वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 171
From जैनकोष
अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहित: ।
तत्किंचनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ॥171॥
1353- शुभ-अशुभ सभी कर्मों के राग की निष्फलता-
अभी तक इस बंधाधिकार में जो अध्यवसाय बताये गए हैं वे सब अध्यवसाय इस जीव के बंधन हैं, हेतुरूप हैं, चाहे वे शुभ कामों के अध्यवसाय हों चाहे वे अशुभ कार्यों के अध्यवसाय हों, अज्ञान जहाँ बसा है वहाँ संसार बंधन है। मैं इस जीव को दु:खी करता हूँ, इसमें भी कर्मराग है, संसारबंध का हेतु है। मैं इस जीव को सुखी करता हूँ इस प्रकार का जो अध्यवसाय है वह भी कर्मराग है, संसारबंध का हेतु है। फर्क इतना पड़ेगा कि दु:खी करने आदि के खोटे अध्यवसाय नरक आदिक के कारण बनेंगे, दया उपकार आदिक के शुभ अध्यवसाय स्वर्ग के कारण बनेंगे, मगर हैं दोनों ही अज्ञानरूप और इस संसार में भ्रमण कराने के ही हेतुभूत हैं। चाहे पुण्यरूप अध्यवसान हो, चाहे पापरूप अध्यवसान हो, अध्यवसान के नाते से, अज्ञान के नाते से उसमें दुविधा नहीं, वह बंध ही का कारण है। जिसने सोच लिया परिणामों में कि इस जीव को मारना है, न भी मर सके तो भी संसारबंध, तो भी उसको पाप होते हैं। शिकारी ऐसे कि किसी पक्षी को चोट लगाये और वह पक्षी उड़ गया, चोट उसके न लग सकी तो भी उसको तो पापबंध हुआ ही हुआ, क्योंकि उसे हिंसा में अध्यवसाय था कि मैं इस जीव को मारूँ, ऐसे ही कर्मराग की बात कह रहे हैं। व्रत, तप करने पर भी अगर यह कर्मराग है कि मैं व्रत करता हूँ, मैंने ऐसा व्रत किया कि किसी से वैसा बन नहीं सकता, 10 दिन का उपवास किया था मैंने, और ऐसा किया था कि कोई तकलीफ नहीं हुई, ज्यों का त्यों बोलते थे और, और भी व्रत, तप के बारे में कर्मरस के अध्यवसान हो तो वहाँ अज्ञानमय भाव पाया जा रहा है क्योंकि उसे अपने इस चित्प्रकाश की खबर नहीं है कि मैं चैतन्यमात्र हूँ, और इतना बेसुध बन गया कि मैंने यह किया है, मैं ऐसा हूँ। उसे अज्ञानमय अध्यवसाय है।
1354- स्वभावसाधना की धुनवाले की प्रवृत्ति-निवृत्ति का स्वभावसाधना में सहयोग-
अरे ! बात तो यों होना चाहिये थी कि जिसने आत्मा का प्रकाश पाया बस, उस धर्मात्मा को ज्ञातादृष्टा रहने में भलाई है। रागद्वेष में उसका बंधन है, तो मैं अधिकाधिक स्वभावदृष्टि में रहूँ, स्वभावाश्रय करूँ, बस जब उसके भीतर में एक प्रखर संकल्प बना, उसकी धुन बनी तो उस धुन में आकर जब वह चलता है पर बाहरी व्यवहार छूट नहीं पाते, शरीर है तो खाना पड़ता है, बोलना पड़ता है, ये सब बातें होती हैं, मगर धुन है एक स्वभाव के आश्रय की। तो ऐसी स्थिति में उसका व्यवहार क्या बनेगा? क्या वह बाल-बच्चों के बीच बैठकर उनको गोद में ले-लेकर, उनको छाती से लगा-लगाकर, उनका ख्याल बनाने का व्यवहार करेगा? जिसको स्वाभावाश्रय की धुन है उसका व्यवहार क्या बनेगा? उनसे उपेक्षा रहेगी, वे छूटेंगे, घर छूटेगा, जानकर छोड़ेगा। यह प्रेरणा है ना भीतर, तो यह जानना वैराग्यप्रेरित है, ये भी छोड़ेगा और वस्त्र भी उसे बाधक मालूम होंगे, उतनी भी चिंता क्यों हो? कैसा मुनित्व होता है कि जहाँ चिंता नहीं, जहाँ विभाव का साधन नहीं, केवल एक स्वाभावाश्रय की ही धुन है, न भी उसमें सफल हो तो भी उसकी पुष्टि वहाँ ही रहती है। उसे ये सारी बातें बनती है तो व्रत बन रहा है, तप बन रहा है, संयम हो रहा है, उस प्रकार से बात चलती रहती है। और एक स्वरूप की सुध छोड़कर यह सोचकर कि मैं साधु हूँ, मुझे ऐसा ही करना योग्य है, बस साधु, साधु पर्याय पर ही दृष्टि है और यह दृष्टि भूल गए कि मैं एक चिदानंद-स्वरूप एक परमार्थ तत्त्व हूँ और वह भगवान आत्मा इन विभावों से तिरस्कृत होकर संसार में भटकता रहा। मैं तो यह हूँ, और यह जानन मेरा काम है। अब यह मैं जब मैं आत्मस्वभाव के आश्रय के मार्ग में यह चल रहा हूँ तो कुछ तो गुजारा होगा। कैसे रहना? गुजारा केवल खाने का ही नाम नहीं। उस परिस्थिति से गुजरना, वह सारा गुजारा है, मेरा स्वरूप तो यह परमार्थ चैतन्यमात्र हैं। जब साधक को ऐसी दृष्टि होती है तो उसके क्रोध में फर्क आ जाता है, मान न जगेगा। क्रोध, मान तो छू भी न जायगा, मायाचार करेगा ही क्यों, लोभ जगेगा ही क्यों, क्योंकि उसको अपने स्वरूप की परख है और उसकी धुन में चल रहा है। तो ऐसी धुन-वाले के व्रत, तप वगैरह ये सब उसके साधक बनते हैं। कैसे साधक कि वह ऐसा पात्र रहता है, ऐसा योग्य रहता है कि नहीं भी इस समय वह स्वानुभव में है मगर वह स्वानुभव के लायक बना रहे ऐसी उसकी स्थिति रहा करती है व्यवहारधर्म में। अज्ञानपूर्वक जो क्रिया होती है वहाँ यह पात्रता नहीं रहती है कि जब कभी भी हम स्वभाव की अनुभूति कर सकें।
1355- अध्यवसान के प्रतिषेध के लिये बाह्यवस्तु का प्रतिषेध-
इस प्रसंग में बात क्या बतलायी गई है कि अध्यवसान बंध का कारण है, बाह्यपदार्थ बंध का कारण नहीं। कुछ ऐसा सुनकर कोई ऐसा बके कि बाह्य पदार्थ रखने से बंध तो होता ही नहीं हैं तो क्या क्या बंध है? अरे ! तो यह तो देखो कि हमारे अध्यवसाय भी है या नहीं? अगर भीतर में अध्यवसाय है तो वह बंध का कारण है, बाह्य वस्तु बंध का कारण नहीं। हाँ इतनी बात अवश्य है कि बाह्य वस्तु अध्यवसान का हेतुभूत बनता है समयसार में बताया है- ‘अध्यवसानमेव बंधहेतुर्न तु बाह्य वस्तु तस्य बंधहेंतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात्’। ये बाह्य वस्तु, साधन बंध के हेतु तो नहीं मगर बंध के हेतु के हेतु हैं याने बंध का कारण हैं- अध्यवसाय, अध्यवसायरूप खोटे परिणाम, और खोटे परिणाम होने में आश्रयभूत हैं बाह्य पदार्थ। देखिये निमित्त हो या निमित्त का निमित्त हो, कोई भी बाह्य पदार्थ उपादान में उसकी परिणति को नहीं करता। मगर यह तो एक वातावरण है कि ऐसी स्थिति में उपादान अपना प्रभाव कर पाता है। तो बाह्यवस्तु का आश्रय लिये बिना चूँकि अध्यवसाय व्यक्त नहीं होता। कौनसा अध्यवसाय? जिसका जिक्र चल रहा बुद्धिपूर्वक अध्यवसाय। यह बाह्यवस्तु का उपयोग किए बिना, उसमें उपयोग जुड़े बिना यह अध्यवसाय नहीं होता, इस कारण बाह्यवस्तु अध्यवसाय के कारण हैं। इसी कारण चरणानुयोग में बाह्यपदार्थों का त्याग करने का उपदेश दिया गया है। आचार्यदेव यहाँ खुद कहते कि ‘‘तहि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध:? अध्यवसानप्रतिषेधार्थ:’’ अगर बाह्यपदार्थ बंध के कारण नहीं है तो बाहरी पदार्थों का त्याग क्यों कराया जाता है और क्यों विधि बतायी गई है चरणानुयोग में? तो उत्तर दिया है कि वह अध्यवसाय के आश्रयभूत है, इस कारण उसका त्याग करना बताया गया है। जो चीज नहीं है उसका सहारा लेना और कुछ अध्यवसाय बनना, कैसे हो सकता है? जो सामने है उसका आश्रय लेते हैं उसमें उपयोग जोड़ते हैं उससे अध्यवसाय बनाते हैं, तो चरणानुयोग की जो प्रक्रिया है वह अध्यवसाय का आश्रय छोड़ने की प्रक्रिया है, और इस कारण चरणानुयोग में जो विधान है उसके प्रति ज्ञानी का आदर रहता है। हाँ यह मार्ग है, इस तरह से ज्ञानी पुरुष चला करता है और वह अपने अंत: स्वरूप का आश्रय करके सफल होता है।
1356- अध्यवसाय की मुद्रा में-
अध्यवसान किसे कहते हैं? स्व और पर का विवेक न हो, ऐसे समय में जो कुछ भी निश्चय बनता है, बोधन बनता है, विकल्प बनता है, वह सब अध्यवसाय कहलाता है। अध्यवसाय का मूल स्वरूप है स्व और पर में ज्ञान न होने पर जो कुछ विकल्प हो वह सब अध्यवसाय है। तो ऐसे अध्यवसाय में मुग्ध हुए प्राणी अपने को किस-किस रूप बना डालते हैं। ये नाना रूप बना डालते हैं? जैसे नारकी कौन? जो अपने में यह अध्यवसाय किए हुए हों कि मैं नारकी हूँ, वे हैं नारकी। यह किस नय से कहा जा रहा है? आगम भाषा में कहा एवंभूतनय और इस अध्यात्म भाषा में कहा अध्यवसाय से निश्चय किए हुए की दृष्टि से। जब अपने उपयोग में यह बात समायी हुई हो कि मैं अमुक हूँ, तो इस उपयोग में, इस अध्यवसाय में तो वही है, जब उपयोग में आत्मा का अनुभव किया जा रहा हो उस काल में यह आत्मा अन्य रूप नहीं। ज्ञायक भावमय उपयोग की परिणति से सब यह निर्णय बनाया जा रहा है।
1357- क्रियागर्भ अध्यवसाय से अपना नानाभावीकरण-
आत्मा हिंसक कौन? कब बनता है यह हिंसक? जब हिंसा की क्रिया में अध्यवसाय होता है, मैं मारता हूँ इसे कहते हैं संकल्पी हिंसा। संकल्पी हिंसा सम्यग्दृष्टि में नहीं होती, उसका कारण क्या है कि जिसने संकल्प से हिंसा की है उस पुरुष को अपनी हिंसा की क्रिया में राग पड़ा है। कर्मराग हुये बिना कर्म का संकल्प नहीं बनता और इसीलिए संकल्पी हिंसा का त्यागी पंचम गुणस्थान के श्रावक को बताया है, पर नियम न होने पर भी संकल्पी हिंसा की प्रवृत्ति चतुर्थ गुणस्थान में भी नहीं है, क्योंकि कर्मराग नहीं है, नियमपूर्वक तो पंचम गुणस्थान में और बिना नियम के वैसी ही प्रवृत्ति अविरत सम्यग्दृष्टि की भी है। तो जब हिंसा-क्रिया में एक अध्यवसाय लगाया कि मैं मारता हूँ तो ऐसा जो अध्यवसाय है उसके द्वारा इस जीव ने अपने को हिंसक बनाया। यह अध्यवसाय मुनि के तो नहीं है। यदि वह मुनि रास्ते में जा रहा है और पैर के नीचे दबकर कोई जीव मर जाय तो वह हिंसा नहीं क्योंकि उनकी क्रिया द्वारा हिंसा का अध्यवसाय नहीं है। मैं मारता हूँ, मैं मारूँ, अथवा कुछ प्रवृत्ति हो, सो नहीं। थोड़ी बहुत चारित्रमोह वाली भी अध्यावसायित हिंसा नहीं, हिंसा के बारे में यह जीव अपने को किन-किन रूप नहीं बना डालता हैं? अध्यवसाय के द्वारा अपने को झूठा, चोर, कुशील, परिग्रही इन स्वरूप बनाता है, अन्यथा बतलावो परिग्रह कभी यह जीव हो सकता क्या? जीव में जीव का ही तो स्वरूप है। स्वरूप में किसी पर पदार्थ का ग्रहण हो सकता क्या? किसी पर का अन्य में ग्रहण नहीं। स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश नहीं है, तो जब किसी अन्य का प्रवेश नहीं है तो ग्रहण क्या हो? पर भीतर में अध्यवसाय द्वारा ग्रहण करता है, ऐसा परिग्रही है, यह मेरा है, मैं लखपति हूँ, मैं ऐसा हूँ, पर्याय में या पर पदार्थ में संबंध जोड़कर अपने को यह शरीररूप ही अनुभव करता है, और केवल इतनी ही बात नहीं, क्रियागर्भ, अध्यवसाय सभी क्रियाओं में होता तो वहाँ भी वह अपने को नानारूप बना रहा, मैं दया न करता, यह जीव तो मर ही जाता, मैंने ही तो इसे बचाया, लो क्रियागर्भ अध्यवसाय बन गया। तो दया करना, परोपकार करना आदिक जितने भी शुभोपयोग हैं उनमें भी अगर क्रियागर्भ अध्यवसाय है तो वहाँ भी संसारबंध है। तो अपने को यह जीव उपयोग द्वारा सोच-सोचकर किस-किस रूप बना डालता, यह तो क्रियागर्भ की बात है।
1358- विपच्यमान-अध्यवसाय की विडंबना-
अब देखें, कौन-कौन विपाक वाली बात अभिप्राय में अज्ञानी के बनी रहती है याने जिसमें करने की बात न लगे, किंतु यह मैं हूँ, मैं नारकी हूँ, तिर्यंच हूँ, पशु हूँ, मनुष्य हूँ, ऐसी नानारूपता को यों ही स्वीकारता है। मुनि हूँ, ऐसी भी कोई श्रद्धा करे मुनि बनकर, निर्ग्रंथलिंग पाकर मैं मुनि हूँ, तो विपच्यमान-अध्यवसाय बन गया। वह यह बात भूल गया कि मैं चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ। एक शुद्ध अंतस्तत्त्व में आत्मबुद्धि कर ली जिस मुनि ने, वह विपच्यमान-अध्यवसाय से दूर होने के कारण ज्ञानी है। मुनियों के मान क्यों नहीं रहा? यही तो कारण है कि वह मुनि पर्याय में अहंबुद्धि नहीं रखता और जो भी परिणति में कोई अहंबुद्धि रखता, मैं मुनि हूँ, मैं साधु हूँ, ऐसी भावना जिनके रहती है तो जरा-जरासी घटनाओं में उन्हें क्रोध आ जाता है, कारण की पयार्य में आत्मबुद्धि की है। मुनि होकर भी पर्याय में आत्मबुद्धि नहीं है, इस कारण उनकी कषायें मंद रहती हैं, उनकी धुनि में, उनकी दृष्टि में केवल यही बात है कि मैं चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ, उसकी साधना करना। यहाँ मान किस बात पर करना? दोष तो पड़े हैं और दोषों की निवृत्ति करना है उसके लिए काम बहुत पड़ा है। क्या काम? अंतस्तत्त्व को निरखना और उस अंतस्तत्त्व में रमण करना। जब यह बात बन नहीं पा रही तो मैं किस काम का? मैं दोषी हूँ, अपराधी हूँ, अभिमान करने लायक मेरे में कोई बात नहीं है। ऐसा ध्यान साधु के रहता है तो वह अंतस्तत्त्व की अनुभूति के लिए ही अपनी धुन रखता है।
1359- विपच्यमान अध्यवसाय की नाना मुद्रायें-
विपच्यमान अध्यवसाय की बात कह रहे हैं। मैं पुण्यवान हूँ, मैं पुण्यात्मा हूँ, मैं पापी हूँ, यों चाहे कोई भली पर्याय में बैठा हों, चाहे खोटी पर्याय में बैठा हो, वे सब अध्यवसाय कहलाते हैं। देखिये श्रावक भी है, गृहस्थ भी है तो उसके भी अगर यह भाव बने, श्रद्धान बने कि मैं गृहस्थ हूँ, मैं श्रावक हूँ तो उसके अध्यवसाय आ गया, उसके संसारबंध बन गया। है गृहस्थ, है कुटुंब में, मगर दृष्टि आस्था यह रहना चाहिये कि मैं मात्र चैतन्यस्वरूप हू। यह दृष्टि रहनी चाहिये प्रत्येक गृहस्थ के, प्रत्येक भव्य पुरुष के, और जब यह दृष्टि नहीं रहती तो गृहस्थ को भी तृष्णा सताती है, वह मायाचारी में बढ़ता है, क्योंकि पर्याय में आत्मबुद्धि की। यह हूँ मैं, इसकी शान रहना चाहिए, मान आ जाता है, क्रोध आने लगता। तो क्या कारण है? यह कि पर्याय में आत्मबुद्धि है। पर्याय में आत्मबुद्धि सिर्फ इसका ही नाम है कि चार गतियों का भव मिला, उसमें माने कि यह मैं हूँ, वह तो मुख्य है ही मगर साथ ही साथ अपने सूक्ष्म विचारों में भी अगर अहंबुद्धि जग गयी कि यह मैं हूँ, मैं विचार कर रहा हूँ, जो मैं विचारता हूँ, सो ठीक है, मैं बहुत ठीक हूँ, इस प्रकार की जो आस्था है उसमें मिथ्यात्व पड़ा हुआ है। व्यवहार सब तो, ‘गले पड़े बजाय सरे’ की बात है।
1360- ज्ञानी की विपच्यमान परिस्थिति से उपेक्षाभाव होने से विजय-
चाहे गृहस्थ हो चाहे साधु हो, सबके लिए जो सम्यग्दृष्टि है उसके लिए तो ‘गले पड़े बजाय सरे’ की नीति पर व्यवहार हैं। अभी इस पर्याय मैं हूँ, गृहस्थी छोड़ सकता नहीं। इतना अभी साहस नहीं कि निर्ग्रंथलिंग रूप में रहकर अपने आपको अनुभव कर सकें। सदा ऐसी अवस्था में रहें, यह बात अभी नहीं बन पा रही, तो गृहस्थी में रहकर गृहस्थी में रहने का खेद तो रहे। तब तो उसका मार्ग भला है और गृहस्थ रहकर गृहस्थी में मौज माने तो वह गृहस्थ श्रावक नहीं है, गृहस्थी में रहता हुआ गृहस्थ मौज के कारण, गृहस्थी की सुविधाओं के कारण वह अगर मौज की श्वास ले- मेरी बड़ी अच्छी हालत है, तो वहाँ उसका मार्ग सन्मार्ग न रहा। उसे तो गृहस्थी में खेद होना चाहिए, मैं इस पर्याय के भुगतान में क्यों पड़ा हूँ? कब मैं आत्मस्वरूप में रमूँ, यह ही श्रावक की इच्छा रहती है? यह मैं इस पद में हूँ, यह आफत है। इससे कब निवृत्त हो, मैं कब आत्मा में रमूँ, ऐसी उसे धुन रहती है? अगर नहीं है आत्मस्वरूप की समक्षता तो वहाँ अध्यवसाय है जो संसार का बंध करने वाला है। तो में पुण्यवान हूँ, पापी हूँ, ज्ञानी हूँ, बुद्धिमान हूँ, ये सभी के सभी अध्यवसाय मिथ्यात्व में ही तो हैं, जैसे बताया ना- ‘मैं सुखी-दु:खी में रंक-राव’, ये सब मिथ्यात्व ही तो है, ये अध्यवसाय हैं। मैं सुखी हूँ क्या, उस इंद्रियज भोगोपयोग के कारण क्या मैं मौज वाला हूँ? ऐसा मेरा स्वरूप है क्या? मेरा स्वरूप तो अखंड चैतन्यस्वभावरूप है, अन्य किसी रूप मैं नहीं हूँ। आस्था की बात कही जा रही है। करना तो सब कुछ पड़ता है। जैसे जिसका कोई खास इष्ट मर गया तो अब वही है धुन में, वही उसकी नजर में है। सो अब वह खाता-पीता नहीं है क्या? अरे ! खाना- पीना तो पड़ता ही है। मानो एक दो दिन न खायगा, मगर रोज-रोज खाये बिना चलता तो नहीं, और भी सारे काम उसे करने पड़ते, मगर उसकी धुन में यही बात रहती जिसके ऊपर उसका ख्याल है। इसी प्रकार गृहस्थ, श्रावक, साधु, जो-जो भी सम्यग्दृष्टि जानी हैं वे इन सब क्रियाओं को करते हुए भी समझते कि ये तो ‘गले पड़े बजाय सरे’, उस प्रकार के विपाक हैं, वह स्थिति बन रही, ऐसा होने पर भी उसकी धुन, उसकी दृष्टि एक अपने आत्मस्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसी रहती है। अब इसको कोई नहीं बहका सकता और, और लौकिक बातों में, किसी भी बात में कभी भ्रम में पड़ जाय मगर आत्मस्वरूप के बारे में ज्ञानी जीव को कभी भ्रम नहीं हो सकता।
1361- सम्यग्दृष्टि की अपने को सुखी-दु:खी आदि मानने के अध्यवसाय से अतीतता-
सम्यग्दृष्टि की दृढ़ आस्था है कि मैं सहज चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ। यह ज्ञानी जीव अध्यवसाय द्वारा अपने को दु:खी नहीं बनाता है वह बात कही जा रही है। मैं गरीब हूँ..., अरे ! आत्मा कहीं गरीब होता। आत्मा तो ज्ञान, दर्शन, शक्ति, आनंद का पिंड है, उसमें गरीबी की बात क्या? सब जीव एक समान, सब मनुष्य एक समान, यहाँ गरीब-अमीर अन्य बात का भेद नहीं है। स्वरूप को देखो- अगर ऐसा न मानकर कोई मानता है कि मैं गरीब हूँ तो हमने क्या किया? अध्यवसाय के द्वारा अपने को गरीब बना डाला। मैं अमीर हूँ, कोई बाहरी पदार्थ के संबंध से अमीर बना क्या? आत्मा अमीर है तो अपनी ज्ञान-दर्शन निधि के कारण अमीर है, बाहरी पदार्थों के संबंध से अमीर नहीं है। अगर मान लो अमीर है, तो मैं अमीर हूँ के अध्यवसाय से अपने को अमीर बना डाला। इस जीव ने इन मिथ्या अध्यवसायों के द्वारा अपने को न जाने क्या क्या बना डाला। मैं प्रभाव वाला हूँ, मेरा गोधन है, मैं इतना वैभव संपन्न हूँ, मैं पुत्रों वाला हूँ, मैं स्त्री वाला हूँ, मैं बलवान हूँ, ये सब अध्यवसाय बने रहे, लेकिन मूल में यह जीव चैतन्यप्रकाशमात्र है।
1362- मुनित्व परिणति के अध्यवसाय में भी शिवपथबाधा-
बताते हैं कि मुनि होकर भी, और कोल्हू में पिलकर भी और शत्रु पर द्वेष न रखकर भी कोई मुनि मिथ्यादृष्टि रह जाता है तो वहाँ कारण क्या है? वह अपनी परिणति में अहंबुद्धि रखता, पहले तो यह ही अहंबुद्धि रखता कि मैं मुनि हूँ, मुझे समता रखना चाहिए। देखिये- भीतर में उसने मुनित्व से अपना ऐसा लगाव लगाया कि यह भूल गया कि मैं चैतन्यस्वरूप हूँ। उसकी बात कही जा रही है कि कोई मुनि कोल्हू में पिल रहा, उसकी हड्डियाँ पीस रही, मरण हो रहा, और उसके उपयोग में यह अनुभव बना हुआ है कि मैं मुनि हूँ, मरण हो तो हो जाय मगर विरोधी पर द्वेष न करना। अब स्थिति में भी अहंबुद्धि होने के कारण वहाँ भी अध्यवसाय चल रहा, मिथ्यात्व चल रहा। तो अध्यवसाय की बात कही जा रही, कैसे-कैसे सूक्ष्म अध्यवसाय होते हैं, तो इसी प्रकार अनेक प्रकार से यह जीव अध्यवसाय के द्वारा अपने को नानारूप बनाता रहता है।
1363- ज्ञायमानाध्यवसाय से अपने को नानारूपीकरण में पातन-
तीसरी प्रकार का अध्यवसाय है ज्ञायमान का अध्यवसाय करना। जो कुछ हमारे ज्ञान में आ रहा उस रूप अपने को अनुभवना, यह है ज्ञायमान अध्यवसाय। जैसे, किसी का ध्यान बनाया, जिसमें मोह है ऐसी वस्तु का ध्यान बनाया तो ऐसा ध्यान बन गया कि उसका ध्यान बस वही निरंतर चलता रहता है, उस-उस ही रूप बस उपयोग चल रहा और अपने को भूल गया कि मैं क्या हूँ? एक ध्यान की ही तो बात है। नाटकों में देखा होगा, बच्चे लोग अपने-अपने पार्ट अदा करते हैं, तो जिसका पार्ट अदा करना है उसके प्रति उस पार्ट करने वाले बच्चे का इतना ध्यान बन जाता है कि वह उसी रूप अपने को अनुभव करने लगता और यह भूल जाता है कि मैं अमुक बालक हूँ।...और पार्ट भी वह तब ही सही ढंग से अदा कर सकता, मगर एक बात है कि अगर अपने को उस रूप बहुत अधिक रूप में अनुभव कर ले तो उससे बड़ा अनर्थ भी हो सकता। कथा में घटना हो तो कभी किसी दूसरे पार्ट करने वाले बालक का सिर ही उड़ा दे। तो वहाँ उस पार्ट करने वाले बालक ने अपने को उस दूसरे रूप अनुभव किया वह भी अध्यवसाय है। कोई धर्म, अधर्म जैसे बड़े सूक्ष्म द्रव्यों का चिंतन करे और ऐसा चिंतन हो रहा कि वहाँ स्वपर का कुछ विवेक नहीं, मिथ्यात्व अज्ञान बसा, बस जिसको जानना सो बड़ी लगन से जानना और एकमेक रहकर जानता, लो यहाँ भी एक अध्यवसाय हो गया। क्यों जी, कभी सूक्ष्म बात पर चर्चा भी होती है, धर्म की चर्चा, तो वहाँ चर्चा करते-करते गुस्सा भी आ जाता है, गाली-गलौज की भी नौबत आ जाती है, होता है ना कभी-कभी ऐसा, तो उसका कारण क्या है? ज्ञायमान अध्यवसाय में जो जानने में आ रहा उस अध्यवसायी के ऐसा अध्यवसाय बन गया कि उस प्रकार करने की चीज में कोई विघ्न पड़ जाय, जो मैं सोच रहा हूँ, जो मैं विचार रहा हूँ, इसमें अगर कोई प्रतिकूल बात बोले, अथवा इसके खिलाफ कोई दूसरी बात कहे तो उसे यों लगता है कि मानो मैं ही मर गया और उस विचार में उसने इतना अध्यवसाय बनाया कि वह अपना उसमें अलाभ समझता है।
1364- अज्ञानी के पर का, स्व का परमार्थ आदर करने के साहस का अभाव-
अज्ञानी को यह साहस नहीं जगता कि कोई न माने तो उसमें मेरा क्या है? उसका ही परिणाम है। उसके अंदर भी ज्ञान है। प्रथम तो जहाँ तक हो, ऐसी दृष्टि करना चाहिए कि जगत में जितने प्राणी हैं वे सब ज्ञान करने वाले हैं, और ज्ञान में अपनी दृष्टि से सही विचारता है, बुद्धिमान केवल मैं ही नहीं हूँ, सबके अंदर बुद्धि है, और जो कोई भी कुछ ख्याल करता है धर्म के मामले में वह किसी न किसी दृष्टि से ठीक है, ऐसा भाव रखकर उसकी ही दृष्टि में कोई परख करे कि इस दृष्टि से यह बात कह रहे हैं, इस दृष्टि से इसकी यह चर्चा है। अपने को विवादरहित बनाने से अपना कल्याण है और बात भी सही है। और जैसा कह रहे कल्याण के इच्छुक पुरुष वे अपनी-अपनी दृष्टि से ठीक कह रहे मगर दृष्टि को जब नहीं परखा है तो वहाँ विवाद होता है, जैसे एक ने कहा कि जीव नित्य है, नित्य अपरिणामी है, उसकी दृष्टि लगाओ। वह द्रव्यदृष्टि, स्वरूपदृष्टि से उसका समर्थन करता है। इतने में बौद्ध बोले कि जीव तो क्षणिक है, अनित्य है, उसमें अब दृष्टि लगा लीजिए, पर्याय दृष्टि। पर्याय चूंकि प्रतिसमय भिन्न-भिन्न है, व्यतिरेकी है सो क्षणिक है ही। तो दृष्टि जब लगा ली तब वहाँ कुछ विवाद न रहा, अब समझा कि यह जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य है।
1365- अखंड होने पर भी पदार्थ का नानाधर्मिता के रूप में परिचय की आवश्यकता-
अब कोई ऐसी बात कहे कि कहीं भी दो बातें नहीं कहो, बात तो एक ही होती है।...अरे !एक बात जो होती है वह अवक्तव्य होती हैं। एक बात कहने में नहीं आती, कहने वाली एक बात नहीं होती है। अखंड अवक्तव्य जो तत्त्व है वह है अद्वैत, मगर जब कहने बैठे तो कहने में कोई शब्द आ गया और शब्द जितने हैं वे विशेषणरूप हैं। कोई विशेष्य शब्द नहीं है जिसका नाम हो। शुद्ध नाम किसी का नहीं है। कुछ भी नाम बने वह विशेषण है, जैसे कोई कहे चौकी, तो यह कोई उसका शुद्ध नाम में नहीं। यह तो उसका विशेषण है, कैसे कि जिसमें चार कोने हों सो चौकी। यों आप किसी भी चीज का नाम लें, सभी नामों में उस चीज की तारीफ या विशेषता बताने वाली बात मिलेगी। किसी चीज में कोई नाम नहीं पड़ा है, पर उसकी तारीफ में हम नाम की कल्पना कर लेते हैं, तो जब प्रतिपादन करने चले तो वहाँ दो बातें आयीं, दसों बातें आती, क्योंकि शब्द अनेक हैं। जब शब्द अनेक हैं तो वहाँ दृष्टियाँ भी अनेक होती हैं। और जितनी ये दृष्टियाँ हैं उतने नय हैं और व्यवहार के द्वारा विशेषण बनता है, तो यहाँ जितना जो कुछ अपने बारे में सोचा जा रहा है कि जो भी परिणति हो रही है वह सब विनश्वर परिणति ही तो है, उसमें आत्मबुद्धि करना, मैं हूँ यह, मैं करता हूँ यह, इस प्रकार से संसारबंधक अध्यवसाय बनता है, और यह अध्यवसाय से अपने को क्या-क्या नहीं बना डालता है।
1366- अध्यवसायों की निष्फलता-
ये अध्यवसाय सब निष्फल हैं। क्यों निष्फल हैं कि जो-जो कुछ सोचा जा रहा हो किसी दूसरी चीज के बारे में, वहाँ आपके सोचने से बनता नहीं है। गाड़ी चलती है, कोई 50-60 मन बोझा लदा होता तो उसे बैल खींचते रहते। अब उसके पीछे कोई दो चार बालक लग जाते, पीछे से धक्का देते और वह समझ बैठते कि हमारे धक्का देने से गाड़ी चल रही। कदाचित् बैल रुक जाते, गाड़ी खड़ी हो जाती तो उनके धक्का देने से गाड़ी नहीं चलती तो वहाँ वे अपने को दु:खी अनुभव करते। तो वह उन बालकों का अध्यवसाय ही तो कहलाया। पर पदार्थों में किसी भी प्रकार का अध्यवसाय रखना, अहंबुद्धि करना, उस रूप मानना ये सब अध्यवसाय है। कथानकों में सुना होगा कि सीता का जीव मरकर 16 वें स्वर्ग का प्रतींद्र बना, इधर श्रीराम को भी वैराग्य हुआ, श्रीराम निर्ग्रंथ दशा में तपश्चरण में रत थे। वहाँ उस प्रतींद्र ने अवधिज्ञान से जाना श्रीराम के संबंध में। तो उसने विचार किया कि अभी श्रीराम को डिगा देना चाहिये ताकि अभी ये मोक्ष न जावें। हम और वह दोनों एक साथ मोक्ष जायेंगे। तो उस प्रतींद्र ने श्रीराम के सम्मुख आकर दिव्याड्.गना बनकर बड़े हावभाव दिखाये। न चिगे ध्यान से श्रीराम तो यहाँ तक दृश्य दिखाया कि रावण सीता के केश खींच रहा है, सीता का अपमान कर रहा है, पर श्रीराम वहाँ रंच भी विचलित न हुये। आखिर श्रीराम का उस ध्यान के प्रताप से निर्वाण हुआ। तो यहाँ कौन किसके परिणामों को बदल सकता? यह जीव चाहता है कि मैं इसको (अपने इष्ट को) बाँधकर रखूँ, इसका परिणमन अपने मनमाफिक करूँ, पर यह बात हो कैसे सकती? कोई किसी दूसरे के परिणामों को बदलने में समर्थ नहीं। हाँ, अगर इस दूसरे का खुद का ही परिणाम बदल जाय उसके कहे माफिक तो वह बात दूसरी है। तो ये सब इस जीव के मिथ्या अध्यवसाय है।
1367- अध्यवसायों में स्वार्थक्रियाकारिता का अभाव-
कोई पुरुष अपने मन में यह कल्पना करता कि मैं इसे सुखी कर दूँ, और मेरे घर के ये बाल-बच्चे भी सुखी हो जायें, ऐसा कौन नहीं सोचता? सोचते सब हैं मगर किसी के सोचने से कोई बात बन पाती है क्या? कभी कोई बीमार होता, कभी कोई दरिद्र होता, कभी कोई पागल बन जाता, न जाने क्या से क्या स्थितियाँ बन जाया करती। लोग बहुत सोचते कि मैं अपनी संतान को खूब सुखी रखूँ, पर वैसा हो कहाँ पाता? यदि उस संतान के पाप का उदय है तो उसका पिता कितना ही उसके लिए जोड़कर धर जाय, मगर वह सब कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता है। कथानकों में सुना होगा कि जब राजा ने अकृतपुण्य पुत्र को बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया तो उसकी माता भी साथ गई। कितना ही धन, कितना ही अनाज उसके साथ भेजा था, पर उसके पापोदय से मुहरें आग बन गई, सारा धन खतम हो गया। सारा अनाज बिखर-बिखरकर खतम हो गया। तो यहाँ कौन किसको सुखी बना सकता और किसे दु:खी बना सकता। सबके साथ अपने-अपने कर्मोदय हैं, परिणाम हैं। अपने बच्चे कर्मोदयानुसार, परिणामों के अनुसार ही सब सुखी- दु:खी होते। तो जीव के ये सब अध्यवसान निष्फल है। जैसे कोई आकाश के फूलों की माला बना नहीं सकता, खरगोश के सींगों का धनुष बना नहीं सकता, इसी प्रकार कोई किसी को सुखी अथवा दु:खी बना नहीं सकता। संसार के जितने भी जीव सुखी अथवा दु:खी होते हैं वे सब अपने-अपने कर्मोदय से ही सुखी-दु:खी होते हैं। अगर कोई मुक्ति पाता है तो वह भी अपने आपके निर्मल शुद्धोपयोग के परिणाम से स्वयं ही मुक्त होता है और जो संसार में भटकता है वह भी अपने-अपने इस अध्यवसाय के कारण ही भटकता है। तो जानना कि ये अध्यवसाय निष्फल हैं।
1368- अध्यवसाय से विमोहित न होकर अंतस्तत्त्व में स्व का अनुभव करने का अनुरोध-
अध्यवसाय में मुग्ध न होना। इन सबसे भिन्न जो एक अपना अंतस्तत्त्व है उसमें ही आस्था रखना कि मैं यह चैतन्यस्वरूप आनंदघन आत्मतत्त्व हूँ। देखिये, एक का सहारा रखेंगे तो कल्याण होगा, और यदि अनेक का सहारा रखेंगे तो डूब जायेंगे। अनेकों को न अपनाना, एक को अपनाना। मैं यह ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व हूँ। अंतस्तत्त्व की उपासना में अध्यवसाय न रहेगा। वर्तमान संग-प्रसंग को भूल जावो। चाहे कोई कितना ही बड़ा हो, कितना ही वैभवशाली हो, मगर इसको भूल जावो कि मैं वैभववान हूँ, और यह ध्यान में रखो कि मैं मात्र चैतन्यस्वरूप हूँ। अगर पर्याय के बड़प्पन पर दृष्टि गई तो सांसारिक पर्याय ही पर्याय मिलते रहेंगे, यह निश्चित बात है, क्योंकि राजा भी मरकर कीट बन जाता है। पर्याय के बड़प्पन में जो एक चित लगा है- मैं मिनिस्टर हूँ, मैं आफीसर हूँ, मैं वैज्ञानिक हूँ, ऊँचा हूँ, इस प्रकार का जो उसमें भाव लगा है वह भाव एक मिथ्यात्व वाला भाव है, अध्यवसाय है। उसका फल संसारबंध है और वहाँ खोटी गति, खोटी आयु का बंधन होता है, इसलिए एक ही निर्णय रखें, परिणति से उपेक्षा हो, अपने आपके एकत्व-स्वरूप का भान हो, उसकी ही धुन हो, उसका ही अनुभवन हो। एक मात्र विशुद्ध चैतन्यप्रकाशमात्र यह मैं हूँ, इसका बार-बार अनुभव होना चाहिये, इसमें ही अपनी विजय है।