वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 187
From जैनकोष
अनवरतमनंतबध्यते सापराध:
स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु ।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो
भवति निरपराध: साधु शुद्धात्मसेवी ॥187॥
1551- अपराधी का अनवरत अनंत कार्मणवर्गणाओं से बंधन-
जो अपराध सहित है वह निरंतर अनंत कार्मण वर्गणाओं से बँधता रहता है। अपराधी कौन? जिसकी राध अपगत हो गई हो, राध मायने क्या। राध, सिद्धि, साधना, आराधना, यह सब एक ही बात है, यह जिसके न हो मायने आत्मस्वरूप की दृष्टि जिसके नहीं हो पाती वह राध से रहित है, अपराधी है। जो अपने अनादि अनंत अहेतुक चैतन्यप्रकाशमात्र सहज परमात्मतत्त्व को नहीं लखता है और लखता है किन्हीं बाह्य परद्रव्यों को, परभावों को वह मनुष्य, वह जीव अपराधी है। और, जो अपराधी है वह निरंतर अनंत कर्मवर्गणाओं से बँधता रहता है। देखिये, जीव ने विभाव किया, अपराध किया तो उस निमित्त के सान्निध्य से कार्मण वर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणम जाती हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रभाव, असर ये कुछ भी नहीं डाल पाता मगर उपादान में ऐसी कला है, अशुद्ध उपादान में ऐसी योग्यता है कि वह अनुकूल निमित्त के सान्निध्य में अपना रंग बदलता रहता है। देखिये, वस्तुस्वातंत्र्य यह ही है कि अपनी ही परिणति से परिणमे, दूसरे की परिणति से न परिणमे। निमित्तनैमित्तिक योग समस्त विकार परिणमनों में अलंघ्य है, यह टलता नहीं, क्योंकि निमित्तसान्निध्य के अभाव में कोई भी पदार्थ विकार परिणमन नहीं कर पाता, यह है एक निष्पत्ति-विधान। भले ही एक ज्ञप्ति की दृष्टि से जान लिया, प्रभु ने सब ज्ञात किया है, किंतु जहाँ जो जिस विधान से जो हुआ, हो रहा, होगा वह विषयभाव को प्राप्त हुआ है। और, इसकी विशेष समझ बनाने के लिये एक बार यह भी ध्यान में लावें कि भगवान जो जानते हैं वे मुक्त जानते हैं, कैसे कि उनका जानने का स्वभाव है, जानते हैं। उससे कहीं पदार्थों पर असर नहीं होता कि पदार्थ ऐसा जाना गया इस कारण से यों परिणम गया व कार्य-कारण विधान हो गया।
1552- निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय का लाभ-
निमित्तनैमित्तिक भाव का अर्थ उपादान उपादेय नहीं होता है, किंतु इसका व्यापक प्रयोजन है। निमित्त-नैमित्तिक योग में भी कार्य-कारण विधान का प्रयोग होता है और उपादान उपादेय में भी कार्यकारण भाव का प्रयोग होता है। दार्शनिक शास्त्रों में, कार्यनिष्पत्ति की सिद्धि में, निमित्त-नैमित्तिक भाव की घटना में, कार्य-कारण शब्द का प्रयोग होता है, तो जहाँ जो भाव है, जिसका जो आश्रय है इतना आश्रय रख करके वह ध्यान में रखना चाहिए। तो बात यह है कि निमित्त-नैमित्तिक योग भी है एक तथ्य और वस्तु स्वातंत्र्य भी है एक तथ्य। किसी भी प्रसंग में कभी भी यह नहीं हो सकता कि निमित्तभूत द्रव्य अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रभाव, असर कुछ भी कह लो वह उपादान में डाल सके वह अन्य पदार्थ को उत्पन्न कर दे, यह कभी नहीं होता, और यह भी कभी नहीं होता कि उपादान अपने आपसे ही याने निमित्त-सन्निधान बिना विकाररूप परिणम जाय, ऐसा भी कभी नहीं हो सकता। अच्छा, आगम में वस्तु-स्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक योग दोनों को ही बताया है वह है अपना प्रयोजन और हित सिद्धि करने के लिए। जब इस तरह से देखा कि निमित्तभूत द्रव्य अपना कुछ भी उपादान में नहीं रखता तो इससे अपने स्वातंत्र्य का बोध हुआ, कलुषता मिट गई। अब कर्तव्यमूढ़ता नहीं रही कि कोई निमित्त मेरे को ऐसा कर देता है तो अब वहाँ मैं क्या करूँगा? उसके पुरुषार्थ का विकल्प छोड़ दे, क्या पुरुषार्थ करें? जब निमित्त अपनी परिणति से परिणमा देता है सो वहाँ यह जानना कि निमित्तभूत द्रव्य अपनी परिणति से उस पर विकाररूप परिणम जाता है, यह भेद जाना, उस भेदज्ञान के साथ ही अनेक बातें झलक में आयी कि निमित्त से मेरा कोई संबंध नहीं, ये मेरे कुछ नहीं लगते। अच्छा, अब देखो निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय का प्रभाव। निमित्त कर्मविपाक के सान्निध्य में जो परभाव हुए वे मेरे स्वभाव से नहीं उठे हैं, वे निमित्तभूत द्रव्य के सान्निध्य में हुए हैं। यहाँ तो जीव में यह उपयोग उस विपाक का प्रतिफलनरूप होता है, यह भेद जब जान लिया तो यह हिम्मत बन जाती है कि उस प्रतिफलन में अपने उपयोग का एकत्व न करें, आश्रयभूत पदार्थ में अपना उपयोग न लगावें। उसको यहाँ ऐसे पौरुष का अवसर मिल जाता है, अपने सभी कथनों से हमें अपनी स्वभाव-दृष्टि करने का, स्वभाव का आश्रय करने का लाभ उठाना चाहिए।
1553- परभाव की स्वीकारता का महान् अपराध-
यहाँ यह बतला रहे कि जो अपराधी है वही कर्मों को बाँधता है और जो अपने स्वभाव का परिचय नहीं किए हुए है और बाह्यभावों में अपने को तन्मय मान रहा है वह अपराधी है, वह चोर है उसने परद्रव्यों को अपना माना। चोर किसे कहते? तो इसका हर कोई उत्तर देगा कि दूसरें के घर में रखी हुई चीज जो उठा लावे सो चोर। हाँ, दिखा तो आपको ऐसा ही है मगर चोर किस कारण से कहलाता है? वास्तव में कि उस चीज के प्रति उसके भीतर यह भाव भर गया कि अब यह मेरी चीज हो गई। भीतरी भाव की परख करें तो परद्रव्य का जो उपयोग से ग्रहण हुआ, वहाँ ममता हुई, चोरी हुई। जितने भी पाप होते हैं वे सब पाप हिंसा कहलाते हैं। झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये भी हिंसा हैं और हिंसा में सभी पापगर्भित हैं, फिर चोरी आदिक अलग क्यों बतायी गई? क्योंकि जरा प्रवृत्ति में लोगों को झट मालूम हो जाय कि ऐसे-ऐसे काम करने में पाप होता है, हिंसा सर्वत्र पाप है, किसी का दिल दु:खाना यह हिंसा, किसी को पीड़ा पहुँचाना हिंसा, तो किसी क्रिया में क्या हुआ कि मन में जो एक घृणा का भाव, द्वेष का भाव, उसका बुरा करने का भाव जो भीतर हुआ, जिससे प्रेरित होकर वह कोई वध-बंधन की चेष्टा कर सके, वह भीतर की दुर्भावना है हिंसा। झूठ बोल गए, झूठ मायने क्या? जिन वचनों से दूसरों का अहित होवे उसे झूठ कहते हैं। झूठ की मौलिक परिभाषा यह है, और फिर वे क्या-क्या होते हैं यो उनका यह विस्तार है। तो जैसे झूठी गवाही दे दी तो उससे दूसरे का दिल दुखा ना, तकलीफ हुई ना, तो लोग प्राण कहने लगे। कहते हैं ना 11 वाँ प्राण, चाहे उन्हें मालूम न हो कि वे 10 वाँ प्राण कौन-कौन से कहलाते हैं जिसमें धन मिला दें तो 11 वाँ प्राण कहलाने लगे, मगर यह बात सब कहते कि यह धन 11 वाँ प्राण है। जो इस धन को हरता है तो हिंसा हुई ना। कुशील दुर्भावना होना, विचार गंदा होना, पर में आसक्त होना वहाँ हिंसा है, भाव हिंसा भी है और द्रव्यहिंसा भी है, परिग्रह मूर्छा किसी दूसरे की चीज को अपनाना, यह परिग्रह कहा जाता है, बात वहाँ क्या हुई कि वह चीज का ग्रहण ही तो कर रहा जब उसके प्रति ममता है, तो मूर्छा हुई यह पाप हुआ, ऐसा कोई अपराध करे तो वह कर्मों से बँधता ही है, यह न्याय है।
1554- अपने भावों की सम्हाल करने का कर्तव्य-
जो पापभाव करता सो पापों से बँधता, यह न्याय है। पाप करे, खोटे भाव करे और कर्म न बाँधे तो यह अन्याय हो गया। ऐसा अन्याय कहीं होता नहीं है। बड़े व्यापक दृष्टि से देखो, यह सब बात चल रही है कि अपने परिणामों को बहुत सम्हालकर रखना चाहिए। आज नहीं कुछ उन पाप परिणामों का फल दिख रहा, पुण्य का उदय है ना, मगर जो दुर्भावना है, जो अनीति के भाव है उसके उसी समय पापकर्म का बंध होता, उसका उदय आयगा, उसका फल भोगना होगा। इससे यह अपनी दया करना, किसी भी प्राणी के संबंध में उसके अहित की बात न सोचना, घृणा की बात न सोचना, चाहे वह कितना ही बड़ा पुरुष हो, चाहे वह कितने ही बड़े भारी वैभव वाला हो, जो परजीव के प्रति अपराध और घृणा का भाव रखे, जो दुर्भावना रखता है, उसके निरंतर अनंत कर्मपरमाणुओं का बंधन चल रहा है। जो अपराधी है वह बँधेगा। कथानकों में आप बहुत-बहुत पढ़ते हैं कि अमुक ने अमुक को सताया, और ऐसे कथन बहुत मिलेंगे कि अमुक ने अमुक महाराज पर उपद्रव किया, एक मुनिराज पर कूड़ा डाल दिया। मुनि से कहा- हटो, हमें यहाँ झाडू लगाना है, वह मुनिराज कुछ बोले नहीं, ध्यान में बैठे रहे, वहाँ उसे क्रोध आया और मुनिराज के ऊपर कूड़ा फैंक दिया फिर उस कूड़ा डालने वाले की क्या-क्या गतियाँ हुई, कैसी-कैसी स्थितियाँ हुई, यह सब वर्णन आया है, ऐसी अनेक बातें बहुत से चरित्रों में मिलेंगी। प्राणिमात्र से भी घृणा न करें और फिर कोई बड़ा हो, ज्ञानी हो, त्यागी हो, मुनि हो, साधु हो, उसके प्रति घृणा का भाव हो तो उसमें अधिक पाप लगता। देखो, जैसे बतलाया ना कि एकेंद्रिय की हिंसा करने से अधिक पाप दो इंद्रिय की हिंसा में हैं, दो इंद्रिय से अधिक पाप तीन इंद्रिय की हिंसा में है। यों बढ़ते जावो, चार इंद्रिय ,असंज्ञी पंचेंद्रिय, संज्ञीपंचेंद्रिय और उनमें भी रत्नत्रयधारी मुनि की हिंसा करने में बहुत अधिक पाप है। भूतवत्यनुकंपादान आदि। भूत में अनुकंपा याने प्राणियों प्राणियों में दया, फिर कहा व्रतियों में दया, इसे अलग से क्यों कहा? तो मतलब यह कि जब एक धर्ममार्ग में अपन लोग चलते तो सर्वसाधर्मियों में हृदय से निश्चल वात्सल्य हो अन्यथा क्या होगा, जो करेगा सो भोगेगा। दूसरा कोई मददगार नहीं। अज्ञान का अँधेरा हृदय में नहीं रखना और अपनी ही भलाई के लिए अपनी प्रवृत्ति रखना। जो अपराधी है वह भीतर अनंत परमाणुओं से बँधता है।
1555- विशुद्ध अंतस्तत्त्व के आदर में सिद्धि-
राध मायने क्या? सिद्धि। सिद्धि मायने क्या? परद्रव्यों के परिहार के द्वारा स्व की सिद्धि, आत्मा की प्राप्ति, उपलब्धि, दृष्टि। परद्रव्य क्या-क्या? देखो, अभी कलश में इन रागादिक विकारों को परद्रव्य कह दिया था जिससे उपेक्षा करनी है उसके लिये सारे उपाय बताये कि उनसे उपेक्षा हो जाय और अपने इष्ट अभीष्ट स्वरूप की ओर दृष्टि हो जाय। आप कहेंगे कि अभी तो यह कह रहे थे कि सबमें वात्सल्य रखें और वहाँ रागद्वेष विभावों में उपेक्षा की बात कहने लगे, इन रागद्वेषों से घृणा करें और सबमें समता रखें, सबका आदर करें। हाँ, ठीक तो है सबका आदर करें ये रागादिक भाव कोई पदार्थ थोड़े ही हैं, जीव थोड़े ही हैं, ये तो जीव के विकार हैं, आदर करें मायने जीवों का निरादर न करें। अपने में बसा हुआ जो अंत:भगवान है यह आत्मा सहज स्वरूप स्वभावमात्र इसका निरादर हुआ ना अगर विभावों से प्रीति की तो। इन विभावों से उपेक्षा करना, इनके परिहार द्वारा शुद्ध आत्मा की दृष्टि करना, इसका नाम सिद्धि है। देखो, धर्मपालन करने के लिये कोई बड़ी समस्या नहीं है समझने में। यहीं समझ लो कोई बात नहीं। जब बैल, घोड़ा, बंदर, नेवला ये सभी समझ सकते हैं तो भला मनुष्य न समझ सकेंगे? और यह सोचना भी एक भीतर की कमजोरी है कि हम पढ़े-लिखे नहीं अधिक, हम कैसे सम्यक्त्व पा सकते? अरे ! उन घोड़ा, बैल वगैरह को भी तो किसी ने नहीं पढ़ाया, उन्होंने कैसे सम्यक्त्व पाया? एक दृष्टि की ही तो बात है। अब देख लो कितने ही पढ़े- लिखे, लोग भीतर में दुर्भावनायें रखते हैं, कषाय बनाते हैं, ऐसे मिलेंगे और जो नहीं पढ़े-लिखे लोग हैं, कोई दो क्लास ही पढ़े हैं या बिल्कुल भी नहीं पढ़े हैं, जैसे कि बहुत से पुराने बूढ़ा-बुढ़िया ऐसे होते कि जो पढ़े-लिखे कुछ नहीं होते, पर उनके अंदर देखो तो बड़े विशुद्ध परिणाम होते हैं, बड़ी सरल प्रकृति के होते हैं। सबका भला चाहें यह तो अपनी- अपनी विशुद्धि की बात है।
1556- भगवान अंतस्तत्त्व की विमुखता में अपराधों की भरमार-
एक यह दृष्टि लें कि मैं आत्मा ज्ञानस्वरूप हूँ। भीतर सोचो, आँखें बंद करो। इंद्रिय-मन का व्यापार बंद करो, अपने आपके भीतर ज्ञान से ही देखो, शरीर की भी दृष्टि छोड़ दो।...कैसे छोड़ दें? अरे ! इतनी मोटी बात तो जानते हैं ना कि मर गए तो यह शरीर यहीं का यहीं रह गया, उसे जला दिया जाता, तो यहाँ शरीर न्यारा है और जो जीव चला गया वह न्यारा था। तो जो चला गया उन्हीं में तो मैं हूँ, ऐसी बात ध्यान में लावें तो कोई दिन ऐसा होगा कि यह शरीर यहीं धरा रहेगा और जीव इसे छोड़कर चला जायगा। तो इस वक्त भी शरीर की निगाह तज दें। देखो ना मेरे शरीर लगा, इसका नाम ही न लें और केवल ज्ञानप्रकाश नजर में लावें, ज्ञान-ज्ञान, जानन-जानन प्रयोग करें, सब बात बनेगी। आगे प्रयोग कर लें। आप अपनी जगह में बैठे हुए अपने शरीर में ही तो बने हुए वहीं इंद्रिय-व्यापार बंद करें, आँखों से निरखना बंद करें, शरीर को भूल ही जावें और भीतर परखें- यह मैं एक ज्ञानज्योतिमात्र हूँ। बस होनहार की बात, जिसकी दृष्टि जग गई, जिसका उपयोग अपने ज्ञानस्वरूप में आ गया, उसको यहाँ सारे विकल्प छूटकर अद्भुत आनंद मिलता है और यह विलक्षण आनंद, इसका अनुभव क्या कि एक मोहर लग गई कि तथ्य यह ही है ज्ञान ने जाना, अपने स्वरूप को अनुभवा, स्वानुभव बना और आनंद की अनुभूति की उस पर मोहर ठोक दी। तत्त्व यह ही है, तथ्य यह ही है, कल्याण यह ही है, क्योंकि वह मोहर ज्ञाननेत्र के आगे सुगमतया रहेगी। वह सारा मजबूरन जो लिखा है उसे तो बाँचने में विलंब होगा, किंतु प्रमाणित करने में मोहरबंदी त्वरित दिख जायगी। प्रतीति में क्या है? जो अनुभूति की मोहर लगी थी, उसका ही तो वह ख्याल है जिसे कहते हैं प्रतीति। आत्मा को अपनी अनुभूति की प्रतीति भई है, यह बात यहाँ कर ली ही जायगी, झगड़े में कुछ नहीं रखा, अपने में अपनी बात प्राप्त कर अपने संकट मिटा लें, अन्यथा यह सब अपराध ही अपराध कहलायेगा। चाहे कितनी ही कोई चेष्टायें करे, चाहे दुनिया को कुछ भी दिखाये वह सब अपराध है, जो अपराधी है वह अनंत कर्मपरमाणुओं से बँधता है। अच्छा अपराधी कौन? जिस चेतन को, जिस आत्मा को अपने आपके स्वरूप की सिद्धि की याद नहीं। जहाँ यह राध नहीं वहाँ अपराध ही अपराध है। हुआ क्या वहाँ कि इस अपराधी ने परद्रव्य का ग्रहण किया।
1557- अनात्मतत्त्व को अंतस्तत्त्व मानने में परमार्थत: चोरी का अपराध-
यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव कितना बड़ा चोर है। चोर कौन? जो इन बाहरी चीजों को अपनी माने वह चोर? अब आप लोगों में जो इन स्त्री-पुत्र, धन-वैभव, मकान-महल वगैरह बाह्य पदार्थों को अपना मानता है, या यह जो दृश्यमान शरीर है उसको अपना मानता है तो बताओ उसे चोर की संज्ञा दी जा सकती है या नहीं? अरे ! चोर तो कहा ही जायगा। जो ऐसी करनी करेगा, जो ऐसा मिथ्याभाव रखेगा वह कर्म की बेड़ियों से बँधेगा। जो भ्रम करेगा उसके कर्मबंधन है और साथ ही जीवनभर उसको आकुलता है। जैसे कभी देखा होगा कि रेलगाड़ी से मुसाफिरी करते समय जब कोई मुसाफिर अपने सीट से उठकर कोई बाधानिवारणार्थ चला जाता और उसकी सीट पर दूसरा कोई आकर बैठ जाता। अब पहले बैठा हुआ पुरुष आता और बोलता कि भाई साहब यह तो हमारी सीट है, उठो अभी हम बैठे थे, बस पेशाब भर करने चले गए कि आप आकर बैठ गए। तो यदि वह समझदार हुआ तो झट उस सीट को छोड़कर दूसरी जगह जाकर बैठ जाता, उस सीट के छोड़ने में वह जरा भी कष्ट नहीं मानता। वह तो जानता कि क्या है, इस जगह न सही, वहाँ बैठ गए। और यदि कोई नासमझ हुआ तो वह उस सीट के लिए उससे झगड़ जाता है। और जब उसका निर्दिष्ट स्टेशन आ जाता है तो फिर वह उस सीट को निर्मोही-सा बनकर छोड़ देता है, अब कुछ लोग जबरदस्ती पकड़कर उस सीट पर बैठाना चाहे तो भी नहीं बैठता। क्यों नहीं बैठता? क्योंकि उसे सही ज्ञान है कि यह सीट मेरी नहीं है, मुझे तो इस सीट को छोड़ ही देना होगा, तो जैसे समझदार पुरुष को सीट छोड़ने में कुछ दु:ख नहीं होता। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष को भी इन सांसारिक बाह्य सामग्रियों को छोड़ने में रंच भी दु:ख नहीं होता वह तो जानता है कि ये एक न एक दिन तो छूटेंगे ही, और अज्ञानी जनों को उनके छोड़ने में बड़ा कष्ट होता, वे तो उनके पीछे मुग्ध होते, आसक्त होते।
1558- अपराधी व अनपराधी का अनुग्रह-
कभी-कभी देखा होगा कि कोई बूढ़ा जब मरण का समय आ जाता है तो वह कह उठता बस अंतिम समय में अमुक लड़की को तार देकर बुला दो, अमुक मुन्ने को मेरी छाती पर धर दो, छाती ठंडी हो जायगी। यों अज्ञानी जीव बाह्य पदार्थों में अपनायत की बुद्धि रखते हैं तो बताओ वे चोर कहलाये कि नहीं? जरा एक बार मुख से आप लोग बोल तो दो, बोलने में क्यों संकोच करते? कहना पड़ेगा आखिर यही कि हाँ जो ऐसा करते हैं वे चोर तो हैं ही। जो इन बाह्य पदार्थों में मोह रखे, उन्हें अपनाये वही तो चोर कहा जाता। और साहूकार कौन? जिसे अपने निज आत्मस्वरूप में दृष्टि है, उसी को मानता कि बस मेरा तो सब कुछ यही है, यह आत्मस्वरूप की मेरा सर्वस्व है, इसके अतिरिक्त मेरा कुछ नहीं, बस वही साहूकार है। वही सचमुच निरपराधी है, और जो बाह्य पदार्थों को अपनाता है वह बहुत बड़ा अपराधी है। तो जहाँ पर द्रव्य का ग्रहण किया वहाँ शुद्ध अविकार चैतन्यस्वरूप की सुध नहीं रहती। जब यह बात गुजर रही तो फिर यह जीव तो अशुद्ध है, यह तो अपराधी है, यह तो भगवान अंतस्तत्त्व का विरोधक है। यह ही कारण है कि वह निरंतर कर्मपरमाणुओं से बँधता रहता है, परंतु जो निरपराध है मायने जो समस्त परद्रव्यों का परिहार कर दे और शुद्ध आत्मतत्त्व की सिद्धि उसके चल रही है उसको बंध की शंका ही नहीं।
1559- अंतस्तत्त्व के अपराध के बंधन का अभाव-
देखिये इस मुड में, जैसे कि भेदविज्ञान की बात चल रही और उसके प्रभाव की बात चल रही वह बुद्धिपूर्वक प्रभाव की बात चल रही। ग्रंथों में, अध्यात्म में बुद्धिपूर्वक कथन होता है, अन्य बात सोचना ही नहीं, जो किया जा सके उसका वर्णन है अध्यात्म में, बुद्धिपूर्वक जो वह निरपराध है, शुद्ध आत्मा की सिद्धि है, बंध की शंका उसके नहीं है, और, ऐसा ही उसका निश्चय बना हुआ है कि ज्ञान ही एक मात्र जिसका लक्षण है ऐसा यह मैं एक ज्ञानमात्र शुद्ध अंतस्तत्त्व हूँ, अब वह इस ही की आराधना कर रहा, अपने आपमें अविकार चित्स्वरूप की आराधना बन रही, वह आराधक है, शुद्ध है, ऐसा पुरुष कर्मों से नहीं बँधता, कर्म उन्हें छूता ही नहीं, अच्छा भावकर्म के साथ भी यही कथन बैठा लो। जो अपराधी है मन, वचन, काय की क्रिया उनके चलती है, जो निरपराध है वह नि:शंक आत्मा में अवस्थित रहता है, सो भाई जो अपने को अशुद्ध ही, अशुद्ध ही समझे वह अपराधी है किंतु जो शुद्ध आत्मतत्त्व की सेवा करे, शुद्ध अंतस्तत्त्व की भावना आराधना में रहे वह निरपराध है, उस निरपराध के बंधन नहीं होता। तो देखो जितनी शक्ति है, जितना आपका ज्ञानबल चले, अधिकाधिक उपयोग इस ओर लगावें कि इस सहज अविकार स्वरूप में याने अपने आपकी ओर से अपने ही सत्त्व के कारण उसका जो लक्षण है, उस लक्षण में आत्मत्व की आस्था रहे। आत्मलक्षण केवल ज्ञानदर्शन प्रतिभास प्रकाश प्रतिभासमान है। यह ही मेरा स्वरूप है, तो ऐसी ही वृत्ति रहे यह है इसकी ईमानदारी, अपने आपकी ही सामर्थ्य, ये की जाने वाली बात, शुद्ध अंतस्तत्त्व की सेवा, अंतस्तत्त्व का आराधक निरपराध है, इसके बंधन नहीं।