वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 160
From जैनकोष
यावत्तवदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदय: । तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्भी: कुतो ज्ञानिनो निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ॥160॥
1256- आकस्मिक भय का विवरण- निर्जराधिकार में सम्यक्त्व के 8 अंग बताये जा रहे हैं, जिनमें यह प्रथम अंग का वर्णन चल रहा। सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होता है, क्योंकि वह सप्तभय से रहित है, सम्यग्दृष्टि जीव अपने आत्मस्वरूप में नि:शंक है, अत: वह सप्तभयों से रहित है। निर्भयता व नि:शंकता परस्पर साधक है। उन सप्त भयों के प्रकरण में आज आकस्मिकभय के संबंध की बात कह रहे हैं। आकस्मिक का अर्थ क्या है? तो आकस्मिक का प्रसिद्ध अर्थ है अचानक। कहीं से भी भय बन गया, जिसका कोई अनुमान नहीं, अंदाज नहीं, कुछ पहले से बोध नहीं और हो गया उसे प्रचलित अर्थ में कहते हैं आकस्मिक। शब्दार्थ में यह निकलता है कि कहीं से नहीं सो आकस्मिक ‘न कस्मादपि इति आकस्मिक,’ किसी से भी नहीं अर्थात् जानने में आये हुए किसी से नहीं, जिसका कि पहले कुछ सिलसिला लग गया हो कि अब यह बात बनी, अब यह बात आ रही।जैसे अचानक ही कोई ख्याल करले, अगर बादलों से बिजली ही टपककर इस भवन में आ जाय तो कहीं यह छत ही न गिर जाय तो कुछ से भी कुछ एक आकस्मिक ख्याल बने, इसे कहते हैं आकस्मिक भय। यह भय ज्ञानी के नहीं है। इसका कारण यह है कि ज्ञानी जीव के यह निर्णय है कि यह मैं ज्ञानमात्र हूँ। इसमें किसी दूसरे पदार्थ का उदय नहीं होता। 1257- आत्मा और ज्ञानगुण की अभेदरूपता-
कैसा परम पदार्थ है यह सहज भगवान आत्मदेव ‘ज्ञान निवृत्त: अनादित:’, यह ज्ञान ज्ञान ही है, जिसका प्रतिभासमात्र स्वरूप है। सो बताया जा रहा है, इसी कारण इसे सर्वद्रव्यों में सार कहा। यह मैं एक ज्ञानमात्र हूँ, सो वह ज्ञानस्वरूप अनादि अनंत है। मेरे इस ज्ञानस्वरूप का आदि नहीं है कि किस दिन से मैं हूँ। आत्मा में ज्ञान है ऐसा यहाँ नहीं कहा, यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, यह निरखना है। इसमें ज्ञान है, ऐसा कहने पर इसकी दो दृष्टियाँ बन सकती हैं, अभेद भी बनाया जा सकता, मगर तुरंत तो भेदभाषा बोली जा रही है। जैसे घड़े में चना हैं, बोरे में गेहूँ हैं, आत्मा में ज्ञान है। देखिये आत्मा और ज्ञान इन दो के संबंध से सांख्य और वैशेषिक के आधार पर कितना भेद माना है। सांख्य सिद्धांत के अनुसार तो ज्ञान आत्मा की चीज ही नहीं है, वह तो प्रकृति का धर्म है। प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्चषोडशक:। तस्मादपि षोडशकात्पंचभ्य: पंच भूतानि। यह सांख्य सिद्धांत में लिखा है कारिका में। प्रकृति से महान उत्पन्न होता है और महान का अर्थ है बुद्धि, ज्ञान जिससे कि अहंकार बनता है, तो ज्ञान प्रकृति का धर्म है, आत्मा का धर्म नहीं। पुरुष का धर्म नहीं। फिर उनसे पूछा जाय तो पुरुष का धर्म क्या है? पुरुष मायने आत्मा। तो उसका धर्म है चैतन्य। उस चैतन्य का अर्थ क्या है? कहते हैं कि प्रकृति का धर्म हैं ज्ञान, और ज्ञान से जो निर्णय बना उसको चेतने का काम है पुरुष का। कितना बड़ा व्यायाम है। तो यहाँ ज्ञान को उस आत्मा से अत्यंत जुदा बताया है। सांख्य सिद्धांत में और वैशेषिक वहाँ भी बताते तो जुदा है, किंतु अविष्वग्भाव रूप मानते याने अनादि से संबंध वाला कहते। वैशेषिक सिद्धांत के अनुसार द्रव्य, गुण, पर्याय (क्रिया) सामान्य, विशेष समवाय ये सब स्वतंत्र, स्वतंत्र है। गुण स्वतंत्र है तो यह गुण इसका ही हैं यह कैसे जाना जावे इस प्रश्न पर उत्तर देते हैं कि समवाय संबंध से। किंतु यह सब युक्तिसंगत नहीं है। आत्मा ज्ञानात्मक है।
1258- द्रव्य, गुण और पर्याय को भिन्न स्वतंत्र सत् मानने की विडंबना-
द्रव्य स्वतंत्र सत्, गुण स्वतंत्र सत्, पर्याय स्वतंत्र सत्। सामान्य विशेष, समवाय ये 6 भावरूप और 1 अभावरूप ये सब स्वतंत्र स्वतंत्र पदार्थ माने विशेषिकों ने, अच्छा ये स्वतंत्र सत् अगर हैं तो स्वतंत्र सत् की व्याख्या क्या है? जो स्वयं अपने में परिपूर्ण है और जैन सिद्धांत के अनुसार जो उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त है गुणपर्याय वाला है उसे सत् कहा गया है। सद्द्रव्य लक्षण, गुणपर्ययवद्द्रव्यं, तो जितने उनके गुण हों, 24 गुण हैं, पार्थव्यगुण, संयोग गुण, ज्ञान गुण आदि आदि ऐसे ऐसे गुण माने हैं, तो ज्ञानगुण अगर स्वतंत्र सत् है तो वह गुणपर्याय वाला होना चाहिए। याने ज्ञान गुण स्वयं गुणपर्याय वाला हुआ सो निर्गुणा: गुणा:। गुण में गुण होते नहीं, जरा जैनागम अनुसार उन वैशेषिकों के व्यक्तव्य की परीक्षा कर लीजिये, उत्पादव्यय ध्रौव्य वाले होते सत्। अब देखो ज्ञान कैसे स्वतंत्र सत् है? सो वह ज्ञानगुण ध्रौव्य तो है, पर स्वयं उत्पादव्यय रूप नहीं। इसी तरह उनकी क्रिया, परिणति वह स्वतंत्र सत् है तो वह भी गुणपर्यायवान् होनी चाहिये, उत्पादव्ययध्रौव्य वाली होनी चाहिए सो नहीं। न्याय से वह द्रव्य गुण क्रिया, सामान्य से सारे पदार्थ जुदे-जुदे नहीं ठहरते। वे सब एक ही द्रव्य के ही भेद करके बताये गये हैं। सो इतना एकांत में बह गए वैशेषिक कि उन्हें स्वतंत्र पदार्थ मानने लगे, जबकि जैन सिद्धांत में केवल अतद्भाव बताया गया, पदार्थ एक ही है द्रव्य, वह अखंड स्वभावमय है उसमें गुण आरोपित किये स्वभाव के भेद करके, तो उन गुणों का स्वरूप देखो तो परस्पर अतद्भाव को लिए हुए हैं उन्हें स्वतंत्र सत् नहीं कहा जा सकता। इसी तरह द्रव्य में जो परिणतियाँ होती है वे अतद्भाव को लिए हुए हैं, स्वतंत्र सत् नहीं। पर्याय स्वतंत्र सत्, यह है बोद्ध का सिद्धांत। पर्याय को उन्होंने पदार्थ कह दिया, क्योंकि स्वतंत्र सत् निरन्वय होता है। किसी दूसरे से लगाव नहीं रखता। जैसे जीव, परमाणु यह परस्पर निरन्वय है, पर वैशेषिक सिद्धांत में द्रव्य को जुदा, पदार्थ को जुदा पदार्थ माना है। तब एक विपत्ति आती है कि जब द्रव्य जुदा है, आत्मा जुदा है वैशेषिक सिद्धांत में और ज्ञान गुण है जुदा पदार्थ, तो ज्ञान आत्मा में ही पाया जाता और इन भौतिक पदार्थों में या आकाश आदिक में न पाया जाय। ऐसा नियम कैसे बनावेंगे? जब यह एक प्रश्न वैशेषिकों के सामने आया तो उन्होंने उत्तर दिया कि समवाय न बनेगा। समवाय का अर्थ क्या है कि जो कभी पृथक् न हो और पृथक् होगा भी नहीं उनका संबंध बनना सो समवाय है। संयोग तो प्रथम होता उनका फिर संबंध बने वह तो संयोग है। तो सांख्य की अपेक्षा वैशेषिक कुछ अभेद तो लाये मगर स्वतंत्र मानना उनका भी रहा, पर जैन सिद्धांत में आत्मा स्वतंत्र, ज्ञान स्वतंत्र पदार्थ है ऐसा नहीं है, किंतु यह आत्मा ज्ञानमात्र है।
1259- आत्मा की ज्ञानरूपता-
आत्मा एक ज्ञान है, ज्ञानमात्र है, अनादि है, अनंत है, इस ज्ञान की आदि नहीं, इस ज्ञान का अंत नहीं अचल है।अपने स्वरूप से कभी चलित नहीं होता, ऐसा यह स्वत: सिद्ध अंतस्तत्त्व है। यह जितना है उतना ही है, यहाँ पर दूसरे का उदय नहीं। बाहरी पदार्थों से इसमें कुछ आता नहीं, इस कारण यहाँ आकस्मिक कुछ हो ही नहीं सकता। ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में जब किसी दूसरे का उदय ही नहीं है तो यहाँ कुछ विपत्ति नहीं आ सकती। यहाँ तक कि कर्मों का और आत्मा का निमित्त नैमित्तिक संबंध है, पर्यायों में, विकार में वहाँ भी कर्म अपने में विपाक पा रहे हैं। वे अचेतन हैं इसलिए पता न पड़ेगा उसे और हम इससे अलग हैं सो हम कर्म को जानें क्या, मगर कर्मों में विपाक इस प्रकार है कि उसकी फोटो यहाँ उपयोग में ज्ञानविकल्प से जानी जा रही, जैसे दर्पण के आगे लाल कपड़ा रखा तो असल में लाल तो वह कपड़ा है मूलत: पर उसका सन्निधान पाकर दर्पण भी लाल फोटोरूप हुआ है, सो कहीं ऐसा नहीं है कि इस समय में दर्पण लाल रंग वाला न हो। वहाँ स्वच्छता का विकार रूप से लाल रंग है, मगर वह ऐसा बाहर लोट रहा है कि उसके हटने में रंच भी देर नहीं लगती। तो ऐसे ही कर्मों में कर्मविपाक आया और चूँकि यह ज्ञानस्वरूप पदार्थ है और उस प्रकार के अशुद्ध उपादान वाला है, उसके उपयोग में उसकी झाँकी है। इसे परिशिष्ट अधिकार में बताया कि यह आत्मा रागविकार करता है इसका अर्थ क्या है? कर्मविपाकरूप बाह्य ज्ञेय और ज्ञान में यह भेद नहीं समझ पा रहा। तो इस प्रकार का ज्ञान विकल्प मचा रहा है। यह है विकार का मौलिकरूप। ज्ञेय के मायने कर्मविपाक, उसका प्रतिफलन, उसमें भेद न जान करके और उसमें एक अभेदरूप से ज्ञान का विकल्प कर रहा इसलिए सामान्य अपेक्षा से तो यह कहेंगे कि वहाँ भी यह आत्मा ज्ञानरूप ही परिणम रहा, उस ज्ञानरूप परिणमने का अर्थ दूसरा है, और विशेष की अपेक्षा कहेंगे तो यह राग विकाररूप परिणम रहा। याने रागविकार है कर्म में, कर्म का अनुभाग, पर उसका प्रतिफलन हुआ और वहाँ उपयोग जुटा। यह उपयोग का जुटना यह जान जानकर नहीं हो रहा, और हो रहा है, जैसे दर्पण में अंधेरे का फोटो आया तो कुछ पता नहीं पड रहा कि फोटो है, तो उस स्थिति में भी यह ज्ञान कहीं पुद्गलरूप नहीं बन गया। वह अपने विकल्परूप से ही परिणम रहा।
1260- ज्ञानी के आकस्मिकभय के अभाव का कारण परिपूर्ण परविविक्त अंतस्तत्त्व का परिचय-
जब विकृत स्थिति में अज्ञानी ज्ञानविकल्परूप ही परिणम सका, अन्यरूप नहीं फिर तो जैसे भेदविज्ञान है और परतत्त्व, परभाव से विविक्त सहज ज्ञानस्वरूप का जिसको प्रत्यय है ऐसे पुरुष की तो और भी विशेषता है, वह ज्ञानी जान रहा है कि यहाँ पर किसी दूसरे का उदय नहीं हैं, आत्मा में आत्मा ही आत्मा है, वहाँ दूसरे पदार्थ का प्रवेश नहीं स्वरूप में। बाह्य क्षेत्र तो आकाश है, और वहाँ आत्मक्षेत्र भी है। जहाँ आत्मप्रदेश वहाँ कार्माण वर्गणाएँ भी है। बहुत से पुद्गल पड़े हुए हैं, कितने पुद्गल हैं एक जीव के साथ, संसारी जीव के साथ? सो आप यों परखिये कि एक छोटा से भी छोटा जीव लो जिसका बहुत छोटा शरीर है, लघु अवगाहना वाला एकेंद्रिय जीव लो, उस एक जीव के शरीर में अनंत परमाणु हैं, और जितने शरीर के परमाणु हैं उससे अनंत गुणे शरीर के विश्रसोपचय परमाणु हैं, याने जो शरीररूप नहीं बने किंतु शरीररूप बन सकते हैं। और, उनसे अनंत गुणे तैजस शरीर के परमाणु हैं। उनसे अनंत गुणे कर्मपरमाणु लगे हैं, उनसे अनंत गुणे कार्माण वर्गणा के विश्रसोपचय परमाणु हैं। कुछ ध्यान में दीजिए और, हैं सब एक क्षेत्रावगाह, पर स्वरूप में कुछ नहीं। यह तो एक एक इंद्रिय जीव की बात है, अब इतनी बात तो चारइंद्रिय तक में भी है, पर इसके अलावा भाषा वर्गणा के परमाणु और उसके साथ हैं। अच्छा यह सब बात असंज्ञी तक में है, सो संज्ञी में तो है ही, पर उसके साथ मनोवर्गणा के और परमाणु लगे हैं। तो आप ध्यान में दें कि एक जीव के साथ अनंत परमाणु यहाँ हैं, मगर स्वरूप में किसी दूसरे का उदय नहीं है। यह ज्ञानी ज्ञानमात्र स्वरूप को निरख रहा है। यहाँ यह ही है। यह जितना है उतना ही है। यहाँ कोई आकस्मिक बात नहीं होती तब इस ज्ञानी को उसका भय कहाँ से हो? वह तो नि:शंक होता हुआ निरंतर सहज इस ज्ञान का सम्वेदन कर रहा है।
1261- स्वरूपनि:शंक ज्ञानी के आकस्मिक भय का अभाव- ज्ञानी के ज्ञान की सुध प्रतीति रूप में तो निरंतर है और अनुभूति रूप में कभी कभी, मगर इसका स्मरणमात्र भी इस जीव को निराकुल स्थिति में बहुत मदद देता है। जिसने अनुभव किया इस अंतस्तत्त्व का सो अनुभव तो थोड़े समय को है, पर स्मृति तो रहेगी। उसकी स्मृति ही बहुत काम करती है। जैसे किसी ने कोई बड़ी मधुर चीज खायी और स्मृति आ जाय तो उस जैसा रस या थूक एक घूँट में आ ही जाता है। नीबू को देखते हैं तो दूर रखा है यह नीबू, पर खटास जैसी बात कुछ गले में आ सी जाती है। न संबंध है न कुछ, पर स्मृति हुई कि इसका कैसा रस है? क्या नीबू का रस खाते समय वह आत्मा में आता है? अरे वह तो ज्ञान में बात आयी। तो यह नीबू खाते समय ज्ञान में समझा वह रस, उस ज्ञान में वह यहाँ चैन, मौज या अनुभव बनाता है। कहीं नीबू के रस का अनुभव नहीं बनता, वह तो बौद्धकालिक चीज है पर द्रव्य का आत्मा अनुभव कैसे करे? उपचार से तो कहेंगे, किंतु परमार्थ से तो रसना इंद्रिय के द्वारा जो उसका ज्ञान किया गया, एक आत्मा का ही, ज्ञान का ही आनंद ले रहा है यह जीव। पदार्थ का आनंद कभी नहीं मिलता, किसी को नहीं मिलता। बाहर में अनेक पदार्थ हैं, वैभव पड़ा है, पर उस वैभव में आनंद आता है क्या? उस वैभव को विषय करके जो यह जीव अपने में बहुत बहुत कल्पनायें बनाता, ज्ञान विकल्प बनाता, उनमें मौज किया करता। इसको कहीं बाहरी पदार्थों में मौज नहीं मिला, यह एक ज्ञानमात्र, सो अनुभव किया, उसके बाद प्रतीति में ही इसके निर्व्यग्रता बनी रहा करती है। इसके आकस्मिक भय नहीं होता। 1262- ज्ञानी की लीला का धाम-
ज्ञानी को आकस्मिक भय इस कारण नहीं कि इस ज्ञानी के तो अंतर में एक अद्भुत लीला है। कहाँ वह क्रीड़ा कर रहा है, किस उद्यान में रम रहा है यह? कर्मविपाक से उत्पन्न हुआ जो यह सारा वैभव है उससे अपने आपको पृथक् जानकर यह तो एक स्वभाव की ओररम रहा है। तो देखो उस स्वभावरमण की स्थिति में यहाँ प्रतिफलन हो रहा, विभाव हो रहे, पर वे बिना फल दिये झड़ रहे, विभावों का फल था संसार बंधन कराना, पर उपयोग रहा अंतस्तत्त्व में तो विभाव तो हुये मगर प्रतिफलनरूप कलुषता करके निकल गये। और अगर बुद्धिपूर्वक हुए तो केवल उपयोग निमित्तक बंध हुआ, वहाँ संसार निमित्तक बंध नहीं, क्योंकि उसने जीवभाव को, पारिणामिक भाव को, इन सब विभावों को छोड़कर उपयोग द्वारा छिन्न-भिन्न कर अलग कर दिया था। अब इस जीवभाव में ये विभाव जम नहीं सकते। जैसे टूटे हुए फल को डाली में जोड़े रहना एक जबरदस्ती है ऐसे ही कर्मविपाकवश विभावों को उपयोग में जोड़ लेना एक जबरदस्ती है, पर अंतर में जीवभाव के विभावों का जुटना नहीं बनता। और उस समय जैसे बाहर में पौद्गलिक कर्म स्वयं निर्जीर्ण हो रहे हैं इसी तरह यह विभावों की श्रृंखला भी इस ज्ञानी जीव में आयी और निर्जीर्ण हो रही।
1263- कर्मनिषेकों के उदयन के समय की विडंबना-
देखो निर्जरा तो सभी जीवों के चलती है। अज्ञानी के भी जो राग आया वह गया, ठहरना नहीं है, इसी प्रकार जो कर्म उदय में आए सो गए। उदय कहते हैं निकलने को, जगह छोड़ने को उदय कहते हैं। जैसे सूर्य का उदय हुआ मायने सूर्य ने अब वह जगह छोड़ा, वह निकला। कर्म का उदय मायने कर्म का निकलना, दूर होना। तो ये कर्म जब दूर होने को होते हैं तब विडंबना बनती है। देखो कितना कुमित्र है यह। जब तक आत्मप्रदेश में रह रहा यह कर्म याने सत्ता में स्थित है तब तक इसमें बिगाड़ नहीं चल रहा और जिस समय यह दूर होने को होता है तो न जाने क्यों इतनी विडंबना होती? शायद दूर होता हुआ मानो वह घबड़ा गया कि ऐसा बढ़िया भगवान आत्मा को स्थान मिला था रहने को और जा रहा अब सो वह मानों बौखला गया। वहाँ एक विपाकरस फूटा, तो उदय के मायने है निकलना, दूर होना।
1264- सत्तास्थित कर्मों के दूर होने के समय संपदा विपदा से भेंट-
यह पुण्य संपदा जिनको मिली है सो कहते हैं कि पुण्य के उदय से मिल रही। उसका अर्थ यह है कि पुण्य कर्म के निषेक परमाणु हर समय निकल रहे, दूर हो रहे। उदय का अर्थ यहाँ निकलना है, याने पुण्य प्रकृति के दूर होने के समय संपदा मिलती है। उदय होने का अर्थ बतला रहे कि जो पुण्य प्रकृति इस आत्मा में सत्ता में स्थित है उसका उदय हो तब ही तो संपदा मिले और उदय के मायने निकलना है। अब यहाँ निकलने निकलने का ताँता चल रहा है, तो इतनी बात तो अवश्य है। उस निकलने के ताँते का फल है बहुत काल तक संपदा का समागम रहना। उस निकलने का निमित्त पाकर ये भोग उपभोग संपदा प्राप्त हुए, सत्ता में रहते हुए में नहीं प्राप्त होते। तो निर्जरा तो सभी जीवों के हो रही, जिनके पास धन है उनका पुण्य कर्म निकल रहा और जिनको कष्ट है उनके पापकर्म निकल रहा इसलिए कष्ट हो रहा। बताओ कष्ट में क्या बुराई? पापकर्म निकल रहा। दूर हो रहा, पापकर्म के उदय होने का याने दूर होने का निमित्त पाकर कष्ट होता है और पुण्य कर्म के उदय होने का, दूर होने का निमित्त पाकर संपदा मिलती। विशेष यह है ताँते की बात और भीतर समझ लो। जिसके पाप का उदय चल रहा तो उसकी संतति में, ताँते में बहुत काल तक पापकर्म दूर होता जा रहा, वहाँ निरंतर कष्ट हो रहा। बड़ा पाप नारकियों के हैं, जिसे कहते हैं तेज पाप का उदय। तो कहते हैं नारकी जीव मरकर फिर तुरंत नरक में व देव में नहीं जाता, कुछ बीच में और भव पाकर जाता। तो एक कल्पना लायी जा सकती कि पापकर्म इतना वहाँ दूर हुआ कि अब उतना पाप नहीं रहा कि फिर वह नरक में आ सके। वह फिर दूसरा भव धारण करेगा उसके बाद फिर पापबंध होगा नरक के लायक, फिर नरक जायगा। तो से कर्म सदा निर्जरा को प्राप्त हो रहे। बस ताँते की बात पुण्य संपदा में और ताँते की बात यहाँ कष्टोपभोग में समझ लीजिये। राग हो रहा, निकलना हुआ। वह ताँता चल ही रहा है, और फिर उसका उपयोग बनता है।
1265- ज्ञानी के नि:शंक ज्ञानसंचेतन-
जिन्होंने यह रहस्य जाना, जैसे दर्पण पर प्रतिबिंब आया गया, वह बाहर बाहर लोटता रहा, अंत: प्रविष्ट नहीं हुआ इसी प्रकार यह उपयोग आया गया, बाहर ही बाहर लोटता रहा, अंत: प्रविष्ट नहीं हुआ। ऐसा जिसके अंत: प्रतिबोध है वह अपने स्वरूप की सम्हाल मैं स्वरूप के अभिमुख हो रहा इसलिए वे विभाव निर्जीर्ण हो रहे, संसार में भटकना करने वाले नहीं बन रहे। करणानुयोग के अनुसार बंध वहाँ भी हो रहा। करणानुयोग के मायने झूठा अनुयोग नहीं, किंतु पूर्ण पक्का, न्याययुक्त सच्चा। वहाँ बंधन हो रहा, आस्रव हो रहा, पर उसकी विवक्षा अध्यात्म में नहीं की जाती। यह सब बुद्धिपूर्वक उपयोग से संबंधित बातों का वर्णन चल रहा, क्योंकि जितना बिगाड़ हम आपका है वह उपयोग लगाने से बिगाड़ है। अगर उपयोग उन रागादिक विकारों में न लगे तो यह बहुत सामान्य होकर निर्जीर्ण हो जाता है, तो इस ज्ञानी जीव ने अपने स्वरूप को पहिचाना ज्ञानमात्र, अचल इसमें किसी दूसरे का प्रवेश नहीं। तो कोई आकस्मिक भय नहीं। ज्ञानी अपने स्वरूप को ही लिए हुए है उपयोग में, इस कारण वह नि:शंक है। जैसे लोग कहते- मर गए, मरने दो, मैं तो पूरा का पूरा यह हूँ।रेलगाड़ी में कह देते ना कि भाई वहाँ न बैठो यहाँ आ जावो, तो झट वह वहाँ से उठकर दूसरी जगह बैठ जाता है, दूसरी जगह पहुँच जाने से कहीं उसका शरीर घट तो नहीं गया, वह तो पूरा का पूरा पहुँच गया, ऐसे ही यह आत्मा एक देह छोड़कर दूसरे देह में पहुँच गया तो वह तो वहाँ भी पूरा का पूरा पहुँचा, उसमें से कुछ कम नहीं हो गया। इस आत्मा में किसी दूसरी चीज का प्रवेश नहीं है, उसमें से इसकी कोई चीज कभी इससे बाहर जाती नहीं। ऐसा एकत्व विभक्त स्वरूप का निश्चय होने से सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होता हुआ अपने स्वरूप का संचेतन कर रहा है।