वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 181
From जैनकोष
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणै: पातिता सावधानै:
सूक्ष्मेऽंत:संधिबंधे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।
आत्मानं मग्नमंत:स्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे
बंधं चाज्ञानभावे नियमितमभित: कुर्वती भिन्नभिन्नौ ॥181॥
1484- जीव की विडंबना का विधान-
इस जीव को जो भी कष्ट हो रहा है उसका मूल कारण है कि इस जीव ने अपने सही स्वरूप में और औपाधिक-भाव विकार में अंतर नहीं समझा और दोनों को संधि में एक मेलपने की मान्यता की। तो जहाँ विकार में मान्यता की कि यह मैं हूँ, तो विकार का जो हुक्म है, विकार की जो प्रकृति है उसका यह कर्ता बनेगा, भोक्ता बनेगा और कष्ट पायेगा। स्वरूपदृष्टि से देखो तो स्वयं में क्या कष्ट है? यह एक पदार्थ है और सब पदार्थों में सारभूत पदार्थ है जो अपनी व्यवस्था बनाये, अपना ज्ञान करे, सर्व का ज्ञान करें, ऐसा एक परमार्थभूत पदार्थ है। इसमें परम स्वच्छता है, सो इसमें यह स्वच्छपना गुण के लिए था मगर एक अन्य ढंग से देखें, जिसे कहते हैं व्याजस्तुति कथन। हे आत्मन् ! तुममें स्वच्छता है, यह ही तो अवगुण है, नहीं तो विकार काहे को आते? जिसमें स्वच्छता नहीं है उसमें कहीं विकार आते हैं? यह सीधा खड़ा है खंभा, इसमें किसी प्रकार का विकार आता है क्या? तो हे आत्मन् ! यह ऐब है तुझमें कि तेरे में स्वच्छता है। अरे ! यह ऐब नहीं है, इसे कहते हैं व्याजस्तुति उपन्यसन (कथन)। अच्छा, एक तथ्य और समझो अंदर में कि यह आत्मा एक है, है रहा आये सब पदार्थ रह रहे, यह भी रहा आये, जैसे सब बस रहे हैं वैसे ही आत्मा भी बस रहा है, उसमें कोई नुकसान नहीं पड़ रहा। वे सब अपने स्वरूप में बस रहे हैं। अब फर्क इतना है कि वे सब अकेले में द्वैत पैदा नहीं करते। कोई भी पदार्थ दुविधा पैदा नहीं कर रहा। पुद्गल द्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, काल ये कोई भी दुविधा नहीं पैदा कर रहे। इस जीव ने एक दुविधा पैदा कर दी। क्या? इसने पहले ही यह द्वैत पैदा कर दिया- मैं हूँ और यह है। ऐसी बात अन्य कोई पदार्थ नहीं लाते चित्त में। उनके चित्त ही कहाँ? इस आत्मा ने यह द्वैत पैदा किया पहले कि यह मैं हूँ, यह ज्ञेय है। इसकी एक ज्ञानकला के कारण ये जो दो बातें पैदा हुई सो ये ही दो बातें मूल में एक बड़ी विडंबना की जड़ बन गई। बनना तो नचाहिए था। यह तो ज्ञान का स्वरूप है कि जो प्रतिभास होता है कि यह मैं हूँ और यह ज्ञेय है, मगर कोई विरुद्ध संपर्क है ऐसा कि जिससे इसमें विडंबना बनी। तो पहले ये दो बातें हुई कि मैं हूँ और यह ज्ञेय है। अच्छा फिर इस ही से स्वपर का एक अंतर बन गया कि यह मैं हूँ, यह पर है, इसके पश्चात् उस पर में भी स्वपर का द्वैत बन गया। यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इष्ट-अनिष्ट का भाव होने से विविध क्रिया बन गई, इसको पकड़ना चाहिए, इसको हटाना चाहिए, ऐसे ही होते-होते यह सब विडंबनाओं का जाल बन गया। तो जो चीज गुण थी वही चीज दोष बन गई, किसके लिए? अज्ञानी के लिए, मोही के लिए। प्रभु है, वहाँ भी तो ज्ञान और ज्ञेय है, यहाँ कौनसी आफत आ गई? जो-जो प्रवर्तन मूल में प्रभु कर रहे वही तो हम कर रहे, संसारी जीव कर रहे मूल में, मायने जानना बन रहा, पर प्रभु निरुपाधि और यहाँ सोपाधि जीव, इसके कारण बस जहाँ जाना वहाँ स्वपर की बात आयी, पर आते ही उसमें इष्ट-अनिष्ट का द्वैत हुआ, फिर वहाँ क्रिया कारक बनने लगे, और यों फिर तो जरा झगड़ा उठना चाहिए मूल में, फिर तो वह बढ़ता ही जाता है।
1485- महाकलह का मूल हास्यास्पदसी घटना-
भैया, कितना भी बड़ा झगड़ा हो, किसी के दिखता हो बहुत बड़ा झगड़ा, मगर जानकारी कीजिए कि यह झगड़ा शुरू कहाँ से हुआ? मूल में क्या बात थी कि इतना बड़ा झगड़ा बन गया? तो आपको मूल में इतनी छोटी-सी बात मिलेगी जो एक हास्यास्पद जैसी होगी, कुछ मायने नहीं रखती; ऐसी छोटी बात मिलेगी झगड़े के मूल में। किन्हीं भाइयों का झगड़ा चल जाय, बड़ा झगड़ा हो जाय बँटवारे में, तो बड़ी चीज के बँटवारे में झगड़ा कभी नहीं होता। सामने दिख रहे कि चार मकान हैं, इतनी कीमत के हैं, एक ने कह दिया, एक ने छाँट लिया। बड़ी बात में कभी झगड़ा नहीं होता। घर, जेवर, धन, बर्तन वगैरह बँटने के बाद कोई एक-आध फुट जमीन के पीछे उनमें आपस में झगड़ा बन जाता है, और वह झगड़ा इतना बड़ा रूपक रख लेता है कि उसके पीछे फिर सारी जायदाद दोनों पक्षों की लुट जाती है। सुना है कि कलकत्ता में किसी जगह दो चित्र ऐसे बने हैं कि जिनमें यह दिखाया गया है कि दो भाइयों का कोर्ट में झगड़ा चला किसी जरा-सी बात के पीछे तो उस झगड़े का अंतिम परिणाम यह हुआ कि एक भाई के हाथ में झोली रह गई और दूसरे हाथ में फैसले का कागज। बाकी दोनों की सारी जायदाद उस मुकदमें के पीछे बरबाद हो गई। तो देखो, झगड़ा तो था एक मामूली बात पर, कोई एक-आध फुट भूमि पर, पर हालत क्या से क्या हो गई?
1486- जीव की स्वापराधकृत संसृतिविडंबना-
भैया, लगता है यहाँ भी बहुत बड़ा झगड़ा है, एकेंद्रिय हुए, दो इंद्रिय हुए, ऐसे- ऐसे विचित्र देह मिले तो इस सब झगड़े का मूल कारण क्या है? इस पर भी तो कुछ विचार करना चाहिए। कहाँ तो यह चैतन्यतत्त्व महाप्रभु भगवान आत्मा जिसका केवल प्रतिभास-स्वरूप, ज्ञाता-द्रष्टा रहे और कहाँ इतनी बड़ी विडंबना, तो इतने बड़े झगड़े की जड़ क्या है? अरे ! जड़ क्या? कोई तेज कषाय करते ऐसा बंध होता है, ऐसी योनियाँ मिलती हैं। तो ऐसी तेज कषाय बनी क्यों? अरे ! इसने मान लिया किसी परपदार्थ को कि यह मेरा है, मकान मेरा है, फलाना मेरा है। तो ऐसा मान क्यों लिया इसने कि मकान मेरा है, अमुक चीज मेरी है? कहते हैं कि कैसे न मानें? भीतर में तो ऐसा ही एक अँधेरा-उजला मिला हुआ मिश्रण-सा तो चल रहा है मोह का अँधेरा, ज्ञान का प्रकाश, तो ऐसा हुआ क्यों? क्यों यह अंदर में वृत्ति चल रही? अंदर में वृत्ति यों चल रही कि कर्मविपाक का प्रतिफलन है, उससे मतलब क्या? अगर प्रतिफलन उपयोग- स्वरूप होने को हुआ इतना ही हो जाने देते, गम खाते तब तो ठीक था, पर यह जीव उसमें झुक गया, इतनी जरा-सी गलती कर गया। अब कहने को तो जरा-सी गलती पर उसकी इतनी बड़ी विडंबना बन गई कि संसार में यह विचित्र योनियों में उत्पन्न होता है। तो क्या इतने छोटे से अपराध का इतना बड़ा दंड मिलना चाहिए?...क्यों न मिलना चाहिए? कोई अगर अदालत में न्यायाधीश के प्रति कुछ बात कर दे तो कहते हैं ना कि अदालत का अपमान किया, उसका तो बड़ा केस होता है, फिर यह जो अपनी अदालत है भगवान आत्मा उसका बड़ा केस क्या हुआ? अपने स्वरूप को ढक दिया, उसकी सुध न ली और उससे मुख मोड़ लिया, तो यह कम अपमान है क्या? इस उपयोग ने इस भगवान आत्मा से पीठ फेर लिया, और भगवान आत्मा का जो दुश्मन है, विभाव है उससे जाकर संधि कर ली, इसे क्या छोटा अपराध कहेंगे? इसलिए ये सारी विडंबनाएँ हैं।
1487- संसृतिविडंबना से निकलने के उपाय की चर्चा-
अच्छा जान तो लिया कि ये सब विडंबनायें बन गई। जैसे जब बहुत बुरे फँस जाते हैं तो कहते हैं कि भाई ! बहुत बुरे फँसे, पर यह उपाय तो बताओ कि कैसे निपटें इस झगड़े से? तो अब वहाँ उस निपटारे के उपाय की चर्चा चलेगी कि झगड़े में फँस तो गए, मगर निपटारा कैसे बने? अब कोई उपाय निकालें जिससे कि इन सब संकटों से छुटकारा बन सकें। सो बस उपाय यह ही है, कि कर्मविपाकरस में जो उसके प्रतिफलनरूप से उपयोग में आया उस कर्मविपाकरस में और अपने आपके स्वरूप में एकदम भेद ज्ञात कर लें, पृथक् कर लें कि यह यह है, मैं यह हूँ; केवल दो टूक ज्ञान करें कि भीतर फिर उसके प्रति प्रीति रंच भी न रहे। कोई दो मित्र हों, दो मित्रों में खूब दोस्ती है, कैसी दोस्ती कि कहते ‘दाँतों काटी रोटी’, बहुत परम मित्रता है और किसी बात में जब उनमें अनबन बनती है तो वे एक दूसरे का मुख नहीं देखना चाहते, इतनी तेज अनबन बन जाती कि एक दूसरे को देखना भी नहीं पसंद करते। और दिख जाय तो आँखें मींच लें, ऐसा भी कुछ हो सकता है, तो कितनी ही तेज दोस्ती हुई हो, अगर उस दोस्ती में कपट चल रहा है पहले से और उस कपट का भेद खुल जाय तो फिर बस एकदम से अलग हो जाते हैं, फिर चित्त में ही नहीं रहता कि यह कुछ था। तो ऐसे ही स्वभाव और विभाव की ‘दाँतों कटी रोटी’ जैसी दोस्ती थी और यह अनादिकाल से चली आयी। जिस काल में इस ज्ञानी ने, इस आत्मा ने विभाव का कपट जाना, पोल जानी, असारता जानी, उसी बात में बन रही माया तो जहाँ इतना छल समझा, असारता समझी बस तब से यह आत्मा उससे ऐसा हटा कि अब उसका नाम भी नहीं चाहता, उसकी वासना भी नहीं रखता, उसके प्रति कोई प्रीति की भी गुंजाइश नहीं है। अच्छा, ऐसा करने से फायदा क्या मिलेगा? फायदा यह मिलेगा कि अपने ही स्वभाव में अपने उपयोग का समाना हो जायगा। इससे तत्काल तो अशांति दूर होती और कुछ ही काल में वे सब बातें जैसी होनी हैं विधि-विधान से विकार के दूर होने की, और और बातें, ये सब भी दूर होंगी और कर्म की निर्जरा होगी।
1488- भगवती प्रज्ञा के प्रसाद से विजय का लाभ-
भैया, आत्महित का उपाय यह है कि पहले आत्मा और बंध को दो कर दें, अलग-अलग कर दें, समझ लें। अच्छा, तो कैसे करें? उपाय बताओ। उपाय क्या करना? बताओ, अच्छा स्वभाव और विभाव इन दोनों में जो एक संबंध बनाया था सो किसके द्वारा बनाया था? ज्ञान के द्वारा, दूषित ज्ञान के द्वारा। तो अब वहाँ अलग क्या किसी और बात से हो सकेगा? नहीं; वह भी ज्ञान के द्वारा अलग होगा। तो यही आत्मा द्वैधीकरण का कर्ता है और यह ही आत्मा साधन है, ज्ञान द्वारा ही वहाँ द्वैधीकरण करना है, बस इसी प्रज्ञा को बोलते हैं भगवती प्रज्ञा। भगवान आत्मा की जो परिणति है उसे बोलते हैं भगवती। भगवान और भगवती। और लोग तो पास-पास बैठाल देते फोटो में कि ये तो हैं भगवान और यह हैं उनकी भगवती। अच्छा फिर लोगों को यह पसंद न आया कि भगवान और भगवती इतनी दूर बैठें सो एक ही फोटो में आधा अंग पुरुष का और आधा अंग स्त्री का बना दिया, तो ये हो गए भगवान और भगवती। जैन शासन को यह अंतर न पसंद आया सो कह दिया कि सर्वांग में भगवती आनी चाहिए, आगे अंग में भगवती के विराजने से क्या लाभ? तो भगवती है प्रज्ञा भगवती, यह ज्ञानलक्ष्मी, यह तो आत्मा के सर्व प्रदेशों में है। कोई स्त्री पुरुष नहीं हैं वे। ‘भगवत: इयं इति भगवती’ जो भगवान की परिणति है सो भगवती। लोग कहते हैं कि भगवती फतेह करे। तो उनकी यह बात सच है। भगवती ही फतेह कर सकती है, किसी दूसरे में ऐसी ताकत नहीं, याने आत्मा की जो स्वानुभूति है प्रज्ञा, बस यह ही विजय कर सकती है और किसी प्रकार से अपनी विजय नहीं बनती। तो इस प्रज्ञा के द्वारा इसको छिन्न कर दिया। बंध और यह आत्मा, ये दो हो गए।
1489- प्रज्ञा-छेनी का स्वलक्षण सूक्ष्मांत: संधि पर निपातन-
बंध और आत्मा का द्वैधीकरण कैसे कर दिया गया? इस ज्ञान ने जाना सबका लक्षण। बंध का यह लच्छन है और आत्मा का यह लक्षण है। लच्छन शब्द कहते हैं कोई बुरी बात हो तो। यह है तुम्हारा लच्छन, वहाँ लक्षण शब्द पूरा सही नहीं बोलते। तो बंध के ये हैं लच्छन। खुद मरे, दूसरे को मारे, बरबाद हो, बरबाद करे। अच्छा और आत्मस्वभाव का लक्षण क्या है? यह ध्रुव चैतन्यभाव जो गंभीर है, उदार है। जहाँ दोनों के स्वलक्षण को जाना और देखा कि यह संधि कहाँ से बनी, वह संधि क्या है? यह ही संधि, यह प्रतिफलन, और यह उपयोग, इनका भावात्मक संपर्क, बस इस संधि पर इस भव्यात्मा ने ऐसा लक्षण-भेद प्रज्ञामयी पैनी छेनी का निपात किया कि ये दोनों जुदे हो गए ज्ञान में। समझ लिया गया कि आत्मा का लक्षण तो वह है जो सर्वदा आत्मा में ही पाया जाय, और जिसको व्यापकर यह आत्मा निरंतर रहा करे। यह ज्ञानस्वरूप ज्ञान में ज्ञानपने को लिये हुये निरंतर रहता है। अगर अलग कर दिया जाय ज्ञान को तो आत्मा का अस्तित्व नहीं। और विकार को अलग कर दिया जाय तो आत्मा का अस्तित्व नहीं है क्या? है ही। अज्ञानी विकार बिना अपना अस्तित्व नहीं मानता अगर विकार को अलग कर दिया तो मेरा अस्तित्व नहीं रहने का, अज्ञानी के तो यह बुद्धि रहती है। क्रोध कर रहा है अज्ञानी और किसी के समझाने से क्रोध जरा ठंडा-सा बने तो भीतर में यह कोशिश करता कि हमारा क्रोध ठंडा न होने पाये बल्कि और तेज होना चाहिए, नहीं तो हम बदला ही नहीं ले सकते। आत्मा का स्वरूप है ज्ञान, प्रतिभास और बंध का स्वरूप है बंधन, विकार परभाव, औपाधिक। तो इस प्रकार भेद करके इस जीव ने जाना कि ये रागादिक तो आत्मा में निमित्तसान्निध्य में ही होते, ये आत्मा में साधारण नहीं हैं मायने त्रिकाल ये पाये नहीं जाते, किंतु ज्ञान एक त्रिकालस्वरूप है, परम सहज आनंदस्वभाव को लिये हुये है।
1490- चेतकचैतन्यमात्र संबंध से बढ़कर साम्यसीमा का उल्लंघन करने वाले बंधभाव को आत्मा से पृथक् कर आत्मत्व का चैतन्यधाम में स्थापन व बंध का अज्ञानभाव में स्थापन-
रागादिक जो मुझमें आये हैं, झलके हैं, सो यह मैं चेतक हूँ, विकार चैत्य बन गया, बस इतना ही नाता था, संबंध था, तो यह ही क्या, और पदार्थ भी ज्ञान में आते। तो भीतर में विकार अबुद्धिपूर्वक कैसे चैत्य बने, इतना ही तो उनमें प्रत्यासत्ति निकट संबंध है, उनमें अन्य कोई संबंध नहीं, वे एक द्रव्य नहीं, दोनों मिलकर एक नहीं। जैसे दर्पण के आगे कोई वस्तु रखी है हरी, पीली, दर्पण में प्रतिबिंब हो गया, तो बस यह स्वच्छ है। दर्पण झलकाने वाला है, वस्तु झलक में आने योग्य है, इतना ही तो संबंध है, पर एकपना नहीं, एक द्रव्यपना नहीं, तो ऐसे ही रागादिक में और मुझमें बस वह चेतक-चैत्य की बात तो आयी थी, मगर यह उससे बढ़ गया, समता सीमा का उल्लंघन कर गया। साम्यभाव की सीमा तक निरखता तो जीव सही रहता। मगर उससे आगे बढ़ गए तो यह बंध है, किंतु यह मैं आत्मा ज्ञानमात्र हूँ ऐसा जानने वाले कुशल पुरुषों ने बड़े वेग से भीतर में विभाव-स्वभाव की संधि में जैसे ही इस प्रज्ञा-छेनी को पटका कि यहाँ दो टूक हुआ, अच्छा दो टूक हो गया। जैसे काठ को कुल्हाड़ी से काटा, दो टूक हो गए तो एक टूक इधर गिरा एक उस तरफ, कहीं तो गिरा, कहीं तो पहुँचा। तो जब आत्मा के और बंध के दो टूक हो गए तो यह आत्मा कहाँ जावे और यह बंध कहाँ जावे? आत्मा तो इस निर्मल चैतन्यपूर में मग्न हुआ और यह बंध अज्ञानभाव में डुबोया गया या इस विकार को, बंध को वहीं पहुँचा दो जिसके बल पर ही यह उद्दंड हो रहा था, जिसके अभाव में यह नहीं होता, अच्छा जोत दो कर्म के पास। यह स्वभाव यह निर्मल ज्ञान प्रतिभास-स्वरूप है। यह आत्मा का सहज निरपेक्ष परमपारिणामिक भाव है इसे चैतन्यपूर में समा दो। बस टुकड़े भी कर दिये और उन्हें ठिकाने भी रख दिया। टुकड़ा होकर ये कहीं अनिश्चित-से न रहें इससे उन्हें ठिकाने भी पहुँचा दिया, बंध तो अज्ञानभाव में चिपका दिया गया और यह अंत:स्वभाव, इस चैतन्यपूर में मग्न हुआ। अब अपना स्वरूप एक चैतन्य अंतस्तत्त्व है, बस उसका ही आश्रय है वही उपयोग में है और यही एक उपाय है जिससे कर्म छूटते हैं, मार्ग बढ़ता है, हम प्रगति की ओर जाते हैं।
1491- आत्महित का एकमात्र मौलिक अमोघ उपाय-
भैया, आत्महित का एक यही उपाय है, क्योंकि अपने जो सहज निरपेक्ष सत्त्व के ही कारण अपने आप जो भाव है पारिणामिकभाव, चैतन्यस्वरूप, बस उसमें अनुभवन बने, मैं यह हूँ। यह एक ऐसा अमोघ उपाय है कि जिसके फल में याने कैवल्य की ओर बढ़ना, इसमें अंतराय न आ सकेगा। और, एक मूलस्वरूप धाम का ही पता न हो और यह उपयोग बाहर-बाहर बहुत सी बातें बनायें कि यह करना, वह करना, धर्म फैलाना, बाहर ही बाहर यह उपयोग डोले तो उसने तो धर्म की जड़ ही नहीं पायी, वह मुक्ति में कदम क्या रखे? इसे यों कहो कि देखने में जो बड़े-बड़े परिश्रम लग रहे, अभी पूजा करना, नहाना, जाड़े में नहायें, जाप कर रहे, सामायिक कर रहे, स्वाध्याय कर रहे, सत्संग कर रहे, सेवायें कर रहे, बहुत बहुत कार्य किया। देखो, इसके साथ एक छोटी-सी बात और ले लो, छोटी यों कह रहे हैं कि उनमें चाहे कष्ट मालूम हो पर जो बात बताते हैं इसमें कष्ट की कुछ बात ही नहीं है, क्या बात? जरा भीतर निहारकर अपने ज्ञान में, अपने में, अपने को ऐसा निरख लें कि यह मैं एक चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ, इतना जरा अमृतपान और कर लें, फिर तो कहीं कोई उलझन नहीं, जो भी करेगा उसी से ही गुण बनेगा। और, एक इस अंतस्तत्त्व को न पाया तो कर्मबंध मिटे, निर्जरा हो ऐसी उसने कुंजी नहीं प्राप्त कर पायी। तो भीतर में इस स्वभाव-विभाव की संधि को मेटिये, और अपने में यह अनुभवें कि मैं चैतन्य प्रकाशमात्र हूँ, इसका अभ्यास बने, भावना बने, बार-बार यही ज्ञान में रहे, उपयोग में इसी को ही रगड़ें। इसी के बीच कोई क्षण आयेंगे कि सारे विकल्प दूर भागेंगे और यह उपयोग उस सहज ज्ञानस्वभाव में उतरेगा कुछ क्षण को, मानो जैसे कि वह छुवा ही है, उस समय उसको सहज आनंद की अनुभूति होगी, उसके बाद उसको स्मरण रहेगा यही कि यह अंतस्तत्त्व इस तरह अपने आपके स्वरूप में है।