वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 21
From जैनकोष
कथमपि हि लभंते भेदविज्ञानमूला-मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा ।
प्रतिफलननिमग्नानंतभावस्वभावै-र्मुकुरवदविकारा: संततं स्युस्त एव ॥21॥
222―सर्व उपायों से भेदविज्ञान की लभ्यता―जो भव्य जीव किस ही प्रकार से भेदविज्ञानमूलक, अचलित आत्मानुभूति को प्राप्त करते हैं वे सर्व कुछ जानकर याने अनंतज्ञानी बनकर वे दर्पण की तरह स्पष्ट अनंतकाल तक अविकार रहा करते हैं । यहाँ बताया है कि आत्मानुभव जो होता है वह भेदविज्ञानमूलक होता है, याने प्रथम भेदविज्ञान प्राप्त करें, प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से है अतएव किसी का अन्य किसी में प्रवेश नहीं है, किसी का किसी अन्य से संबंध नहीं । प्रत्येक में अन्य सबका अत्यंताभाव है । प्रत्येक पदार्थ का, एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में अत्यंताभाव है, तभी तो वे आज तक है । अगर कोई पदार्थ किसी पदार्थ से मिल सकता होता तने यह उसमें मिल गया वह इसमें मिल गया फिर यहाँ कुछ न दिखाई देता, सारा जगत शून्य हो जाता । सब पदार्थ अब तक बने हैं तो यह एक प्रमाण है कि प्रत्येक पदार्थ अपने रूप से सत् है, पर रूप से असत् । बस यही कुज्जी सब जगह लगाते जाओ, भेदविज्ञान बढ़ता जायेगा । ये बाहर पड़े हुए पदार्थ क्षेत्र में भी बाहर और अन्य सबसे भी बाहर और घर में रहने वाले परिजन या धन वैभव, ये भी बाहरी क्षेत्र से भी अलग हैं, अन्य हैं और चतुष्टय से तो अन्य हैं ही और अपने साथ यह हुआ बँधा हुआ शरीर यह भी स्वरूपदृष्टि से मुझ से अन्य है । मैं जीव हूँ, शरीर अजीव है । मैं अपने स्वरूप से हूँ, देह अपने पौद्गलिक स्वरूप से है, यह भेद जाने तब आत्मानुभव का पात्र होता है, और जिनके यह भेदविज्ञान नहीं जगा उनकी क्या स्थिति होती है । वे, अन्य की बात कहें तो जरा अत्यंत मूढ़ता की बात होगी । यों कहना कि देखो ऐसे अज्ञानी पड़े कि जो मकान को अपना मानते कि मैं एकमेक हूँ, इसकी चर्चा ही न करना चाहिए―क्योंकि यह तो इतने अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं, जो आबाल गोपाल के समझ में आ रहे, वे तो अत्यंत भिन्न हैं ही । मगर हम, इस समय यह है क्या? यह तीन पदार्थों का समूह है, यह पिंड, यह पर्याय । कौनसी वे तीन चीजें हैं? शरीर, कर्म और जीव । हम आप सबमें ये तीन बातें हैं जो एकक्षेत्रावगाह है, बंधनबद्ध है । हम कहीं जायेंगे तो ये तीनों बैठे हैं तो तीनों बैठे हैं । अभी आप से कहें कि देखो तुम शरीर तो नहीं हो ना? सो शरीर को तो वहीं पड़ा रहने दो, आप यहाँ जरा खिसककर आ जाइये । तो आप आ नहीं पाते, ऐसा बंधन है । फिर भी समझें कि यहाँ तीन जाति के पदार्थ हैं । एक के स्वरूप का दूसरे में अत्यंताभाव है । मैं जीव हूँ, देह पौद्गलिक है, कर्म पौद्गलिक है ।
224―अज्ञानी की देहात्मबुद्धि―अज्ञानी जीव ऐसा भी नहीं मान पाता कि जो यह देह है सो मैं हूँ । वह तो देहात्मबुद्धि करता । वह इतना भी भान नहीं रखता कि यह देह है और यह मैं हूँ । देखो इसमें भी अज्ञान में कमी हो जाती है । कोई ऐसा कहे कि यह तो देह है और यह मैं हूँ तो उसका पूरा अज्ञान न कहलायेगा, क्योंकि उसने कबूल कर लिया कि यह देह है और मैं कुछ हूँ । इसमें पूर्ण अज्ञान नहीं कहलायेगा । जो यह देह है सो मैं हूँ, ऐसा न कहकर देह में ही मैं का अनुभव करे । यहाँ है अज्ञान सारा । जैसे कोई कहता है कि मकान मेरा है तो इसमें कुछ बड़ा अज्ञान नहीं है । क्योंकि उसने समझा कि मकान मकान है और मैं मैं हूँ । मगर कोई मकान में ही ऐसा अनुभव करे कि मैं मकान हूँ तो यह सबसे बड़ा अज्ञान है । मगर ऐसा तो कोई नहीं करता । सबके प्रकाश चल रहा । मगर यहाँ मूल में देखो देह में अज्ञानी की ऐसी बुद्धि रहती है । यह देह मैं, ऐसा नहीं कहता यों ही इससे थोड़ा अज्ञान में कमी आ जायेगी, सो ऐसा नहीं कहता अज्ञानी । किंतु जो देह है सो ही हूँ ऐसा मानता है । यह तो ज्ञानी की भाषा में कह रहे हैं कि अज्ञानी ऐसा मानता है कि जो देह है सो मैं हूँ । यह ज्ञानी की भाषा है अज्ञानी की नहीं कि जो ऐसा सोचता है अज्ञानी कि जो देह है सो मैं हूँ, वह इस ही का अनुभव करता है देह का अलग भान नहीं । जैसे उदाहरण लो―एक घड़ा बना तो घड़े का आकार होता है कंबुग्रीवाकार । याने नीचे कम चौड़ा, बीच में ज्यादा चौड़ा और ऊपर फिर कम चौड़ा, इस प्रकार का आकार होता है घड़े का । तो अब जो आकार है, जो रूप है उस ही को निरखकर जैसे हम कहते घड़ा । ऐसा तो नहीं कहते कि घड़े में यह आकार आ गया, घड़े में यह रूप आ गया? नहीं । जो रूपसमुदाय है जो आकार है उसी को जैसे हम घड़ा बोलते हैं वैसे ही अज्ञानी जन इस देह को आत्मा बोलते हैं । पर कोई ऐसा समझकर नहीं बोलता कि यह देह है और यह मैं हूँ, इसमें अंधकार पूरा नहीं आया । अंधकार यहाँ बस रहा है कि जैसे ज्ञानी जन ज्ञानमात्र स्वरूप में मैं हूँ ऐसा अनुभव करते हैं ऐसे ही अज्ञानीजन इस देह में मैं का अनुभव करते हैं । देह में और आत्मा में एकत्व की बुद्धि तन्मयता की बुद्धि रखते हैं वे जीव आत्मा को जानेंगे क्या? आत्मा का अनुभव कर सकेंगे क्या?
225―भेदविज्ञानमूलक आत्मानुभव का कल्याणार्थी का सर्वप्रथम कर्तव्य―सर्वप्रथम कर्तव्य यह कह रहे कि किसी भी प्रकार भेदविज्ञान करना चाहिए । तत्त्वाभ्यास करके, पढ़कर, उपदेश सुनकर, मनन करके भेदविज्ञान का काम कर लेना चाहिए । यहाँ भी तो लोग जिस काम को जरूरी समझते हैं उसे पूरे तौर से पूरा करने का प्रयास करते हैं । तो एक आत्मतत्त्व को जानने के लिए हमें चारों ओर से प्रयास करना चाहिये । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश आदिक करके आत्मतत्त्व को जान लें । देखो ज्ञान को संकुचित बनाने का निर्णय अभी से न रखें कि हमको तो बस आत्मा की बात जानना है, और कुछ नहीं समझना । न कर्मों का स्वरूप जानना, उसमें न गुणस्थान मार्गणायें समझना । सो प्रमाद न करें इन्हें समझने से इस आत्मा की समझ और अधिक बनती है तथा जो इनको भलीभाँति नहीं समझता वह आत्मा को नहीं समझता । आपका परिचय बढ़िया कब होता जब, जान जायें कि आपका अमुक नाम है, अमुक जगह के हैं, अमुक परिवार के हैं―जब हम सब ओर से परिचय करते तो हम आपका पूरा परिचय पा लेते हैं और भीतरी परिचय भी पा लेते हैं, ऐसे ही आत्मा की जब सब बात समझ में आयेगी कि आत्मा के साथ इस शरीर का क्या संबंध बन रहा, कर्म का कितना बंधन है, एक साधारण तौर से कह दिया कि आत्मा कर्म से बंधा है । और विशेष ढंग से समझना कि जीव में कार्माण वर्गणायें हैं, शरीर पौद्गलिक चीज है, कर्म में प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग की परिणति आ जाना यह उनका एक काम है । और वह कैसा अनुभाग होता है, उसका उदय होता है तो कर्म में क्या बात होती है, किस तरह की स्थिति होती है और उसका सन्निधान पाकर जीव में क्या नैमित्तिक दशा होती है, यह सब परिचय जब होता है तो आत्मा और अनात्मा का बहुत विशद परिचय होता है । उन विभावों से उपेक्षा होती है । औपाधिकभाव है । सर्व परिचय के कारण अनात्मतत्त्व से हटकर आत्मतत्त्व में लगना यह सब शिक्षा मिलती है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग सभी का यही उपदेश है कि अनात्मतत्त्व से हटकर आत्मतत्त्व में उपयुक्त होना । हटना और लगना ये दो बातें करना है । विभावों से हटना और स्वभाव में लगना । तो देखो लगने की कुंजी है निरखना आश्रय करना । और हटने की कुंजी है असारता समझना । जो पुरुष विभावों को अपनी चीज न समझेगा, विभावों को परभाव समझेगा, आत्मा से पृथक चीज समझेगा लावारिस समझेगा, पौद्गलिक चीज समझेगा, वह इन विभावों को असार जानकर उनकी अपेक्षा कर देगा, और स्वभाव को अपनी चीज समझकर उसमें लगने का काम करेगा । हटना और लगना ये दो काम पड़े हैं । विभाव से हटना, स्वभाव में लगना । यह बात कब बनेगी जब भेदविज्ञान प्रकट होगा । तो भेदविज्ञान से क्या-क्या समझना? जितने परमत् हैं जितने पर पदार्थ हैं उनसे तो निराला हूँ ही मगर परपदार्थ का सन्निधान पाकर आत्मा में जो परिणति बनती है उस परिणति से भी मैं निराला हूँ । किसका लक्ष्य किया तब समझा कि मैं निराला हूँ? एक निरपेक्ष सहज चैतन्यस्वरूप का । बस वह मैं हूँ, इसके अतिरिक्त जो हम में अन्य भाव आते हैं, परभाव आते हैं, परभाव होते हैं वे मैं नहीं हूँ । भेदविज्ञान करें । सार बात आत्मानुभव है ।
226―कषायों की मंदता का प्रभाव―आत्मानुभव के लिए कषायों का बलिदान करना आवश्यक है? देखो भेदकषाय रहेंगे तो उसका प्रताप यह होगा कि अनंतानुबंधी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, जो सम्यक्त्व घाती कर्म प्रकृतियां है उनका उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अवस्था होती है । आखिर कर्म और जीव दोनों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है । आत्मा के मंदकषाय तत्त्वाभ्यास आदिक का निमित्त पाकर ऐसे सद्भावों का निमित्त पाकर कर्मों में उपशम आदिक अवस्था बनती है और कर्मों का उपशम आदिक अवस्था का निमित्त पाकर जीव में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । आखिर कोई एक ओर से निमित्तनैमित्तिक नहीं है, यह कर्म की ओर से ही है इतना ही नहीं और जीव की ओर से भी है अन्यथा कर्मक्षय होता है इसका क्या कारण है सो बताओ? इसलिए कोई ऐसा प्रमाद करे कि हमें कषायमंद करने से क्या फायदा? त्याग करने से क्या फायदा? व्रत उपवास करने से क्या फायदा? सम्यक्त्व होगा । तो अपने आप संयम चारित्र आदि हो बैठेगा । इनका नंबर तो बाद में आयेगा, ऐसा सोचकर प्रमाद करें तो सम्यक्त्व होना भी मुश्किल हो जायेगा क्योंकि सम्यक्त्व के निमित्त है 7 प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम । उनका निमित्त है तत्वाभ्यास करना, धर्मवात्सल्य करना, विनय करना आदिक जो सद्भाव है वह कर्म की शांतता का कारण होता है, उन कारणों को तो कर दिया अलग सोच डाला जो होना होगा सो हो लेगा इससे फायदा क्या है, तो बताओ शुरूआत कहाँ से करे फायदा सबसे है? हाँ किसी के अज्ञान है, मिथ्यात्व है अव्वल तो कोई जानता नहीं जैसे बड़े-बड़े मुनियों को कभी वे बड़ा तपश्चरण भी करते पर कहो उनके सूक्ष्म मिथ्यात्व रह जाये, वे तक भी नहीं जानते तो एक तो इसका पता नहीं, लेकिन अज्ञान भी हो, मिथ्यात्व भी हो और कोई मंद कषाय करे, व्रतपालन करे, कुछ त्याग वृत्ति आये, इसके बिना गुजारा किसी का नहीं होता, तो उसमें मंद कषाय होने से उसे फल तो कुछ मिलेगा । तत्काल फल तो यह है कि पुण्यबंध होता, उसको अच्छी गति मिलती । हाँ मोक्षमार्ग नहीं मिलता, पर धर्ममार्ग में लगने का अवसर तो मिलता । तो शुभ में अशुभ की अपेक्षा नुकसान ही पड़ता ।
227―व्रत संयम के पालन का प्रभाव―कोई कहे कि जो व्रत पाले सो अज्ञानी है, ऐसी बात चित्त में न रखना । जिससे जितना व्रत संयम बने सो करे । हाँ अगर कोई अज्ञान अवस्था में करता है तो उसके मोक्षमार्ग की बात तो न बनेगी, मगर उसके वे व्रत, तप, संयम काम में न आयें सो बात नहीं । मानो एक अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ पुण्य के प्रताप से और अच्छे कुल में धर्म का वातावरण मिला तो आज मोक्षमार्ग का लाभ नहीं है, पर आगे तो हो जायेगा, और उसका जो मंद कषाय रूप परिणाम है उससे उसे तत्काल संतोष होता । जो अपनी कुल परंपरा है, समय-समय पर व्रत विशेष करना, त्याग करना, अष्ट मूलगुण धारण करना, सप्त व्यसनों का त्याग करना, हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों का त्याग करना, इन बातों में यह न समझें कि व्यवहार की बातें हैं इसलिए झूठ है । या जब सम्यक्त्व नहीं है तब व्रत करना पाप है, व्यर्थ है, झूठ है, ऐसी बात चित्त में न लायें । जितना बने करें, भीतर में तत्त्वाभ्यास करके आत्मा और अनात्मा के बोध का उद्यम तो करना ही है और बाहर में, अपने शांतिपथ के पथिक श्रावकजन अष्टमूल गुण में बढ़े । सप्तव्यसन का त्याग, रात्रिभोजन का त्याग, गुरुजनों के प्रति विनय का भाव, उनसे घृणा न करना, उनके प्रति भीतर में प्रमोद बनाना, जैसे बने उन गुरुजनों की सेवा आदिक करना ये सब व्यवहार धर्म के काम हैं । इन व्यवहारधर्म के कामों में कोई लगा रहेगा तो वह कभी अपने हित का अवसर तो पा लेगा । जैसे हम आज कुछ जानकार हुए इस निश्चय तत्त्व के समझने वाले हुए हैं, आत्मा का निरपेक्ष सहज स्वरूप क्या है, तो यह स्थिति आप बताओ क्या कम होते ही पा ली थी? अरे क्या बचपन में माता पिता के साथ मंदिर में न आते थे? क्या माता पिता जैसा विनय न करते थे । प्रभु के समक्ष, क्या हम आप बचपन में माता पिता की नकल न करते थे? धीरे-धीरे बड़े हुए, कुछ विशेष ज्ञान बढ़ा, फिर और विशेष ज्ञान बढ़ा । आज कोई पंडित हुआ, त्यागी हुआ, ज्ञानी हुआ, जिसने जितना ज्ञान पाया वह बचपन से ही सीखते-सीखते आज इस स्थिति में आया ना । तो ऐसे ही सबको रीति बताओ, पाप त्यागो, अपने आत्मा का स्वरूप पहचानो, अंतस्तत्त्व पहचानकर फिर आगे मोक्षमार्ग का कार्य करो, जिसमें जीवन की सफलता है ।
228―आत्मानुभव से दुर्लभ नरपर्याय के क्षणों की सफलता―यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि किसी भी प्रकार हो, आत्मानुभूति प्राप्त कर लें । यह आवश्यक है कि यह निर्णय बनावें कि जितने भी पदार्थ हैं वे सब अत्यंत अन्य सबसे पृथक् हैं । जीव कितने हैं? अनंतानंत । पुद्गल अणु कितने हैं? अनंतानंत । धर्म द्रव्य कितने हैं? एक, जिसको अन्य दार्शनिकों ने पहचान ही नहीं पाया कि धर्म द्रव्य क्या होता । अधर्म द्रव्य एक । काल द्रव्य असंख्यात । आकाशद्रव्य एक । इन सबमें एक द्रव्य चाहे सजातीय हो चाहे विजातीय हो, याने एक जीव पुद्गल आदिक समस्त द्रव्यों से भिन्न है, प्रत्येक परमाणु अन्य सबसे भिन्न हैं, अस्तित्व उसका सबसे निराला है । प्रत्येक परमाणु जीवादिक समस्त पदार्थों से न्यारा है । जो सत् है वह अपने स्वरूप से है पररूप से नहीं है । जब ऐसी बात है तब यह बुद्धि क्यों लगाते कि हमने किया । एक परमाणु का दूसरा है क्या कुछ? एक परमाणु का जीवादिक है क्या कुछ? एक जीव का अन्य कोई है क्या? एक का दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसी बात दृष्टि में आये तो वह ज्ञानप्रकाश है और वह सम्यग्ज्ञान प्रकाश का विकास है, मैं जीव हूं, ज्ञानमात्र हूं , इसी को सोचें, तो अन्य सब कुछ भूल जायेंगे । मैं देह नहीं हूँ, मैं ज्ञानमात्र, ज्ञानघन आनंदस्वरूप हूँ । किसी ने क्या उसको पकड़ा? क्या इसको कोई देख सकता है? क्या इसका कोई नाम है । देखो दिखने में यह आता नहीं, नाम इसका है नहीं, और नाम भी इसका है तो वह नाम है जो सबका नाम है । इसका अलग करके नाम नहीं है । तो भला जिसका कुछ अलग से नाम नहीं है, जो दिखता नहीं है इस मेरे का कोई दूसरा पदार्थ क्या बिगाड़ करेगा? दूसरा जीव क्या बिगाड़ करेगा? बिगाड़ तो हम अपने आप अपना करते हैं, क्योंकि दूसरे लोग मुझे देखते नहीं और मुझे जानते नहीं । तो दूसरे से मेरे में क्या बिगाड़ हो सकता? बिगाड़ होता है खुद की कल्पना में । जान लिया, अरे इतने लोगों के बीच मुझे अमुक ने यों कह डाला, देखो उसकी दृष्टि सब ओर भ्रांत बन गई । इन लोगों ने, इनके बीच में, मुझको? न वे लोग इसे पहचानते, न इन लोगों के बीच में उनकी पहचान न अपने की पहचान, और क्या कह दिया, न उसकी पहचान । वस्तु की सही पहचान कुछ है नहीं और घबराहट सारी बन रही । जब जान लिया जाये कि प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से सत् हैं, किसी का किसी से संबंध नहीं, ऐसा जो ईमानदारी से जाने, अभी से पक्ष को छोड़े, वास्तविक मैं में मैं का ही अनुभव करे और उस अंतस्तत्त्व के, उस मैं के विकास में जो लगें उन्हें इस ही आत्मत्व के नाते से देखना चाहिये और जिसने उस आत्मस्वरूप का विकास किया है वह आत्मत्व के नाते से उस विकास में भक्ति करेगा ।
229―आत्मत्व के नाते से आत्मज्ञ की देव गुरु में भक्ति―आत्मत्व के नाते से है आत्मविकास करने वाले की प्रभु में भक्ति । इस नाते से पंच परमेष्ठियों का आदर है न कि हमने जिसे मान लिया, हमारा तो वह है और कोई नहीं । इस नाते से जो चलता है उसने अपने को कुछ अनुभवा ही नहीं और न वह अपने सहज स्वरूप के अनुभव को कर सकता है । आत्मत्व का नाता देखो, व्यक्तित्व का नहीं । णमोकार मंत्र में व्यक्ति को नमस्कार नहीं है, णमोकार मंत्र में गुण को नमस्कार है, आत्मविकास को नमस्कार है । तो आत्मविकास के नाते से अपना धर्म में कदम बढ़ाइये धर्म ध्यान बढ़ावें, व्यक्तित्व के नाते से नहीं, तब ही हम आत्मानुभव के पात्र बन सकते ।
230―आत्मज्ञता के अभाव में नरजीवन की सफलता―इस दुर्लभ जीवन में यदि आत्मानुभव की पात्रता न बन सकी, आत्मानुभव न बन सका तो यहाँ भी कल्पित स्वजनों के प्रति जो सब भवों में करते आ रहे थे उसी अनर्थता में यह भव भी व्यर्थ गमा दिया जायेगा । जैसे एक दृष्टांत में कहा है कि कोई एक अंधा सिर का खुजैला चला अपनी आजीविका चलाने के उद्देश्य से एक नगर की ओर । वह नगर चारों ओर कोट से घिरा हुआ था । उसमें कोई दो या चार दरवाजे थे, जिनसे उस नगर के अंदर प्रवेश हुआ जाता था । तो वह अंधा कोट की दीवाल पकड़ कर उसके किनारे-किनारे चलता जा रहा था । वह जानता था कि जब हमें फाटक मिल जायेगा तो देश नगर में प्रवेश करके अपनी आजीविका चलायेंगे । पर हुआ क्या कि वह पैरों से तो बराबर चलता जाता, चलना बंद नहीं करता, पर ज्योंही दरवाजा आता त्योंही वह सिर की खाज खुजाने लगता । चलना बराबर जारी रखता । आखिर दरवाजा निकल जाता । वह सिर का खुजैला अंधा नगर के अंदर प्रवेश न कर सका । ठीक ऐसी ही दशा इन मोही अज्ञानी जनों की है । इनके विषय और कषायों की खाज लगी है । ये खाज खुजाने वाले लोग जब खाज खुजाते हैं तो उन्हें ऐसा लगता कि दुनिया का सारा आनंद इस खाज खुजाने में है, वह एकतान होकर कुछ आनंद विभोर सा होता हुआ खाज खुजाता है और जैसे ही खाज खुजा चुके तो उसके बाद बड़ी वेदना होती है । तो जैसे उस वेदना भरी खाज के खुजाने में भी लोग बड़ा मौज मानते ऐसे ही इन विषय भोगों की खाज को खुजाने में भी ये बड़ा मौज मानते, पर ये विषय कषाय भोगने के बाद फिर क्या होती है इस जीव की दशा सो तो विचारो । बड़ी खराब दशा हो जाती है सो सब जानते हैं । तो यह जीव जैसे विषय कषायों की खाज खुजाता आया अनादिकाल से, वही खाज इस भव में भी खुजाया, निष्पक्ष न हो सका । आत्मत्व का नाता न रख सका अपने चित्त में और देखिये कुछ धर्म का वेश रखकर भी केवल एक व्यक्तित्व का ही पक्ष रखा तो वह आत्मानुभव का पात्र नहीं है नहीं है, नहीं है । क्योंकि भीतर में एक शल्य लगा रखी वह शल्य आत्मानुभव नहीं होने देती । उस शल्य को मिटावें, आत्मस्वरूप को देखें ।
231―सहज परमात्मतत्त्व के नाते का प्रसार―भैया ! आत्मत्व के ही नाते से जगत के जीवों को देखें । पंच परमेष्ठी के पदों का आधार क्या है, जिसने आत्मविकास इतना किया कि अरहंत हुए इतना किया कि मुनि, इतना किया कि सिद्धपद को प्राप्त किया । इस तरह आत्मतत्त्व के विकास के नाते से पंचपरमेष्ठी की भक्ति जगे और समस्त प्राणियों में मैत्रीभाव जगे तो वह प्राणी आत्मानुभव कर सकता है । इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक पदार्थ का सही स्वरूप जानें, भेदविज्ञान उत्पन्न करें, उसके आधार पर फिर अभेद आत्मा का अनुभव करें, आत्मानुभव की प्राप्ति होगी । उस आत्मानुभव का क्या स्वरूप है? अधिक नहीं कहा जा सकता । वह तो एक अनुभव की चीज है । अगर कुछ शब्दों में कहें तो इतना कह सकते कि वह एक निराकुल, निर्विकल्प ज्ञानानुभव की स्थिति है । उसको जो लोग किसी प्रकार प्राप्त कर लेते हैं वे स्वभावत: ही, ऐसे सदा निर्विकार रहते, और उनका स्वभाव क्या बन जाता है कि परमात्मतत्त्व की स्थिति में समस्त ज्ञेय, तीन कालवर्ती समस्त पदार्थ प्रतिफलन में निमग्न हो गए मानो अनंत पदार्थ, ऐसा उनका स्वभाव चल रहा । परमात्मा उस स्वभावरूप रहता है फिर भी दर्पण में जैसे कितने ही प्रतिबिंब आयें पर दर्पण गंदा नहीं बनता । दर्पण में कीचड़, आग, धूल, रंग आदि सबके फोटो आ रहे इतने फोटो आने पर भी दर्पण अपने स्वच्छ स्वभाव को नहीं तजता । वह दर्पण सारे प्रतिबिंब होनेपर भी निर्विकार है इसी प्रकार जगत में परमात्मा में सब पदार्थ प्रतिबिंबित हो रहे हैं याने सबको जान रहे हैं, ज्ञेयाकार परिणमन चल रहा है फिर भी वे अविकार हैं, क्योंकि मोह की वहाँ संभावना नहीं है, उससे वे दूर हैं इसलिए वे निर्विकार हैं ।