वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 188
From जैनकोष
अतो हता: प्रमादिनो गता: सुखासीनतां
प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालंबनं ।
आत्मन्येवालानितं च चित्तमा
संपूर्ण - विज्ञान - घनोप - लब्धे: ॥188॥
1560- शुद्धात्मतत्त्व से चिंता में निरपराधता के समर्थन पर एक क्रियाकांडी की जिज्ञासा-
ऊपर के छंद में यह कहा गया था कि जो शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला है वह निरपराध है, जो अशुद्ध आत्मा को भजने वाला है वह अपराधी है। इसका अर्थ क्या हुआ कि जो अपने में ऐसी प्रतीति लिये हुये हैं कि जो ये बन रहे हैं कषाय-विकल्प आदिक जो भी विभाव, बस ये ही तो मैं हूँ, वह कहलाता है अशुद्ध आत्मा का भजने वाला और जिसकी यह प्रतीति है कि मैं सहज अपने ही सत्त्व के कारण स्वयं ही अपने आप जो कुछ चित्प्रकाशमात्र हूँ, बस यही तो मैं हूँ, इस प्रकार की जो प्रतीति-दृष्टि रखता है वह है शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला। तो जो शुद्ध आत्मतत्त्व का दृष्टा है वह है निरपराध। इस पर कोई शंकाकार कहता है कि क्या शुद्ध-शुद्ध आत्मा रट रखा? अरे ! इसकी उपादान के पुरुषार्थ से क्या बनता? आत्मा की शुद्धि तो प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त वगैरह से होती है और उसी से यह निरपराध कहलाता है, यह शंका है क्रियाकांडी की और जो अप्रतिक्रमण है मायने अव्रती रहना, असंयमी रहना, अप्रतिक्रमण में रहना, यह स्वयं अपराध है। तो जो अपराध करे सो बँधेगा और जो व्रत में रहे, संयम में रहे, तपश्चरण करे और कदाचित गलती हो जाय, कोई त्रुटि हो जाय, दोष लगे तो उसका गुरु से प्रायश्चित्त लें, प्रतिक्रमण करे, इससे ही दोष टलते हैं और इससे ही अपराध दूर होते हैं। शुद्ध आत्मा की उपासना में क्या रखा? और देखो, कोई अव्रत में रहे, अप्रतिक्रमण में रहे, दोष बने रहे और उसका प्रायश्चित्त न ले, ऐसी जो अपनी हालत बनाये सो वह अपराध को दूर नहीं कर पा रहा, यह है विष की चीज और प्रायश्चित्त करना, गुरुजनों से दोष निवेदन करना, प्रतिक्रमण पढ़ना, यह सब अपराधों को दूर करता है, सो यह तो अमृत है और अव्रत रहे, असंयम रहे, दोष करता रहे, पाप की कुछ परवाह न रखे, यह है विष का घड़ा, फिर शुद्ध आत्मा की चर्चा से क्या लाभ निकलेगा? और, यह एक बात ही बात नहीं कह रहे, आगम में भी लिखा, व्यवहार सूत्र में भी बताया कि जो अप्रतिक्रमण है, दोषशुद्धि न करना है वह सब विषकुंभ कहलाता और प्रतिक्रमण करे, पढ़े, तपश्चरण करे, ये सब अमृतकुंभ कहलाते। फिर ऊपर के कलश में जो यह कहा गया है कि जो शुद्ध आत्मा का सेवन करे वह निरपराध है यह कैसे युक्त रहा।
1561- उक्त जिज्ञासा का प्रारंभिक समाधान-
अब उक्त जिज्ञासा का समाधान निरखिये- पहले तीन बातें समझ में रखनी होगी- अप्रतिक्रमण, प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण कहते किसे हैं? कोर्इ दोष लगे तो उस दोष की शुद्धि करना, प्रायश्चित्त लेना, तपश्चरण करना, त्रुटि निकालकर दूर करना, यह है प्रतिक्रमण। इन तीन बातों को समझें- (1) अज्ञानी का, असंयमी का अप्रतिक्रमण और (2) व्रती का, संयमी का प्रतिक्रमण और (3) प्रतिक्रमण, अप्रतिक्रमण इन दोनों विकल्पों से रहित केवल एक सहज ज्ञान-सामान्य का अनुभवन, प्रतीति, यह है तीसरी भूमि वाला अप्रतिक्रमण। समाधान तो बिल्कुल स्पष्ट है कि जो अव्रती का, असंयमी का जो अप्रतिक्रमण प्रवर्तन चल रहा है वह तो विषकुंभ ही है। वहाँ दूसरी बात नहीं की जा सकती और फिर जो प्रतिक्रमण है, मायने ज्ञानी संयमी तपस्वीजन उनके कोई कदाचित् दोष लगें तो उन दोषों की शुद्धि करना तपश्चरण द्वारा वह है अमृतकुंभ। जब वह विषकुंभ रहा तो यह अमृतकुंभ रहा, लेकिन वह तृतीय भूमि याने आत्मा का सहज शुद्ध चित्प्रकाश जो द्रव्य-प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण दोनों से विविक्त ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का अनुभवन है उसका नाम दूसरा कोई तीसरी भूमि रख ले तो अटपट न लगेगा उसका नाम अप्रतिक्रमण रखा तो चलो इसी तरह सोची यह है अमृतकुंभ। लो अब इस तार्तीय की भूमि शुद्धात्मा सेवा के समक्ष दोनों विषकुंभ बन गये। ऐसी बात सुनकर कोई प्रमाद में आ सकता, ओह ! प्रतिक्रमण भी विष है, मगर ध्यान यह दीजिए कि प्रतिक्रमण विष किसको है? जो प्रतिक्रमण को करता हुआ, आगे बढ़ता हुआ जो अपनी समाधि में बढ़ रहा है उसकी उस स्थिति के आगे लक्ष्यशून्य पुरुष का वह प्रतिक्रमण विष है, इस चेतावनी को इस कलश में बताया गया है।
1562- शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की उपयोगिता बताते हुये द्रव्यप्रतिक्रमण की विषकुंभता व अमृतकुंभता का निर्णय-
देखो, एक बात ध्यान में रखो- जैसे कोई योद्धा युद्धभूमि में उतरता है तो उसके पास दो चीजें होती हैं ढाल और तलवार। अब समय के अनुसार ढाल और तलवार के रूप बदल जाते हैं, ढाल होती थी कोई गोल-गोल चीज। बताया है कि ढाल प्राय: करके कछुवा की पीठ की या लोहे की होती थी। कोई गोली मारे, तलवार मारे, बल्लम मारे तो उसे रक्षा करने के लिए भिड़ा दिया। उसका नाम था ढाल। और तलवार जो शस्त्र है वह बड़ी तीक्ष्ण धार वाला होता है, जिससे शत्रु का संहार किया जाता है। तो ढाल काम आती शत्रु का वार रोकने के लिए और तलवार काम आती दूसरों का संहार करने के लिए। ठीक इसी प्रकार की स्थितियाँ आत्मरमण के संबंध में हैं, मोक्षमार्ग में हैं। इस युद्धस्थल में उतरे हुये जो भव्यजन हैं सो उनके लिये ढाल चाहिये और तलवार चाहिये। उनकी ढाल तो है शुभोपयोग, प्रतिक्रमण, तपश्चरण आदिक और तलवार है शुद्धोपयोग, अंतस्तत्त्व का आलंबन और जैसे युद्ध में दोनों ही अपनी जगह उपयोगी हैं ऐसे ही ये दोनों अपनी-अपनी परिस्थिति में उपयोगी हैं। इस जीव के साथ अज्ञान-वासना लगी हुई है, अभी सम्यक्त्व होने के बाद भी अविद्या के अभ्यास का संस्कार बना है। समाधितंत्र में इसे बहुत विस्तार के साथ कहा गया है। तो वह कभी विषय में उतरता है, गृहस्थी में रहता है, अनेक काम करता है, और कभी कोई खोटे भाव आ जायें तो उनके लिये ये क्रियायें करें, देवदर्शन करें, स्वाध्याय करें आदि षट्कर्म उसके लिए एक बचाव की चीज है, यहाँ मंदिर में आये, अथवा उपयोग चल रहा तो अनेक खोटी बातों से बच रहे, यह है व्यसन और पाप के आक्रमण से बचाव का उपयोग। अच्छा तो कर्म शत्रुओं का सीधा संहार कौन करेगा? यह शुद्ध तत्त्व की दृष्टि। जिसे कहो शुद्धोपयोग जहाँ जैसा जिसको प्राप्त है वह अपना उसके अनुसार निर्जरण करता है तो यह प्रतिक्रमण जो तीसरे दर्जे का बताया गया यह प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण दोनों के विकल्पों से रहित अखंड चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व की प्रतीति अनुभूति वाली स्थिति है। तो जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमण हैं याने प्रायश्चित्त, तपश्चरण, यह व्यवहार धर्म, ये सब दीक्षा साधना व्रत-पालन, और और भी जितने जो कुछ भी कार्य हैं ये समस्त शुद्धात्मतत्त्व सेवन के संबंध से अज्ञानियों के अप्रतिक्रमण विषरूप आपत्तियों का निराकरण करने में समर्थ हैं इसलिए प्रतिक्रमण को अमृतकुंभ कहा गया है।
1563- शुद्धांतस्तत्त्व के आश्रय की अमृतकुंभरूपता तथा द्रव्यप्रतिक्रमण में अमृतकुंभत्व की साधकता-
ग्रंथों में जो लिखा है वह ठीक है, द्रव्यप्रतिक्रमण अमृतकुंभ है, तो भी जिसको सहज चैतन्य स्वरूपमात्र अमृत तत्त्व का अनुभव न हो, प्रतिक्रमण आदिक से विलक्षण तृतीय भूमि ब्रह्मस्वरूप तुरीपयाद इसकी जिसको अनुभूति नहीं हुई, इस भूमि को जिसने नहीं देख पाया वह पुरुष अपना ही कार्य करने में असमर्थ है, याने उस सहज आनंद का अनुभव लेना, सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव करना, जिसके प्रसाद से भव-भव के बाँधे हुए कर्म दूर होते हैं, क्षय को प्राप्त होते हैं, उस कार्य को करना इसमें द्रव्यप्रतिक्रमण समर्थ नहीं। सो यदि उसने सहज अंतस्तत्त्व का अनुभव नहीं पाया तब तो यह अपराधी कहा ना, आत्म सिद्धि तो हुई नहीं, तब यहाँ यह द्रव्य प्रतिक्रमण विषकुंभ है और तीसरी भूमि, याने तुरीपयाद, चतुर्थ तत्त्व (बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा, ये तो हैं तीन पाद और चतुर्थपाद है ब्रह्मस्वरूप चैतन्यतत्त्व) इसकी अनुभूति यह स्वयं शुद्ध आत्मा की सिद्धि रूप है। शुद्ध आत्मा मायने पर से विविक्त अपने आपमें कैवल्य को लिए हुए जो स्वरूप है, स्वभाव है उसकी दृष्टि, आत्मा की प्राप्ति में समर्थ है, अत: सारे अपराध विषों को मूल से उखाड़ने में समर्थ है इसलिए साक्षात् अमृतकुंभ तो आत्मतत्त्व की अनुभूति है और फिर व्यवहार से द्रव्यप्रतिक्रमण में भी अमृतकुंभपने को यह ही सिद्ध करता है, जिसको इस शुद्ध अंतस्तत्त्व का बोध है, दृष्टि है, अनुभूति है, जो इसकी सेवा में रत है वह पुरुष जाय कहाँ? शरीर है ना? सो चलेगा, आहार करेगा, बोलना भी होगा, मौन भी रखेगा और कदाचित् इन बातों की विधियों में दोष लग गया तो उनका प्रतिक्रमण भी करेगा। इसका यह प्रतिक्रमण अमृतकुंभ है, इसको किसने सिद्ध किया? इस अंतस्तत्त्व की साधना ने सिद्ध किया, तो एक इस तृतीय भूमि के अनुभव से यह जीव निरपराध होता है, आत्मा के निरपेक्ष स्वरूप में अहं का अनुभव बने, इसी को कहते हैं तृतीय भूमि को देखना, इससे ही यह आत्मा निरपराध होता है। यह बात अगर नहीं है तो द्रव्य प्रतिक्रमण कितना ही किया जाय तो भी वह अपराध ही रहता है, अपराध मायने शुद्ध आत्मा की दृष्टि से अलग रहे। तो निरपराधपना कहाँ ठहरी? इस तृतीय भूमि में, चैतन्यस्वभाव की दृष्टि में, और द्रव्य प्रतिक्रमण क्यों कर रहे? इस ही चैतन्यस्वभाव की प्राप्ति के लिए। अब इस वर्णन से यह निर्णय रखना कि आगम का कथन प्रतिक्रमण का त्याग नहीं कराता कि भाई ! तुम क्यों तप व्रत करते? ऐसी बात नहीं कहता यह आगम, किंतु यह बतला रहा है कि हम केवल द्रव्यप्रतिक्रमण ही करेंगे, व्रत तप ही करेंगे और तृतीय भूमि का हम दर्शन न करेंगे, अपने शुद्धस्वरूप की सुध न रखेंगे तो आपके इन व्रत तप प्रतिक्रमणों से मोक्ष न हो जायगा। यह बात आयी तो इस ही पर यह आचार्यदेव कह रहे हैं कि इस विवरण को जानकर प्रमादी जीव मारे गए अर्थात् जो प्रमाद करने लगे थे उस निश्चय की दुहाई लेकर कि क्या रखा है व्रत में, क्या रखा है प्रतिक्रमण में, मौज से रहें, जैसा चाहे खाना, जैसा चाहे रहना, एक बात ही बात कर लें, गप्प कर लें एक शुद्ध जीव की, धर्म मिल जायगा, मुक्ति मिल जायगी सो बतला रहे कि ये प्रमादी जनहता: थे। मारे गए मायने ये प्रमादीजन मोक्षमार्ग में नहीं हैं, यह सिद्ध हुआ। अरे ! कौनसे प्रमादी मारे गए? जो सुख में, मौज में आसीन हो गए थे। उनकी स्वच्छंदवृत्ति का निराकरण किया। जो कुछ नहीं सोचते कि क्या करना? बस चर्चा मात्र, और उनकी यह चपलता, चित्त की चंचलता प्रलीन करा दी और आनंद को उन्मीलित किया याने इस तृतीयभूमि के लिए उन्हें प्रेरणा दी कि इनको तुम पावो। शुद्ध अंतस्तत्त्व को पाने का प्रारंभिक उपाय है कि तुम अपने व्यवहार को विशुद्ध करो और यह प्रक्रिया करते रहो भीतर अपने आपकी दृष्टि विशुद्धि रहे और यह न करोगे तो जो द्रव्य प्रतिक्रमण करते उससे कोई सिद्धि न होगी।
1564- प्रकृत प्रसंग में मोक्षमार्ग में प्रमाद न करने देने का आशय-
प्रमादी कौन? प्रमत्तविरत गुणस्थान में भी प्रमाद शब्द दिया इसका अर्थ क्या? जो मोक्षमार्ग का साधन है उसमें जो प्रमाद करे उसे कहते हैं प्रमादी। दोनों ही बातें आयी। शुद्ध तत्त्व का ध्यान न करे वह भी प्रमादी और शुद्ध तत्त्व की गप्प ही मारे और उसका प्रयोग न बनाये वह भी प्रमादी। जब तक संपूर्ण विज्ञान की उपलब्धि नहीं होती तब तक अपने में प्रयोग बनाइये। देखिये, धन के लाभ के लिए लोग झूठे काम करने के लिए भी हर घड़ी तैयार रहते, उनमें कोई काम सफल होता कोई नहीं सफल होता, पर सब कुछ अपना प्रयत्न करके उसके लिए तैयार रहते और अपने वास्तविक लक्ष्य को भूल जाते हैं। तो ऐसे ही अपने आत्मा का लक्ष्य है अपने अंतस्तत्त्व की उपलब्धि होना, उसमें ही रमना, ऐसी धुनवाला भव्य जीव बस यह करना और कुछ नहीं करना, उसका यह निर्णय रहता और है यह ही अनवरत करते बने तो अंतर्मुहूर्त में उनको मोक्ष हो जाता है, निरंतर धारा से यह बात बन सकेगी। परंतु यहाँ बन नहीं पाती। खूब देखते हैं अपने आपके स्वभाव में रमने की बात नहीं बनती तब क्या करना? इसका उत्तर है चरणानुयोग की प्रक्रिया। आज कोई अलग से सोचे कि क्या करना, यों भी करना, तो ऐसा सोचने का परिश्रम न करें, जो चरणानुयोग में उपाय बताया, आश्रयभूत पदार्थों के त्याग करने की जो विधियाँ बतायी वे हजार वर्ष लाख वर्ष, से परीक्षित निरीक्षित शुद्ध होती हुई अब तक परंपरा से चली आयी। अब नई बात कोई खड़ी करे तो उसका विशुद्ध रूप बन पायेगा या नहीं? इसे अभी कौन कहे, मगर उसके परीक्षण में सैकड़ों वर्ष चाहिए, तब यह निर्णय हो पायगा कि यह विधि, ये प्रवृत्तियाँ मोक्षमार्ग के लिए प्रतिकूल हैं या नहीं हैं? मगर जब सब कुछ तैयार भोजन रखा है, आत्मा का ज्ञान करो, ध्यान करो, आत्मा में रमो, ऐसी बात न बन पाये तो चरणानुयोग की विधि से अपनी प्रवृत्ति बनावें। देखिये, ये ढाल है चरणानुयोग का प्रवर्तन, जो कि अनेक उपद्रवों से इसको बचाकर रखेगा और अंतस्तत्त्व की उपासना- यह वह तीक्ष्ण शस्त्र है कि जिसके आगे भावकर्म, द्रव्यकर्म ये काँप जाते हैं और ये क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, तो अपनी उपयोगिता सब बातों की समझकर जैसे अपने आत्मा के उद्धार का काम बने ऐसा कार्य करना अपने को योग्य है।
1565- मोक्षमार्ग में प्रमाद न कर ऊँची-ऊँची गुणस्थितियों में आरोह करने का अनुरोध-
भैया, मोक्षमार्ग में प्रमादी न बनें, किंतु क्या करें और ऊपर-ऊपर चलते जायें, सीढ़ियों से गुजरें किसी सीढ़ी पर न ठहर जायें, प्रमादी न बनें, किंतु सीढ़ियों को पार करके एक के ऊपर एक चढ़-चढ़कर धीरे-धीरे सब सीढ़ियों के पार हो जायें और आ जायें ऊपर की मंजिल पर। क्या-क्या बात आती है, क्या-क्या स्थितियाँ बनती हैं, कैसे उनमें से यह गुजरना होता है, यह तो प्रयोग करने पर पता पड़ता है कि धर्ममार्ग में, चारित्रमार्ग में, रत्नत्रयविधि में, आत्म-उपासना में बढने वाले के सामने क्या-क्या परिस्थितियाँ हुआ करती हैं, क्या-क्या त्रुटियाँ हुआ करती हैं और कैसे उनका दोष निवारण करते हैं। एक मोटी-सी बात समझिये कोई दोष बन गया, कोई पाप बन गया और कोई ऐसा सोचे कि बंध जाने दो पाप, क्या हर्ज है, जहाँ स्वभाव कि दृष्टि की कि बस वह पाप यों ही खिर जायगा, तो उसका मन धर्म में न जगेगा, मन अंतस्तत्त्व की ओर न लगेगा, एक शल्य है यह। वह एक बार गुरु से निवेदन करे कि मेरे को यह दोष लगा, मुझे कोई प्रायश्चित्त दीजिए। उन्होंने कुछ मुख से कहा और इसने पूर्णरूप से मान लिया कि ऐसा कर लेने पर वह मेरा अपराध दूर हो गया। प्रायश्चित्त तपश्चरण किया कि विकल्प से दूर हो गए, शल्य न रहे, अब इसके लिए अपने स्वभाव में उतरने का, मग्न होने का उसे अब अवसर हो गया।
1566- शुद्ध अंतस्तत्त्व की सेवा के प्रयोग से तथ्यों का अनुभव-
भैया, सन्मार्ग में गमन का प्रयोग करें तब पता पड़ता है। और, बहुत दूर-दूर हो गए प्रक्रिया से, उस प्रयोग में न आये तो यह जैसा चाहे देखता है। जैसे मान लो सम्मेद शिखर जी के पहाड़ पर कोई जाना चाहता है तो जब वह कोई 8-10 मील दूर था तो वहाँ से ऐसा दिखता था कि यह तो जरा-सा ऊँचा पहाड़ है, देखो, इस पर कैसा वृक्षों का गद्दा सा बिछा है, इस पर अभी जरा-सी देर में चढ़ जायेंगे, पर जब वह पहाड़ पर चढ़ना शुरू करता है, कुछ ऊपर जाता है तब पता पड़ता है कि अरे ! यह तो बड़ा दुस्तर पहाड़ है। तो ऐसे ही उस अंतस्तत्त्व की साधना के लिए तैयार होइये, असुविधायें भी आयेंगी, अड़चनें भी आयेंगी, सरलतायें भी आयेंगी और सबको पार कर लिया जायगा। अगर एक धुन बन जाय कि मेरे को तो केवल एक अंतस्तत्त्व की उपासना ही करने का काम है, ऐसी धुन तो बने नहीं, और यहाँ-वहाँ अगल-बगल की बातचीत, अनेक तरह की गप्प- सप्प ये सब चलते रहे तो उससे काम न बनेगा। भीतर में तेज उमंग बने कि मेरे को तो इसके सिवाय और कुछ करना ही नहीं है तो वह वहाँ गति करेगा, बढ़ेगा, संयम होगा और उत्तरोत्तर वह एक अपने में आनंद पायगा और उस पूर्ति में वह भव्य जीव उस द्रव्यानुयोग की, चरणानुयोग की, करणानुयोग की, प्रथमानुयोग की साक्षात् साधना कर लेगा। वहाँ केवल लिखा, वह सब आपको यहाँ मिलेगा, तारीफ किस बात की है? अपने में अंत:प्रकाशमान शाश्वत सहज चैतन्यस्वभाव का परिचय होना, अनुभव होना, मूल में ठोस काम यह है, यह ठोस काम आया तो समझिये कि आगे हम अपनी सिद्धि और प्रगति बराबर करते चले जायेंगे। तो सब तरफ से बात सुनो और यह आपको बराबर निश्चय मिलेगा कि आगम में जहाँ-जहाँ जो-जो भी वचन कहे हैं वे सब सत्य हैं, उनमें एक भी बात असत्य नहीं है। चारों अनुयोगों के सभी वर्णनों में से जिन्हें कोर्इ वर्णन अप्रयोजन जँचता-सा हो, उनकी यह अवस्था का फल है। कोई भी वर्णन अप्रयोजनवान् नहीं है। स्वभाव दृष्टि में आवे, स्वभावाश्रय की झंकार हो, सब उपदेशों का प्रयोग हो, वह इस प्रकार करेगा। श्रद्धालु को आगमोपदेशों में स्वभावाश्रय की झलक आयगी याने सब जगह से स्वभावाश्रय की झांई मिलेगी।