वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 177
From जैनकोष
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन स: ।
रागादीनात्मन: कुर्यादतो भवति कारक: ॥177॥
1429- स्वपरोभयसत्य के परिचय से ज्ञान के विकारों के अकारकत्व का निर्णय-
पहले बताया गया था कि ज्ञानी पुरुष इस तथ्य को जानता है कि यह मैं आत्मा स्वयं परिणमन स्वभावी हूँ, स्वयं शुद्धस्वभावी हूँ। स्वयं शुद्धस्वभावी हूँ अर्थात् अपने में अपने आपके ही द्वारा यहाँ किसी प्रकार का विकार नहीं। विकार में निमित्त परसंग ही है, वह क्या? कर्मविपाक कर्म में, कर्म में विपाक स्फुटित हुआ। उसका निमित्त पाकर रागादिक विकार हुए, आत्मा स्वरूप में से विकार नहीं कर रहा याने आत्मा का स्वभाव विकार का नहीं, मैं स्वयं अपने आप विकाररूप नहीं बन रहा, उसमें परसंग ही निमित्त है और इस स्थिति में ऐसा हो रहा है। मैं रागादिक को करता नहीं, मैं रागादिक विकारों को करने वाला नहीं। देखिये, मैं विकार को करता नहीं, ऐसा ध्यान जिस उपाय से बन सकता था उस उपाय का प्रतिपादन श्री कुंदकुंदाचार्य ने 278 वीं 279 वीं गाथा में बताया है। स्वानुभव में पहुँचने के लिए पूर्ण साधकतम है शुद्धनय। शुद्धनय में पहुँचने के लिए साधक है परमशुद्धनिश्चयनय। परमशुद्धनिश्चयनय तक पहुँचने के लिए यहाँ हम कितने ही प्रकार के नय, विज्ञान, प्रमाण इन सबका उपयोग किया करते हैं।
1430- विभावों की परभावता व आत्मा के आत्मना स्वयं अकारकत्व के परिचय का साधन स्वपरोभय सत्य का परिचय-
निश्चयदृष्टि में रागादिक विकारों के बारे में यह तो जान लेवें कि वहाँ केवल एक आत्मा को ही देखा जा रहा है, यह आत्मा रागादिक विकारों रूप परिणम रहा है, अपनी योग्यता से परिणम रहा, उसमें ये ये परिणमन चलते जा रहे इस दृष्टि से दूसरी चीज न देखना, क्योंकि इस निश्चयदृष्टि में न अभाव बताने के लिए न सद्भाव बताने के लिये, किसी भी पर की चर्चा नहीं बन पाती। जैसे सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से जब कोई ज्ञान करता है तो एक एक समय की पर्याय बस, वही उसके ध्यान में है, उस दृष्टि में उपादान-उपादेय का निर्णय नहीं बनता, न कार्य कारण का निर्णय बनता, न निमित्तनैमित्तिक का निर्णय बनता, और विशेष्य-विशेषण संबंध भी नहीं बनता, याने संबंध नाम की कोई भी बात सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय के मूड़ में नहीं है तो वहाँ संबंध की बात करना ही न चाहिए, ऐसे ही समझिये कि निश्चयदृष्टि में केवल एक ही वस्तु दिखती है। एक आत्मा अशुद्ध दिखे तो अशुद्ध निश्चयनय, शुद्ध पर्याय में दिखे तो शुद्ध निश्चयनय, पर्याय में नहीं, किंतु मात्र स्वभाव में दिखे परमशुद्ध निश्चयनय। तो निश्चयनय के उपयोग में चलते हैं तो यह जीव है, राग विकाररूप परिणम रहा है, अपनी परिणति से परिणमता है और परिणमता जा रहा है, जिस समय जैसा परिणमन चल रहा उस समय वहाँ वही परिणमन बन रहा, वही-वही बात निश्चयनय की दृष्टि में दिख रही है। किंतु ये रागविकार परभाव है, इसका निर्णय यह निश्चयदृष्टि नहीं कर पाती, उसका उपयोग जितने के लिए है उतना उपयोग लेना। यह विकार परभाव है, यह निर्णय करने के लिए और इसी कारण मैं इसका कर्ता नहीं हूँ, मैं रागादिक विकारों का अकर्ता हूँ उसके लिए अभी एक प्रयोग बताया गया था, वहाँ इसने क्या समझा कि समुचित उपादान कारण मायने वह योग्य उपादान वह अपने में ऐसा ही स्वभाव रख रहा कि इस प्रकार का अनुकूल परसंग निमित्त के सन्निधान होने पर ही वह अपने विकाररूप से परिणमता, इसी तथ्य को आचार्यदेव ने इतने कड़े शब्दों में, स्पष्ट शब्दों में यह कह दिया कि यह जीव परद्रव्यों के द्वारा ही रागादिक रूप से परिणमाया जाता, बीच में एक विशेषण दिया है वह बड़े मार्के का है। अपने शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ रागादिक रूप से परिणमाया जाता है, कर्मवाच्य प्रयोग है, वहाँ इतना तेज निर्णय प्रयोग क्यों किया है कि रे आत्मन् ! तू यह समझ कि तू रागविकार को करता नहीं। तू अपने शुद्ध स्वभावरूप है, और देख तेरे ही सत्य-स्वरूप में उसी के ही अनुरूप पर्याय हो तो बस उसका ही तू अपने को कर्ता समझ।
1431- कर्तृत्व का स्वयं का मिथ्यापना-
अथवा कर्ता की बात जाने दो, कर्ता शब्द क्यों दुनिया में रखा गया? क्या जरूरत थी। देखो खुद प्रत्येक पदार्थ उत्पाद व्यय ध्रौव्य वाला है सो खुद-खुद में परिणमता चला जा रहा। निमित्त की बात यह है कि वह एक अपने ढंग का वातावरण है, ऐसे वातावरण में उपादान अपनी परिणति से विकार रूप परिणम रहा। वस्तु और अपनी प्रकृति के कारण परिणम रहा, इसमें करने की क्या बात आयी? खुद-खुद का करता क्या? यह तो है सो परिणमता रहता है, और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को करता नहीं, और खुद खुद को करे क्या? खुद दूसरे को कभी करता नहीं, तब फिर यह करने की धातु, करने का शब्द यह शब्दशास्त्र में (कोष में) वैयाकरणों ने रखा ही क्यों?क्या हम सब लोगों को भ्रम में डालने के लिए रखा गया? अरे ! जरा वैयाकरणो, बुद्धिजीवियो ! आओ तो, तुम इस कृ धातु को डुकृञ्, को बाहर निकाल दो, यह बढ़िया बात नहीं है। यह शब्द सुनने में भी बड़ा कठोर लगता है, मूल धातु है डुकृञ्, इस डुकृञ् धातु को कहीं ले जावो, इसकी हमें कुछ जरूरत नहीं। इसका सारा व्यवहार सब कुछ करने का नाम न कहेंगे और व्यवहार भी सब होता रहेगा। वह पढ़ रहा है, उसका पढ़ना हो रहा है, वह चाकू के द्वारा पेंसिल को ठीक कर रहा है, लो इसके द्वारा इस चाकू के साधन से पेन्सिल ठीक हो रही है, हम सब बात निभा लेंगे, पर हे डुकृञ् तुम जावो, खुद में खुद को करना क्या, खुद दूसरे का कर सकता नहीं।...अरे ! तुम तो इस डुकृञ् से इतना नाराज होते हो, और आचार्य महाराज ने कहा है कर्ता, कर्ता कौन? ‘य: परिणति स: कर्ता’, जो परिणमे सो कर्ता, तो सुनो आचार्य महाराज ने उमंग के साथ नहीं कहा, किंतु करने के रोगियों के प्रतिबोध के लिये कहा, जब करना, करना, करना यह सारी दुनिया में गूंज रहा, जहाँ से सुनो बस वही करना, देखो जितनी भी लड़ाईयाँ हैं, जितने विवाद हैं वे सब करने के नाम पर हैं, तो करना करना जिनसे गूंज रहा, ऐसे लोगों को समझाना था सो बताया है कि जो परिणमता है उसे कर्ता कहते हैं। अरे ! कर्ता क्या, डुकृञ् इस धातु ने तो संसारी जीवों को भ्रम में डाला, कृपा करके इस डुकृञ् को निकाल फैंको।
1432- विधि विधान के परिणमते में कर्तृत्व की गुंजाइश का अभाव-
देखो निष्पत्ति में कोई विधि होती हैं, विधि को कोई नहीं मेट सकता। जहाँ यह बात दृष्टि में आती है कि बस भगवान ने जाना वही होता, हाँ...यह बात ठीक है, मगर भगवान ने जाना क्या? जो बात जिस योग में जिस विधान में जिस प्रकार से निष्पन्न हो रही, जैसी निष्पन्न होगी वैसा तैयार मामला ज्ञान में आया, न कि प्रभु के ज्ञान से पदार्थ की तैयारी बनी। तो बात निमित्तनैमित्तिक योग की असत्य नहीं है याने ऐसा योग होने पर यह योग्य उपादान इस प्रकार से परिणम जाता, मगर वहाँ वस्तु स्वातंत्र्य को परखो, भले ही निमित्तनैमित्तिक योग है, सहज है, मगर एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को करता नहीं वहाँ वह ही उपादान स्वयं इस लायक है, इस योग्य है कि ऐसे वातावरण में वह इस रूप से अपने में विकार रूप परिणम जाता। वह विकार कहीं पर की अपेक्षा नहीं करता, लेकिन सहज योग में ही उपादान ऐसा कर पाता है तब ही तो कहते हैं कि निमित्त बिना विकार नहीं होता। निमित्त विकार को नहीं करता व निमित्त बिना विकार नहीं होता। दोनों का सामंजस्य तो देखो और उसके एक सही संतुलन से एक ठीक सीधा मार्ग बनाओ। निमित्त-नैमित्तिक योग है, वस्तुस्वातंत्र्य है, बात सब ज्यों की त्यों है, मगर डुकृञ् धातु पसंद नहीं, हो रहा है परिणमन जिस विधि से जो चल रहा है। उसमें करने की तुक क्या है? क्योंकि खुद खुद को करता क्या है? इस अंगुली ने अंगुली को टेढ़ी कर दी, अच्छा करना तो तब जंचता है कि जब कोई दूसरा हो और इसे कर दे, खुद-खुद में परिणम जाय, इसमें करने की क्या बात दिख रही है? इस पर्याय को छोड़ा, इस पर्यायरूप परिणम गया, इतनी ही तो बात है, खुद ने खुद को किया क्या? परिणम गया। निमित्तयोग में परिणम गया। उस निमित्तयोग बिना परिणम नहीं सकता विकार। सारी मंजूर, मगर खुद का खुद में करना क्या? खुद दूसरे का कुछ त्रिकाल कर सकता नहीं। कई बार अंगुली का दृष्टांत आ जाया करता, मगर वह सब भिन्न-भिन्न प्रसंग है, और उनकी भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ हैं, सारी बातें यहाँ दृष्टि से घटती हैं।
1433- करने के कोलाहल की सुनने में भी सहायता-
यहाँ यह कह रहे कि खुद खुद को करे ऐसा शब्द प्रयोग जरा अखरता है, वह है, स्वभाव है, परिणमता है, हाँ निमित्त योग मिला, वहाँ वह अशुद्ध उपादान विकाररूप परिणम गया। ये सब बातें व्यवस्थित बनती है, करने-करने की बात कोई बहुत बोले तो वह बोलते बालते उकता जायगा और सुनने वालों की दृष्टि में भला न लगेगा। किसी भाई ने चाहे मंदिर बनवाया हो, चाहे अस्पताल खुलवाई हो, चाहे पाठशाला खुलवाया हो, चाहे अन्य कोई काम परोपकार की दृष्टि से किया हो, पर वह सभा में आकर ऐसा नहीं बोल सकता कि भाईयों ! मैंने यह काम तुम सबके उपकार के लिए किया है, ऐसा बोलने में कर्तृत्वबुद्धि बसी है, यह कर्तृत्वबुद्धि ऐसा अपराध है कि ऐसा बोलने में भी शरम आती है। और, जब कोई कठिन कषायभाव में हो, असभ्यता में हो तब ही वह करने की बात बोल पायगा, असभ्यता न हो तो फिर यों बोलेगा कि भाईयों ! आपके आशीर्वाद से यह काम हो गया, मैंने इसे नहीं किया, मैं तो उसमें निमित्त मात्र था। वह ऐसा भी नहीं बोल सकता कि मैंने यह परोपकार का काम इसलिए कर दिया कि आप लोग उससे लाभ उठायें। तो यह तथ्य दृष्टि में लेना है कि मैं रागादिक भावों का अकर्ता हूँ, अकारक हूँ, मैं रागादिक को करता नहीं।
1434- विभाव को परभाव समझ पाने का उपाय-
देखिये, मैं रागादिक विकार का अकारक हूँ इस बात को पुष्ट करने के लिए निश्चय दृष्टि से मदद न मिलेगी, वहाँ केवल यह ही दिखेगा कि बस यह है, परिणम रहा है, योग्यता से परिणमता चला जा रहा। अच्छा, और यह विकाररूप परिणम गया, हाँ, विकाररूप परिणम गया, कैसे परिणम गया? अपनी योग्यता से परिणम गया। तो अब इसमें परभाव मायने क्या? कदाचित् हम जबरदस्ती ऐसी बात लादें कि हमने पर का लक्ष्य करके विकार किया इसलिए परभाव है, तो पर का लक्ष्य क्यों किया? अपनी योग्यता से। तो वे सब मेरे स्वरूप की क्रियायें कहलायेंगी। जब तक ‘‘ परसंग एव निमित्त’’ इतनी बात न समझ में आये तब तक रागादि विकारों का परभावपना भली प्रकार से निर्णीत करना कठिन है, और परिचय पाना कठिन है कि इसी कारण यह आत्मा रागादिक का अकारक है। यह बात जमाने के लिए बंधाधिकार में ये सब अंत में खबरें ली जा रही हैं कि तू अपने स्वभाव को देख, अपने शुद्धस्वभाव को निरख, तू तो रागादिक का अकारक है। भैया, परसंग का निमित्त याने बिना अकर्तृत्व की, अकारकपने की बात स्पष्ट यों न आयगी कि फिर प्रश्न पर प्रश्न उठते जायेंगे। परलक्ष्य करके भाव किया तो हमने अपनी स्वतंत्रता से ही किया क्या? या इसमें कोई परसंग निमित्त है। यदि स्वतंत्रता से किया तो इसमें परभाव की क्या बात आयी? केवल ज्ञानी भी तो पर को विषय करके ज्ञान किया करते। तो क्या इतने मात्र से परभाव हो गया केवलज्ञान? नहीं हुआ, तो कैसे हुआ विकार परभाव? जैसे हम स्पष्ट देखते हैं कि दर्पण रखा है सामने, कोई लाल, पीली फोटो का सान्निध्य मिला, यह लाल, पीले रूप परिणम गया। बच्चों से लेकर वृद्ध तक सब वहाँ समझते हैं कि दर्पण में जो लाल फोटो है वह दर्पण की चीज नहीं, वह परभाव है। यहाँ थोड़ा विवेक जरूर किया जायगा कि पर का निमित्त पाकर होने वाले दर्पण का भाव है, यहाँ परभाव का यह अर्थ है, कहीं कपड़े की वह ललाई कपड़े से निकलकर दर्पण में नहीं घुसी, मगर परसंग की बात समझे बिना परभाव की बात ठीक नहीं बैठती कि ये रागादिकभाव परभाव हैं, मैं इनका कर्ता नहीं।
1435- निमित्तनैमित्तिकभाव के परिचय का प्रयोजन आत्मा के अकारकत्व का निर्णय-
सबके प्रयोजन अपने-अपने होते हैं, मैं विकार को करता नहीं, मैं शुद्धस्वभावरूप हूँ, लो यहाँ अब परमशुद्ध निश्चय पर उतरें। इसके बाद अखंड शुद्धनय आयेगा और वही ज्ञानरूप अनुभूति और शब्दरूप में विकल्पमय है, अज्ञानी इस रहस्य को नहीं जानता सो वह उपादान रागादिक विकाररूप परिणम जाता है। तथ्य तो यही है कि परसंग के निमित्त- सन्निधान में ही जीव विकाररूप परिणमता है यह अपने आप अपने ही स्वभाव से, अपने ही रूप से अपने ही द्वारा विकाररूप नहीं परिणमता। आचार्य ने आत्मना शब्द दिया, अपने ही द्वारा रागरूप नहीं बनता, मायने पर उपाधि-सन्निधान बिना यह स्वयं अपने ही सत्त्व से रागादिक रूप नहीं बनता इसलिए यह विकार का कर्ता नहीं हैं, यह कर्ता है तो अपने शुद्धस्वरूप का कर्ता है। अध्यात्मसहस्री पुस्तक के 13 वें अध्याय के प्रवचन हुए थे, उनमें षट्कारक का भी बहुत वर्णन है। होते-होते जब वहाँ शुद्ध स्वरूप की भक्ति उमड़ी, इस ओर दृष्टि गई तो एक बार यह भी देखा गया कि इस जीव में मिथ्यात्व करने की अपनी शक्ति नहीं, सम्यक्त्व करने की शक्ति है। देखिये इस प्रकरण में अर्थ क्या लेना कि जो अपने आप पर के संबंध बिना, पर की अपेक्षा बिना केवल अपने ही से अपने स्वरूप के ही द्वारा जो बात की जा सकती, सामर्थ्य तो वह है असली, और, होता रहता है तो उस ही की दृष्टि यहाँ जग रही है। यह मैं विभावों को, परभावों को नहीं करता हूँ, यह ज्ञान अज्ञानी को नहीं हैं, इस वस्तुस्वभाव को अज्ञानी जानता नहीं है, वह तो कर्मविपाक से उत्पन्न हुए याने कर्मविपाक निमित्त का सन्निधान पाकर उत्पन्न हुए रागद्वेष, मोह के भावोंरूप से परिणम रहा मायने अज्ञानी को राग में राग बन रहा, इसी कारण अज्ञानी जीव विकार का कर्ता है।
1436- राग की बीमारी और राग में राग का पागलपन-
वस्तु का राग हुआ, यहाँ तक तो गुंजाइश है अपनी रक्षा की, पर राग में राग हो फिर वहाँ किसी का वश नहीं चलता, इसका क्या वश चले? वहाँ फिर गुंजाइश नहीं, बीमार हो कोई वहाँ तक तो वश चलता और कदाचित् वह बिल्कुल पागल बन जाय, दिमाग खराब हो जाय तो फिर वश होना कठिन है, बीमारी तक में तो लोग साथ निभा देते, पर बिल्कुल पागल होने पर कोई साथ नहीं निभाता। प्राय: ऐसा देखा जा रहा है कि चाहे घर में कोई कितना ही प्यारा हो, पर जब वह पागल हो जाता तो वे ही घर के लोग उसे बिल्कुल मरा-जैसा जान लेते हैं और उससे फिर संबंध नहीं रहता। ऐसे ही यह पागल हो गया अज्ञानी, ज्ञानी बीमार है, अज्ञानी पागल है, किसी हद तक ज्ञानी को जरा बीमारी है, जब तक रागविपाक है, तब तक उसके थोड़ा-थोड़ा राग भी चलता है, जैसे यहाँ कोई मनुष्य कितना ही स्वस्थ हो फिर भी उसके कोई न कोई रोग रहता है चाहे सर्दी जुकाम का ही जैसा क्यों न हो, ऐसे ही ज्ञानी को भी पूर्वबद्ध कर्म के विपाक के अनुसार कुछ न कुछ राग रहता है। यह राग की बीमारी लगी है ज्ञानी के साथ चारित्रमोह के उदय से, उसके प्रीति भी जग रही, वह घर में भी रह रहा, दूकान में भी बैठता, सारे काम-काज देखता, पर वह अभी पागल नहीं हुआ, अज्ञानी पागल हो गया। बाह्य पदार्थों के प्रति प्रीति उत्पन्न हो जहाँ तक तो चिकित्सा चल सकती, पर बाह्य पदार्थों के प्रति जो प्रीति है, उसके प्रति जो आसक्ति हुई, वहाँ चिकित्सा नहीं चल सकती। इस अज्ञानी ने रागादिक में अपनायत किया, कि इनका मैं ही तो करने वाला हूँ।
1437- निश्चय और व्यवहार के निर्णयों की उपयोगिता और उपचार में मात्र प्रयोजन का लक्ष्य–
देखिये, अशुद्ध निश्चयनय तो कहता है कि जीव राग का कर्ता है, उसकी दृष्टि और है और यहाँ कहा जा रहा कि जीव राग का कर्ता नहीं। निश्चय का अर्थ मात्र इतना ही है कि एक को देखकर ही बोलना, दूसरे को न देखना, इसके मायने यह नहीं कि दूसरा कुछ है ही नहीं, निश्चय ही यथार्थ है दूसरा सब झूठ है ऐसी बात नहीं। जहाँ निश्चय और व्यवहार इन दो में मुकाबला करते हैं कि निश्चय सही है, व्यवहार गलत है, तो वहाँ व्यवहार का अर्थ है, उपचार वाला व्यवहार और तभी ‘माणवक एव सिंह:’ दृष्टांत में बोला, वह उपचार की बात कही। व्यवहार शब्द के अनेक अर्थ हैं। इस अर्थ में कुशलता अवश्य होना चाहिए। उपचार का अर्थ क्या? उपचार वह कहलाता है जहाँ पर स्वामित्व और पर कर्तृत्व की भाषा में प्रयोग हो। उसमें असत्यता क्यों आयी कि वह पर का स्वामी नहीं, पर का कर्ता नहीं मगर भाषा में थोड़े समय के लिए व्यवहार बताने के लिए बोला जाता है। फिर भी जो विवेकी पुरुष हैं वे उसे सुनते क्यों हैं? इस उपचार भाषा को समुद्र में क्यों नहीं फेंकते? क्यों आगम में प्रयोग करते? उसका कारण है प्रयोजन पर दृष्टि डालने की। उपचार भाषा के प्रयोग का केवल इतना ही प्रयोजन है कि उसके प्रयोजन को पहचान लेना, और हो रहा है ऐसा। माँ ने कहा बच्चे से कि घी की डबलिया ले आओ तो वह झट जाकर उठा लाता है। उस बच्चे के चित्त में जरा भी भ्रम नहीं होता कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जैसे मिट्टी, लोहा, टीन आदि की डबलिया होती वैसी ही घी की होती होगी, यों उसे रंच भी संदेह नहीं होता, वहाँ वह प्रयोजन समझ लेता कि जिसमें घी रखा है उसे घी की डबलिया कहा गया है। तो उपचार भाषा का प्रयोजन है, प्रयोजन को समझें, पर जो शब्द प्रयोग है उसे ही कोई सत्य माने तो वह भ्रम में पड़ेगा, इसी प्रकार परकर्तृत्व की भाषा में प्रयोग होता उसे कहते हैं उपचार। जैसे कर्म ने जीव को रागी बनाया, यह कर्तृत्व भाषा का प्रयोग है, और प्रमाण प्रयोग यह है कि कर्मविपाक के सन्निधान में यह अशुद्ध उपादान विकाररूप से परिणम गया। अब इतनी बात को संक्षेप में कहने का कोई शब्द न था। तो प्रयोजन क्या है और भाषा क्या है, बस दो का विवेक करने की बात है। तो यह उपचार भाषा जिसको स्वामित्व परकर्तृत्व की बोली में बोला जा रहा है वह उपचार है, जिसे कहते हैं कि वह असत्य है। अब इसके अतिरिक्त कितनी ही तरह के और व्यवहार होते हैं ये असत्य नहीं, खूब विचार करके परखें कि वहाँ घटना ऐसी ही रही या नहीं।
1438- उपचार-संज्ञक व्यवहार की भाषा की असत्यता, शेष व्यवहारों की सत्यता-
व्यवहार मायने परिणमन जैसे क्षणिक व्यवहार, व्यवहार मायने भेद, व्यवहार मायने प्रतिपादन, व्यवहार मायने साधन, व्यवहार मायने उपादान इत्यादि अनेक अर्थ हैं। देखिये, जहाँ यह चर्चा चलती है कि पूर्व पर्यायसंयुक्त द्रव्य उत्तर पर्याय का उपादान कारण है वहाँ यह बतायेंगे कि यह किस नय की भाषा है। यह है व्यवहारनय नामक द्रव्यार्थिकनय की भाषा। दार्शनिक शास्त्र में इन बातों का बहुत निर्णय है। निर्णय करने का प्रधान हक दार्शनिक विषय को है। वहाँ जब यह बात चली कि प्रागभाव का क्षय प्रध्वंसाभाव। जैसे कि घड़ा फूटा और खपरिया बन गई तो खपरियों का प्रागभाव क्या है? घट। तो घट की खपरिया बनी कैसे? किसी दार्शनिक ने कहा कि प्रागभाव का अभाव होने से खपरिया बनी, तो जैन दार्शनिक उसमें विवाद उत्पन्न करते हैं कि प्रागभाव तो पहली परिणति का नाम है ना, कार्य से प्रथम समय की पर्याय, वह है प्रागभाव और इस प्रागभाव से पहले की जो अनंत पर्यायें गुजरी, वे यह प्रागभाव नहीं ना? हाँ नहीं। तो उन पहले समयों में खपरियाँ याने कार्य हो जाना चाहिये, प्रागभाव का पहले भी अभाव है। वहाँ प्रागभाव नहीं है ना। इस प्रागभाव का अभाव जब खपरियाँ बन गई उसके बाद भी तो भविष्य की पर्याय में इस प्रागभाव का अभाव है, जैसे कि पहले की पर्याय में उस प्रागभाव का अभाव है। वह कार्य बहुत पहले और बहुत पीछे क्यों नहीं हो जाता। तो उत्तर देते कि प्रागभाव का अभाव के मायने कार्य नहीं, किंतु प्रागभाव के उपमर्दन का नाम कार्य है। अष्टसहस्री ग्रंथ में जब हमने यह शब्द पढ़ा ‘उपमर्दन’ तो वहाँ आचार्यदेव के ज्ञान पर ऐसी उत्कृष्ट श्रद्धा बनी कि कैसे युक्तिवादी होते हैं ये पुण्यात्मा पुरुष। प्रागभाव का अभाव कार्य नहीं किंतु प्रागभाव का उपमर्दनात्मक अभाव कार्य है। हाँ, तो फिर वही बतलाया, उपादान उपादेय। तो स्पष्ट लिखा कि यह व्यवहारनय नामक द्रव्यार्थिकनय से ज्ञान में आता कि पूर्वपर्यायसंयुक्त द्रव्य उत्तर पर्याय का उपादान है, क्योंकि उसमें अन्वय और द्रव्यत्व की मुख्यता है। अच्छा और आप निरखिये 7 नय कहे उसमें नैगम, संग्रह, व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिकनय के भेद बताये हैं और ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवभूतनय, ये पर्यायार्थिकनय के भेद बताये हैं। व्यवहारनय का जब विश्लेषण करेंगे तो कितनी-कितनी बातें आयेंगे, कितने ही तरह के अर्थ है, कितने ही प्रसंग हैं। बुद्धि स्वयं जवाब दे देगी कि यह बात ऐसी है तो वह ठीक हैं। उसमें देखेंगे आप कि सत्य चार प्रकार के होते हैं।