वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 186
From जैनकोष
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान् ।
बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यति: ॥186॥
1542- परद्रव्य के ग्रहण में अपराध-
प्रकरण में यह बताया जा रहा है कि आत्मा का तो एक शुद्ध चिन्मयभाव ही सर्वस्व है, और ये उत्पन्न होने वाले नैमित्तिकभाव, क्रोधादिकभाव ये मेरे नहीं हैं और इसे यहाँ तक कह दिया कि ये समग्रभाव तो परद्रव्य हैं, वे यद्यपि भाव-भाव हैं और वे हैं आत्मा के ज्ञानविकल्परूप, किंतु वे नैमित्तिक हैं। जिस उपाधि का निमित्त पाकर हुए हैं उन भावों को दूर करने के अभिप्राय से, उनकी अत्यंत उपेक्षा करने के आश्रय से उन भावों का संबंध जोड़ा निमित्त से। परिणति की वर्तमानता से ये मेरे भाव हैं। जैसे यहाँ भी तो दर्पण में फोटो निरखकर कहते ना कि यह मेरी फोटो है, यद्यपि निमित्तनैमित्तिक नाते से उसको निमित्त के पास पहुँचाया जाता है। अच्छा, और फिर इतना ही नहीं किया, किंतु उसको उस रूप मानकर कहते हैं कि ये परभाव परद्रव्य है। तात्पर्य यह है कि अपना भाव है शुद्ध चेतनाप्रकाश और उसकी नैमित्तिक दशायें जितनी हैं वे सब औपाधिकभाव हैं, ये हैं परद्रव्य। सो कहते हैं कि परद्रव्य को जो ग्रहण करेगा वह अपराधी है और जो स्वद्रव्य को ग्रहण करेगा वह निरपराधी है। जैसे लोक में भी जो परद्रव्य को ग्रहण करता है वह अपराध ही तो करता है, विकल्पजाल होता है, उसके बंध की शंका रहती है, बंध होता है, और जो पुरुष शुद्ध आचरण से रहता हो किसी दूसरे की चीज को नहीं चुराता, नहीं ग्रहण करता वह अपराधी नहीं है। उसके बंध की शंका नहीं, ऐसे ही आत्मा का जो भाव है, स्वभाव चैतन्यमात्र उसको जो ग्रहण करता है उसके बंध की शंका नहीं। और, जो अपने इस स्वभाव को त्यागकर, इसकी सुध छोड़कर इन औदयिक कषायादिक भावों को जो ग्रहण करता है याने इन रूप अपने को मानता है उसके बंध की शंका होती है, बंध है। क्यों होता है बंध? क्योंकि यह अपराधी है। अपराध मायने परद्रव्य को ग्रहण करना।
1543- सापराध व निरपराध का निर्देशन-
अपराध शब्द का अर्थ क्या है? अप मायने दूर हो गया, अपगत हो गया, राध मायने सिद्धि जिसकी, याने आत्मा की दृष्टि को राध कहते हैं। वह राध जिसके पास नहीं है वह पुरुष अपराधी है। और राधा को ले ले तो निरपराध है। राध के मायने आत्मदृष्टि, आत्मोपलब्धि। अपने ज्ञान में आत्मस्वरूप आये उसे कहते हैं राध। भगवान पार्श्वनाथ राधेश्याम हैं, क्योंकि श्याम तो वह हैं ही। भगवान पार्श्वनाथ का रंग बताया गया श्याम और उनके राध और लगी हुई है, सिद्धि, आत्मा की उपलब्धि, सो वे प्रभु पारसनाथ राधेश्याम हैं। यहाँ भी हम आप बनाते ना राधेश्याम। शरीर की बात नहीं कह रहे किंतु यहाँ इन कषायों को हटाने के लिये, मारने के लिए हम श्याम बनाते, काला बनाते, ऐसा विशुद्ध परिणाम होवे कि ये रागादिक भाव दूर हों तो क्या मिले राध, सिद्धि, आत्मा की दृष्टि। तो यह राध जिसके पास नहीं है वह है अपराधी। और जिसको राध मिल गई, कहाँ मिल गई? कहीं बाहर नहीं है, अपने आपके स्वरूप में है, यह दृष्टि बस वह निरपराध है। अच्छा यह आत्मा अपराध क्यों करता है? यह खुद अशुद्ध होता हुआ अपराध करता है। शुद्ध की दृष्टि हो वहाँ भी अपराध नहीं, फिर जो शुद्ध हो उसका तो अपराध ही क्या? भगवान अरहंत सिद्ध ये पूर्णतया निरपराध हैं, शुद्ध हैं। तो यह जीव अशुद्ध होता हुआ परद्रव्यों को ग्रहण करने रूप अपराध करता है।
1544- वैभाविकभावों की परद्रव्यरूपता-
जिसका ग्रहण करना अपराध है वह परद्रव्य कौनसा? आत्मा में उठे हुये क्रोधादिकभाव, इनकी चर्चा है यह। कहीं दूसरे के घर में कोई चीज धरी हो और उसको उठाये तो उसे अपराध कहें, इसकी चर्चा नहीं है। अपराध तो वह भी है मगर चीज उठाने से अपराध नहीं। दूसरे की चीज लेने का भीतर में जो भाव बना, और ऐसे जो विभावों को अपना रहा, अपराध कर रहा, वह चोर। बाहरी प्रवृत्ति अपराध नहीं। बाहरी प्रवृत्ति से पाप नहीं। तो फिर आप कहेंगे कि फिर तो जो चाहे प्रवृत्ति करें, सो बात नहीं। भीतर में हिंसा, झूठ, चोरी आदिक के भाव होना, पर पदार्थों के प्रति राग होना, अपने आपमें इच्छा होना, लगाव रहना, अगर यह नहीं है और आपकी प्रवृत्ति हो रही है तो आपको बंध नहीं है, पर निरीक्षण तो करें कि जितनी हम प्रवृत्तियाँ करते हैं उनके साथ हमारे ये खोटे भाव, ये विभाव के लगाव बने हैं, कि नहीं बने हैं? वे तो बने हुए हैं, तो इस कारण से पाप का बंध है। कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती हैं, तो उसका निमित्त केवल जीव के विभाव परिणम हैं। हाथ कैसे उठायें, पैर कैसे रखें, ये निमित्त नहीं हैं कार्माणवर्गणाओं के कर्मरूप परिणमन होने का, किंतु मोह और योग निमित्त है। तो सर्वत्र यह ही बात आप देखिये कि बाहरी पदार्थों में जो जीव लगा हुआ है उसके भीतर तद्विषकक राग है, उस राग के कारण बंध है, हाथ उठाने-धरने के कारण बंध नहीं, मगर तत्त्व को जो नहीं जानता और कहीं सुन लिया ऐसा कि देखो वहाँ लिखा था कि प्रवृत्ति से बंध नहीं होता तो करें खूब खोटी प्रवृत्तियाँ, पर यह भी तो सुना नहीं क्या कि प्रवृत्ति विषयक, पदार्थ विषयक राग हो और अपने में उठे हुए राग-विभाव में लगाव हो तो कर्मबंध होता है। यह तो अनसुनी कर देवें, और चूंकि विषयों में राग है सो प्रवृत्ति से बंध नहीं होता, उसमें खूब लग जावें तो यह तो उसका मिथ्याआशय है। परद्रव्य को ग्रहण करने के मायने है आत्मा में उठे हुये विभावों को अपनाना। जो विभावों को अपनाता है, उनको ग्रहण करता है उसके निश्चय बंध है।
1545- स्वभाव व परभाव का निर्देशन-
बात बहुत पहले से यह चली आ रही है स्वभाव और परभाव। स्वभाव तो है चैतन्यप्रकाश और परभाव हैं कषायादिक, इसको पहले युक्तियों से सिद्ध किया था, और यहाँ फिर बताया के परभावों को तो त्याग ना चाहिए और स्वभाव को ग्रहण करना चाहिए। फिर चलते हुये जब मानो यह गाड़ी नहीं चल रही, समाधि की ओर, बहुत कष्ट भी आते, आत्मा अपने आपकी ओर नहीं जा रहा, तब और तरह से समझाया जा रहा कि ये परभाव हैं, सो ये सारे के सारे परद्रव्य हैं। परद्रव्यों को जो ग्रहण करेगा वह अपराधी है। जो अपराधी है वह बँधेगा। जो बँधेगा सो संसार में रुलेगा। संसार में रुलने में देख लो कितनी आपत्तियाँ हैं। ये ही तो हैं संसारी जीव एकेंद्रिय, दोइंद्रिय आदिक। पशु-पक्षी आदिक, किसी पशु को खूब तेज पिटते देखे कोई तो आपका दिल जो एक दया से भर जाता और दिल काँप जाता। वह क्यों काँप जाता है? क्योंकि आपके भीतर सबके स्वरूप की अपने स्वरूप जैसी प्रतीति बसी है कि जैसे यह पिट रहा और यह दु:खी हो रहा ऐसे ही दु:ख होता है, इसका इसे अनुमान हो गया और इस कारण से उसका दिल काँप जाता है, भीतर में भाव यह भरा है कि कहीं ऐसा हम पर पिटाई हुई तो क्या होगा, ऐसा भीतर में बात बसी हुई है और उसके दिल काँप जाता है, तो स्वरूप से देख लो अपने आपको, तो वहाँ कोई विकार नहीं, और होते तो स्वरूप पर ही विकार जैसे सिनेमा के चित्र आते तो पर्दे पर हैं पर वे पर्दे के चित्र नहीं, ऐसे ही ये विभाव आते तो इस आत्मा पर ही हैं, पर आत्मा में ये विभाव नहीं भरे है, उस स्वरूप को निरखिये।
1546- अपराधी की शंकालुता की प्रकृति-
अंतस्तत्त्व का निर्णय, उसका ज्ञान रखना, यह तो है स्व को ग्रहण करना, यह अपराध नहीं यह बड़ी शांति में है, इसको बंध की शंका नहीं है, और जिसने उन परभावों को, परद्रव्यों को ग्रहण किया, अपना माना, उसका अपराध हो गया, उसके बंध की शंका है। एक बार सागर विद्यालय में किसी की चीज कहीं गुम गई थी, किसी ने चुरा ली होगी। अब उस चीज के चुराने वाले को तलाशना था, तो क्या किया कि एक छोटे कमरे में कोई चीज ऐसी रख ली जैसे कोई डंडा रख लिया और उसमें कपड़ा लपेटकर उसमें कुछ कजली जैसी काली या कोई सुगंधित चीज लगा दिया और सब लड़कों से कहा गया कि देखो सभी लड़के बारी-बारी से इस कमरे के अंदर जाकर इस डंडे को छूकर आयेंगे। जिस लड़के ने वह चीज चुराया होगा बस उसका हाथ डंडे में चिपक जायगा, वही चोर समझा जायगा। ठीक है, अब एक पंडितजी यह परीक्षा करने बैठ गये कि कौनसा लड़का इस डंडे के छूता है कौन नहीं, जो न छुवेगा उसका हाथ कजली से काला न होगा और जो उस डंडे को छू लेगा उसके हाथ में कजली लग जायगी अब सभी लड़के बारी-बारी से छूने लगे उस डंडे को। हम भी उन्हीं लडकों में से एक थे। खैर, हम सबने तो छू लिया, कुछ बात न हुई। पर जिस लड़के ने वह चीज चुरायी थी उसने मारे डर के डंडा न छुआ, आखिर समझ में आ गया कि उस चीज को उसने ही चुराया था। वही अपराधी सिद्ध हुआ। तो जो स्वयं अशुद्ध है वही परद्रव्य को ग्रहण करता है, सो अपराध करता है। जैसे लोक में भी जो आदमी स्वयं गड़बड़ विचार का है, खोटी आदत का है वही पुरुष दूसरे की वस्तु को ग्रहण करने का अपराध करेगा। जैसे जो जुआ खेलने वाला है, वेश्यागामी है, और-और ऐब हैं तो वह स्वयं अशुद्ध है और अशुद्ध है तो वह चोरी करेगा, दूसरे की वस्तु चुरा लेगा, ऐसा ही जिसका अशुद्ध उपादान है ऐसा जीव और वहाँ ही परभाव का, परद्रव्य का समागम भी होता है तो वह उसको ग्रहण करेगा तो वह बँधा और जो बँधा उसकी दुर्गति है।
1547- परमार्थलाभ के पौरुषी का लौकिक घटनाओं में फँसाव की असंभवता-
देखो, आज हम मनुष्य हैं, हमको वाणी मिली है, हमको मन श्रेष्ठ मिला है, हम अनेक बातें विचार सकते हैं। यदि हमने मोक्ष के लक्ष्य का भाव न बनाया और अपनी सामर्थ्य का सदुपयोग न किया और विवाद में, लड़ाई में, कषाय में, मोह में यह जिंदगी बीता दी तो उसका फल क्या होगा? संसार में जो ये जीव दिख रहे हैं, दु:खी, ऐसी ही अपनी दुर्गति होगी। तो बोलो ऐसी दुर्गति, ऐसी कुयोनि में जन्म-मरण कुछ भला लग रहा है क्या? नहीं लग रहा तो कुयोनियों में जन्म-मरण करने का काम न करना। वह काम क्या है? मिथ्यात्व याने मोह तथा कषाय, इन दोनों को त्यागने का अभिप्राय रखना और जैसे कोई चतुर सेठ किसी बड़े भारी लाभ के लिए, थोड़ी सी हानि को बड़ी प्रसन्नता से सह लेता है, जिससे वह जानता है कि इतनी अगर हानि हो जाय तो होने दो मगर इसमें लाभ बहुत है तो उस लाभ के ख्याल से हानि को सह लेता है। तो ऐसे ही यह चतुर ज्ञानी, भव्य आत्मा यह अनंतकाल तक मंगल स्वरूप पायगा, आनंद से, शांति से भरपूर रहेगा। इतने बड़े लाभ के लिये एक भव में तृष्णा का त्याग, संयम की आराधना, और और प्रकार के कष्ट उनमें रंच नहीं, जिनको ज्ञानदृष्टि हो गई वे अपने ज्ञान में रमना चाह रहे तो उसके लिए बाहर क्या है, फिर भी जो उपद्रव उपसर्ग कुछ भी चीज आये, उन्हें यह जानता है कि यह तो मामूली बात है, इसमें क्या बिगाड़? हो गया तो ठीक, न हो तो ठीक।
1548- शांति के रुचियों के परपरिणति से क्षोभ का अभाव-
एक किसान किसननी थे, तो किसननी तो थी बड़ी चतुर और किसान था उजड्ड, 10-12 साल हो गए थे उनका विवाह हुए। देखिये, देहातियों का ऐसा ख्याल रहता है कि अगर अपनी स्त्री को दो चार बार पीट लिया तब तो समझते कि हम मर्द हैं और हमारा घर पर शासन है। तो उन 10-12 वर्षों में उसे कोई बहाना न मिल सका कि जिससे वह उस स्त्री को पीट सके। एक बार उसने क्या किया कि जेठ आषाढ़ के दिनों में जब कि वह खेतों में हल चला रहा था तो दोपहर के समय वह स्त्री रोज-रोज खेत पर खाना लाती थी, सो एक दिन उस किसान ने क्या किया कि बैलों को औंधा-सीधा जोत दिया, याने एक बैल का मुख किया पूरब को, एक का पश्चिम को और उनके गरदन पर माची रखकर उसमें हल फाँस दिया। सोचा कि इस प्रकार का दृश्य देखकर स्त्री कुछ न कुछ तो बोलेगी ही, जैसे- अरे ! ऐसे कैसे काम चलेगा, क्या इसी तरह से जोता जाता है? क्या इसी तरह से कमायी हो जायगी..., बस पीटने का मौका मिल जायगा, अब वह स्त्री जब रोटी लेकर आयी और उस तरह का तमाशा देखा तो झट समझ गई सारी बात, सो बोली कि मेरा काम तो रोटी लाने का है सो ये ले लो, फिर तुम चाहे औंधा जोतो चाहे सीधा, हमें उससे कुछ मतलब नहीं, और लो यह मैं चली, यों कहकर सीधे चली भी गई। किसान यों ही देखता रह गया। सोचा कि अरे ! इतने तो नटखट किए, पर आज भी इसे पीट न सका। तो यहाँ यह समझिये कि ज्ञानी जीव को अपने ज्ञानस्वभाव के अनुभव का, प्रतीति का इतना बड़ा बल रहता है कि वह हर घटना में यही समझा है कि इसमें मेरा क्या बिगाड़? मानो लाखों का टोटा हो गया तो इसमें मेरा क्या बिगाड़? मानो घर में आग लग गई, कोई इष्ट गुजर गया, कुछ भी अचानक घटना घट गई तो बस इसमें मेरा क्या? एक अपने ज्ञानस्वरूप की प्रतीति की इतना महान बल रहता है कि यह तो मैं पूरा का पूरा हूँ, आनंदमय हूँ, स्वरक्षित हूँ, इसमें किसी दूसरे का दखल ही नहीं है। इसमें मेरा क्या बिगाड़? चाहे परद्रव्य यों चलें चाहे यों परिणमें, इसमें मेरा क्या बिगाड़? सहज ज्ञानस्वभाव के आश्रय का जिसको महान बल प्रकट हुआ है वह बाह्य पदार्थों की तृष्णा, चोरी तो करेगा क्या? वह तो अपने अंत:प्राप्त हुए उन परभावों का ग्रहण नहीं करता, वह है निरपराध।
1549- आत्मप्रतीति से आत्माओं का आंतरिक आह्लाद-
कहते हैं ना कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, अपनी आत्मदृष्टि है, अपने आत्मस्वरूप की प्रतीति है, मात्र यह हूँ मैं और कुछ नहीं, कदाचित् कोई नाम लेकर गाली भी कह रहा तो वह ज्ञानी पुरुष यह सोचता कि यह तो मेरा नाम ही नहीं। यह तो मुझे कह ही नहीं रहा। यह गाली देने वाला किसको देखकर कह रहा? क्या मुझ चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व को देखकर कह रहा? अगर मुझ चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व को यह देख लेता तो गाली बोल ही नहीं सकता था। ऐसा अपने परिपूर्ण आनंदमय अंत:स्वरूप का इतना महान बल है कि वह अपराध नहीं करता। क्योंकि यह भीतर चंगा है, भीतर अपनी स्वरूपदृष्टि करके यह अपने आपमें तुष्ट है। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, सुना तो पहले भी हैं आप लोगों ने यह अहाना, पर क्या अर्थ है, क्या मतलब है सो सुनो- एक बार कोई ब्राह्मण अपने गाँव से गंगाजी पर फूल चढ़ाने के लिए जा रहा था, तो रास्ते में क्या देखा कि किसी दूसरे गाँव में एक जगह एक चमार (मोची) जूते बना रहा था। उसके पास एक काठ का कठौता था जिसमें पानी भरा था और उस पानी में चमड़ा भिगो-भिगोकर जूते बना रहा था। सो जब वह ब्राह्मण वहाँ से निकला तो उस मोची ने पूछा पंडितजी आप कहाँ जा रहे है? गंगाजी में फूल चढ़ाने। अच्छा, मेरे भी ये दो पैसे ले लो इन्हें गंगाजी में चढ़ा देना, मगर एक शर्त है कि जब गंगाजी अपना हाथ पानी से बाहर निकालें तब चढ़ाना, नहीं तो हमारे पैसे हमको वापिस कर देना। अच्छा, ठीक है, ले लिये पैसे और चल दिया। कुछ चलकर रास्ते में उस ब्राह्मण ने सोचा कि इन दो पैसों को लेकर कुछ खाना-पीना चाहिए, कहाँ वह गंगा पानी से बाहर हाथ निकालेगी। झूठ-झूठ कह देंगे कि हाँ मैंने पैसे चढ़ा दिये थे, पर सहसा ही उसके मन में इस काम के करने में कुछ ग्लानि सी हुई और पुन: उस मोची के पास आकर बोला- भैया, ये लो अपने पैसे, कहीं गंगादेवी पानी से बाहर हाथ नहीं निकाला करती। तो वहाँ वह मोची बोला- अरे ! पंडितजी आप क्या बात करते हैं, हम तुमको इसी जगह पर करके दिखाये देते हैं कि गंगादेवी पानी से बाहर अपना हाथ निकाल देती है। अच्छा, करके दिखाओ। अब उस मोची ने क्या किया कि गंगादेवी का सही दिल से ध्यान करने बैठ गया, थोड़ी ही देर में क्या देखा कि उस कठौती में जो पानी भरा था उसमें से एक हाथ बाहर निकल आया और उसे पैसे दे दिये। देखिये, हम नहीं जानते कि कैसा क्या हुआ पर यह जानते हैं कि ऐसा हो जाने में भी आश्चर्य कुछ नहीं। कौतूहल करने वाले व्यंतरदेव ऐसा करके दिखा भी कसते हैं। तो तब से यह अहाना चला कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।
1550- निरपराधता में प्रसन्नता-
चंगा का अर्थ समझना प्रसन्न होना, मौज मानना नहीं। प्रसन्नशब्द उपसर्गपूर्वक सद्धातु से बना है, ‘क्त’ प्रत्यय लगाकर प्रसन्न बना, जिसका अर्थ है निर्मल होना। प्रसन्न का अर्थ खुश होना नहीं है, मौज मानना नहीं है, किंतु निर्मल होना है। जो प्रसन्न होगा उसे शांति तो अपने आपमें मिलेगी, और तब ही तो देखो बताते हैं कि भादों के वर्षा ऋतु में ये पोखरे प्रसन्न हो गये, मायने पोखरे पानी से खूब लबालब भर गये, उस समय तो पानी गंदा रहता, मटमैला रहता, पर शरद ऋतु आने पर वह जल निर्मल हो जाता है, याने प्रसन्न हो जाता है। तो अपने में समझिए कि यह प्रसन्नता कब से हुई? जब मैं अपने ही स्वभाव को ग्रहण करूँ, अपने ज्ञान में चैतन्यमात्र हूँ, ऐसा ही अनुभव करूँ, प्रतीति लूँ? जिसका फल क्या है कि परद्रव्य, परभाव, ये औपाधिक भाव, इनकी तो सुध भी न रहेगी। सो ऐसी जो कोई चोरी नहीं करता और अपने घर की चीज बापरता, वह प्रसन्न रहता। उसे कोई डर नहीं रहता। ऐसे ही जो अपने चैतन्यस्वरूप को ही बापरता है, मायने उसकी ही प्रवृत्ति रखता है और पराई चीज कषाय और मोह, अज्ञान आदिक भाव इनको नहीं छूता, वह भव्य आत्मा अंत:प्रसन्न रहता है। उसको बंध की शंका नहीं। तो इस प्रकार यह उपदेश मिला कि इन समस्त परभावों का त्याग करते हुए तुम अपने चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मा को ग्रहण करो, ऐसा करने पर ही तुम सचमुच निरपराध कहलावोगे।