वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 167
From जैनकोष
जानाति य: स न करोति करोति यस्तु
जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मराग: ।
रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु-
र्मिथ्यादृश: स नियतं स च बंधहेतु: ॥167॥
1321- ज्ञाता के कर्तृत्व का अभाव व कर्ता के ज्ञातृत्व का अभाव-
जो जानता है वह करता नहीं, जो करता है वह जानता नहीं। जानने और करने का यह अर्थ अवधारित कीजियेगा- मैं ज्ञानमात्र हूँ, जानन ही मेरी क्रिया है, जानन ही मेरा व्यापार है। यह जानन चल रहा, जाननहार जान रहा, सो जानने को ही जान रहा है, इस जानन का फल भी जानना ही है, जानने के लिए जान रहा। ज्ञान केवल ज्ञान के लिए ही है, वह इस ज्ञान में हो रहा कार्य। ऐसा यह जानन का कार्य होता है। इस तथ्य को जो जाने इसे कहते हैं कि वह जाननहार है। नहीं तो जानने वाले तो सभी कहलाते हैं, और अहंकार के साथ बोलते कि तुम क्या जानते हो? मैं जो जानता हूँ, तो उसका जानन क्या जानन कहलाता है? वह तो करना कहलायेगा। तो जानना, जहाँ केवल जानन का सर्वस्व दृष्टि में है उसे कहते हैं कि जानता है, तो ऐसा पुरुष जो जानता है वह क्या करता है? एक बात इस प्रसंग में खास जानें कि जो क्रियायें राग हो याने उस परिणति के साथ, उस विभाव के साथ मिलकर जो स्वर में स्वर मिलता है वह तो कहलाया कर्ता और जो अपने स्वरूप में, जानन क्रिया में प्रतीति रखकर स्वरूप में स्वर मिलाकर जो बात करे वह है ज्ञाता।
1322- जीवविकार व अजीवविकार के द्वैविध्य के प्रतिपादन से आत्मा अनात्मा में भेद का समर्थन-
यह बात समयसार में आगे कही जायगी कि कषायें दो प्रकार की होती हैं- (1) जीव कषाय (2) और अजीव कषाय। मिथ्यात्व दो प्रकार के, (1) जीव मिथ्यात्व और (2) अजीव मिथ्यात्व। जीव अजीव उसका मतलब क्या हैं? यह मतलब है कि जैसे दर्पण है, तो दर्पण के सामने कोई लाल-पीला कपड़ा आया, अब फोटो भी आयी ना लाल पीली। अब लाल पीली वहाँ दो प्रकार की है- (1) दर्पण रूप और (2) कपड़ा रूप। सामने देखते जाइये- लाल दो हैं- कपड़ा और दर्पण। फोटो भी तो दिख रही ना। सो दो रूप हैं- एक दर्पण रूप और एक कपड़ा रूप। कपड़े का लालपना कपड़े में ही है, कपड़े में तन्मय हैं और उसका सान्निध्य पाकर जो दर्पण में लालपना आया वह लालपना दर्पण की परिणति है। भले ही यह लालपना ऊपर लोट रहा है दर्पण में याने स्वभाव में प्रवेश नहीं कर पाया, तब ही तो देखो उसके हटने में विलंब नहीं लगता। खूब प्रयोग करके देख लो, कपड़ा हटाया तो फोटो हट गई, कपड़ा सामने किया दर्पण के तो फिर फोटो आ गई। तो वह फोटो बाहर-बाहर ही है, दर्पण के स्वरूप में नहीं है, दर्पण का स्वभाव नहीं है इसलिए बाहर ही बाहर लोट रहा है पर वह लालिमा दो जगह है- कपड़े में और दर्पण में। ऐसे ही दो जगह कषायें हैं- कर्म में और जीव में। कर्म में कषायें होती क्या? हाँ वहाँ तो मौलिक बात है। जैसे कपड़ा भी लाल होता क्या? अरे ! खूब देख लो, असल में तो कपड़ा ही लाल है। अब उसका सन्निधान पाकर यह झाँकी आयी। तो क्या अचेतन कर्म पुद्गल की कषायें हैं? हाँ, हैं। अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ यह कर्म प्रकृति का भेद है; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ यह कर्म प्रकृति का भेद है। अच्छा तो कर्म में ये कषायें कब आयी थी? सागरों वर्ष पहले जब भी यह कर्मबंध था, उसी समय में कषाय का अनुभाग आ गया था। अच्छा और ऐसा ही अनुभाग भीतर पड़ा हुआ सागरों पर्यंत रहा? हाँ रहा तो सही। अब जब विपाक आया, उदयकाल आया तो वह विपाक फूटा। कर्म अचेतन हैं, नहीं तो जीव से अधिक दुर्दशा इस कर्म की होती। जो कषाय अनुभाग कर्म में पड़ा हुआ है वह कषाय अनुभाग फूटा, उदित हुआ और चूंकि यह जीव उपयोग रूप है, जानन इसकी प्रकृति है, अभी यह अशुद्ध जीव है। इसमें वह रस प्रतिफलित होता है। यह प्रतिफलन जानकर हुआ या बिना जाने? दर्पण में अँधेरा जानकर हुआ या बिना जाने? हुआ यह प्रतिफलन, उस प्रतिफलन को इस जीव ने अपनाया, उस स्वर में स्वर मिलाकर बोला जैसे किसी के सर्प का विष चढ़ा तो वह उस सर्प की बोली में बोलता है, ऐसे ही यह अज्ञानी जीव मोह में मानो कर्म की बोली में बोलकर उन दशावों रूप अपने को मानकर चेष्टायें कर लेता है। इसकी चेष्टायें ज्ञान-विकल्प रूप हैं। कर्म का विपाक, कर्म के अनुभाग रूप है, बस भेद विज्ञानी ने यहाँ ही तो भेद डाला।
1323- कर्ता का लक्षण कर्मराग-
यह कर्मरस-प्रतिफलन यह मेरा स्वरूप नहीं। मेरी क्रियायें हँसना, रोना, गाना आदि नहीं। मेरी क्रिया तो जानन है। यह तो केवल औपाधिक भाव बनता, तो ऐसी विशुद्ध जानन क्रिया का जिसे अनुभव है, आस्था है वह जान रहा, समझता है कि मेरा काम जाननमात्र है। अभी यही एक अनुभूति बनावें कि जब आप ऐसी दृष्टि कर डालेंगे कि ज्ञानमात्र जाननक्रिया, यही सर्वस्व है मेरा, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं, उस समय यश, निंदा और, और बातें वे सब खतम हो जाती हैं। कोई आकांक्षा ही नहीं जगती, और संकोच, लाज, भ्रम कितने ही प्रकार के संकट ये कोई नहीं ठहरते, इस तरह का अंदर में एक दृढ़ विश्वास है और ऐसे ही विश्वास के साथ ही इस ज्ञानी ने जाना सो यह जानन कहलाता है। जो जानना है वह कर्ता नहीं। करना क्या कहलाता है? कर्मराग जो कर्मरस है, जो क्रिया चेष्टा है उसमें राग होना यह है कर्मराग, यही कहलाता है करना। देखो बहुत सीधी-सी बात। कोई रईस बीमार पड़ गया। तो उसका कमरा बहुत अधिक सुगंधित सजाया गया, पलंग बहुत कोमल स्प्रिंगदार गद्दे का सजाया गया, डाक्टर भी समय-समय पर आते, दवा देते, नौकर-चाकर भी बड़ी सेवा करते, मित्रजन भी आ-आकर बड़ी सेवायें करते, बाहरी सब प्रकार के आराम के साधन जुटाते, वह रईस उस दवा को बड़े प्रेम से पीता, यदि जरा भी दवा मिलने में देर हो जाय तो खूब झुँझलाता...पर जरा देखो तो सही कि उसके मन में उन सब साधनों के प्रति राग है क्या? अरे ! उसे राग नहीं है। वह तो दवा न पीना पड़े इसलिये दवा पीता है। वह नहीं चाहता है कि हमें जिंदगीभर इसी तरह के आराम के साधन बने रहें। बल्कि वह तो यह चाहता कि मैं कब ठीक हो जाऊँ और मील दो मील प्रतिदिन घूम आऊँ। देखिये- उस प्रसंग में बाहर में बड़ी उमंग-सी दिख रही थी उस रईस को, दवा, डाक्टर वगैरह के प्रति, पर भीतर से उनके प्रति उसे राग बिल्कुल न था। वह तो परिस्थितिवश उसे करना पड़ रहा था। वहाँ उस रईस के आशय को देखना है उसकी बाहरी वर्तमान परिस्थिति को नहीं। उसके उस प्रकार का आशय होने से बंध नहीं। आपके वर्तमान कानून में भी यही बात होती है। कोई जीव मारना चाहता है किसी को, की मार न सके, इसने इच्छा थी यह बात यदि सिद्ध हो जाती हैं तो न्यायालय उसे दंड देता है। तो उसे दंड मिला उसका उस प्रकार का आशय देखकर। एक आशय की ही तो बात है यहाँ। कर्मविपाक, कर्मप्रतिफलन हुआ और उसका उसमें जुटाव बन गया, जुड़ गया कि यह हूँ मैं, तो बात तो बन रही कर्मरस में और उसका सान्निध्य, निमित्त पाकर यह ज्ञान-विकल्प इस रूप चल रहा है हर क्रिया में कि मैं ही तो राग करता, तो वहाँ मैंने किया, मैं कर रहा, मैं कर दूँगा, मेरे सिवाय कौन कर सकता है? कितने रूप में यह करने की बात लादता है। तो जो कर रहा है उसे सुध है क्या यह कि आत्मा की क्रिया तो मात्र जानन है।
1324- मोहसंपर्क से अज्ञानमय भाव की मुद्रा का निर्माण-
भैया, एक तरह से यह बात भी परख लो, हो भी रहा मानो बाह्यकर्म, मगर जो स्वतंत्र, निरपेक्ष केवल अपने आपमें अपने से ही जो बात बने, करना तो वह कहलाता है और सामर्थ्य भी वही कहलाती। ऐसी बात तो जानन क्रिया में पायी जा रही है। स्वरूप ही यह है। जब यह ज्ञानमय आत्मा है, ज्ञानस्वरूप ही पदार्थ है, तो निरंतर उत्पाद क्या होगा? वह जानन जाननरूप, प्रतिभासन प्रतिभासनरूप, उसे कोई रोक नहीं सकता। वह निरंतर चलता है। तो यह तो बात चल ही रही है, किंतु साथ में मोह का संपर्क है तो अब यह विकल्परूप बनता जाता। जब तेजी से कोई चक्र चल रहा, मानो बिजली का पंखा चल रहा, आपको सब एक नजर आ रहा, पखुंड़ियाँ भी जुदी नहीं मालूम होती। कितनी पखुंड़ियाँ है इसका भी कुछ पता नहीं पड़ता। एक रूप चल रहा, और एक पंखुड़ी में कपड़ा बाँध दिया जाय तो चलते हुए से अब आपको कुछ समझमें आने वाली बात भी चल उठी। तब तो कुछ न समझमें आने वाली बात थी। अब समझमें आने वाली भी बात बन गई। बस यही हालत हो रही है जगत की। इसकी जो विशुद्ध क्रिया है अर्थ पर्याय षड्गुण हानि –वृद्धिरूप, सो सब पदार्थों में, आत्मा में भी निरंतर चल रही उसका तो कुछ पता नहीं। बस मोहसंपर्क हुआ और ये मोटे-मोटे विचार, विकल्प जिनकी मुद्रा बन रही, यह समझ में आयी तो यह जानता है कि हाँ अब जाना हमने। अरे ! जिसको कहते हो कि जाना, वह तो है करना और जो वास्तविक जानना है वह उसके जानने में आया कहाँ। जो जानता है वह करता नहीं, क्योंकि करना नाम है कर्मरस का। जो क्रिया बन रही, जो प्रतिफलन हुआ उसमें राग है तो करना है, यह ही मैं हूँ। जैसे रोगी ओषधि खा रहा और उसमें अंदर राग है, यह कि हमेशा ही मिले, यही मेरा काम है तो राग कहलायेगा, ओषधि खाना कहलायेगा।
1325- जानन और विकार में अनाटकी सूचना-
इस ज्ञानी को कर्म में राग नहीं, क्यों राग नहीं, क्योंकि वह कर्म को, राग को, उस विभाव को, विकल्प को जानता है कि यह अज्ञानमय भाव है। मैं तो ज्ञानमय हूँ। कर्मराग अज्ञानमय भाव है, राग का स्वरूप जानना है ही नहीं तो यह मेरा कैसे काम? जो जानन है सो मेरा काम। अगर यह राग खुद जानता होता तो राग चेतक कहलाता, यह तो चैत्य है। ज्ञान द्वारा जानने में आया हुआ है, भले ही राग देखकर एक चेतन का अंदाज होता है, अनुमान होता है, यह जीव है, जो राग करे सो जीव है, किसी पदवी में ऐसा अनुमान हुआ तो यह रागभाव तो राग से निराला चैतन्यस्वरूप है। इसको ही जता रहा है, जैसे रात्रि के समय कमरे में बिजली जल रही है। बाहर बैठा हुआ पुरुष बल्ब को नहीं देख पा रहा। बल्ब एक कोने में है और इस जंगले में से ये चौकी, तखत वगैरह दिख रहे तो उनका दिखना इस बात का निर्णय करा देता है, करते ही हैं सब लोग, कहते हैं ना- अरे ! देखो बिजली जल रही। वहाँ बल्ब तो दिखा नहीं, और वे जो प्रकाश्य हैं टेबल, कुर्सी वगैरह, बस उनके दिखने ने ही ज्ञान कराया कि यहाँ बिजली जलती है। तो ज्ञानी पुरुष तो इस राग को इसका प्रतिभास्य समझता, यह ही अनुमान कराता, ज्ञान कराता कि इससे निराला है एक जानन पदार्थ। जैसे इस चौकी से निराला है बल्ब। तो जानन और कर्म में भेद है, अंतर है।
1326- विशुद्ध अभेदषट्कारकता के परिचय का प्रताप-
इस जीव की जो जाननस्वरूप में जानन क्रिया की आस्था है यह बड़ा काम कर रही है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, जानन मेरी क्रिया है, जानता हूँ, जानन को जानता हूँ, जानने के द्वारा जानता हूँ, जानने के लिए जानता हूँ, जानने में जानता हूँ, यह है इसकी फैक्टरी अभेदषट्कारकी। देखिये- षट्कारक में संबंध को नहीं लिया गया। हिंदी में तो संबंध भी कारक माना गया है पर संस्कृत में नहीं माना गया। विभक्ति तो जरूर है, मगर कारकपना नहीं है। भाई ! संबंध को क्यों नहीं कारक कहा? उस संबंध वाली वस्तु के साथ क्रिया का साक्षात् संबंध नहीं। उस संबंध वाली वस्तु जैसे कोई-सा भी एक वाक्य बोलो- ‘‘हमने मंदिर में अमुक के लिए कलम से फलाने चंद की किताब लिखी।’’ यह एक वाक्य बनाया। लेखन क्रिया का सबके साथ जुटान हो गया मगर फलाने चंद के साथ जुटान नहीं हो सकता। जैसे- किसमें लिखी? मंदिर में। किसके लिए लिखी?...अमुक के लिए लिखी, किससे लिखी? कलम से लिखी और आगे पूछते लिखी किसकी? अमुक चंद की लिखी, तो इसका अर्थ क्या? अमुक चंद की किताब लिखी। तो उस बीच किताब का संबंध बना लेखन क्रिया से। लेखन क्रिया का उस संबंध वाले पदार्थ के साथ सीधा जुटान नहीं बना। उसका जुटान है पुस्तक के साथ, और किसी से संबंध नहीं। चूंकि क्रिया का साक्षात् संबंध कारक के संबंधी से नहीं होता, उस संबंध वाले के साथ जिसका संबंध कहा, इस कारण वह कारक में नहीं गिना। हाँ स्वद्रव्यों में अभेदषट्कारक रूप से वह जानन की बात परख रहा है, यह है जानन।
1327- कर्मराग की संकटमूलता-
राग तो अज्ञानमयभाव है। यह तो अध्यवसान है। यह अज्ञानभाव तो मिथ्यादृष्टि के होता है। सो मिथ्यादृष्टि का राग निश्चित ही बंध का कारण है। यहाँ जोर किस बात पर दिया? आत्मा को जानो। निश्चयनय से निरखो केवल एक अंतस्तत्त्व आत्मा, उसकी क्रिया जानो। जो पदार्थ है, जैसा स्वभाव है उस स्वभावरूप ही उसका काम होता है, बाकी बात सब औपाधिक भाव हो गया, मगर उसके स्वभाव की बात न होगी। मैं ज्ञानमात्र हूँ। जानन मेरी क्रिया है। हर जगह यही सोचना है। इस ज्ञानी को पर्याय में आत्मबुद्धि नहीं है, इस कारण ये सब ज्ञानकला में उसके सहज प्रकट होती हैं, सही काम करती हैं। पर्याय में आत्मबुद्धि होना यह ही बड़ी विपत्ति है और इसी से ही यह करने-करने की बात कहता है। मैंने किया, मैं कर दूँगा। ‘‘करिष्यामि करिष्यामि करिष्यामीति चिंतितम्। मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामीति विस्तृतम्’’। यह एक लौकिक शिक्षा की बात कह रहे हैं। मैं करूँगा, करूँगा, करूँगा इसका तो ख्याल है इसे और मैं मरूँगा, मरूँगा, मरूँगा इस बात का कुछ भी ख्याल नहीं होता। यह एक मोटी बात कह रहे हैं। जाननक्रिया की बात और है। जो जानता है वह कर्ता नहीं। अकामकृत कर्म हो तो वह बंध का हेतु नहीं, किंतु कर्मराग तो सब संकटों का दृढ़ मूल है।