वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 170
From जैनकोष
मिथ्यादृष्टे: स एवास्य बंधहेतुर्विपर्ययात् ।
य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ॥170॥
1346- कर्मराग की संसारबंधहेतुता-
कर्मराग संबंधी अध्यवसाय याने दूसरे जीव या दूसरे पदार्थ में जो कुछ करने का अभिप्राय बना वह अभिप्राय मिथ्यादृष्टि के ही होता है और वह बंध का कारण है। अगर कोई सभ्यता के कारण ऐसा भी कह दे कि भाई मैंने नहीं किया, मैं तो निमित्त मात्रा था और उसमें अभिप्राय करने का ही है और ऐसा सोचें कि ऐसा कहने से जरा सभ्यता प्रकट होती है तो भी वहाँ अज्ञानमय अध्यवसाय है और वह अज्ञानी के होता है, ऐसा अनेक बार होता है। किसी ने कोई मंदिर बनवाया, पाठशाला खुलवाई, कुछ बनवाया तो जब प्रशंसा करने बैठते हैं तो यह खड़ा होकर कहता है कि भाई मैंने कुछ नहीं किया, आप लोगों का सब हाथ है, मैं तो एक निमित्त मात्र हो गया, और अंदर में हो कर्मराग, मौज, कर्तृत्वबुद्धि तो वहाँ एक डबल अध्यवसाय याने भीतर पर पदार्थ के प्रति करने का भाव तो था ही, मगर एक यह कि इस तरह कहने से हमारी सज्जनता प्रकट होगी, यह एक और अध्यवसाय हो गया। सारी चीज अभिप्राय से चलती है। जहाँ कर्मराग है, क्रिया में आत्मबुद्धि है, परतत्त्व में आत्मबुद्धि है वहाँ इस जीव को बंध होता है, संसार बंध। बंध तो कुछ पद तक सम्यग्दृष्टि के भी चलता, मगर वह संसार बंध नहीं चलता, कुछ पद तक उपभोगनिमित्तक चलता है। 10 वें गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक चलता है, किंतु संसार वाला बंध ज्ञानी के नहीं होता।
1347- अध्यवसायों की अज्ञानात्मकता व निष्फलता-
यह अध्यवसाय अज्ञानात्मक है, और निष्फल है? जैसा सोचते वैसा है नहीं, इस कारण से तो अज्ञानरूप है और जैसा सोचते वैसा काम बनता नहीं इसलिए निष्फल है। स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य होता है बड़ी अवगाहना का। एक हजार योजन लंबा, 500 योजन चौडा़, 250 योजन मोटा एक महामत्स्य है। चार कोश का एक योजन होता है, कुछ लोग सोच सकते हैं कि क्या कोई इतने बड़े भी जीव होते हैं, चार हजार कोश के लंबे? तो भाई यहाँ पर भी तो हम आपको एक-एक फर्लांग तक की मछलियाँ देखने को अथवा सुनने को मिलती। इस समय भी हैं बड़े-बड़े तालाबों में, नदियों में अथवा समुद्रों में बड़ी-बड़ी मछलियाँ, छोटे तालाबों में छोटी मछलियाँ। बड़े तालाबों में बड़ी मछलियाँ, समुद्रों में उससे भी बड़ी मछलियाँ इस तरह देखने, सुनने को मिलती हैं। अब कोई सीमा बताओ कि बड़ी-बड़ी होकर कितनी बड़ी मछलियाँ हो सकती? कोई सीमा लगा सकता क्या? स्वयं-भूरमण समुद्र एक इतना बड़ा समुद्र है कि जिसके अंदर असंख्याते द्वीप और समुद्र भी पूरा नहीं कर सकते। जैसे एक तौलने के बाँटों में सेर को ले लो, वह कितना बड़ा है कि उससे आधा है आधा सेर, उससे आधा है एक पाव, उससे आधा है आधा पाव, उससे आधी है एक छटाक, उससे आधा आधी छटाकी। इस तरह से लगाते जावो तो भी ये सब मिलकर सेर बराबर नहीं हो सकते, आधी छटाक की कमी रह ही जायगी। तो ऐसे ही जंबू द्वीप है। एक लाख योजन के जंबूद्वीप से दूना है समुद्र, उससे दूना द्वीप, उससे दूना समुद्रा इस तरह चलते-चलते असंख्याते द्वीप, समुद्र के बाद अंत में स्वयंभूरमण समुद्र है, तो उसका जितना विस्तार है वह सब विस्तार असंख्याते द्वीप समुद्र का भी नहीं, इतने बड़े जल की स्थिति में ये मत्स्य पाये जाते हैं। लोग यों सोचते कि हिंद महासागर की बात होगी, तो यहाँ की बात नहीं है। और फिर कोई यह सोचे कि पैदा होंगे तो कितने, फिर बड़े होंगे तो कितने दिन में? यह हिसाब गर्भज जीवों में लगाया जाता। जो गर्भज होते, पेट से निकलते तो कितने और कितने दिन में बड़े होते? लेकिन वे मत्स्य हैं सम्मूर्च्छजन, याने ढेर पड़ा है, चीज पड़ी है तो वही जीव ने उस सारे ढेर को शरीररूप ग्रहण किया। वहाँ ही गठान हो गया। तो थोड़ देर में बड़े-बड़े शरीर देखने को मिलते हैं। तो ऐसा वह स्वयंभूरमण समुद्र का महामत्स्य अपना मुख बाये पड़ा उसके कान या आँख के पास एक तंदुल मत्स्य रहता है। वह संज्ञी पंचेंद्रिय है, वह विचार करता है कि देखो यह महामत्स्य कितना मूर्ख है। इसके मुख में हजारों मछलियाँ फिर रही हैं फिर भी यह उन्हें नहीं खाता। इसकी जगह पर यदि मैं होता तो एक भी मछली...। अब सोच लो इतने खोटे परिणाम के कारण उसको नरकगति का विकट बंधन होता है।
1348- मनुष्यजीवन को निर्दोष-शांत बनाने का अनुरोध-
इतनी बात तो हृदय में आनी चाहिए भैया !इस जिंदगी का भरोसा क्या? मुश्किल से मनुष्य आयु पाई और सब कुछ श्रेष्ठ बातें पायी तो इस भव में अपनी वृत्ति ऐसी निर्दोष कषायरहित होनी चाहिए कि जितनी अपनी बुद्धि में, पुरुषार्थ में बने। कषाय न करना, द्वेष न रखना, विरोध न होना, सर्व जीवों में, सर्व साधर्मीजनों में एक-सा परिणाम रहे। पहले भी तो नाना प्रकार के मनुष्य होते थे, मगर धर्म के नाम पर दुविधा न हुआ करती थी। कोई ज्ञानी है, कोई कम ज्ञानी है। कोई कितना ही है, सब एक धारा में चलते थे। तो अपने को ही इतना एक संतोषी हृदय वाला बनाना चाहिए कि सब एक जैन सिद्धांत के मानने वाले हैं, नाम जैन, स्थापना जैन, द्रव्य जैन, भाव जैन, किसी के भी प्रति विरोध की भावना न होना चाहिए। सर्व जीवों में उस स्वरूप को देखना है जिसमें समता-परिणाम जाग्रत होता हो। हम आपका रक्षक तो समता-परिणाम है। रागद्वेष न होना, साम्यभाव होना, अज्ञान न रहना, यह भाव हम आप लोगों की रक्षा करने वाला है। बाकी कुछ विचार करना कि मेरा अमुक मददगार, अमुक मददगार ऐसा बाहर में शरण ढूंढ़ा तो वह धोखा ही पायगा। दूसरा कोई जीव मेरा शरण नहीं है। भले ही कोई उपकार होता है तो मान लिया व्यवहार में किसी सीमा तक शरण, पर निश्चय में तो अपने आपमें दृष्टि दीजिए और मानें कि मैं ही अपना जिम्मेदार, मैं ही अपने लिए महान, मैं ही अपने लिए सर्व कुछ, कोई खोटा परिणाम न हो। दूसरे का बुरा चिंतवन यह अपध्यान कहलाता है जो कि बहुत खोटा ध्यान है। किसी के बारे में कभी भी किसी प्रकार का खोटा भाव न होना चाहिये क्योंकि वह निष्फल है। खोंटा भाव करने से वहाँ वह बात बनती नहीं और आप स्वयं एक बंधन में आ गए, संसार-बध बन गया, तो उस भाव से क्या लेना? अपने को स्वरूपदृष्टि करना चाहिए और अपना व्यवहार ऐसा होना चाहिए हृदय से कि जिसमें कषाय न उत्पन्न हो। यह बात अपनी रक्षा के लिए है। जो अपने आपके हृदय को सही रखेगा उसकी रक्षा है। रक्षक खुद का खुद ही है। तो अपने आप पर दया करके ऐसा अपना प्रयत्न बनाना चाहिए कि जो दोषीक न हो।
1349- शुभ-अशुभ सभी कर्मों के राग की बंधहेतुता-
यदि दूसरे जीवों के प्रति किसी प्रकार कुछ करने का राग किया, खोटा कर्मराग किया तो वह भी संसार-बंध का हेतु है और जैसे हम लोक में अच्छे काम करते हैं उन कर्मों का राग भी बंध का हेतु है, क्योंकि अज्ञानमूलक है ना ये बातें। जहाँ अज्ञान है वहाँ बंध है, अनेक लोग कभी-कभी ऐसा प्रश्न करने लगते कि यह बतलाओ कि जो जानता है वह पाप करे तो उनको अधिक पाप लगता या जो नहीं जानता है वह पाप करे तो अधिक पाप लगता है? ऐसा प्रश्न एक साधारण रूप से प्राय: सभी के चित्त में उत्पन्न हो जाता। जैसे जिसे मालूम है कि पानी में कीटाणु होते हैं, वह यदि छानकर न पिये तो उसे पाप लगेगा और जिसे पता ही नहीं है इस बात का वह यदि बिना छाने ही पी ले तो उसे पाप क्यों लगेगा? इस बात की पुष्टि करने के लिए लोग अनेक उदाहरण दे-देकर बोला करते। तो इस बात को बड़ी सावधानी से समझो। देखो बात आप ऐसी भी पायेंगे और उल्टी भी पायेंगे। प्राय: करके जो नहीं जानता है उसको न जानने से महापाप चल रहा है। तब साथ में तो और पाप की गिनती ही क्या? एक उदाहरण लो। आग पड़ी है किसी के पीठ पीछे और एक पुरुष को ज्ञान है कि यह आग है उसे कोई धक्का दे या हाथ पकड़कर वहाँ से उसे जबरदस्ती चलाये तो वह आग पर धीरे से, जल्दी से पैर धरकर निकल जायगा, एक तो ऐसा मनुष्य और एक मनुष्य को कुछ पता ही नहीं है कि यहाँ हमारे पीठ पीछे आग है तो वह पैर को डटकर धरेगा जोर से, तो बताओ उन दोनों में से अधिक कौन जलेगा? अरे ! अधिक तो वही जलेगा जिसे कुछ पता नहीं है, उसके ज्ञान ही नहीं है। यही बात सब जगह लगाओ। किसी ज्ञानी को कर्मविपाकवश लगना पड़ता है बाह्य प्रसंगों में, उसको अंदर से उनके प्रति रुचि नहीं है, बल्कि ग्लानि है तो उससे उसे कम दोष लगता और जिसे उसका ज्ञान नहीं है वह तो आसक्त होकर उसमें लगता जिससे विकट पाप-बंध करता। तो वहाँ मूल बात का उत्तर यह रहा कि जो नहीं जानता वह पाप करे तो अधिक दोष लगता। जिसे भीतर में ज्ञानप्रकाश नहीं वह अभी अज्ञानी ही तो है। उसे तो अभी अज्ञानी ही समझें, मगर जिसे स्पष्ट ज्ञानप्रकाश है ऐसे पुरुष को विरक्त होना उसके साथ ही साथ है। किसी भी अंश में हो उसे कर्मविपाकवश किसी विषय में लगना पड़ रहा, उसके कम बंध है।
1350- ज्ञानी के सर्व जीवों में अविरोध रखने का साहस-
अज्ञानी के ये अभिप्राय बंध के हेतु हैं, क्योंकि उसका परिणाम विपरीत है। जैसे कभी कोई क्षमावाणी पर्व आता ना, जबकि लोग एक-दूसरे से क्षमा माँगते, गले मिलते। तो लोग वहाँ क्या करते कि जिनसे बड़ी मित्रता है उनसे तो खूब जोर से लिपटते और जिनसे कुछ विरोध है, कुछ अनबन है उनके सामने नहीं पड़ते, कहीं ये दिख जायें तो उनसे मुख फेर लेते। भला बताओ यह कोई क्षमावाणी है क्या? अरे ! सच्ची क्षमावाणी तो यह है कि जिनके प्रति विरोध हो उससे अपने किए हुए अपराध की क्षमा माँग लें, पर इतना साहस किसी का नहीं बन पाता, ऐसा साहस होना बड़ी कठिन बात है, उसके लिए परिणामों में बड़ी निर्मलता चाहिए। तो ऐसे ही जिसके प्रति भी कभी कोई खोटी बात विरोध या मन में द्वेष जगा हो, अगर अपने आपमें दया आयी है तो कुछ साहस बनाना होगा कि उससे नम्रता का व्यवहार करें, और उससे कहें कि मैंने आपके प्रति जो ऐसे-ऐसे अपराध किये, ऐसी-ऐसी दुर्भावनायें रखीं, आप मुझे क्षमा करें। ऐसा साहस तो ज्ञानी जन ही करते, अज्ञानी नहीं, क्योंकि अज्ञानी को पर्याय में आत्मबुद्धि है। वह जरा-जरासी बातों में अपमान महसूस करता...अरे ! इसमें मेरी शान न रही...और ज्ञानी जीव इन बाहरी बातों की शान की होली कर देता है। वह बाहरी शान को, नामवरी को न कुछ चीज समझता है। तो जब ऐसी निर्दोष बुद्धि प्रकट होती है तो वहाँ कर्मराग मिटता है और एक सन्मार्ग प्राप्त होता है। कर्मराग मेटने के लिये भीतर में बड़ी सफाई करने की आवश्यकता है।
1351- प्रत्येक जीवों व पदार्थों का स्वतंत्र स्वरूप जानने वाले की उदात्तता-
जो-जो भी बातें अध्यवसायव की बतायी गईं कि मैंने इसे दु:खी किया आदिक के उन सब मान्यताओं का, इस तरह का भाव करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं है, क्योंकि ये सब अज्ञानमय भाव हैं। भैया, दूसरे जीवों का आदर करें मायने यह निरखें कि इस जीव को जो कुछ हो रहा है वह इसके परिणाम से हो रहा है। इसका करने वाला मैं नहीं। ऐसा सोचने में परजीव का आदर है। कैसे आदर हुआ कि मैंने उस परजीव को महत्त्व दिया, उसकी स्वतंत्रता ज्ञात की, ये अपने काम के प्रभु हैं, स्वतंत्र हैं, इसका मैं कुछ नहीं करता। ऐसा ज्ञानात्मक भाव हो वहाँ तो स्वभाव का, उस जीव का आदर बनाया इस ज्ञानी जीव ने। और जो यह जानता है कि मैं इसको कर दूँगा, उसकी दृष्टि में यह है कि यह तो तुच्छ है, इसमें तो कुछ बात ही नहीं है, सामर्थ्य ही नहीं है। जो कुछ मैं करूँगा सो होगा, ऐसी उस दूसरे जीव के प्रति जो भावना है उस भावना से तो उस दूसरे जीव का मानो एक अस्तित्व ही मिटा दिया, कुछ स्वातंत्र्य ही नहीं, कुछ परमार्थ सत् ही नहीं। तो भाई ! दूसरे जीवों के प्रति खोटे भाव रखना यह तो बहुत ही बुरी बात है और उसमें कर्मरस जो बना वह विकट कर्मबंध करेगा। अच्छे कामों में भी कर्मराग न करना चाहिए। जैसे मैंने सुखी किया, मैंने इस पर दया की, मैंने अमुक विधान किया आदिक बातें, वहाँ भी कर्म के प्रति राग न रहे। वह भी राग संसार-बंध का हेतु है, फिर जो खोटी बातों में राग चले उसका कैसा खोटा फल है।
1352- शुद्ध विचार वालों में धर्म की पात्रता-
यदि धर्म करना चाहते हो तो पहले अपने हृदय को साफ बना लो। यहाँ दूसरे किसी जीव के प्रति कोई विरोध, द्वेष न रहे। पहले ऐसा हृदय बनायें तो वहाँ धर्म बनेगा, स्वानुभूति के लायक पात्रता बनेगी। इसलिए पहला काम है कि अपने मन को, उपयोग को, हृदय को स्वच्छ बनायें। स्वच्छ बनाने के मायने यह है कि सबका स्वतंत्र सत्त्व पहिचानना और यह जानना कि मेरे द्वारा दूसरे की कोई परिणति बन नहीं सकती, फिर मैं क्यों दूसरे जीवों के प्रति अनिष्ट बात करूँ? अंतराय की बात, उसके विपरीत बात, उसके अपमान की बात या और कोई बात सोची जाय? ये सब अज्ञानभाव हैं। जहाँ यह अज्ञानमय भाव है, अध्यवसान है वहाँ संसार का बंधन है, नरक, निगोद, तिर्यंच जैसी कुगति का यहाँ बंध बन रहा है। क्या पड़ी है अपने को किसी दूसरे के बिगाड़ने की? अपने को सम्हालें, शुद्ध निर्दोष जानन बने, इसके भीतर आवो, अपने को उज्ज्वल कीजिये और इस तरह से जीवन व्यतीत करें, रहना कुछ नहीं है, साथ जाना कुछ नहीं है। एक अपने आपके परिणामों में विशुद्ध निर्मलता होगी तो आगे भी भला होगा, और अगर नहीं है तो बस समझ लो कि गये सो गये। यहाँ के मरे न जाने कहाँ पैदा हों, न जाने कहाँ क्या हो? यहाँ कैसे कल्याण हो सकेगा? सोचिये तो सही, कितनी मनुष्यभव की यह निरुपमता है। मान लो हम मनुष्य न होते, कीड़ा, मकौड़ा आदिक और कुछ बन गए होते तो फिर कैसे कल्याण की बात बन पाती? इसलिये अपने आपके उपयोग को विशुद्ध निर्दोष बनावें। जो ये मिथ्यादृष्टि के अज्ञानमय भाव हैं, बंध के कारण हैं, इन भावों को दूर करने से कल्याण का मार्ग मिलता है।