वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 161
From जैनकोष
सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घ्नंति लक्ष्माणि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बंध: पूर्वापात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव ॥161॥
1266- सम्यग्दृष्टि की लक्ष्मी-
वहाँ सम्यग्दर्शन के अंग बताये जा रहे हैं। ये क्या हैं? सम्यक्त्व के लक्ष्य, सम्यग्दृष्टि के लक्षण। जैसे यहाँ कभी कोई उल्टा गलत काम कर रहा हो तो कहते हैं कि तुम्हारे लच्छन ठीक नहीं है। अभी अपने लच्छन तो अच्छा करो, तो लक्षण के मायने प्रवृत्ति, वृत्ति, पहिचान। तो सम्यग्दृष्टि के ये सब लक्ष्य हैं, लक्षण हैं। देखो लक्ष्य और लक्षण दोनों एकार्थक हैं। केवल प्रत्यय के बदलने से दो रूप बने। इतना ही नहीं, लक्ष्मी, लक्ष्य, लक्षण इन तीनों का एक अर्थ है। लक्ष्मी का अर्थ मूर्ति नहीं या कोई देवी नहीं, लक्ष्य शब्द नपुंसकलिंग है, लक्ष्मी शब्द स्त्रीलिंग है लक्ष्मी का अर्थ है लक्षण, पहिचान। तो लक्ष्मी शब्द से पहले ज्ञान का ही बोध होता था। जिसने कहा लक्ष्मी, तो अर्थ यह ही ध्वनित होता था कि ज्ञानस्वरूप, ज्ञान लक्ष्य, ज्ञानलक्षण मायने आत्मा की जो लक्ष्मी है, मायने लक्षण है वह क्या है? ज्ञान लक्ष्मी। दीवाली के दिन लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं, वह लक्ष्मी क्या है? ज्ञानलक्ष्मी, जिसमें अतुल समृद्धि हो वह है लक्ष्मी। अतुल समृद्धि है कहाँ? बाहर तो बाह्य पदार्थ है, भिन्न हैं। कुछ मतलब ही नहीं, समृद्धि है अपने आपमें। सारी करतूत कला यह सब ज्ञान में बसी हुई है। तो ज्ञान ही लक्ष्मी है। सम्यग्दृष्टि के लक्ष्य क्या हैं। ये 8 अंग भी तो ज्ञानरूप वर्त रहे हैं। ज्ञान को छोड़कर और कुछ रत्नत्रय में बात न मिलेगी।
1267- सर्वभावों की ज्ञानसंबंधितता-
भैया, व्यवहारधर्म सब कुछ ज्ञान से ही संबंधित है। व्रत, तप, संयम, असंयम ये ज्ञान से अलग न मिलेंगे। ये भी सब ज्ञान से संबंधित हैं और इतना ही क्यों, सुख, दु:ख, कष्ट, ये भी ज्ञान से अलग न मिलेंगे। ये सब भी ज्ञान से संबंधित हैं। कष्ट नाम किसका? याने ज्ञान का ऐसा विकल्परूप परिणमन जिसमें भय, शंका आदिक विकल्प जगते हैं, वह ज्ञान का ही तो विकल्प है। सब कुछ ज्ञानस्वरूप है। और, इसी से ही बढ़ गए एकांत में जो, सो उनका एकांत संप्रदाय बन गया। उसने तो यह माना कि सब कुछ ज्ञान ही ज्ञान है। कोई कहे कि यह खंभा जो दिख रहा यह क्या है?...ज्ञान। जो कुछ दिख रहा वह क्या?...ज्ञानस्वरूप। उनका ऐसा अनुमान है कि जो जो कुछ प्रतिभास में आ रहा है वह- वह प्रतिभासस्वरूप है। जैसे ज्ञान प्रतिभास में आ रहा है तो वह ज्ञान प्रतिभासस्वरूप है। तो ये सारे पदार्थ जो प्रतिभास में आ रहे हैं ये सब प्रतिभास स्वरूप हैं। और मोटी दलील से भी दिखाते हैं। जैसे कि लोग कहते हैं कि हमारे ज्ञान में आया तो यह है और ज्ञान में न आया तो नहीं है। किसी तरह से समझे ज्ञानाद्वैत। ज्ञानमात्र ही है सब कुछ, यह एकांत हो गया। किंतु यह युक्त नहीं बैठता, ज्ञानमय पदार्थ भी है, अज्ञानमय पदार्थ भी है, पर आत्मा का जो कुछ है वह सब ज्ञान उद्यान के ही सारे फल फूल है यहाँ। तो सम्यग्दृष्टि जीव के जो ये लक्ष्य हैं, 8 अंग हैं, ये समस्त कर्मों को दूर करते हैं।
1268- स्वरसनिचित ज्ञानसर्वस्वमय सम्यग्दृष्टि के कर्मसंवरण और कर्मनिर्जरण- कैसा है वह सम्यग्दृष्टि किटंकोत्कीर्णवत् एक स्वभावरूप जो स्वरस आत्मसमृद्धि उससे भरा हुआ ज्ञान ही इसका सर्वस्व है। ज्ञानमात्र तत्त्व को अन्य बातों से भरे तो यह रीता हो जायगा और अन्य बातों से रीता करें तो यह ज्ञानमात्र तत्त्व से भर जायगा। कैसा है यह ज्ञानमय पदार्थ? अगर उसमें और बातें भरे तो यह रीता रहेगा, दु:खी रहेगा, संसार में भटकेगा और इसको रीता करेंगे इस प्रकार कि ज्ञानमें और कुछ बात न आये, केवल ज्ञानस्वरूप ही रहे, ऐसा रीता अगर कर देंगे, अन्य बातें यहाँ से हटा लेंगे तो यह ज्ञान ऐसा भर जायगा कि इसमें तीनों लोक व अलोक के सब पदार्थ अवश होकर यहाँ आ पड़ेंगे। पदार्थ न आ पड़ेंगे। पदार्थों का ज्ञान हो जायगा, तो ऐसा यह आत्मतत्त्व ज्ञानस्वरूप वही जिसके लिए सर्वस्व है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवों के ये लक्ष्य समस्त कर्मों को दूर करते हैं। वह लक्षण क्या? अभी नि:शंकित अंग का वर्णन चला था। 7 भयों से रहित अपने स्वरूप में नि:शंक वह जान रहा है टंकोत्कीर्णवत् स्वरूप निश्चल है। यद्यपि कहीं इस पदार्थ पर आवरण है, द्रव्य प्रकार सीमा में परिणमन है तो भी स्वभाव अचल है, स्वभाव नहीं बदलता। ऐसे अचल स्वभाव में अंतस्तत्त्व की श्रद्धारखने वाले पुरुष के मिथ्यात्व नहीं रहा, जहाँ मिथ्यात्व नहीं है वहाँ शंका नहीं। जहाँ तक मिथ्यात्व है वहाँ तक कर्मबंध की शंका है, अर्थात् संसार परंपरा करने वाली प्रकृतियों का बंध मिथ्यात्व के रहते हुए होता है। तो जब इसके शंका न रही स्वरूप में, तो इसके बंध नहीं है और निर्जरा ही चल रही है, बंध नहीं है। इसका अर्थ है कि मिथ्यात्वकृत बंध नहीं है। और बंध की इसके सामने कुछ गिनती नहीं, वह संसार परंपरा नहीं बढ़ाता। 1269- अध्यात्मशास्त्र में बुद्धिपूर्वक रागादि आस्रवक भवन व अभवन की चर्चा- मिथ्यात्व में होने वाला बंध संसार परंपरा बढ़ाता है, अनंतानुबंधन करता है इसलिये बस इसके ही भवन अभवन का अध्यात्म शास्त्र में प्रयोग में आ रहा, जो बुद्धिपूर्वक आ रहा उसका ही वर्णन यहाँ चलता। यद्यपि जैन सिद्धांत चार वेदों में विभक्त है- (1) प्रथमानुयोग (2) करणानुयोग (3) चरणानुयोग (4) द्रव्यानुयोग। करणानुयोग की दृष्टि से निरखें तो बंध 10 वें गुणस्थान तक है, अब समझिये श्रेणियों में जहाँ समाधिभाव है यहाँ भी बंध है और चौथे में तो उनकी अपेक्षा विशेष ही बंध है। 5 वें में, चौथे से कम ऊपर वालों से ज्यादह इतने बंध प्रसंग चल रहे हैं तो जब कोई ज्ञान न हो करणानुयोग का और केवल एक उस ही अध्यात्म में कही हुई बात को एकांतत: कोई पकड़ता है तो अन्य कोई इसमें विवाद भी उठाता है। अध्यात्म्शास्त्र के अनुसार तो वह कहता है- हाँ बिल्कुल बंध नहीं होता, पर बात वहाँ सही यों नहीं बैठती कि बंध तो चल रहा है, 10 वें गुणस्थान तक। तो एक प्रकरण जान लें। बंध है 10 वें गुणस्थान तक लेकिन यहाँ उपयोग की मुख्यता से बात कही जा रही है। उपयोग जहाँ जुड़ा है और उस उपयोग में इस जीव के बुद्धिपूर्वक भी दृष्टि से देखें तो वहाँ आस्रव बंध नहीं है, पर एकांत करते हैं, तो विवाद बनता है और उस विवाद में न इन्हें लाभ न उन्हें लाभ, क्योंकि कषाय, या विवाद, या विडंबना या अपने आपके विचार का पक्ष ये ऐसी कलुष परिणतियाँ है कि जो स्वानुभव में बाधक बनती हैं, इसलिए निर्णय सब प्रकार से करें और प्रतिपक्ष बात को अंगीकार करके विवक्षित बात की प्रधानता देना, बस यही है सुरक्षित अपना मोक्षमार्ग में गमन। 1270- सम्यग्दृष्टि के स्वरूपविषयक शंका का अभाव तथा जिनवाणी में शंका का अभाव- सम्यग्दृष्टि के शंकाकृत बंध नहीं। यहाँ भी एक शंका की जा सकती है। अच्छा, बैठा है सम्यग्दृष्टि मानो बड़े जोर से तोप का गोला छूट गया तो क्या वह जरा भी हिलेगा डुलेगा नहीं? हिलेगा डुलेगा पर वहाँ कोई शंका हो गई क्या? अरे शंका उसके स्वरूप में नहीं है। केवल बाहरी बातें होती रहें तो भी स्वरूप में संदेह नहीं। मैं सहज ज्ञानमात्र ही हूँ, अन्य रूप नहीं हूँ, जिसका कभी नाश नहीं होता, ऐसा मैं अंतस्तत्त्व हूँ। उसकी श्रद्धा में कभी भी शंका नहीं चलती और फिर यह सब रूप की परख जिन उपायों से पायी है, उन वचनों में भी शंका नहीं। साक्षात् परख तो शुद्धनय से पायी, पर जो और परख के साधन बने थे, जिनकी कृपा से समझकर हम शुद्धनय को पहिचान सके वह सब क्या है? वही आगम, 7 तत्त्वों का निर्णय और सभी प्रकार के वस्तुस्वरूप का निर्णय। आगम से पाया तो उस आगम के संबंध में भी रंच शंका न रहना इसे कहते हैं व्यवहारिक नि:शंकित याने जिन वाणी में जिनेंद्रदेव के वचनों में उसे शंका नहीं रहती, जिन वचन में शंका न।’’ जिनेंद्र भगवान की वाणी में उसे शंका नहीं है, आगम में लिखा है परोक्षभूत तत्त्व के संबंध में, वहाँ हम कुछ युक्ति बुद्धि नहीं लगा पाते, स्वर्ग नरक के बारे में हम साधारणतया बता दें, वहाँ हम और कोई बात चलाते जायें, सही समझें कि हाँ स्वर्ग जरूर है, थोड़ा बनाते हैं अनुमान। जहाँ ऐसा वर्णन किया विमानों की नाप तौल, उनमें रहने वाले देवों के नाम, और और वर्णन, यहीं मध्यलोक में जो मेरू आदिक पर्वत पड़े हैं, एक एक पर्वत की नाप, कुलाचल और और द्वीप सबकी एक-एक अंगुल की नाप बताया है, जहाँ पूरा अंगुल भी नहीं तो बता देते कि अंगुल के तीसरे भाग प्रमाण, आदि यहाँ तक बारीकी से सब बताया। इसको सही निर्णय है, सही श्रद्धान है कि जो कुछ आगम में बताया है वह सब यथार्थ है। यह उमंग उसे कैसे बनी? जब आगम में बताये गए 7 तत्त्व 9 पदार्थों के बारे में इनको युक्ति से परखा, अनुभव से जाना और एक दृढ़ निर्णय श्रद्धान बना तो एक बात जो हमारी समझ में आ सकती है वह जब पूरी ठीक बन गई तो वीतराग संत महर्षियों को और प्रकार से गप्प लिखने का क्या प्रयोजन था? ऐसी कोई भी चीज स्वरूप नहीं है। उसके प्रति दृढ़ श्रद्धा होना वह एक बहुत उचित चीज है। 1271- सम्यग्दृष्टि के स्वरस का महत्व-
सम्यग्दृष्टि को अपने स्वरूप में शंका नहीं, यहाँ कोई भय नहीं आ सकता, यहाँ किसी दूसरे का प्रवेश नहीं। यह कभी मरता नहीं, इसमें यह ही है। यहाँ किसी प्रकार का भय नहीं, वह नि:शंक निरख रहा है अपने ज्ञानस्वरूप को। तब हो क्या रहा है? बँध रुक गया और निर्जरा हो रही, उस कर्मफल में जब उपयोग नहीं दे रहा यह और एक ज्ञानप्रकाश से समझ लिया कि ये सब कर्मरस है। मेरे स्वरूप के रस नहीं हैं, उनका प्रतिफलन है और उस प्रकार का विकल्प बनता है, पर यह मेरे स्वरूप की बात नहीं है तो ज्ञानी को विकार में क्यों रुचि होगी। स्वरस का ही ज्ञानी महत्त्व आँकता है, कर्मरस का महत्त्व नहीं आँकता अतएव निर्जरा होती है।
1272- विभावों की उपेक्षा से विभावों का निर्जरण-
भैया किसी महिमान को आप बड़ी खातिर से बहुत ऊँचे स्वागत से मना मनाकर रखें तो महिमान को रहने में क्या आपत्ति है और महिमान अगर आपके लिए बोझ रूप बन गया हो तो क्या उपाय है उसको हटाने का? उसे उपेक्षा कर लें तो वह अपने आप चला जायगा। तो यह कर्मरस एक महिमान है, जिसकी हमारे लिए कोई महिमा नहीं। ऐसा यह महिमान आया है तो इससे राग होगा, इससे प्रीति जगेगी, इसका स्वागत होगा, इस रूप बनकर चलेंगे तो इसको यहाँ रहने में क्या आपत्ति? इसका तो मौज बन रहा। कर्म अपना कुल बढ़ाना चाहते, जीव अपना कुल बढ़ाना चाहता, एक अलंकार में कहा है आचार्यों ने, कर्म कभी गम खायेंगे क्या? बहुत हो गया, बहुत सता लिया इस जीव को, बस अब तृप्त हो गए, अब न सतावें। तो कर्म को तृप्ति नहीं। अलंकार में समझिये कर्म यों नहीं हटते। कर्म में राग नहीं लगे, उनसे उपेक्षा बनायें, स्वभाव की ओरदृष्टि रखें तो उससे विभावों की निर्जरा है। हट जाने का नाम है निर्जरा। विभावों का फल था एक संसार परंपरा बढ़ाना मगर मिथ्यात्व का योग न होने से ये संसार परंपरा नहीं बढ़ा पाते। यहीं उन विभावों का निर्जरण चल रहा है। ज्ञानी जीव के नि:कांक्षित गुण प्रकट हुआ है, भीतर से कुछ नहीं चाहता। देखिये इच्छा भी है और नहीं भी है, एक गृहस्थ है, ज्ञानी है अपने अध्यात्मरस का अभ्यासी है तो वह घर में रहता हुआ क्या दूकान न जायगा? क्या अन्य काम न करेगा? गृहस्थी में रह रहा इसलिए करना पड़ेगा। तो क्या थोड़ी बहुत भी इच्छा नहीं होती कि दूकान जायें, इसमें ऐसा व्यापार करूँ, इसमें ऐसे दाम लिखूँ, इसमें इतना मुनाफा पाऊँ, इसकी थोड़ी सी बात तो मन में आती ही होगी। न आये तो फिर इतना रोजिगार, व्यापार क्रिया कैसे बनी। तो यह इच्छा है चारित्र मोहकृत। करना पड रहा है, परिस्थिति है ऐसी, पर अंदर में किसी भी विभाव को वह चाहता नहीं। शुभ अशुभ समस्त विभावों से विविक्त एक विशुद्ध चैतन्य प्रकाश में ही अपनी स्थिति चाहता है तो मौलिक तो ऐसी बात है पर आ पड़े कि ऐसी बात है अब इस बात को ज्ञानी के सिवाय दूसरा कौन समझे कि ऐसी भी परिस्थिति होती है। वह आ पड़े की जबरदस्ती है। अज्ञानी कैसे समझे? कहीं ऐसा भी होता है कि काम करे, और आ पड़े की जबरदस्ती माने। वह ज्ञानी ही इस बात को समझता है। तो उसकी नि:कांक्षता है, विषय भोगों से प्रीति नहीं है। आकांक्षा न होने से उसके बंध नहीं, निर्जरा है। निर्जरा है ऐसा शब्द सुनकर करणानुयोग की दृष्टि में तो इसका समाधान कर लें। यहाँ बुद्धिपूर्वक वर्णन के प्रसंग में बात चल रही है। उसे संसार वाला बंध नहीं, जैसे बताया ना- अध्यवसान दो प्रकार के हैं- (1) संसार विषयक और (2) उपयोग निमित्तक। संसार विषयक बंध कहलाता है रागद्वेष मोह। उपयोग निमित्तक कहलाता है सुख दु:ख आदिक। सम्यग्दृष्टि जीव के नि:काक्षंता के प्रताप में बंध नहीं। व्यवहार में अथवा एक प्रवृत्ति में वृत्ति है- ‘‘धारि वृष भवसुख वांछा भाने’’ मायने धर्म को धारकर विषयों की वांछा न करना, धर्म के एवज में कोई सांसारिक सुख की चाह करना मिथ्यात्व है। चारित्रमोहकृत कमजोरी है सो इच्छा भले ही हो पर धर्म के एवज में सांसारिक सुख की चाह करना उसका मिथ्यात्व है, तो धर्मधारण करके भवसुख की चाह नहीं होती है ज्ञानी के धर्म सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिये न माने, किंतु अपने आपको निर्भार कृतार्थ, सहज तृप्त होने के लिए ही धर्म का पालन मानें, मैं अपने को अकेला जैसा मैं अपने स्वरूप में हूँ वैसा ही अपने को अनुभव करूँ यह है धर्मपालन। इसके लिये हैं धर्मक्रिया।
1273- ज्ञानी की निर्विचिकित्सा और अमूढ़दृष्टिता का प्रभाव-
ज्ञानी जीव का लक्ष्य एक है, निर्विचिकित्सा, विभाव आ रहे हैं, क्षुधा तृषा आदिक दु:ख आ रहे हैं, पर स्वरूप की श्रद्धा के कारण व्यग्र नहीं बन रहा, वहाँ ग्लानि नहीं चल रही है।ग्लानि कहते हैं मालिन्य को, रोग को। ज्ञानी जीवको अपने स्वरूप में आस्था है और जो-जो कुछ ऊपरी बातें हैं, विभाव है, उनके कारण यहाँ ग्लानि विषाद व्यग्रता नहीं बन रही है, क्योंकि उसने अपने स्वरूप को निरखा और उसके आशय में नि:शंक यह बात है कि इस तरह से मैं अपने को सुरक्षित बनाता हूँ उसके स्वरूप की नि:शंकता के कारण और विभावों से उपेक्षा के कारण बंध नहीं, किंतु निर्जरा चलती है। इस ज्ञानी का एक लक्षण है अमूढ़ दृष्टि। टंकोत्कीर्णवत् निश्चल जो एक चैतन्यप्रकाश है उसमें इतनी लगन है कि इसके अतिरिक्त अन्य बातों में उसको मोह नहीं जगता। कोई कितना ही बहकावे, जैसे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, इनकी महिमा जताये वहाँ इसका मोह नहीं बनता। कोई कितना ही चमत्कार दिखाये वहाँ इसको मोह नहीं जगता, मूर्खता नहीं आती कि वहाँ ही अपना कल्याण समझने लगे। स्वरूपानुभव की कला है ऐसी कि जिससे उसे ऐसी अमूढ़ता प्राप्त हुई। अब इसके मूढ़दृष्टि के कारण हो सकने वाला बंध नहीं है, अर्थात् मूढ़दृष्टि में होने वाला जो बंध था वह अब रहा नहीं, सो उसके निर्जरा हो चलती है।
1274- ज्ञानी का उपवृंहण और स्थितिकरण लक्ष्य-
ज्ञानी का एक लक्षण है उपव्रंहण, अपने गुणों में बढ़ना, समस्त आत्मशक्तियों की वृद्धि करना। उसमें ज्ञानबल ऐसा पड़ा है कि उसकी शक्ति में दुर्बलता वाला बंध अब नहीं हो रहा। पहले कायर हो जाता था, जरा-जरासी घटना में अपने आपके स्वरूप को भूल जाता था। अब अपने स्वरूप की दृढ़ता के कारण शक्तियों का बढ़ावा चल रहा है, धीरता, वीरता, गंभीरता, उदारता ये सब वृद्धि को प्राप्त हो रहे और भीतर में अपने स्वरूप की निश्चलता बढ़ रही, ऐसे जीव का यह उपव्रंहण यह समस्त कर्मों को दूर कर रहा है। सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य है स्थितिकरण, स्वयं मार्ग से च्युत हो जाय तो अपने को मार्ग में स्थिर कर देना। देखिये- अपनी-अपनी सम्हाल अपने-अपने को बहुत आवश्यक है, जो कुछ करें धर्म के लिए। चर्चा करें तो, स्वाध्याय सुनें तो, प्रवचन करें तो, सब स्थितियों में आत्मसम्हाल, आत्मदर्शन, आत्मा की अभिमुखता यह ही ध्यान में होना चाहिए और इस ही तरह की अंतर्वृत्ति चलना चाहिए, अन्य भाव नहीं। कभी अगर कोई श्रोता इस ख्याल से सुनता हो कि कोई गलत बात जंचे तो मैं उसकी पकड़ करूँ तो उसको उस प्रवचन से या वचन से या उस जिनवाणी से अपने आत्मा को पोषने वाला तत्त्व न मिलेगा, क्योंकि उसकी बुद्धि एकदम बाहर की ओरहै, और इस तरह से सुने जैसा कि श्रोता का प्रधान लक्षण बताया- ‘‘भव्य: किं कुशलं ममेति विमृशन्’’। श्रोता की पात्रता बताते हुए कहा है छंद में सर्वप्रथम लक्षण श्रोता का। उसका क्या अर्थ है कि, मेरा क्या हित है इस प्रकार का विचार करता हुआ श्रोता होता है। ऐसे विचार वाला श्रोता 8 वर्ष के बालक के मुख से भी कोई जिनवाणी का वचन सुनेगा तो उससे भी वह अपना लाभ निकाल सकता है। आत्मशक्ति का उपवृंहण करने वाला वह कभी अपने आपसे च्युत हो तो अपने आपमें अपने को स्थिर कर दे, यह है उसका स्थितिकरण लक्षण और व्यवहार में कोई दूसरा च्युत हो रहा हो तो तन, मन, धन, वचन जिस किसी भी प्रकार से बने, सेवा से उसको धर्म में स्थिर कर देना यह है उसका स्थितिकरण। तो अपने को निरखें, कभी गलती हो, कभी स्वरूप से च्युत हो, कभी बाह्य में भटकना बन जाय तो झट-पट अपने आपको सम्हालें। अन्य बाहरी झंझटों को, उन विकल्पों को हटायें और अपने आपके स्वरूप में, अपने उपयोग को जोड़ें। ऐसा चिन्ह प्रकटहोता है सम्यग्दृष्टि जीव के, तब समझिये कि उसके बंध क्यों हो? उसके तो निर्जरा ही चलती है।
1275- सम्यग्दृष्टि का वात्सल्य और प्रभावना रूप लक्ष्य-
सम्यग्दृष्टि जीव का लक्षण है वात्सल्य। रत्नत्रय मार्ग में उसको अत्यंत प्रीति जगी। वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इनको अपने में निरख रहा, अभेद विधि से देख रहा है मार्ग वत्सल।और, ऐसा पुरुष सदा आत्मा में मग्न तो हो रहा, तो उसकी जो बाहरी प्रवृत्ति है वात्सल्य के प्रसंग में अपने साधर्मीजनों से निष्कपट प्रीति रखने की है। देखिये- साधर्मीजनजो धर्म का पालन करें, तथा नाम के जैन हों वहाँ भी वात्सल्य जगना, स्थापना जैन हों वहाँ भी, द्रव्य जैन हों वहाँ भी, भाव जैन हों वहाँ भी, सर्वत्र वात्सल्य जगना। वहाँ द्वंद्व न मचना, वहाँ दुविधा न होना कि जो मेरे संग में अधिक रहे उसका विचार हमसे पूर्ण मिले वह तो हमारा साधर्मी और विचार न मिलें तो हमारा साधर्मी नहीं। कोई नाम मात्र का जैन हो वह भी साधर्मी है। और, देखिये- विचार प्रत्येक दिमाग में भिन्न-भिन्न होते। किसी के विचार किसी दूसरे से पूर्णरूपेण न मिलेंगे। इसके संबंध में एक कहावत है- पाग भाग वाणी सकल, सूरत बुद्धि विवेक। अक्षर होय न एक से इत्यादि...इनमें कोई बात समान नहीं मिलती। अक्षर देख लो- क ख ग घ वगैरह अक्षर लिखे जाते, सभी लिखते, पर अक्षर किसी का किसी से नहीं मिलता, भाग्य भी सबका एक समान नहीं मिलता, पगड़ी भी किसी की किसी से नहीं मिलती, वाणी भी किसी की किसी से नहीं मिलती, सकल सूरत भी किसी से किसी की नहीं मिलती।बुद्धि विवेक भी सबका एकसा नहीं होता तो मतलब यह है कि ये सब बातें हैं। अब अपने को तो यह देखना है कि अपनी रक्षा कैसे हो, अपने आत्मा की प्रगति कैसे हो, उस प्रकार के भाव से प्रयोजन रखना चाहिए। जीव का यह समय कितना है? गई बहुत थोड़ी रही, थोड़ी हो तो जाय,...अब थोड़ासासमय शेष रह गया, इसमें समता का, उद्धार का ऐसा विधान बनाना चाहिए कि जिससे अपने आपमें कोई संकुचितता न जगह। स्वानुभूति के लिए तो संकुचितता ठीक है, मगर व्यवहार के लिए उदारता ठीक है। स्वानुभव तो तब ही बनेगा जब बाहरी पदार्थों से हटते जायें, विविक्त होते जायें, अपने स्वरूप में लगें। और उदारता तब बनती है जब कि हम जीवों में स्वरूप को निरखेंगे, समता जगेगी, थोड़ी सुरक्षा होगी। एक लक्ष्य रह गया प्रभावना अपने आचरण से, अपने तपश्चरण से, अपने उपायों से ऐसा चलना कि अपने में धर्म की प्रभावना बढ़े और दूसरे लोग निरखकर भी उसके अनुसार चलें। ऐसे चिन्ह समस्त कर्मों को नष्ट करते हैं।