वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 22
From जैनकोष
त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीनं, रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।
इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेक:, किल किलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम् ॥22॥
232―अनादि से अज्ञानवशीभूत जीव का मोहास्वाद में रमण―इस जीव ने जन्म से, जन्म से ही क्या, जब से जीव का जन्म हुआ, क्या कभी जन्म हुआ? नहीं । जब से जीव का सत्त्व है । क्या कभी सत्त्व हुआ? नहीं । अनादि से ही सत्त्व है । तो इस जीव ने अनादि से ही मोह का स्वाद लिया । क्या कर रहा यह? पर्याय-पर्याय में मोह का ही स्वाद लिया । पंचेंद्रिय के विषयों का सेवन, वहाँ भी मोहयुक्त होकर सेवन किया । यह भी न जान पाया कि कोई भी जीव परपदार्थों का सेवन कर ही नहीं सकता । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कभी अनुभव करता ही नहीं । हाँ इस समय एक बद्ध दशा है और इस समय जो एक परिस्थिति बन गई है कि हम इंद्रियों से इन खिड़कियों से ही जान सकते हैं, ऐसी ही हालत है कि इंद्रिय द्वारा बाह्य पदार्थों के रसस्वाद का ज्ञान किया जा रहा है, बस उस स्वाद में, उस विषय में इसको मोह है । यह ही मैं हूँ, उससे पृथक् नहीं मानता । ऐसा यह अपना ही विभाव चखता चला आया है । बाह्य पदार्थों को तो यह परख नहीं सकता किंतु अपने ही विभाव का स्वाद लेता आया है, मौज लेता आया है । ऐसी इस जीव की दशा आज भी है । थोड़ा बहुत धर्म की बात भी सोच लिया तो उस धर्म के प्रसंग में भी मोह का स्वाद लिया जा रहा है । इस विढंगी रीति से संसार में भ्रमण करते चले आये हैं । तो सबसे भिन्न ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व है, यह ही मेरे लिए आराध्य है, यह ध्यान में रखें और उस अंतस्तत्त्व की जो-जो भावना बनाये, साधना बनाये वह-वह मेरे लिए साधने योग्य है ऐसा ही निश्चय करें । कभी इस जीव की भावना भी हो कि मुझे कल्याण चाहिये तो वहाँ भी समीचीन तरीके से नहीं चल रहा जीव । कभी इस मजहब में गया, कभी इस पार्टी में गया, बस वही मेरा आराध्य है, वही मेरा धर्म है यह दुराग्रह रहा । अंतस्तत्त्व ही मेरे लिए आराध्य है यह बात खतम हो गई । अंतस्तत्त्व का अर्थ है सहज निरपेक्ष निज स्वभाव । सो अंतस्तत्त्व का विकास करने वाला जो आश्रय है उसकी दृष्टि खतम हो गई, क्योंकि जहाँ पक्ष है, किसी पक्ष से मोह है वहाँ अंतस्तत्त्व की सुध नहीं होती । फिर वह द्वैत क्यों हुआ? कोई घृणा के योग्य है, कोई पूजने के योग्य है, कोई इष्ट हैं, कोई अनिष्ट है । इसे कहते हैं व्यावहारिक औपचारिक । इस मुद्रा में रहने वाले को द्वैत बुद्धि क्यों जगी? मोह का स्वाद लिया जा रहा है, इसी तरह अन्य जीव जिनको आत्मा की बात ही नहीं मालूम, जिन्होंने धर्म की बात ही नहीं सुना वे मोह-मोह में ही सने हैं । इस जीव ने अब तक किया क्या? अनादिकाल से एक मोह का ही स्वाद लिया । मोह को ही चाटता रहा । लीढ शब्द लीड् धातु से बनता है और लीढ शब्द का अर्थ बताया गया चाटना । आज तक इस जीव ने ऐसा ही किया । आचार्य देव कहते हैं अरे भाई इस मोह के चाटने का ही स्वाद अब तक तू लेता रहा, पर बता तुझे अब तक शांति मिली कि नहीं । अरे इस मोह के स्वाद में तो कल्पित सुख ही मानता रहा । इसको वास्तविक सुख मिले तो फिर दुःख के उपभोग की चेष्टा ही न हो । मगर यह तो एक कल्पित सुख जो इस समय की परिणति है उसकी ही बार-बार ये वासना बनाते हैं, मोह का स्वाद लेते हैं, बस उसी का स्वाद लेते हैं । इस मोह के स्वाद में कुछ सार नहीं, स्वाद तो उस ज्ञान का लेना चाहिये जो ज्ञान के रसिक पुरुषों को रुचता है । अन्य जीवों को जिन्हें आत्मा के प्रसंग की कुछ बात ही नहीं मालूम वे धर्म के नाम पर कुछ नहीं बढ़ पा रहे । वे तो महा मोह से ग्रस्त हैं, इस जीव ने अब तक क्या किया? अनादिकाल से यह जीव मोह-मोह का ही स्वाद लेता रहा ।
233―मोह का स्वाद छोड़कर सहजज्ञानस्वभाव के अनुभव का स्वाद लेने का उपदेश―भैया यदि हित चाहते हो तो विचार कर इस मोह के चाटने में, स्वाद लेने में अगर शांति मिल पायी हो तो बता । कल्पित सुख भी अगर मिला होता तो अब तक तो बहुत अधिक सुख मिल जाना चाहिए था, क्योंकि अनंतकाल बीत गया इस मोह का ही स्वाद लेते हुए । सो, यद्यपि यह एक क्षण की परिणति हैं तो भी बार-बार ये मोही उसी की वासना बनाते हैं, मोह का स्वाद लेते हैं । इस मोह के स्वाद में सार कुछ नहीं । हे भव्य, उस ज्ञान का स्वाद लीजिये जिसे ज्ञान के रसिक पुरुषों ने चखा है । परम स्वाद इस ज्ञानवृत्ति में ही है । ज्ञान का स्वाद लो, आचार्य संतों ने उस ज्ञान का स्वाद लेने का उपाय बताया है । एक यह श्रद्धान हो कि मैं आत्मा ज्ञानमात्र हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ । न कोई परपदार्थ मैं हूँ, न शरीर मैं हूँ, न कषाय मैं हूँ, न विभाव मैं हूँ न कषाय और विभाव । ये मलीन पर्याय क्यों कहलाते? यों कि ये सब पौद्गलिक कर्म की छाया हैं, ये पौद्गलिक हैं, नैमित्तिकभाव हैं औपाधिक हैं, ये मैं नहीं हूँ, इन परभावों से हटने में निमित्तनैमित्तिकभाव का परिचय बड़ा सहयोगी होता है । ये परभाव हैं, ये स्वभाव कैसे हो सकते? स्वभावदर्शन के लिए निमित्तनैमित्तिक योग का परिचय बहुत आवश्यक है? इस परिचय से बन जायेगा शुद्धनय, क्योंकि परभाव से हटना व एक सहजस्वरूप के अभिमुख होना यह अभिप्राय बनता है निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय का, जहाँ गुणभेद नहीं, पर्यायभेद नहीं, अखंड अनन्य ऐसा शुद्धनय का विषय यह ही सहजपरमात्मतत्त्व है । शुद्धनय में केवल अखंड चैतन्यभाव ही आता है, यह ही ज्ञानमात्र का भाव है जो ज्ञानानुभूति है वह शुद्ध आत्मानुभूति है ।
234―अपने परमशरण की गवेषणा―इस जीव का रक्षक कौन है? शरण कौन है? सर्वस्व कौन है, इसका परमपिता कौन, परम शरण कौन, जिसकी बाँह पकड़कर, जिसकी छाया में रहकर, जिसका ध्यान रखकर, जिसकी सेवा करके संसार के सारे संकट हमारे कट सकें? वह परमशरण है अपने आपमें विराजमान अपना सहज चैतन्यस्वरूप । उस स्वरूप को पाने का उपाय क्या है? कुछ तो तत्त्वबोध चाहिए और फिर यह परख चाहिए कि संसार के समस्त पदार्थ सभी परभाव ये सब मेरे लिए बेकार हैं, इनसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं बनता, इनसे मैं निराला हूँ । तो उन सबको छोड़कर, उन सबके मोह को त्यागकर जो अपने आपमें ज्ञानमात्ररूप से अनुभव करे वह पायेगा अपने अंदर कुछ । यों तो लोग अपनी सुख शांति के लिए ईश्वर की खोज करते हैं । अरे जिसने जो समझा है वहाँ अपने नेत्र गड़ाकर अपनी बुद्धि माफिक जिस रूप में समझा है उस रूप में वह आराधना करता है । मगर भीतर निहारो तो जरा―बाहर चाहे कोई कुछ करे, पर जब तक भीतर में मोह रागद्वेष न मिटेगा तब तक शांति पाने के पात्र नहीं हो सकते । रागद्वेष मोह कब मिटेंगे, जब रागद्वेष मोहरहित स्वरूप चिंतन में आयेगा तो मिटेगा मोह, अन्यथा जैसे कोई किसी धनी पुरुष का साथ करता है तो उससे वह कुछ धन पा लेता है, वैसे ही कुछ पा लेगा मगर उससे रागद्वेष मोह तो नहीं मिटते । जैसे कोई बड़े धनी से मिलकर, अधिकारी से मिलकर, राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से विनय कर लिया इसी तरह एक ईश्वर से विनय कर लिया इस रूप में देखा कि वह शस्त्रधारी है, वह स्त्री वाला है, बच्चों वाला है, वह यहाँ वहाँ की घटनाओं में दिलचस्पी रखता है, अनेक लोगों का उद्धार करता है, संहार करता है, इस तरह की आराधना की तो उससे कहीं राग, द्वेष, मोह तो न दूर हो जायेंगे । ईश्वर तो वह है जिसके रागद्वेष मोह नहीं, जो केवल जाननहार है, जो अपने अनंत आनंदरस में लीन है, जिसके ध्यान के प्रसाद से ये स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं ।
235―प्रभुस्वरूप के सम्यक् ध्यान के प्रसाद से स्वयमेव समृद्धि का लाभ―यह नहीं है कि वह भगवान हम पर प्रसन्न हो तब हमें सुख सुविधा मिलेगी यह भी नहीं है कि वह भगवान मुझसे रूठ जाये तो मुझे दुर्गति मिलेगी । अरे हम ही अगर एक सही स्वरूप की दृष्टि से इस भगवान को निरखते हैं तो अपने आपको सद्गति का पात्र बनाते हैं, और हम ही अगर प्रतिकूल चलते हैं, बिगड़ते हैं तो हम ही स्वयं दुर्गति के पात्र होते हैं । जो दर्पण के सामने मुख करेगा उसको अपना चेहरा अपने आप दिख जायेगा, जो दर्पण की ओर पीठ करेगा, दर्पण से प्रतिकूल चलेगा वह दर्पण में अपना मुख कैसे देख सकेगा? तो परमात्मस्वरूप के अनुकूल अपना ध्यान बने, वह ज्ञानानंदरस लीन है, इस रूप की आराधना करें तो अपने आपके स्वरूप की आराधना बनेगी । यदि ऐसा माना जाये कि कोई पुरुष ईश्वर या अन्य कोई या देवी देवता मुझे सुख दुःख देता है, सद्गति दुर्गति करता है तो बताओ यहाँ जो लोग अन्याय, चोरी, हिंसा आदि पाप करते हैं ऐसा अनुचित काम, पाप का काम करना क्या ईश्वर का काम है? अरे वह तो बड़ा पुरुष है । उससे तो आत्मोद्धार मिलना चाहिए । जैसे एक माँ अपने कपूत बालक के प्रति भी उदारता का भाव रखती है चाहे बह बालक कैसी भी गलती कर दे, मां का हृदय यही चाहता कि उसे तो बालक के प्रति उदार रहना चाहिए । चाहे वह अपनी माँ को कष्ट भी दे । ऐसे ही ईश्वर को भी उदार रहना चाहिये, वह तो दयालु बनकर सबको सुख दे । तो वहाँ कहना पड़ता है कि जो जीव जैसे कर्म करता है उसके अनुसार वह फल देता है । अब इतनी बात सही रही कि जीव को जो कुछ फल मिलता है सुख अथवा दुःख वह अपने-अपने कर्म के अनुसार मिलता है । इतना तो सब लोग मान लेंगे चाहे वे ईश्वर को कर्ता मानने वाले ही क्यों न हो । मगर वस्तु में स्वयं ऐसी योग्यता है, ऐसा निमित्तनैमित्तिकभाव है कि उस रूप से यह व्यवहार चलता है । इसलिए भी इतना तो निश्चित है कि संसार का सुख दुःख अपने कमाये हुए पुण्य पाप के अनुसार होता है । बात तो ठीक कही गई । अब विवाद इसमें रहा कि वह फल देने वाला दूसरा है कौन? तो देखो जब हम यहाँ पदार्थों में आसक्त हैं कि ऐसा-ऐसा संयोग बन गया तो देखो इन पदार्थों की यह हालत बन गई । कागज पर तेजाब का संयोग बन गया तो झट कागज जल गया । कपड़े पर तेजाब लग गया तो वह जल गया । एक बड़ा गजब विषय परिवर्तन निमित्तनैमित्तिक रूप से आ गया । निमित्त नैमित्तिकभाव से देखो तो संयोग होते ही निमित्तनैमित्तिकभाव के अनुकूल वे सब बातें प्रकृत्या चल रही हैं, और जो स्वभाव परिणमन है, उसमें निमित्तसन्निधान की बात होती ही नहीं क्योंकि वह अनैमित्तिक परिणाम है । तो संसार के सारे काम―“होता स्वयं जगत परिणाम,” इस रूप से सब पदार्थ अपने आपमें अपनी परिणति से परिणमते हैं । अगर कोई उस अयोग्य है पदार्थ तो अनुकूल निमित्त को पाकर विकार रूप परिणम जाता है । इस प्रकार यह जगत की सब सृष्टि होती है । प्रभु का सम्यक् ध्यान होने से निर्मलभाव होते अत: समृद्धि होगी ।
236―स्वयं में स्वयं के परमपिता व परमशरण का वास―अपना शरण कौन है? किसका सहारा लें तो शांति मिले? देखो यह खास समस्या है? सभी लोग चाहते हैं कि हमको शांति मिले । पर देखो शांति परिवार में मोह रागद्वेष रखने से नहीं मिलती । राग परिणाम स्वयं दुःखरूपता को लिए हुए है । कोई चाहे कि राग करके हम आनंद पायें तो उसका सोचना ऐसा है कि जैसे कोई चाहे कि खून का दाग खून से ही धो लें । तो जैसे खून का दाग खून से धोने पर मिट नहीं सकता, इसी तरह राग द्वेष मोह करके कोई चाहे कि मैं शांत हो जाऊँ तो यह बात तीन काल में नहीं हो सकती । क्यों अपना समय व्यर्थ गमा रहे । रागद्वेष मोह में बढ़-बढ़कर कभी भी शांति नहीं मिलने की । शांति जिन्हें मिली है उनको अपने आत्मस्वरूप में उपयोग बसाने से मिली है । शांति पाने का यह ही उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं । तो जो मेरे को आनंद पैदा करे, मेरे को संकटों से बचाकर सद्गति अथवा उत्तम गति में पहुँचा दे ऐसा वह परम शरण, परम पिता, रक्षक हमारा कौन है? हमारे निज में बसने वाला सहज स्वरूप । लोग कहते हैं कि भगवान घट-घट में बसा है, पर घट-घट में क्या बसा है, कैसा बसा है? कौन बसा है? क्या कोई एक अलग है जो प्रत्येक घट-घट में बसा हो? और इसका अर्थ है । घट-घट मायने शरीर-शरीर । प्रत्येक शरीर में भगवान बसा है । वह एक भगवान नहीं बसा । जितने जीव हैं सब भगवान स्वरूप वाले हैं । सबका भगवत् स्वरूप है, बस उनमें उनका सहज परमात्मा स्वरूप बसा हुआ है । अच्छा बताओ दूध में घी बसा है कि नहीं? देखने में तो ऐसा ही लगता है कि दूध-दूध ही दूध में है दूध में घी का नाम नहीं, पर पारखी लोग तो दूध की चिकनाई देखकर, गाढ़ापन देखकर ही बता देते हैं कि इसमें इतना घी निकलेगा इसमें इतना । तो ऐसे ही प्रत्येक जीव में परमात्मस्वरूप बसा है । कहाँ यहाँ वहाँ दौड़ते? कहाँ अनेक रूपों में परमात्मा की कल्पना करते? अरे परमात्व तत्त्व तो हमारे स्वरूप में बसा हुआ है, उसकी सुध लें तो वीतराग सर्वज्ञ देव की मुद्रा निरखकर सुध लेते रहें, क्योंकि उनका परमात्मस्वरूप प्रकट हो गया, इसीलिए देवदर्शन है ।
237―परमात्मतत्त्व के प्रसाद का उपाय―परमात्मतत्त्व खुद में खुद के प्रयोग से प्रकट होगा । उसे कोई दूसरा प्रकट करने न आवेगा । हां तो जैसे दूध में घी बसा है वैसे ही सब जीवों में परमात्मस्वरूप बसा है और परखने वाले परख भी लेते हैं कि इसमें इतना घी निकलेगा । तो जैसे पारखी दूध में घी की परख कर लेते ऐसे ही पारखी ज्ञानी जीव इन प्राणियों में उस सहज परमात्मस्वरूप की परख कर लेते हैं । उसकी परख का उपाय क्या है? जैसे दूध में घी की परख का उपाय क्या है? दूध ही तो है ना? ऐसे ही जीव में उस परमात्मतत्त्व की परख का उपाय क्या है? असहयोग और सत्याग्रह । ये दो उपाय बनाने हैं? असहयोग किससे? जो अनात्मतत्त्व हैं, जो मेरे स्वरूप नहीं, स्वभाव नहीं, जो मेरे से भिन्न द्रव्य हैं वे सब अनात्मतत्त्व हैं । उन अनात्मतत्त्वों से उपेक्षा करें । बाह्य तो बाह्य हैं । कौन किसका क्या? जैसे बताया था कि पिता ने यह भ्रम कर लिया पुत्र पर कि यह पुत्र मेरा कहना मानता है, मेरे कहने के अनुसार चलता है । मेरे कहे बिना एक कदम भी यहाँ-वहाँ नहीं रखता, इतना बड़ा आज्ञाकारी यह हैं, जब यह भ्रम बना तो उसके प्रति आकर्षण बना, ममता बनी, फिर एकरूप मान लिया कि जो यह है सो मैं हूँ । और यह धारणा कर लिया कि यह ही मेरा प्राण है और वास्तविकता क्या है? पुत्र इसलिए आज्ञा मानता कि वह जानता है कि यदि हम इनकी आज्ञा में रहेंगे, विनय में रहेंगे तो बड़े आराम में रहेंगे । ये हमको सब प्रकार से सुखी रखेंगे । उस पुत्र को आज्ञाकारी देखकर पिता कुछ कल्पनायें करके यह सोचता है कि इस बेटे के ही कारण सुखमय हैं । यह रहेगा । तो मुझे बड़ी शांति है । इस तरह की भीतर में कल्पना कर रखी है, क्योंकि पुत्र को उसने अधिक महत्व दिया । पिता अपने पुत्र के प्रति क्यों इतना अधिक काम करता कि उसने यह कल्पना कर लिया कि इसकी वजह से ही मेरा ठीक जीवन रहेगा । बस इस भाव से, इस कल्पना से प्रेरित होकर वह ऐसी चेष्टा करता है । प्रत्येक जीव अपने-अपने भावों से अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं । कोई किसी दूसरे के परिणमन में अपना परिणमन नहीं बनाया करता । जब जगत की यह स्थिति है, होता स्वयं जगत परिणाम वाली बात है तो फिर उसके किस जगह मोह रहना चाहिए? कौन मेरा है? जब यह स्वतंत्र सत् अपना विदित होता है तो मोह टूट जाता है । वह मोह टूटना चाहिए, सफाई आनी चाहिए तब परमात्मस्वरूप के दर्शन होंगे । हम परमात्मस्वरूप को अपने हृदय में विराजमान करना चाहें, उस स्वरूप को हम अपने उपयोग में बसाना चाहें तो भला बतलाओ यहाँ अगर कोई बड़ा आदमी या कोई बड़ा अफसर घर में आता है तो कितना घर की सफाई करते, सजावट करते, तो फिर जहाँ सर्वोच्च प्रभु जिससे बढ़कर कोई नहीं, ऐसे उस परमात्मस्वरूप को बिठाना चाहें तो हमको अपने हृदय की कितनी सफाई करनी होगी? अगर किसी के प्रति द्वेष का भाव पड़ा है? तो उस आसन पर परमात्मस्वरूप विराजमान न होगा । आप कितना भी बोलें, मगर परमात्म तत्त्व यहाँ न बसेगा । अगर परमाणु मात्र के प्रति भी यह मेरा है ऐसी राग भरी श्रद्धा बनेगी तो वहाँ परमात्मस्वरूप न बसेगा, उसके लिए एक इतना फकीराना आना चाहिए कि बस यह तो मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ । इस मुझ का जगत में कहीं कुछ है नहीं । एक अगर अमृत का घूंट पीना है, ज्ञान में ज्ञान स्वरूप को बसाकर एक अद्भुत आनंद पाना है, कर्मो की बेड़ी काटना है, जन्म मरण के दुःख मेटना है, तो क्या करना चाहिए कि जो शांत स्वरूप है, आनंदमय है, स्वयं ज्ञान स्वरूप है, ऐसा जो निज परमात्मा है उसकी आराधना करना चाहिए ।
238―संसार के संकटों को मेटने के लिये धर्म में प्रीति बढ़ाने का सुझाव―देखो धर्म में लगने में कुछ कष्ट होता है तो वह बतलाओ जरा कि यहाँ जो कीड़ा मकोड़ा, कुत्ता, गधा, सूअर आदिक जो कष्ट उठा रहे हैं उससे भी अधिक कष्ट है क्या धर्म में लगने में? एक इसी बात का निर्णय करो । जिसको इस ही जीवन में परपदार्थों में मोह करके जो अनेक विपत्तियाँ आती हैं, कठिन से कठिन विपत्तियाँ, बड़े से बड़े फसाव बताओ उन दुःखों से भी अधिक दुःख है क्या प्रभुभक्ति में, देवदर्शन में, अभक्ष्यत्याग में, पूजन भजन करने में, जाप देने में, क्या उससे भी अधिक कष्ट है जो जन्म मरण पाते रहते हैं अनेक-अनेक कुयोनियों में । खूब सोच लो । अगर इन सारे संकटों से अपने को दूर करना है तो धर्म में प्रीति रखो । धर्म की धुन रखो, सत्संग में स्वाध्याय में रहो, विनयरूप से रहो । और इस अभिमान को अगर गलाना है तो छोटों का विनय करके एक प्रयोग बनाओ, अभिमान गल जायेगा । यह अभिमान एक ऐसा आड़े पर्वत आया है कि जिसके भीतर घुसा हो तो सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन न हों । और फिर जो हमारा इतना बड़ा शत्रु है अहंकार, अभिमान, उस शत्रु को किसी भी प्रकार बने, मिटायें । व्यावहारिक सुगम उपाय गर्व मिटाने का देखो―गर्व मिटता है छोटों का विनय करके । जरा अपनी आदत बदलिए । जो एक अभिमान करने की आदत बनी है उसको बदल दें । सब जीव एक समान हैं । सबमें अपने समान वह आनंदस्वरूप देखें, सब एकस्वरूप हैं । मैं वह हूँ जो हैं भगवान । ऐसी ही सबकी बात है । सब वह हैं जो हैं भगवान । स्वरूप दृष्टि से देखे, अवस्था की बात नहीं कह रहे, ऐसा निहारकर उस अहंकार को दूर करें विनय गुण से । सत्संग करके, स्वाध्याय करके अपने आपमें अपने स्वरूप का अनुभव करके ।
239―भ्रम त्यागकर सहजस्वरूप के अनुभव का आनंद लेने का अनुरोध―अगर शाश्वत सहज आनंद चाहते हैं तो अनादिकाल से जो इस मोह का स्वाद लिया जा रहा है उसको छोड़े और जो ज्ञानियों का रोजगार है ऐसा जो एक यह ज्ञानस्वरूप सहजपरमात्मस्वरूप भगवत्स्वरूप, भगवान निज अंतस्तत्त्व है उसका स्वाद लीजिए, ज्ञान का स्वाद लीजिए । ज्ञान का तो स्वाद हम आप सभी जीव प्रति समय लेते हैं पर मान नहीं रहे और मान रहे यह कि ज्ञान में जो बात आयी है, जो ज्ञेय आया है उसका स्वाद मान रहे । ज्ञेय का स्वाद कोई ले ही नहीं सकता, परपदार्थ का स्वाद कोई ले नहीं सकता । परद्रव्य गुणपर्याय मेरे में एक हो गया? ले रहे स्वाद ज्ञान का ही । जब आप भोजन करते हैं, तो बताओ―वहाँ आप मिठाई का स्वाद ले रहे या ज्ञानका, मिठाई का स्वाद नहीं ले रहे । स्वाद ले रहे ज्ञान का, मगर यह खबर नहीं है, और ज्ञान में जो ज्ञेय पदार्थ आ रहे हैं उस बाह्य अर्थ की ओर मार्जारदृष्टि हैं, जो निज में स्वरूप बसा है उसे छोड़कर, उपयोग द्वारा लाँघकर उस ज्ञेय पर दृष्टि बनी है इसका स्वाद आ रहा ऐसी मान्यता बनी है, बस यह अज्ञान में मान रहा यह अज्ञानी स्वाद परवस्तु का और स्वाद ले रहा खुद का । जैसे कुत्ता हड्डी चबाता है तो हड्डी चबाने से उसके मसूड़े फूटते हैं जिससे खून निकलने लगता है । वह एकतान होकर उस हड्डी को चबाता है, पर स्वाद लेता है अपने ही खून का । इसका उसे ज्ञान नहीं । वह समझता है कि हमें तो हड्डी का स्वाद आ रहा । मान लो वह हड्डी न चबाकर काठ या पत्थर चबाये तो क्या उसे ऐसा स्वाद न आयेगा ? अरे स्वाद उसे किसी बाहरी पदार्थ का नहीं मिलता क्योंकि स्वाद तो खुद के ही खून का मिल रहा है । तो उसे जैसे वह कुत्ता खुद के मसूड़ों के खून का ही स्वाद ले रहा, मगर मानता कि हम हड्डी का स्वाद ले रहे, ठीक ऐसी ही स्थिति अज्ञानी जीवों की है । वे स्वाद तो ले रहे अपने ज्ञान विकल्प का, पर मानते हैं कि हमें इन पौद्गलिक चीजों का स्वाद आ रहा, हमें इन पंचेंद्रिय के विषयों का स्वाद आ रहा । इस भ्रम के कारण ये विषयों की ओर आकर्षित है और अपने आपके ज्ञान को ये भूले हुए हैं । तो करना क्या है आनंद के लिए? भीतर में ज्ञानप्रकाश करके भ्रांति को बदलना है । इतना भर काम करना है । कोई बड़ा काम है क्या? अरे बड़ा काम कुछ नहीं है । तब फिर कैसे बदलें? समझ लो मैं आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप हूँ । अपने में अपना सर्वस्व रखता हूँ, मेरा दूसरे पदार्थ से कोई वास्ता नहीं है, ऐसा एक अपने आपमें अपना एकत्व विचारे, ध्यान में लायें । मैं अपने आपके ज्ञान का ही अनुभव करता हूँ । उसमें से वह विपाक वह रागद्वेष यह विकल्प परपदार्थों के वे ख्याल उन सबको निकाल दें । चीज तो वही की वही है । ज्ञान तो निरंतर करता रहता है यह जीव, मगर जो कल्पना जगी, जो बाह्य पदार्थ की ओर अभिमुख हुआ वहाँ भी उसके अनुकूल उस प्रकार के ज्ञान ज्ञान का ही स्वाद तो हो रहा । अब उसमें से विषमता निकाल दें, ज्ञान ज्ञान का ही स्वाद रहे तो उसे परमात्मस्वरूप के दर्शन होंगे । वह एक निराकुल अवस्था प्राप्त होगी । अपने आपमें बसे हुए इस परमात्मतत्त्व को न जानने के कारण संसारी जीवों की यह हालत हो रही है ।
240―आत्महित के उपाय में चलने का दृढ़ निश्चय करने का अनुरोध―आज दो में से कोई एक निर्णय बना लीजिये । क्योंकि संसार की विविध इन गतियों में योनियों में, नाना प्रकार के देहों में जन्म मरण करते रहना है, या फिर इन सबसे छुटकारा प्राप्त करना है । तो शायद संसार में नाना योनियों में जन्म मरण करना तो कोई स्वीकार न करेगा, मगर यह निर्णय अभी तक इस जीव ने नहीं किया । अब तो अपना एक निर्णय बना लो कि मुझे तो किसी भी प्रकार इन बाहरी बेकार असार विकल्पों से हटकर इस ज्ञानानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व में मग्न होना है, धर्म करना है । धर्म करने का निर्णय बनाओ या फिर संसार की इन दुर्गतियों में जन्म मरण करते रहने का निर्णय बनाओ । ये दो ही चीजें हैं । यह सारा संसार दुःखमय है । इससे हटने में ही भला है । अपना स्वरूप देखें और अपने को केवल एक ज्ञानमात्र रूप में निरखें । ज्ञानमात्र के अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं, कोई भुलावे तो, जरा भी न हिलें डुलें कि मेरा यह काम है । मैं तो एक ज्ञानमात्र स्वरूप हूँ । ऐसी दृढ़ता बनावें कि जीव अपने आपमें विहार करेगा । वह अपने आपमें एक परम ऐश्वर्य के दर्शन करेगा, ईश्वर स्वरूप का दर्शन करेगा, उसे साक्षात् मालूम होगा कि ईश्वर का यह स्वरूप है, स्वाद लें ज्ञानपरिणति का और निर्णय रखें कि इस ज्ञायक स्वरूप अंतस्तत्त्व के सिवाय जितना बाह्य संबंध है उससे मेरा कोई संबंध नहीं, यह देह भी मेरे से अत्यंत निराला है । मैं तो हूँ एक ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व ।