वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 176
From जैनकोष
इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन स: ।
रागादीन्नात्मन: कुर्यान्नातो भवति कारक: ॥176॥
1418- आत्मा के शुद्धस्वाभावत्व, विकाराकर्तृत्व व समुचितोपादानस्वभाव का दिग्दर्शन-
पिछले कलश में यह बताया गया था कि कभी भी आत्मा अपने रागादिक भावों के होने में खुद ही निमित्त नहीं हो पाता। उसमें निमित्त परसंग ही है और यह एक वस्तुस्वभाव है कि ऐसी पर्याय योग्यता वाला पदार्थ ऐसे निमित्तसन्निधान में अपने आपमें अपना विकार परिणाम करता है, जिसको आत्मख्याति टीका में इन शब्दों में कहा कि यह आत्मा स्वयं रागादिक रूप नहीं परिणमता किंतु परद्रव्यों के द्वारा ही शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ आत्मा रागादिक रूप से परिणमाया जाता है। यहाँ अर्थ तो यह है मगर इस बात को बड़े जोरदार शब्दों में कहने का प्रयोजन क्या है? प्रयोजन यह है कि इस आत्मा की समझ में यह बात आ जाय कि मैं रागादिक का अकर्ता हूँ, इस प्रयोजन के लिए यह प्रकरण दिया है क्योंकि बहुत पहिले से यह प्रकरण चला आ रहा था कि यह जीव मिथ्या अध्यवसाय करता है कि मैं मारूँ, जलाऊँ आदि। ज्ञानी के अध्यवसाय नहीं होता, अज्ञानी के अध्यवसाय होता है जैसे कि मैं करने वाला हूँ, मैंने अमुक काम किया। आचार्यदेव यहाँ बतला रहे हैं कि इन आश्रयभूत कामों में इसको मैंने किया, यह बात तो दूर रही मगर आत्मा में उठने वाले जो रागादिक भाव हैं उनको भी मैं नहीं करता हूँ। ज्ञानी की यह आस्था है, वह परख रहा है कि ये रागादिक विकार जो हुए सो यद्यपि मेरी ही भूमि में हुए तो भी मैं इनका कर्ता नहीं, क्योंकि इनका निष्पत्ति में निमित्त परसंग ही है। जैसे सिनेमा के हाल में पर्दे पर चित्र आते, चित्रों का आधार है वह पर्दा, मगर उस दूसरे कमरे में बैठा हुआ जहाँ फिल्म आफिस है वहाँ वह अपनी मशीन चलाता रहा है और उस प्रकार का फोटो फिल्म की एक रील में आती जाती है, उसमें बिजली का तेज प्रकाश भिदता रहता है और उसका निमित्त पाकर उस पर्दे पर वह सारा चित्रण प्रकट हो जाता है, तो उस काल में उस पर्दे का जो एक शुद्ध सफेद स्वरूप है, पर्दा सफेद ही तो है, वह पर्दा अपनी उस शुद्ध सफेदी को छोड़कर उन चित्रों पर परिणम रहा है, मगर ऐसा परिणमने में वहाँ पर्दा खुद निमित्तभूत नहीं है, किंतु फिल्म पर का संग ही निमित्त है। इसी प्रकार इस उपयोग-पर्दे पर जो कुछ भी चित्रण चल रहा है, रागद्वेष क्रोधादिक भावों का यह चित्रण यहाँ चल रहा, परिणम रहा यह उपयोग जीव, मगर उसमें परसंग ही निमित्त है, आत्मा स्वयं निमित्त नहीं। तो वहाँ वह यह उत्साह कर रहा है भीतर में कि इसको करने वाला मैं नहीं।
1419- प्रमाण से परखने पर आत्मा के शुद्धभावत्व व अकर्तृत्व का परिचय-
देखिये एक दृष्टि की बात- अशुद्ध निश्चयदृष्टि से देखना है, तो क्या कहेंगे कि आत्मा में जो रागादिक विकार परिणमन हो रहा है उसका करने वाला आत्मा है, अपनी परिणति से करता है, अपनी योग्यता से करता है। यहाँ यह भी एक तथ्य है, मगर यह किस रोग को मिटाने की ओषधि है? जो यह बात बसी थी कि कर्म ने रागादिक किया, निमित्त के कर्तृत्व का राग जहाँ बस गया था उसको हटाने के लिए कहा गया है कि निमित्त ने अपनी परिणति से कुछ नहीं किया, किंतु जो निमितत्व का वातावरण रहा उसके अभाव में राग-परिणमन नहीं हो सकता था, हुआ उपादान की योग्यता से। वह तो एक निश्चयनय से ही देखने में बैठा है याने एक ही पदार्थ को देखने में बैठा है तो एक पदार्थ को जब देख रहा तो एक में एक का तो बोध चलता है, वहाँ यह ज्ञान बताना कि आत्मा में ज्ञानविकल्प हुआ, उसकी योग्यता से हुआ, यों होता चला आ रहा, यह सब तो कहा जा सकता, लेकिन वहाँ दूसरे की चर्चा ही न करना चाहिए, क्योंकि वह निश्चयनय के मूड़ में देख रहा है। वह दृष्टि केंद्रित है, वहाँ दूसरे की चर्चा तक भी नहीं करना चाहिए कि उस समय निमित्त यह है इसके कहने की आवश्यकता नहीं, अगर कहता है कोई तो वह निश्चय नय के मूड़ में रहा नहीं, तो निश्चयनय की दृष्टि में केवल एक ही एक पदार्थ नजर आता- यह है, ऐसा परिणमा, अपनी योग्यता से परिणमा, यह दृष्टि रखना है। अब जरा प्रमाण दृष्टि से देखें, आखिर यह हुआ क्यों? युक्ति से निरखें कि आखिर यह बना क्यों? क्या आत्मा में रागादिक विकार जितने होते हैं वे मात्र अपनी योग्यता से ही याने परसंग बिना ही हो जाया करते है? उसके लिए अभी बताया गया था कि आत्मा का परिणमन स्वभाव है, उसमें कोई दखल नहीं दे सकता, वह परिणमता ही रहेगा, आत्मा खुद तो शुद्धस्वभाव है याने अपने स्वरूप से सत्, पररूप से असत् ऐसा पर से विविक्त अपने ही स्वभावमय है, तो जब स्वयं शुद्धस्वभाव है तो अपने विकारभाव में खुद निमित्त कैसे हो सकता?
1420- विकारपरिणमनों की नैमित्तिकता के परिचय से आत्मा के अकर्तृत्व का परिचय-
जितने भी विकार विषम परिणमन है वे सब कुछ नैमित्तिक हैं अनैमित्तिक नहीं होते हैं। विषम परिणमन याने अभी कुछ था, अब कुछ बन गया, ऐसा जो व्यक्त बदल होती है उस बदल का कोई परसंग निमित्त होता है। अब करें खोज अपने में, रागादिक भाव होना अपने आप पर ही घटित करें, मेरे इस विकार भाव में परसंग ही निमित्त है, और ऐसा ही यह वस्तुभाव है कि ऐसा उपादान ऐसे निमित्त सन्निधान में अपने विकार को उत्पन्न करता जिसे यहाँ अमृतचंद्र सूरि ने और कुंदकुंदाचार्य देव ने जोरदार शब्दों में कह दिया कि परद्रव्य के ही द्वारा आत्मा रागादिकरूप परिणमाया जाता है, तो ऐसा जानकर हमें शिक्षा क्या मिली? अगर हम बहुत बातें कहते रहें, बोलते रहें, जानते रहें और उसमें हम अपना कोई प्रयोजन न हल कर सकें, न निकाल सकें अपने हित की बात न पा सकें तो उस चर्चा से लाभ क्या? तो इस चर्चा में, इस तथ्य के परिचय में कौनसी उपलब्धि होती? यह उपलब्धि होती कि इस प्रकार के वस्तुस्वभाव को जानता हुआ यह ज्ञानी केवल जानता ही है, परंतु उन रागादिक भावों को, जिनमें निमित्त परसंग ही है, उनको अपना नहीं करता याने आत्मा इनको करने वाला है, यह बात तो तब कहलायेगी कि जब यह स्वयं ही उपादान और स्वयं ही निमित्त होगा, जैसे कि सिद्ध अवस्था में सिद्धप्रभु परिणम रहे, स्वयं ही उपादान है, निमित्त की बात क्या है? वहाँ वह अनैमित्तिक परिणमन है।
1421- स्वभावपरिणमनों की अनैमित्तिकता तथा स्वभावपरिणमननिष्पत्ति प्रथमक्षण में स्वभावविरुद्धपरिणमन के निमित्त की निवृत्ति की (अभाव की) निमित्तता-
एक बात जानना कि जितने भी शुद्धभाव होते हैं वे सब अनैमित्तिक परिणमन हैं। अब वहाँ देखना, कालद्रव्य साधारण है, उसकी चर्चा कहीं न लायें, वह तो सबके लिए साधारण परिणमनहेतु है, पर जितने भी शुद्ध परिणमन हैं उन परिणमनों में न आश्रयभूत कारण मिलता और न निमित्त कारण मिलता याने आश्रयभूत करने की तो बात ही क्या कहें, यहाँ कोई परद्रव्य का सद्भाव रूप निमित्त कारण भी नहीं होता। आत्मा परिणमन स्वभाव वाला है, स्वयं शुद्ध स्वभाव है। बस कालद्रव्य का निमित्त होना सबको एक साधारण बात है। परिणमनस्वभाव होने से आत्मा अपने में अपने स्वभाव के अनुरूप निरंतर परिणमता रहता है। परंतु एक बात और समझें, शुद्ध परिणति का जो प्रथम समय है याने प्रारंभ में जिस काल में वह शुद्ध परिणमन हुआ, चाहे सम्यक्त्व कहो, केवलज्ञान कहो, जो भी शुद्ध परिणमन हुआ है किसी पहले समय में याने उससे पहले शुद्ध परिणमन न था और अब शुद्ध परिणमन हुआ। तो इतनी बात तो जानने में आयी कि कोई नया परिवर्तन हुआ है, जो समझ में आता है कि ओह ! पहले वह एकदम यह था, अब यह एकदम इस प्रकार बन गया तो ऐसी उस शुद्ध परिणति का जो प्रथम समय है याने शुद्ध परिणति की निष्पत्ति का काल है उस काल में यह तो थोड़ा सोचना होगा कि जब एक प्रकार के परिणमन से एक अद्भुत परिणमन हुआ है तो वहाँ कोई निमित्त है, मगर वहाँ निमित्त क्या है कि उस शुद्ध परिणमन से पहले जो अशुद्ध परिणमन था और उस अशुद्ध परिणमन का जो निमित्त था बताया ही है कि परसंग ही विषम परिणमन का निमित्त है। जिस-जिस प्रकृति का उदय शुद्ध परिणमन के प्रतिपक्षभूत विकार का निमित्त था उस निमित्त का क्षय होना, उसका अभाव होना यह अभावरूप निमित्त उस शुद्ध परिणमन के प्रथम समय में है। जो निमित्त अशुद्ध परिणाम का कारण था उस निमित्त का अभाव होना ही शुद्ध परिणाम की निष्पत्ति होने का निमित्त है, अर्थात् अशुद्ध परिणाम का निमित्त हटकर बस साधारण स्थिति आयी, शुद्ध परिणाम हुआ। अब उसके बाद जितने भी शुद्ध परिणाम होते जायेंगे उसमें अब वह बात भी न सोचें, वह केवल प्रथम समय के लिए सोची हुई बात थी, आगे शुद्ध परिणति धर्मादिद्रव्यवृत्त होती रहती है।
1422- सम्यक्त्वघातक सप्त प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम में निवृत्तिरूपता का दर्शन-
एक बात और स्मृति कीजिये कि जिसे सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ तो सम्यक्त्व की उत्पत्ति का जो प्रथम समय है जिस समय सम्यक्त्व हुआ तो सम्यक्त्व होने के काल में कारण क्या? किस कारण को पाकर सम्यक्त्व हुआ? इसका सही समाधान पाने के लिये पहले तो यह ही निर्णय बनायें कि सम्यक्त्व शुद्ध परिणाम है या शुभ परिणाम है या अशुभ परिणाम है? यह तो सब कोई कह देगा कि सम्यक्त्व शुद्ध परिणाम है, शुभ नहीं, अशुभ नहीं, तो उस सम्यक्त्व शुद्ध परिणाम की उत्पत्ति में न तो कोई आश्रयभूत कारण होगा न कोई सद्भावस्य निमित्त होगा। जब सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ उस काल में यह तो बताया गया कि 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम निमित्त है। हाँ बात ठीक है और निमित्त है, मगर उसका अर्थ क्या? 7 प्रकृतियों के उपशम का अर्थ क्या कि अब 7 प्रकृतियों का उदय नहीं चल रहा। अब अंतर्मुहूर्त काल में 7 प्रकृतियों का उदय नहीं है। मिथ्यात्वादि प्रकृति का उदय है सद्भावरूप निमित्त और वह है मिथ्यात्व का निमित्त। मिथ्यात्वभाव की निमित्तभूत 7 प्रकृतियों का उदय न रहा तो अभाव ही अर्थ आया ना उपशम का।
1423- उपशम सम्यक्त्व में सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों के अनुदय की व्यवस्था–
उपशम के लिये व्यवस्था यह होती है कि जैसे मानो 7 प्रकृतियों की सत्ता का कोई समय रख लो, मानो 8 बजे तक है, है तो सागरों की बात। 8 बजे तक है, इस समय मानो पौने 8 बजे हैं और उपशम सम्यक्त्व का काल है मानो 7 बजकर 50 मिनट पर। तो अब क्या है? सत्ता पड़ी हुई है अनंतानुबंधी 4 की व दर्शनमोह 3 की। किसी के 5 की सत्ता, किसी के 7 की सत्ता, यह अनादि व उद्वेलना वाले मिथ्यादृष्टि आदि मिथ्यादृष्टि का भेद है। अब जैसे मानो 7 बजकर 48 मिनट पर पहुँचे, उस समय क्या होने लगता कि 7 बजकर 50 मिनट से 7 बजकर 51 मिनट तक एक मिनट तक उपशम सम्यक्त्व रहना है तो उस एक मिनट की स्थितियाँ आगाल- प्रत्यागाल द्वारा कुछ तो पहले समय में मिल जाती है, कुछ अगले समय में मिल जाती हैं। एक मोटा दृष्टांत लो, जैसे कोई धार्मिक वकील है और उसको अचानक इच्छा हुई कि हमको भादों के इस लक्षण के दिनों में कोर्ट में नहीं जाना चाहिए, तो वह क्या करता है कि उन दसलक्षण के दिनों में कोई तारीख लगी हो तो उस तारीख को वह दसलक्षण से आगे या पीछे लगवाने की कोशिश करता है, बस इसी को कहते हैं आगाल-प्रत्यागाल। पहले लगवाने को आगाल और पीछे लगवाने को प्रत्यागाल कहते हैं। तो उस एक मिनट की स्थिति के 7 प्रकृतियों के निषेक 49 वें व पूर्व के मिनट में आ जायेंगे, कुछ 52 आदि मिनट में पहुँच जायेंगे, ऐसा हो होकर जब यह अंतरकरण पूरा हो जाता है मायने उस मिनट में उस स्थिति की कोई ये प्रकृतियाँ नहीं रहती तो अंतरकरण होने के बाद अंतर्मुहूर्त विश्राम करके अंतर के आदि समय में औपशमिक सम्यक्त्व होता है, होता रहता है सब अनिवृत्तिकरण परिणाम में, अनिवृत्तिकरण परिणाम में अंतरकरण हो, विश्राम हो और फिर वह कालप्राप्ति आयी, वह 50 वें मिनट में पहुँच गया, यहाँ अनिवृत्तिकरण का अंत है। अब एक मिनट तक उपशम सम्यक्त्व है, वहाँ उदय तो न रहा। उदय की बात तो दूर रहो, उस स्थिति का यह कर्म भी नहीं है। देखो, कितनी विचित्र बात है। किसी भी कर्म की स्थिति क्या इस तरह टूटती है कि आज से मानो 10 वर्ष की स्थिति का है कर्म कोई तो बीच में किसी स्थिति का रहे नहीं, यह बड़ी अद्भुत बात है, और इस करण परिणाम के द्वारा ऐसी अद्भुत बात उपशम सम्यक्त्व के लिए बने तो अनुदय रहा ना, तो उस दर्शनमोह का अनुदय वहाँ उपशम सम्यक्त्व का हेतुभूत हैं।
1424- क्षयोपशम सम्यक्त्व व क्षायिक सम्यक्त्व में अनुदय की विधि-
क्षयोपशम सम्यक्त्व में भी यह ही बात है, वहाँ जो 7 प्रकृतियाँ हैं, अनंतानुबंधी 4, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, इनमें 6 तो हैं सर्वघाती, उनका तो उदयाभावी क्षय होगा और सत्ता वाले का उपशम होगा, और सम्यक्त्वप्रकृति का उदय है वहाँ, लेकिन वह उदय सम्यक्त्व को बिगाड़ने में समर्थ नहीं। कुछ चल, मलिन, अगाढ़ दोष बनता है तो उन दोषों का निमित्त रहे, किंतु सम्यक्त्व का हेतुभूत उदयाभावी क्षय व उपशम तो है उन छह प्रकृतियों का, कितना विशुद्ध परिणामों का प्रभाव आ रहा है। उन 7 प्रकृतियों का उदयक्षण न आये, उदयावली आये, उदयकाल से एक समय पहले वे 6 प्रकृतियाँ अन्य अन्यरूप बन-बनकर उदय में निकल जाती हैं, इसे कहते हैं उदयाभावी क्षय और उनकी स्थिति जो आगे की पड़ी है वह कहीं उदीरणा में न आ जाय ऐसा नियंत्रण है उपशम, तो इसमें अनुदय रहा। जहाँ क्षायिक सम्यक्त्व है वहाँ 7 प्रकृतियों का क्षय है।
1425- परंपरया कारणों के रूप में सम्यक्त्व के बाह्य निमित्तों की चर्चा-
अब फिर भी यह सोचो कि आगम में यह बात लिखी है कि सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने में इतने कारण हैं देवदर्शन, ऋद्धिदर्शन, कल्याणदर्शन, अरहंतदर्शन आदिक, और नरकों में वेदनानुभव आदिक, इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि सम्यग्दर्शन से पहले अनिवार्य है शुभोपयोग का होना, अशुभोपयोग के बाद शुद्ध परिणाम नहीं हुआ करते, उस शुभोपयोग में जो सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पहले हुआ उस शुभोपयोग में ये कारण तो बताये गए हैं वे आश्रयभूत हैं, निमित्त वे भी नहीं हैं, जीव के भाव में एक कर्मदशा ही निमित्त होती है, बाकी जितनी भी चीजें कारण रूप से कही जायें उसका अर्थ है आश्रयभूत कारण, निमित्त कारण नहीं। तो उस शुभोपयोग की निष्पत्ति में वह आश्रयभूत कारण था, तो चूंकि उस शुभोपयोग के बाद ही तो उस धारा में चल-चल कर याने बीच में अशुभोपयोग न आये उसमें रहकर इसने उन विकल्पों को त्यागकर सम्यक्त्व पाया है इसलिए परंपरया कारण कहकर उनका जिक्र किया जाता है। बात यह है कि शुद्ध परिणमन में तो निमित्त नहीं है बाह्यवस्तु परसंग, परंतु अशुद्ध परिणाम में परसंग ही निमित्त है, अशुद्धपरिणमन अनैमित्तिक नहीं होता।
1426- आत्मा के रागादिक के अकारकत्व का समर्थन-
भैया, रागादिकभाव करने वाला तब यहाँ जानें आत्मा को कि जब ये जो रागादिकभाव हो रहे हैं इनमें आत्मा खुद निमित्त बने। ये मेरे स्वभाव से उठी हुई बात नहीं, इनमें परसंग निमित्त है तो मैं कर्ता नहीं। यहाँ निमित्त पर दृष्टि दी और उस पर कर्तृत्व का आरोप किया। देखिये- आत्मा के उस ज्ञानविकल्प को कर्म ने अपनी परिणति से नहीं किया, उसे तो किया इस जीव ने, अपने ही स्वरूप में विकार लगा लिया। किंतु यह हो सका परसंगसान्निध्य में ही, आत्मा ने अपने आपसे विकार नहीं किये, अत: आत्मा रागादिक विकारों का अकारक है, यह बात यहाँ दिखायी गई है। इसमें निमित्त चूंकि परसंग ही है इस कारण मैं उन रागादिक विकारों का कर्ता नहीं। तो अपने में विकारों का अकर्तृत्व समझने के लिए इन उपायों को प्रयोग बनायें, वस्तुस्वभाव का परिचय बनायें कि मैं इन रागादिकों का अकारक हूँ, ऐसा समझ लेने के बाद यह समस्या अपने आप हल हो जाती कि ज्ञानी जीव के अध्यवसाय नहीं होता, क्योंकि वह अकारक है, अकर्ता है। जो अहंकार रखे सो कर्ता, जिसको अहंकार नहीं वह कर्ता नहीं। तो इस प्रकार के स्ववस्तुस्वभाव को ज्ञानी जानता है, तो यह रागादिक को अपना नहीं कर रहा। देखिये अशुद्ध अनिश्चयनय में यह निर्णय आयेगा कि मैंने ज्ञानविकल्प किया। अब जब यहाँ सर्वतोमुखी दृष्टि हो रही है और आत्मा के भीतर उस शुद्ध स्वभाव को निरखा जा रहा है, वहाँ यह निर्णय है कि रागादिक को मैने नहीं किया। आत्मा रागादिक का अकर्ता है, क्योंकि रागादिक भावों में इसको राग नहीं है ना। हुआ है सो उसे जानता है जानता भर है, पर उसका कर्ता नहीं, उसमें अपनापन नहीं। उसमें अपनापन क्यों नहीं है क्योंकि उसने यह जाना कि अपना तो केवल एक शुद्ध चैतन्यमात्र सर्वस्व है और कुछ नहीं है तो वह निष्पत्ति-विधि में जैसी कि बात होती रहती है उसका वह जाननहार है, वह रागादिक भावों का कर्ता नहीं। अपने आपमें अकर्तृत्व समझने के लिए यह प्रकरण, एक सर्वविशुद्ध ज्ञान को अनुभवने के लिए यह प्रकरण और इस प्रकार का निर्णय सुगम ढंग से लाभ पहुँचा रहा है। मैं रागादिक का कर्ता नहीं यह प्रकरण चलेगा इस अधिकार में अंत तक। अब वही-वही विषय होगा कि यह आत्मा रागादिक भावों का कर्ता नहीं है, दृष्टांत देकर युक्ति देकर यह प्रकरण होगा कि यह आत्मा अकर्ता है। होता है रागादिक विकार उसको जान लिया कि इस परसंग की संनिधि में इस-इस प्रकार का इस भूमि पर परिणमन हो रहा, पर इसके अंदर से कोई उमंग नहीं वहाँ। वह राग को अपनाता नहीं, अपना नहीं बनाता और निरख रहा कि मैं रागादिक का कर्ता नहीं हूँ।
1427- राग होना व राग का कर्ता होना इन दोनों का विश्लेषण-
राग होना और राग का कर्ता होना इन दोनों में पहले अंतर समझिये। राग होने की विधि तो यह है कि जो कल के कलश में प्रतिपादित हुआ। ‘तस्मिन्निमित्तं परसंग एव’, उसी से संबंध पाकर यह विधि बनी कि राग का मैं कर्ता कैसे? मैं तो शुद्धचैतन्यमात्र हूँ, मैं इन रागादिक भावों का निमित्त नहीं हूँ और ये रागादिक भाव निमित्त गिना हो सकते नहीं, क्योंकि निमित्त बिना याने निमित्त-सन्निधान के अभाव में भी परिणमन होगा वह शुद्ध परिणमन होगा, वहाँ विकृत परिणमन न होगा, तो सब परख लिया कि यह है विकार का विधान, इस तरह हुए हैं ये रागादिक ‘मैं इनका कर्ता नहीं’। राग होना यह बात तो ज्ञानी के भी चल रही है, अगर राग में राग हो तो वह कर्ता कहलाता है याने इस रागरूप मैं हूँ, मैं कितना अच्छा कर रहा हूँ इस तरह से अगर वह अपने में निर्णय रखता है तो वह कर्ता है।
1428- अध्यवसाय वाला विचार न करके शुद्धतत्त्व का मनन करने का अनुरोध-
लोग तो ऐसा सोचते कि मैंने तो इस काम को बहुत विचार कर किया, बहुत दिनों तक इस काम का विचार किया, अब तो मुझे यह काम करना ही चाहिए। अरे भाई ! यह भी तो सोचो कि मैंने अनादिकाल से लेकर अब तक न जाने क्या-क्या विचार किया, पर यह विचार कभी नहीं किया कि हमें स्वरूपदर्शन चाहिए, स्वभाव की अनुरूपता चाहिए, आत्महित की बात चाहिए। अरे ! अब तो एक अपना सही विचार बनाओ कि हमें तो अपने आत्मा का कल्याण करके ही रहना है। आज तक जो कुछ विचारते आये, जो कुछ करते आये उसको तो खोटा समझकर छोड़ना ही चाहिए, ये अध्यवसाय तो सब नैमित्तिक हैं, खोटे हैं, दु:खदायी हैं, इन्हें में नहीं करता, ऐसा जानकर अब मैं अपने आपके शुद्धस्वभाव को यह मैं हूँ चैतन्यमात्र, ऐसा जान लें, उसका आदर करें, उसका आश्रय लें, बराबर उसकी दृष्टि बनाये रखे, उस ही दृष्टि के प्रताप से हम नियम से इस संसार-सागर को पार कर लेने का एक सुंदर अवसर प्राप्त कर लेंगे।