रकट होता हुआ यह उदित होता है। और वहाँ केवल ज्ञान ज्ञान की परिणतियां चलती हैं, मायने रागद्वेष के विकल्प से रहित ज्ञान की व्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिसका यह अभिन्न रस है।
1108- एक ज्ञायकस्वरूप आत्मा के अनेकीभवन का विधान-
यह भगवान यद्यपि एक है, तथापि हुआ क्या? पहले क्या हो रहा था? वह एक भगवान अभिन्नरस होकर भी अनेक रूप हो रहा था। वेदांत दर्शन में कहते हैं कि इस ब्रह्म ने जब यह संकल्प किया- एकोऽहं बहु स्याम् मैं एक हूँ बहुत बन जाऊँ, ऐसा संकल्प करके यह सारा जगत नानारूप बन गया।यह है उन वेदांतियों का एक दर्शन। एकोऽहं बहु स्याम्। अब देखना ऐसा कि यह आत्मा एक होकर भी यह बहुतरूप अपने को अनुभव कर रहा ना इसीलिए नाना दुर्गतियों में जन्म मिल रहा, संसार में नाना अवस्थाओं में रह रहा। वहाँ तो यह दृष्टि है कि वह ब्रह्म एक है। जगत की रचना कैसे बनी कि उस ब्रह्म ने अपने में ऐसा संकल्प किया कि मैं बहुत हो जाऊं। पता नहीं क्यों संकल्प किया, कोई उस ब्रह्म को कष्ट था क्या? वह आनंद में नहीं था क्या? कोई कष्ट में था क्या, जिससे ब्रह्म ने कुछ बात बदली हो। मैं बहुत हो जाऊं, अब यहाँ देखें तो द्रव्यार्थिकनय से यह एक स्वरूप है और पर्यायार्थिकनय से देखो तो यह समय समय में भिन्न-भिन्न पर्यायोंरूप है। चलो होने दो इसको ऐसा कि इसमें कुछ हानि नहीं। सभी पदार्थों में यह हो रहा, युक्ति भी पायी जा रही कि वह मूलत: एक रूप है द्रव्यस्वरूप से, मगर पर्यायें उसमें नाना हो रही हैं। मुझमें भी ऐसा हो जाय, कोई हर्ज की बात नहीं। यह द्रव्य की एक बात है स्वरूप है कि वह मूलत: एक है मगर प्रतिसमय में परिणमता रहता, इतने में कोई हानि न थी, लेकिन इस जीव को एक अनादि विभ्रम ऐसा सताये हुए है कि वह इन पर्यायों से ही अपने को नानारूप मान लेता याने अपने मूल स्वरूप को ही उन नानारूपों में समझ लेता, बस किया सो इतना सा अपराध और दंड इतना बड़ा मिल रहा कि निगोद में, पेड़ पौधों में जन्म लेता, यही तो दु:ख है, पेड़ों में जन्म लिया, पेड़ों का भव प्राप्त किया, शरीर मिला तो ये आत्मप्रदेश कितना फैल गए।बड़े मोटे पेड़ों में फैल गए, पत्तियों के रूप में फैल गए, बड़े-बड़े नसाजाल के रूप में फैल गए, फूल हुए तो कैसी कैसी उनकी पंखुडियाँ हैं, क्या क्या उनका ढंग बना, जो जो भव कर्मविपाकवश मिला, उस रूप फैल गए, तो यह दंड मिला इस आत्मा को। किस बात का दंड मिला कि इसने पर्याय में आत्मीयपन स्वीकार किया। इसीलिए इसको दुर्गतियों में घूमना पड़ा। यह आत्मा एकस्वरूप है, केवल ज्ञानमात्र है और निरंतर पर्यायोंरूप परिणमता रहता, इसके आगे कोई बात न थी, लेकिन अनादि विभ्रम ऐसा चला कि जो पर्यायें मिलती हैं, मिलती हैं वे अनादि विभ्रम से, इसने उन परिणतियों को माना कि मैं यह हूँ, इसने अपने को नानारूप मान डाला। तो अपने को नानारूप जब कर दिया तब यह अपनी तरंगों से बौखलाता रहा और जब उसको सन्मार्ग मिला, सद्बुद्धि जगी तो इसने फिर अपने स्वरूप की सम्हाल की स्वरूप को भूलने का इतना खोटा परिणाम होता है।
1109- धुन के विषय की परीक्षा-
अब सोचिये आप कि जो निरंतर यह दृष्टि बनी रहती है कि यह मेरा घर, यह मेरी दूकान, यह मेरा बच्चा, यह मेरी स्त्री, ये ही तो मेरे सब कुछ। और प्रयोग क्या चल रहा? घर घर में देखो, घर घर के मायने अपने उपयोग में इस बात की परीक्षा करो कि क्या बस रहा? कहाँ आसक्ति है? कहाँ चित्त लग रहा है? भैया, कहाँ चित्त लग रहा, इसकी परीक्षा यह है कि जिनके लिए यह अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकता है, बस वहाँ चित्त लग रहा है। जैसे ज्ञानी पुरुष इस अंतस्तत्त्व के प्रति सर्वस्व न्यौछावर करता है ऐसे ही मोही पुरुष अपने इस परिवार के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करता है। दोनों की भिन्न-भिन्न परिणतियां हैं जिसके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर हो समझो कि उसका चित्त उसमें है, उसके उपयोग में महत्त्व उसका है। क्या कभी यह उमंग जगी कि मैं अपने इस अंतस्तत्त्व में भगवान आत्मा की उपलब्धि के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दूँ।
1110- ज्ञानी के समग्र पुण्य के हवन का साहस-
पूजा के समय तो लोग प्रतिज्ञा कर लेते- अर्हन् ! पुराण ! पुरुषोत्तम ! पावनानि, वस्तुनि नूनमखिलान्ययमेक एव। अस्मिन् ज्वलद्विमलकेवलबोधवह्नौ पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि। हे भगवान, ये थाल, जल, चंदन, नैवेद्य, अक्षत, मंदिर, प्रतिमाजी आदिक बहुत सी चीजें यहाँ विराजमान हैं लेकिन इस अंतरात्मा की दृष्टि में तो सब कुछ एक है, क्या सब कुछ? मायने जहाँ धुन है, जहाँ लगन है, जहाँ रुचि है बस वही वही दिखता है इसी के मायने है कि बस सब कुछ एक है। ज्ञानी की कहाँ लगन है? अस्मिन् ज्वलद्विमलकेवलबोधवह्नौ निर्मल केवलज्ञानरूपी ज्वाला। केवलज्ञान पर्याय है औरकेवल ज्ञान जरा इन दोनों को अलग अलग कर दो तो केवल का अर्थ है सिर्फ और ज्ञान के मायने ज्ञानस्वरूप।सो, इसके प्रति इसकी भक्ति में, इसका जो महत्त्व जाना गयाउसके एवज में एकमन होकर मैं समग्रपुण्य को स्वाहा करता हूँ, सर्वस्व न्यौछावर करता हूँ। कोई कहे वाह 13-14 आने का द्रव्य सज़ा लिया, इतना न्यौछावर करते हुए इस पर इतनी ऐंठ कि मैं सारे पुण्य को स्वाहा करता हूँ।...नहीं-नहीं, यह तो एक प्रसंग की बात है। जितनी भी पुण्य सामग्री है महल, मकान, धन वैभव आदिक इन सबको एकमन होकर इस निर्मल एक ज्ञान के लिए मैं सब कुछ न्यौछावर करता हूँ। फिर कोई बोल उठा कि बहुत चतुराई की बात कर रहे भगवान के सामने, जानते हैं ना कि वे सब चीजें पौद्गलिक हैं, साथ तो कुछ जाना है नहीं सो कह देते भगवान के सामने कि मैं इन सबको स्वाहा करता हूँ। कहते हैं कि हे प्रभु कुछ ऐसी सीमा नहीं, वह समग्र पुण्य वैभव जिन कर्मों के उदय से प्राप्त हुआ है इस समस्त पुण्य कर्म को मैं स्वाहा करता हूँ। कुछ उसमें प्रयोजन नहीं। मुझे तो निर्मल सहज ज्ञान से प्रयोजन है। यह निर्मल ज्ञान यह मेरे में रहे मेरे उपयोग में बसे मैं अन्य सबको स्वाहा करता हूँ। फिर कोर्इ कह बैठा वाह वाह बड़ी कला खेल जाते कि ये कर्म पौद्गलिक हैं, उनसे मतलब क्या है इनसे कुछ आने का नहीं, सो कह लेते कि मैं इनको स्वाहा करता हूँ। तो कहते हैं कि इसकी भी मन में सीमा नहीं। जब मैं पुण्य कर्म पापकर्म किसी को नहीं चाहता तो फिर मैं उसके साधन को तो चाहूँगा ही क्या? मैं किसी भी प्रकार से कर्म को नहीं चाहता। तो पुण्य का साधन शुभोपयोग, पाप का साधन अशुभोपयोग इन समस्त शुभ अशुभ विभावों को भी मैं एकमन होकर स्वाहा करता हूँ। तो देखो यह अंतरात्मा ज्ञानी इस एकत्व विभक्त अंतस्तत्त्व के प्रति कितना अनुरागी हुआ है कि वह सिवाय एक स्वभावाश्रय के और कुछ चाहता ही नहीं। भले ही नहीं बन पा रहा स्वभावाश्रय जब, तब ज्ञानी शुभोपयोग करता है और शुभोपयोग को अशुभोपयोग की तरह हेय मानकर भी नहीं करता, क्योंकि थोड़ा भी अनुराग न हो तो शुभोपयोग कैसे कर सकेगा? मगर प्रतीति में यह बात बसी है कि मैं समस्त विभावों से रहित जो मेरा एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है यह ही मात्र प्रकट हो जो कि सिद्ध अवस्था में होता है यह ही मात्र मेरे भीतर में एक अभिलाषा है, मैं इस समस्त को स्वाहा करता हूँ, जिसके लिए कुछ न्यौछावर किया जा सकता है समझो कि प्रेम उसका असल में वहाँ है।
1111- विपद्धाम से हटकर सहजसमृद्धिधाम में प्रवेश की अंतर्भावना-
ज्ञानातिरिक्त अन्य पद में बाकी जो कुछ और अवस्थायें बनती हैं, परिणतियाँ होती हैं और उनमें किसी प्रयोजनवश अनुराग से लगता भी है मगर भीतर में वह समझता है कि यह भी मेरे लिए एक आपदा हो गई। जैसे एक कहावत है कि गले पड़े बजाय सरे। देखा होगा होली के दिनों में लोग किस तरह से हँसी मजाक के खेल खेलते हैं। तो एक जगह होली के दिनों में वैसी ही कुछ हँसी मजाक के खेल हो रहे थे तो एक ने एक को शर्मिंदा करने के लिए उसके गले में ढोल पहना दिया, पर उसने क्या काम किया कि दो छोटी-छोटी लकड़ियाँ उठायी और उछल-उछलकर बजाना शुरू कर दिया। लो उसका शर्मिंदा होना तो दूर रहा, वह भी शोभा को प्राप्त हुआ तो ऐसे ही अपने लिए समझो गले पड़े बजाय सरे। जब अपने गले पड गये हैं ये कुटुंब परिवार धन वैभव आदिक के प्रसंग तथा शुभभाव के प्रसंग तो इनकी समुचित व्यवस्था बनाये रखने में ही आपकी शोभा है, पर अंदर से यही भाव रहे कि यह मेरा करने का काम तो न था। मेरे करने का काम तो था अपने ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में मग्न होने का। यह तो सब झंझट है, परिस्थितिवश यह सब करना पड रहा है। हे प्रभो मेरे को कब वह क्षण प्राप्त हो जबकि मैं इन समस्त झंझटों से छुटकारा पाकर अपने आत्मस्वरूप में मग्न होऊँ।
1112- अंतस्तत्त्व के अनुभवी पवित्र आत्मावों के ज्ञान की शुद्ध उछालें-
ज्ञानमात्र यह आत्मा जब अपनी ज्ञानमात्रता पर दृष्टि देता है, यह हूँ मैं केवल ज्ञानस्वरूप ज्ञान ही ज्ञान जिसका स्वरूप है मगर शेष बातें भी तो आ रही हैं ,आवें, वे मेरे स्वरूप नहीं है, वे सब ज्ञानातिरिक्त भाव हैं, परभाव हैं, औपाधिक हैं, नैमित्तिक हैं। मैं ही उनका निमित्त होऊँ, ऐसा वह भाव नहीं है। मैं स्वभाव मात्र हूँ, ऐसी अपने केवल ज्ञानस्वरूप की दृष्टि दी है, और ऐसी दृष्टि लगाकर उसमें उपयोग देने का अभ्यास करते-करते बाह्य विकल्प से हटकर जब कभी अनुभूति की है, ऐसे पुरुष की परिणति तो कभी रुक न जायगी। लोगों को परिणति दिखती है, जिसमें अदल-बदलरूप मालूम पड़े, वह यह था, अब यह हो गया, नारकी था, मनुष्य बन गया या बच्चा था जवान हो गया। जो कुछ दिखता है उसको लोग बोलते हैं कि अब यह परिणम गया, बदल गया, लेकिन परिणतिशून्य पदार्थ कभी नहीं होता। तो जब यह ज्ञान अपने ज्ञानमात्र स्वरूप पर दृष्टि रख रहा है तो उसकी जो परिणतियाँ हैं वे विशुद्ध ज्ञानमय निर्मल निर्मल हो होकर उछल रही है, ये ही उसकी निजी तरंगे हैं। कोई औपाधिक तरंगे थी कभी, तो अब उसकी निजी तरंगे उछल रही है। उन तरंगें के द्वारा ऐसी उछाल लेता रहता है यह ज्ञान, जैसे कि किसी अगाधसमुद्र में जहाँ ऐसी गंभीरता पड़ी है कि धूल कीचड़ ऊपर नहीं आ सक रहे हैं और उसकी तरंग उठ रही है। तो जैसे वह तरंग विशुद्ध जलमय चल रही है ऐसे ही इस ज्ञाता की यह ज्ञानतरंग निर्मल शुद्ध ज्ञानरूप चल रही है। यह बात बहुत स्पष्टता से ऊँचे के गुणस्थान में है, भगवंत में स्पष्ट है, फिर भी उपयोग के नाते से लगायें तो यहाँ भी यही बात आपको आंशिक मिल जायगी।
1113- अनुभूति व समाधि में अवस्थित अंतरात्मावों के अबुद्धिपूर्वक कलुषतावों का आवेदन-
अनुभूति व समाधि में रहने वाले जिन अंतरात्माओं के जो अबुद्धिपूर्वक कलुषता है इस पद में प्रमत्त अवस्था तक या आगे भी जो अबुद्धिपूर्वक कलुषता है वह गौण है, क्योंकि बुद्धि, मति जिस ओरलग रही, बुद्धि में न आये तो उसकी व्यग्रता तो नहीं है।जैसे कभी आँगन में सूखने के लिए मानो आपने नमक डाल दिया था। आप कमरे में बैठे थे। तब मान लो अचानक ही पानी बरसने लगा तो आप झट उसे उठाने के लिए दौड़े। उसे तो तुरंत उठाना जरूरी ही था क्योंकि पानी के बूँद पड़ने पर वह नमक पिघल जाता। सो वहाँ आप इतना तेजी से दौड़े कि दरवाजे का चौखट आपके सिर में लग गया फिर भी आपको उसका कुछ पता नहीं पड़ता। नमक उठा लाने के बाद जब हाथ से सिर को टटोल कर देखते और हाथ में खून लग जाता, ओह मेरे तो सिर में चोट आ गई, तो देखिये वहाँ उपयोग दूसरी जगह होने से आपको उस चोट का भी पता नहीं पड़ता, तो ऐसे ही ज्ञानी पुरुष को अपने आपके स्वरूप की ओरउपयोग हुआ, यह हूँ मैं ज्ञानमात्र, जहाँ कष्ट का काम नहीं, स्वरूप में अपने सहजस्वरूप की बात है, वहाँ ही उपयोग चल रहा है तो भले ही नियम से कुछ पदवी तक अबुद्धिपूर्वककषाय चल रही है और वह निरंतर चल रही, एक क्षण को भी बंद नहीं हो रही, इतना सब कुछ होने पर भी चूँकि उसका उपयोग अपने इस शुद्ध आत्मस्वरूप में लगा है इस कारण वह तो यहाँ सुरक्षित है। इस तरह की दृष्टि द्वारा जिसने इस ज्ञानतत्त्व को पाया है बस वह समझता है उस ज्ञान का माहात्म्य। बस वही ज्ञानविलास मोक्ष का हेतु है, लेकिन जिसने नहीं जाना ऐसा, और मोक्ष के उद्देश्य से बाह्य सब कुछ कर रहा है, उसका क्या होगा यह बात इस काल में कही जा रही है।